शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

इन दलालों को सूली पर चढाओ

ऐसे प्रश्न मत पूछिए। वह सहेगी क्योंकि वह भ्रष्टाचारियों को चुनती है। जिस दिन उसने चुनना बंद कर दिया, उस दिन किसी गांधी और जेपी को व्यथित होने की जरुरत नहीं पडेगी। हम भ्रष्टाचारियों को सूली पर चढाने की बात क्यों करते हैं, जनता को क्यों नहीं चढाते? असल गुनाहगार तो वही है। ”
भारतीय आमआदमी के बारे में यह विचार आईबीएन-7 के प्रबंध संपादक और इलेक्ट्रानिक मीडिया के क्षेत्र में एक बहुपरिचित चेहरे आशुतोष के हैं। उन्होंने दैनिक भास्‍कर के 6 दिसम्बर के राष्ट्रीय संस्करण में ‘ इस जनता को सूली पर चढाओ ‘ नामक एक आलेख में यह विचार व्यक्त किए हैं। आशुतोष आम आदमी के बारे में जिस लहजे का प्रयोग कर रहे हैं और जिस दृष्टिकोण की वकालत कर रहे हैं, वह अभारतीय होते हुए भी नया नहीं हैं। आम आदमी के प्रति यह दृष्टिकोण औपनिवेशिक शासनकाल की देन है। भारतीयों को हेय समझने और अपने निर्णय लेने में अक्षम मानने की मानसिकता मूलत : ब्रिटिश शासकों की मानसिकता थी। लार्ड कर्जन की भारतीयों के प्रति 1905 में की गयी अपमानजन टिप्पडी इस मानसिकता पहली बडी अभिव्यक्ति मानी जा सकती है। लार्ड कर्जन ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए कहा था कि सत्य आम भारतीय का आदर्श कभी भी नहीं रहा है। विन्सटन चर्चिल ने भी भारतीयों के बारे में ऐसी ही राय व्यक्त की थी। उनका मानना था कि लोकतंत्र के लिए भारतीय उपयुक्त नहीं है। विन्सटन चर्चिल ने कहा कि भारतीय मीठी जुबान और तंगदिल वाले आदमी हैं। वे सभी सत्ता के लिए लडेंगे और इस तकरार में भारत अपना राजनीतिक अस्तित्व नहीं बचा पाएगा।
भारतीयों को हेय और अक्षम मानने की मानसिकता का रिसाव रायसाहबों और रायबहादुरों से होते हुए अब सत्ता की मलाई खाने के लिए लार टपकाने वाले बुद्विजीवियों तक हो गया है। वास्तव में आशुतोष जैसे बुद्धिजीवी कर्जन और चर्चिल के विचारों से अभी तक संक्रमित हैं। आम भारतीय को हेय और अक्षम माननेवाले आशुतोष के इस विचार को एक व्यक्तिगत विचार के बजाय समाज के एक वर्ग के विचार के रुप में देखा जा सकता है, देखा जाना चाहिए। कुछ अपवादों को छोडकर यह भारतीय अभिजन वर्ग का दृष्टिकोण है और नए उदारवादी -बाजारवादी मीडिया का भी।
आशुतोष ने यह विचार हाल मे देश में बडे पैमाने पर सामने आए भ्रष्टाचार के मामलों और इसमें पत्रकारों की भूमिका के संदर्भ में व्यक्त किए है। वह इस आलेख के जरिए भ्रष्टाचार और लोकतंत्र में फैली सभी कमियों का ठीकरा आम आदमी के सिर पर फोडकर मीडिया और मार्केट को बेदाग साबित करने की कोशिश कर रहे है। लेकिन जनता को कटघरे में खडा करने के चक्कर में उन्होंने भारतीय लोकतंत्र से जुडे कुछ मूलभूत तथ्यों और महत्वपूर्ण पर घटनाओं की अनदेखी कर दी है। आशुतोष भूल जाते है कि लोकतंत्र की लडाई सबसे ज्यादा इसी आम आदमी ने लडी है और अब भी लड रहा है। आपातकाल के दौरान जब अभिजनवादी मीडिया राजसत्ता के सामने दंडवत हो रही थी, कई बुद्धिजीवी आपातकाल को जायज ठहराने वाले रक्तपत्र प्रधानमंत्री कार्यालय को भेज रहे थे ;आपातकाल के दौरान देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के कई प्रोफेसरों और कानूनविदों ने अपने खून से प्रधानमंत्री को खत लिखकर आपातकाल को जायह ठहराया थाध्द, तब इसी आम आदमी ने लोकतंत्र की सफल लडाई लडी। सत्ता परिवर्तन कर यह साबित किया कि उसमें लोकतंत्र की वास्तविक समझ है। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जनता ने पहली बार भारतीय लोकतंत्र को अपनी बपौती मानने वाले दलों और व्यक्तियों को सबक सिखलाया।
आशुतोष इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि लोकतंत्र के महापर्व कहे जाने वाले आमचुनावों में इस आम आदमी की सहभागिता बुद्धिजीवियों और शिक्षित लोगों से ज्यादा होती है। आज भी चुनावों के दौरान नोयडा,गुडगांव, दिल्ली मुम्बई की पढे-लिखे,संपन्न लोगों के ‘पॉश कालोनियों’ का मतप्रतिशत 20 फीसदी से अधिक नहीं होता। ऐसे दौर में आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से सबसे पिछडे माने जाने वाले बीमारु राज्यों में आमआदमी औसतन 60 फीसदी मतदान करता है।
आशुतोष को आमजनता को फांसी पर चढाए जाने का फरमान जारी करते समय पडोसी देशों में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन कर लेना चाहिए था। भारत के साथ स्वतंत्र हुए अधिकांश देशों में लोकतंत्र ने या तो दम तोड दिया है या लहूलुहान है लेकिन तमाम विकृतियों की बावजूद भी भारत में लोकतंत्र की जडें गहरी हुई हैं। लोकतंत्र की इस सफलता का श्रेय आम आदमी को ही जाता है। लोकतंत्र की जडों को सींचने में सबसे बडी भूमिका इस ‘ सूली पर चढने वाले ‘ आम भारतीय की है।
इस बयान के जरिए बाजारवाद से नियंत्रित, सत्ता की मलाई खाने को लालायित, अभिजन बुद्धिजीवियों के विचारों और दृष्टिकोणों में निहित अंतर्विरोध,खोखलापन और दिखावटी सामाजिक प्रतिबध्दता भी हमारे सामने आती है। आशुतोष अपने आलेख में गांधी और जेपी का नाम लेकर भ्रष्टाचार का ठीकरा जनता के सिर फोडना चाहते हैं। आशुतोष का गांधी अथवा जेपी के विचारों से कुछ भी लेना देना नहीं है। कांस्टीटयूशन क्लब में प्रसिध्द पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में आशुतोष ने खुले मंच से कहा था कि वर्तमान भारत में गांधी के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, गांधी अब प्रासंगिक नहीं रह गए है। उनके इस बयान के बाद उस पत्रकार गोष्ठी में हंगामा मच गया। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को यह बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने आशुतोष के आगे बोलने पर आपत्ति जतायी।
वही आशुतोष यहां पर गांधी और जेपी की दुहाई दे रहे हैं। आशुतोष यह भूल जाते है कि गांधी और जेपी के आंदोलन आम आदमी की आराधना से अधिक कुछ भी नहीं थे। गांधी जी भारत में सार्वर्जनिक जीवन में सक्रिय होने से पहले 1914 से लेकर 1918 तक भारत -भ्रमण करते रहे और उन्होंने कहा कि इस यात्रा के दौरान मैंने आम भारतीय से बहुत सीखा । उन्होंने कहा कि भारतीयता की धडकन आम आदमी में ही महसूस की जा सकती है।जेपी का आमजनता के विवके पर पूर्ण विश्वास था इसीलिए उन्होंने ‘लोकसम्प्रभुता’ के सशक्तीकरण पर सर्वाधिक जोर दिया। आशुतोष इस तथ्य की भी अनदेखी कर रहे हैं कि गांधी और जेपी के दौर की जनता आज के दौर की जनता आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछडी थी फिर भी उसने बढचकर आंदोलनों में भाग लिया और देश की दिशा और दशा को बदलने में अहम भूमिका निभायी।
आशुतोष के यह विचार इलेक्टा्रनिक मीडिया की तार्किक अवसरवादिता के तरफ भी संकेत करते हैं । ‘येस बास ‘से लेकर ‘राखी का स्वयंवर ‘या ‘भूत प्रेत के समाचारों को दिखाने के लिए इसी मीडिया के लोग यह तर्क देते हैं कि जनता जो देखती है वही हम दिखाते है। जनता विवकेशील है उसे पता है कि क्या देखना है और क्या नहीं। लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इसी मीडिया के लोग आमजनता को फांसी पर चढाने का फरमान जारी कर रहे हैं।
आशुतोष के तर्को पर बाजार इस कदर हावी है कि वह पश्चिमी लोकतंत्र की संरचना को गढने वाले सर्वाधिक लाकप्रिय नारे का संदेश भी भूल जाते है। पश्चिम में लोकतंत्र की लडाई ‘ वाक्स पापुली, वाक्स डाय अर्थात जनता की आवाज ईश्वर की आवाज है, के नारे के आधार पर लडी गयी थी। आशुतोष उसी जनता को फांसी पर चढाने की वकालत करते हैं।
आशुतोष भ्रष्टाचार के लिए आमजनता को दोषी ठहरा रहे हैं क्योंकि वह भ्रष्टाचारी जनप्रतिनिधियों को चुनती है। वह भूल जाते हैं कि गंगा के प्रदूषित होने का मतलब गंगोत्री का प्रदूषित होना नहीं है। और गंगा की सफायी के लिए गंगोत्री के अस्तित्व को नष्ट करना जरुरी नहीं है। उसके लिए कानपुर से लेकर कोलकाता तक जो गंदगी गंगा में डाली जाती है, उसको रोकने की जरुरत है। इसी तरह भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जनता को फांसी पर चढाने की जरुरत नहीं है। भ्रष्टाचार को सर्वाधिक बढावा सत्ता के गलियारों में सक्रिय दलाली बौद्धिकता देती है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में जनता ने कई बार भ्रष्टाचारियों को सिंहासन से नीचे पटका है। बोफोर्स के बाद राजीव गांधी का सत्ता से बाहर जाना और लालू के बाद नीतीश को मिली शानदार चुनावी सफलता इस बात का संकेत है कि जनता भ्रष्टाचारियों को नहीं चुनती। लेकिन वह जिनको ईमानदार मानकर चुनती है उनको सत्ता के गलियारे में सक्रिय लोग ही भ्रष्ट बना देते हैं। यह दलाली बौद्धिकता ईमानदार को वैसे ही भ्रष्ट बनाते हैं जैसे गंदे नाले गंगोत्री से प्रवाहित शुध्द गंगाजल को प्रदूषित कर देते हैं।
आज भी तमाम अटकलों का धत्ता बताते हुए आमजनता अपना निर्णय जिस तरह से सुना रही है वह राजनीतिक भविष्यवक्ताओं के लिए एक रहस्य से कम नहीं है। हर हेकडी का जवाब जनता बहुत चुपचाप ढंग से दे देती है। भ्रष्टाचार का उत्तर भी उसने कई बार मतपत्रों के जरिए दिया है। लेकिन दलाली बौद्धिकता हर बार जनता के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को सफल नहीं होने देती। वह नए ईमानदार लोगों को अपने फंदों में फंसाकर, प्रलोभन देकर भ्रष्टाचारी बनने का अवसर मुहैया कराती है। लगता है कि इस दलाली बौद्धिकता का शिकार अब मीडिया का एक वर्ग भी हो गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई अब न्यायपालिक, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका तक सीमित नहीं रही गयी है, अब इस घुन ने मीडिया को भी खोखला करना शुरु कर दिया है। जनता को लोकतंत्र के अन्य खम्भों के सामान इस स्वयंभू चौथे खम्भे में सक्रिय दलालों के खिलाफ भी कमर कसने का समय आ गया है।
भ्रष्टाचार का समाधान जनता को सूली पर चढाने से नहीं होगा। भ्रष्टाचार से मुक्ति तो तभी मिल सकती है जब जनता को फांसी पर चढाने की वकालत करने वाली दलाली बौद्धिकता और उसके पैरोकारों को सरेराह फांसी पर लटकाया जाय। सच मानिए ! यदि जनता ने ऐसा करना शुरु कर दिया तो देश को घुन की तरह चाटकर खोखला करने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी महाअभियान की सफलता सुनिश्चित हो जाएगी।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ ------ जयप्रकाश सिंह

गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है बल्कि यह व्यवस्था की एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी स्थिति, जब सत्य और असत्य के बीच आमना-सामना अवश्यम्भावी बन जाता है। इस स्थिति में पूरी व्यवस्था व्यापक बदलाव के मुहाने पर खडी होती है।
असात्विक शक्तियों की चालबाजियों, फरबों और तिकड़मों से आम आदमी कराह रहा होता है। अभिव्यक्ति में असत्य हावी हो जाता है। परम्परागत सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं में सडांध इस कदर बढ़ चुकी होती है कि अपने हितों के लिए मूल्य एवं आदर्श को ताक पर रखना सहज व्यवहार बन जाता है। राज और समाज को संचालित करने वाली शक्तियां इतनी मदमस्त हो जाती है कि उनके खिलाफ ‘लो इन्टेंसिटी वार’ अप्रासंगिक हो जाता है।
लेकिन इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वह यह कि सात्विक शक्तियां असात्विक शक्तियों की चुनौती को ताल ठोंककर स्वीकार करती हैं। इस कारण प्रत्यक्ष संघर्ष अपरिहार्य बन जाता है। दोनों पक्षों को एक-दूसरे के खिलाफ शंखनाद करना पडता है। चूंकि यह संग्राम धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जाता है इसलिए जिस भूमि पर सेनाएं डटती हैं, वह धर्मभूमि बन जाती है । इस स्थिति की एक विशेषता यह भी है कि अपने तमाम अच्छे आग्रहों के बावजूद संचार और संचारक (मीडिया और पत्रकार) असात्विक शक्तियों के पाले में ही खडे दिखायी देते हैं और उनकी भूमिका मात्र आंखो देखा हाल सुनाने तक सीमित हो जाती है।
भारत जिस कालखण्ड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युद्ध का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर सम्पूर्ण भारत है। एक लम्बी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इस बिन्दु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले कई सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जिजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। 17वीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे।
18वीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परम्परा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने का एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोडा। 1990 के बाद मीडिया-मार्केट गठजोड के कारण लोगों में तेजी से रोपी जा रही उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण भारतीयता पर आक्रमण का एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल गया।
मीडिया-मार्केट गठजोड का भारतीयता से आमना-सामना अवश्यम्भावी था क्योंकि भारतीयता त्यागपूर्वक उपभोग के जरिए आध्यात्मिक उन्नति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कहती है जबकि दूसरा पक्ष उपभोग को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है और अंधाधुध उपभोग पर आधारित जीवन-शैली को बढावा देता है। भारतीयता पर आक्रमण करने वाले इस त्रिकोण के अन्तर्सम्बंध आपस में बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। कहीं-कहीं तो वे एक-दूसरे पर जानलेवा हमला करते हुए भी दिखते हैं। लेकिन भारतीयता से इन तीनों को चुनौती मिल रही है। इसलिए इस त्रिकोण ने भारतीयता की समाप्ति को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया है।
इस अभारतीय त्रिकोण के उभार के कारण संघर्ष की प्रकृति और त्वरा में व्यापक बदलाव दिखने लगे हैं। पहले दोनों पक्षों के बीच अनियोजित अथवा अल्पयोजनाबद्ध ढंग से विभिन्न मोर्चों पर छोटी-मोटी लडाईयां होती रही हैं। अब सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से भारतीयता पर आक्रमण हो रहे हैं और उसके अस्तित्व को समाप्त करने प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीयता की वाहक शक्तियां भी चुनौती को स्वीकार करने का भाव जता रही हैं इसलिए अब महासंग्राम का छिडना तय सा दिख रहा है।
पिछले दो-तीन वर्षों सें हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को रोपने का जो प्रयास किया जा रहा है और उसका जिस तरह से प्रतिवाद हो रहा है, वह भावी महासंग्राम का कारण बन सकता है। हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा अभारतीय शक्तियों का एक व्यवस्थित और दूरगामी प्रयास है। पश्चिम में तेजी से फैल रही आध्यात्मिकता तथा उदात्त और समग्र भारतीय जीवनशैली की बढ़ती स्वीकार्यता से भयभीत अनुदार सभ्यताएं इस अवधारणा के जरिए वस्तुतः उपभोक्तावादी जीवनशैली और पूंजीवादी दर्शन के लिये सुरक्षा कवच तैयार करना चाहती हैं।
योग और आयुर्वेद के प्रति सम्पूर्ण दुनिया की नई पीढी का आकर्षण बढ़ रहा है। इसी तरह अनेक संस्थाएं और संत पश्चिम में आध्यात्मिकता की अलख जगा रहे हैं और वहां नई पीढी इस ओर तेजी से आकर्षित हो रही है। इस आकर्षण भाव के चलते भारतीयता विरोधी त्रिकोण के हाथ-पांव फूल गए है। भारतीय दर्शन की यह स्वीकार्यता जहां एक ओर चर्च की वैचारिक जड़ता और अवैज्ञानिकता को रेखांकित करती है वहीं पूंजीवादी दर्शन पर भी कठोर प्रहार करती है।
योग और आयुर्वेद केवल रोगमुक्ति नहीं देते बल्कि जीवन-शैली बदलने के लिये भी प्रेरित करते हैं। इसके साथ शाकाहार आता है, संयम आता है, सादगी आती है, व्यसनमुक्ति आती है। जैसे-जैसे यह सदगुण बढ़ते हैं, मनुष्य का रोग ही नहीं घटता, भोग की प्रवृत्ति भी घटती है। इसका सीधा असर उपभोक्तावाद पर आधारित पूंजीवाद पर होता है। इसलिये पूंजी और उपभोग पर आधारित जीवनशैली के उपासक योग और आयुर्वेद का गला उसके घर में ही घोंट देना चाहते हैं। इसके लिये वे अपनी आर्थिक-राजनैतिक-सामरिक शक्तियों का भरपूर उपयोग करते हैं। भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों में जमे उनके प्रतिनिधि उनके इस खेल के मोहरे बनते हैं।
भारतीयता की छवि को संकीर्ण और कट्टर पेश कर यह त्रिकोण उसके प्रति तेजी से पनप रहे आकर्षण भाव को भंग करना चाहता है। हिन्दू आतंकवाद का नया शिगूफा छोडकर इस त्रिकोण ने भारतीयता की ध्वजवाहक शक्तियों को भारत में ही घेरने की रणनीति बनायी है। वे जानते हैं कि जब तक यहां का समाज बिखरा और बंटा रहता है, उन्हें भारत की धरती पर अपना हितसाधन करने में कोई कठिनाई नहीं होती। संगठित भारतीय समाज उनके लिये चुनौती पेश करता है। इसलिये अगर वे भारत के संसाधनों को निचोड़ना चाहते हैं तो उन्हें पहले भारत की संगठनशक्ति पर चोट करनी होगी। यही कारण है कि देश की राष्ट्रवादी शक्तियां उनके निशाने पर हैं। उनके पिठ्ठुओं द्वारा गढ़े गये भगवा आतंकवाद के निराधार जुमले का निहितार्थ यही है। सत्ता और मीडिया से जुड़े कुछ लोगों और समूहों का यह चीत्कार सत्य का संधान नहीं बल्कि सात समुन्दर पार बैठे आकाओं के सामने अपनी वफादारी साबित करने की कोशिश है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की अतिउत्साही भूमिका भी देखने लायक है। दो वर्ष पहले तक किसी पंथ को आतंकवाद से न जोडने का उपदेश देने वाला मीडिया बिना किसी सबूत और साक्ष्य के हिन्दू आतंकवाद शब्द को बार-बार दोहरा रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि हिन्दू आतंकवाद शब्द को मीडिया के जरिए आम-लोगों से परिचित पहले करवाया गया और उसकी पुष्टि के सबूत बाद में जुटाए जा रहे हैं। एक अवधारणा के रुप में हिन्दू आतंकवाद हाल के दिनों में मीडिया ट्रायल का सबसे बडा उदाहरण है।
सबसे पहले मालेगांव प्रकरण में हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में सांगठनिक स्तर पर अभिनव भारत तथा व्यक्तिगत स्तर पर साध्वी प्रज्ञा का नाम उछाला गया। मालेगांव विस्फोट प्रकरण में मीडिया को तमाम मनगढंत कहानियां उपलब्ध कराने के अतिरिक्त आजतक जांच एजेंसियां कोई ठोस सबूत नहीं इकट्ठा कर पायी हैं। अभिनव भारत जैसे अनजान संगठन को लपेटने पर भी भारतीयता पर कोई आंच आती न देख अब इस त्रिकोण ने भारत और विश्व के सबसे बडे सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू आतंकवाद से जोडने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है। संघ इस त्रिकोण के निशाने पर पहले भी सबसे उपर रहा है। क्योंकि आतंकवाद, धर्मान्तरण और खुली अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के प्रति संघ आमजन को जागरुक करता रहा है। इस कारण पूरे भारत में धीरे-धीरे इस त्रिकोण के खिलाफ एक प्रतिरोधात्मक शक्ति खडी होती जा रही थी ।
अब इन शक्तियों ने संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश, जिन्हें मुसलमानों को भी संघ के कार्य से जोडने के लिए विशेष रुप से जाना जाता है, का नाम अजमेर बम विस्फोट में घसीटा है। यह त्रिकोण इन्द्रेश के नाम को अजमेर बम विस्फोट से जोडकर एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश कर रहा है। इससे जहां एक तरफ त्रिक़ोण के सर्वाधिक सशक्त प्रतिरोधी की राष्ट्रवादी और लोककल्याणकारी छवि को धूमिल किया जा सकेगा वहीं इस्लामिक आतंकवाद के समकक्ष हिन्दू आतंकवाद शब्द खडा कर हिन्दू-मुस्लिम संवाद के एक संभावित धरातल को नष्ट भी किया जा सकेगा।
संघ ने भी इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बन लिया है। संघ ने 10 नवम्बर को पूरे देश में हिन्दुत्व और भारतीयता को बदनाम करने के इस कुत्सित प्रयास के खिलाफ धरना देने का फैसला किया है, आमजनता के बीच जाने का निर्णय लिया है।
इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ जाता है कि क्योंकि संघ ने धरने-प्रदर्शन के पूरे अभियान के सूत्र अपने हाथ में रखे हैं। इससे पहले महात्मा गांधी की हत्या के बाद बेवजह संघ का नाम इससे जोड़ कर उस पर प्रतिबंध लगाया गया तब संघ ने सत्याग्रह किया था। साठ वर्ष बाद यह पहला मौका है जब संघ किसी मुद्दे की बागडोर खुद अपने हाथ मे लेकर आमजन के बीच जा रहा है। धरने-प्रदर्शन का यह अभियान मात्र अभारतीय त्रिकोण को उत्तर देने की तैयारी मात्र नहीं है। एक महासंग्राम की स्थितियां पूरी तरह बन गयी हैं। भारत तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की तरफ बढ रहा है। लेकिन कोई ऐसा संजय नहीं दिखाई दे रहा है जो असत्य के पाले में रहते हुए भी अंधी सत्ता को बीच-बीच में टोक कर उसे सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता रहे और स्थिति की भीषणता की तरफ उसका ध्यान भी आकर्षित करे।