रविवार, 13 सितंबर 2009

विश्व चाहे या न चाहे

विश्व चाहे या न चाहे
लोग समझे या न समझे
आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे ।

हर नजर गमगीन है , हर होठ ने धुनी रमाई,
हर गली वीरान जैसे बेवा की हो कलाई ,
खुदखुशी कर मर रही है रोशनी तब आंगनों में
कर रहा है आदमी जब चाँद तारों पर चढाई ,
फिर दीयों का दम न टूटे
फिर किरण को तम न लुटे
हम जले हैं तो जग को जगमगा कर ही उठेंगे
विश्व चाहे या न चाहे ....

हम नहीं उनमे हवा के साथ जिनका साज बदले
साज़ ही केवल नही आवाज़ औ अंदाज़ बदले
उन फकीरों सिरफिरों के हमसफ़र हम , हमउम्र हम ,
जो बदल जाए तो अगर तो तख्त बदले ताज बदले
तुम सभीकुछ काम कर लो ,
हरतरह बदनाम कर लो ,
हम कहानी प्यार की पूरी सुनाकर ही उठेंगे
विश्व चाहे या न चाहे ...

नाम जिसका आंक गोरी हो गई मैली स्याही
दे रहा है चाँद जिसके रूप की रोकर गवाही
थाम जिसका हाथ चलना सीखती आंधी धरा पर
है खना इतिहास जिसके द्वार पर बनकर सिपाही

आदमी वह फिर न टूटे
वक्त उसको फिर न टूटे
जिंदगी की हम नई सूरत बनाकर ही उठेंगे
विश्व चाहे या न चाहे ...
हम न अपने आप ही आए दुखों के इस नगर में
था मिला तेरा निमंत्रण ही हमें आधे सफर में
कितु फिर भी लौट जाते हम बिना गाये यहाँ से
जो सभी को तू बराबर तौलता अपनी नजर में ,
अब भले कुछ भी कहे तू
खुश की या नाखुश रहे तू ,
गाँव भर को हम सही हालत बताकर ही उठेंगे ।
विश्व चाहे या न चाहे ...

इस सभा की साजिशों से तंग आकर ,चोट खाकर
गीत गाये ही बिना जो हैं गए वापिस मुसाफिर
और वे जो हाथ में मिजराब पहिने मुश्किलों की
दे रहे हैं जिंदगी के ताज को सबसे नया स्वर
मौर तुम लाओ न लाओ ,
नेग तुम पाओ न पाओ ,
हम उन्हें इस दौर का दूल्हा बनाकर उठेंगे
विश्व चाहे या न चाहे

रविवार, 19 अप्रैल 2009

आजकिसी को ......

आज किसी को नजर आती नहीं कोई दिवार
घर की हर दीवाल पर चिपके हैं इतने इस्तहार
आप बचकर चल सके ऐसी कोई सूरत नही
रहगुजर घेरे हुए खणे हैं बेसुमार

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

बुलबुल ने गाना छोड़ दिया

आतंरिक सुरक्षा के डर से , बुलबुल ने गाना छोड़ दिया
गोरी ने पनघट पर जाकर , गागर छलकाना छोड़ दिया
अब कौन संभालेगा घर की , इन गिरती हुई दीवारों को
लगता है आने वाला है,मौसम फिर से अंगारों का

अब रस का रास कहाँ होता , है नाटक नित तलवारों का
फूलों की आँखों में आंसू , उतरा है रंग बहारों का
लगता है आने वाला है , मौसम फिर से अंगारों का

काँटों के झूठे बहुमत से , हर सच्ची खुसबू हार गई
जो नही पराजित हुए ,उन्हें मलिन की चितवन मर गई
हो गया जवानी में बूढा , सब यौवन मेघ मल्हारों का
लगता है आने वाला है ,मौसम फिर से अंगारों का

रविवार, 11 जनवरी 2009

समाज और बाजार

नए वर्ष पर विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय लोगो के लोकप्रियता जानने के लिए मीडिया द्वारा कई प्रतियोगिताएं का आयोजन किया गया । हिंदुस्तान दैनिक ने इसी तरह के एक प्रातियोगिता में चुने गए लोगों की एक सूची प्रकाशित की । सूची देखर आश्चर्य हुआ । साहित्य जगत की श्रेणी में ऐसे लोगों का चयन किया गया जो परपरागत अर्थों में साहित्यकार कहे ही नही जा सकते । शायद आपने भी उस सूची को देखा हो । सूची देखकर लगता था कि साहित्यकारों का चुनाव भी समाज के बजाय बाज़ार की ताकतें कर रही हैं । यानी अब यहाँ नहीं महत्वपूर्ण रहा गया है की आमलोगों की भाषा में आम लोगों की समस्याएं उठाई जायें । जरुरी यहाँ है की आप साहित्यकार के नाते अभिजन वर्ग को रास आने वाली चीजें परोस सकने की चमता रखते हैं अथवा नहीं । अच्छे साहित्यकार होने का एक मतलब यह भी है की आप बाज़ार को चला रहे हों अथवा बाजारू आइकन हो । हिन्दुस्तान दैनिक द्वारा चुने गए साहित्यकारों में अरविन्द अडिग और नंदन नीलकेनी का चुना जन यही इंगित करता है कि बाज़ार साहित्य और समाज दोनों पर भरी पण रहा है । मीडिया द्वारा ऐसे बाजारू साहित्यकारों को साहित्य जगत का पुरोधा बताना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा ।