सोमवार, 29 सितंबर 2014

स्वप्निल संसार और विकास की सरपट दौड़

स्वर्ग एक स्वप्निल संसार है। सभी सुख सुविधाओं से युक्त और रोजमर्रा की खटपट से मुक्त  जीवनयापन की एक आदर्श व्यवस्था। स्वर्ग विकास प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति है। स्वर्ग से जुड़ा एक मजेदार तथ्य यह भी है कि सम्पूर्ण मानवता आजतक किसी सार्वभौमिक स्वर्ग का निर्माण नहीं कर सकी है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के आकाश में स्वर्ग के अलग-अलग माॅडल काम करते हैं। धार्मिक साहित्य में स्वर्ग की अलग अलग कल्पनाएं मिलती है। स्वर्गों का तुलनात्मक विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उनकी अंतर्वस्तु में व्यापक भिन्नता है। तिब्बतियों के स्वर्ग में कभी भी ठंड नहीं पड़ती। उनका स्वर्ग एक वातानुकूलित अंतरिक्ष स्टेशन जैसा होता है। भारतीयों के स्वर्ग में शीतल मंद बयार बहती रहती है और स्वर्गवासी जीवों के पास अप्सराओं का नृत्य देखने के अतिरिक्त और कोई काम ही नहीं होता। अरबों के स्वर्ग में विभिन्न लजीज व्यंजन वातानुकूलित परिवेश में उपलब्ध रहते है। स्वर्गांे में यह असमानता भौगोलिक परिवेश के कारण पैदा हुई हैं। सभी स्वर्गाे में भौगोलिक कठिनाइयों के लिए कोई स्थान नहीं होता।

स्वर्ग की कल्पनाएं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से विकास प्रक्रिया की भौगोलिक सीमाबद्वता की तरफ भी संकेत करती हैं। और यह एक सत्य भी है कि विकास के मानक- स्वरुप और उसकी व्यवस्थागत अभिव्यक्ति को लेकर वैश्विक स्तर पर कभी भी सर्वसम्मति नहीं बन पायी है। कालप्रवाह किसी विशेष भूखण्ड के लिए प्रासंगिक विकास माॅडल को किसी अन्य भूखण्ड के लिए व्यर्थ साबित करता रहा है। इसी कारण समाज के व्यवस्थाकारों ने भी विकास की प्रक्रिया में ‘स्थानीयता ’ को एक चरम मूल्य माना और भूखण्ड विशेष में प्रकृति और प्रज्ञा के बीच संवाद से उत्पन्न मूल्यों के आधार पर विकास के स्थानीय पैमाने गढने के प्रयास किए ।

स्थानीयता और विकास माॅडल का यह सहज संबंध बाजारु वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण टूटने के कगार पर पहुंच गया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया को सबसे बड़ी चुनौती स्थानीयता ही पेश करती है। यह चुनौती कभी स्वदेशी के रुप में, कभी भाषा और लोकसंस्कृति के सरंक्षण तथा कभी स्थानीय रोजगार मुहैया कराने के लिए चलने वाले आंदोलनों के रुप में सामने आती है। इसी कारण वैश्वीकरण की प्रक्रिया ‘स्थानीयता’ के तत्व को एकसिरे से नकारने की कोशिश करती है। तथाकथित ‘काॅस्मोपालिटन ंथिंकर’ स्थानीय विशेषताओं और जरुरतों की चर्चा करने से भी परहेज करते हैं। स्थानीयता को संकुचित मानसिकता का पर्याय बनाने की कोशिशें होती हंै। वैश्वीकरण की वर्तमान प्रकिया की यह दृढ मान्यता है कि पूंजी, उत्पाद और सूचना के साथ व्यवस्थाओं का भी आयात-निर्यात किया जा सकता है।  सबल की व्यवस्था सर्वत्र की व्यवस्था बनायी जा सकती है ।

स्थानीयता को हाशिये पर धकेलने की कोशिशें शीतयुद्ध काल से प्रारंभ होती है। पंूजीवाद और माक्र्सवाद दोनों स्थानीय अद्वितीयता के सिद्धांत पर विश्वास नहीं करते। पूंजीवाद उपभोक्तावादी जीवनशैली को रोपने के लिए तो माक्र्सवाद अपनी विचारधारा को थोपने के लिए ‘लोक व्यवस्था’ ढहाते हैं। स्थानीयता से उपजे सांस्कृतिक मूल्यों का संहार करते हैं। लेकिन शीतयुद्ध के दौरान दोनों विचारधाराओं के संघर्षरत होने के कारण स्थानीयता के उन्मूलन की गति मंद थी। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद इस प्रक्रिया ने गति पकडी। माक्र्सवाद को जमींदोज करने के बाद अमेरिका और योरोपीय देश  वैश्विक स्तर पर यह अवधारणा स्थापित करने में एक हद तक सफल रहे कि विकास का एक सार्वभौमिक माॅडल हो सकता है।

 वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के सलाहकारों ने नीतिनियंताओं को समझाया कि उपभोक्तवादी जीवनशैली तथा बाजारवादी व्यवस्था इस विकास के वैश्विक माॅडल के आधार बन सकते है। संरचनागत समायोजन जैसी नीतियों के जरिए राष्ट्रीय सम्प्रभुता का अतिक्रमण किया गया। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अमेरिकी माॅडल को पूरी दुनिया पर थोपने की कोशिश की । लगभग दो दशकों तक इस विकास माॅडल की विसंगतियों के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को बडी सफायी के साथ दबा दिया गया । और बाजारवादी तथा उपभोक्तावादी व्यवस्था का निर्यात पूरी दुनिया को अनवरत रुप से जारी रहा ।

2008 में आयी वैश्विक मंदी ने  उपभोक्तावादी -बाजारवादी विकास की उत्कृष्टता और वैश्विक स्वीकार्यता पर पहली बार गंभीर सवाल खड़े किए। आर्थिक चिंतकों को यह अहसास हुआ कि अपनी जन्मस्थली में ही असफल साबित होने वाला यह विकास माॅडल पूरी दुनिया के लिए स्वीकार्य कैसे हो सकता है? 2011 की यूरोपीय मंदी ने इस विकास माॅडल की विसंगतियों और खतरों के बारे में फिर से पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है।‘ आक्यूपायी वालस्ट्रीट’ जैसे आंदोलनों की बढ़ती स्वीकार्यता वर्तमान विकास माॅडल के प्रति बढते असंतोष की तरफ संकेत करती है। वर्तमान विकास माॅडल को अपनी जन्मस्थली में ही चुनौती मिलने लगी है। नए विकास माॅडलों की सम्भावित रुपरेखाओं पर चर्चा हो रही है।

शताब्दियों में एकाधबार ही ऐसे मौके आते हैं जब पूरी मानवता चैराहे पर खडी हुई प्रतीत होती है और नई राहों को गढने और उस पर आगे बढने के लिए चिंतन-मनन करती है। भविष्य उन्हीं का होता है जो महापरिवर्तन की ऐसी बेला में सक्रिय भूमिका निभाते हैं , नई राह पर चलने का साहस दिखाते हैं। दुर्भाग्य से वैश्विक स्तर पर नवविकास को लेकर चलने वाली बहस से जुडी कोई भी हलचल भारत में नहीं दिखायी पड रही है। नीतिनियंताओं से लेकर विमर्शों को प्रोत्साहन देने वाली मीडिया तक में कोई सरगर्मी नहीं दिखायी पडती। भारत को अब भी वैश्विक वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए विकास के ‘ फार्मूलों ’  के आधार पर दौडाया जा रहा है। इस दौड में कुछ फर्राटा धावक बहुत आगे निकल गए हैं , जबकि अधिकांश भारतीय लहुलूहान हैं, हांफते हुए किसी तरह अपने आपको इस दौड में बनाए हुए है।

विकास का वर्तमान फार्मूला माॅडल समावेशी नहीं है । यह विकास के मानकों को अपनी सुविधा तथा हितों के अनुरुप परिभाषित करता है। घर पर खाने , घर के दूध-छाछ पीने की बजाय  बाहर जाकर  पेप्सी कोक पीने और पिज्जा बर्गर खाने की बढती प्रवृत्ति का विकास बताया जाता है। स्वस्थ रहने वाली जीवनशैली के अपनाने की बजाय चिकित्सकों और अस्पतालों की उपलब्धता को विकास बताया जाता है। किसानों की आत्महत्या और व्यापक पैमाने पर पसरी गरीबी को दरकिनार कर अरबपतियों की संख्या में मामूली वृद्धि को सम्पूर्ण देश का विकास बता दिया जाता है।

हद तो तब हो जाती है जब फाॅूर्मला कार दौड को भी देश के विकास का एक पैमाना बताने की कोशिश की जाती है और मीडिया विकास के इस ‘फार्मूला ’ मानक को सहज स्वीकृति प्रदान करती है। विजय माल्या की धुन पर नृत्य करने वाले नर्तक इसे देश के विकास में मील का पत्थर बताते हैं। विजय माल्य इस कार्यक्रम को देशभक्ति से ओतप्रोत बताते हुए कहते हैं कि ‘‘यह मेरा हमेशा का सपना रहा है कि एक दिन यह महान देश ग्रां.प्रि. का आयोजन करे , इसलिए यह सप्ताहांत बहुत महत्वपूर्ण होगा और मुझे इस पर गर्व होगा ’। इसी तरह बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट के निर्माता जेपी समूह के समीर गौड ने कहा कि ‘‘ हमने यह सपना केवल अपने लिए नहीं देखा । हमें भलीभांति पता था कि इस बेहद लोकप्रिय और प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय खेल आायोजन को भारत लाकर हम अपने देश का नाम बुलंद करने में कामयाब रहेंगे। ’’ बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट बनाने में जेपी समूह ने लगभग 20 अरब रुपए खर्च किए और यह दुनिया का एकमात्र सर्किट है जिसका स्वामित्व निजी हाथों में है। व्यापारिक भविश्यवक्ता भी इस आयोजन को देशभक्ति भरा कदम बताते हैं। उद्योग मंडल एसोचैम के अनुसार अगले 10 वर्षाें में फार्मूला-1 के आयोजन से 90,000 करोड का राजस्व जुटाया जा सकता है और रोजगार के 15 लाख अवसरों का सृजन किया जा सकता है। ऐसोचैम के अनुसार पहली इण्डियन ग्रां.प्री. से लगभग 10,000 करोड रुपए का राजस्व मिलेगा । मीडिया इन बाजारु दबंगों से प्रश्न नहीं पूछती , उनके कथनों को ब्रह्मवाक्य मानकर उनका प्रसार करती है। आखिर  उस देश में जहां 80 फीसदी जनसंख्या अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए हाडतोड मेहनत करती है , विकास माॅडल किसानों को आत्महत्या करने के लिए विवश करता हो , विकल्पहीनता की स्थिति जनजातियों को अराष्ट्रीय हथियारबंद गिरोह का हिस्सा बनने के लिए विवश करती हो , वहां पर फर्राटा कार दौड विकास का पैमाना कैसे बन सकती है।

आमआदमियों की प्रति संवेदनहीनता की ऐसी मिशाल कम ही देखने को मिलती है। 1877 में महारानी विक्टोरिया को भारत की प्रथम साम्राज्ञी घोषित किए जाने पर लार्ड लिटन ने एक भव्य राजदरबार का आयोजन किया था । उस समय भारत में भयंकर अकाल पडा हुआ था। तब सम्पूर्ण भारतीय मीडिया ने लिटन के इस असंवेदनहीन रवैये की पुरजोर खिलाफत की थी। आज वैसी ही विकट स्थितियों में करोडों का तमाशा किया जाता है और मीडिया उसका विरोध करने के बजाय उसको विकास बताने में जुटा हुआ है। यह मीडिया पर पश्चिमी नजरिये का प्रभाव ही कहा जाएगा कि वह फर्राटा कार दौड को विकास का नया पडाव बताती है और दूसरी तरफ विश्व कबड्डी चैंपियनशिप की कवरेज को नगण्य कवरेज प्रदान करती है। जबकि भारतीय खेलों के लिहाज से विश्व कबड्डी चैंपियनशिप का आयोजन अधिक महत्वपूर्ण है।

पश्चिमी प्रभाव राजनीति और अर्थनीति जैसे क्षेत्रों में टूट चुका है ,लेकिन सूचना प्रवाह पर आज भी पश्चिम का नियंत्रण है। मीडिया के क्षेत्र में पश्चिमी प्रभाव का तिलिस्म टूटना अभी बाकी है। पश्चिम  मीडिया के जरिए अपने प्रभाव को बनाए रखने की अंतिम कोशिशें कर रहा है। दुनिया में विविधता , मौलिकता और सर्जनात्मकता को बनाए रखने के लिए पश्चिम के मीडियाई तिलिस्म का टूटना जरुरी है।  इस तिलिस्म की कालकोठरी में कैद अलग -अलग स्वर्गो की मुक्ति के लिए भी इसका जमींदोज होना आवश्यक है। स्वतंत्रता संग्राम का व्यापक अनुभव होने के कारण भारतीय मीडिया  पश्चिम के आखिरी तिलिस्म तोडने की चुनौती स्वीकार कर सकती है और चुनौती को स्वीकार करने का सबसे उचित समय यही है।







उमा का सवाल, मीडिया में बवाल


प्रश्न पूछना पत्रकारिता का गुणधर्म और मूलधर्म है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता की सीमा और सामथ्र्य है। प्रश्न पूछना पत्रकारिता का एकमात्र व्यवहारिक विशेषाधिकार है। पत्रकारिता के प्रश्न राज और समाज के बीच संवादसेतु बनाते हैं। यही प्रश्न नीतिनियंताओं को टोकते हैं, रोकते हैं, सच्चाई का आईना दिखाते हैं और भविष्य का रास्ता भी बताते हैं। पत्रकारीय परिदृश्य में प्रश्न, उत्तर से भी अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं। शायद इसी को ध्यान में रखकर आल्विन टाॅफलर ने कहा है कि गलत प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने से बेहतर है कि सही प्रश्न का गलत उत्तर प्राप्त किया जाए। पत्रकारिता के प्रश्न,व्यवस्था -विश्लेषण के लिए एक  बेहतरीन संकेतक हैं।

लोकतांत्रिक शासनप्रणाली में पत्रकारिता के प्रश्नों का वजन और भी बढ़ जाता है। कई बार किसी एक पत्रकारीय प्रश्न से राजनीति की तस्वीर बदल जाती है। संसद में हंगामा होता है, सरकार पर खतरा मंडराता है और राजनेता ‘नो कमेंट मोड’ पर चले जाते हैं। लेकिन मई महीने के पहले सप्ताह में एक अद्भुत घटना देखने को मिली। पहली बार किसी राजनेता के सवाल से मीडिया की तस्वीर में व्यापक बदलाव देखने को मिला। पत्रकारों ने उमा भारती से निर्मल बाबा के सम्बंध में एक सवाल पूछा था। प्रश्न के उत्तर में उमा भारती ने एक दूसरा प्रश्न दाग दिया। उन्होंने कहा कि यदि निर्मल बाबा के खिलाफ अजीबोंगरीब टोटकों के जरिए कृपा बरसाने और आर्थिक अनियमितता के आरोप हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन मीडिया को अपना ध्यान अन्य पंथों में सक्रि चमत्कारी बाबाओं पर भी केंद्रित करना चाहिए। इसी संदर्भ में उन्होंने दक्षिण भारत में सक्रिय ईसाई धर्मप्रचारक पाॅल दिनाकरन का नाम लिया। उमा भारती के इस प्रतिप्रश्न ने पाॅल दिनाकरन को खबरिया चैनलों की सुर्खियों में ला दिया। अधिकांश चैनलों पर पाॅल बाबा प्राइम टाईम का हिस्सा बने। मीडिया में पहली बार तर्कशास्त्रियों के तीर मतांतरण के अभियान में संलग्न ईसाई प्रचारकों पर चले। मीडिया ने पाॅल की सम्पत्ति को खंगााला, उनके दावों की पोल खोली।

जांच-पड़ताल के दौरान पाॅल दिनाकरन के संबंध में बहुत चैंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।  पाॅल दिनाकरन की संपत्ति निर्मल बाबा की संपत्ति से बीस गुना अधिक है, यानी वह लगभग 5 हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। वह स्वयं द्वारा स्थापित कारुण्य विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ईसाई पंथ का प्रचार-प्रसार करने वाले  रेनबो टीवी चैनल के मालिक हैं। जीसस काल्स धर्मार्ध न्यास के संस्थाापक हैं। सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में वह सीशा नामक एक अन्य संस्था के जरिए सक्रिय हैं। दस देशों में उनके प्रेयर टाॅवर है। अकेले भारत में उनके 32 प्रेयर टाॅवर हंै। पाॅल दिनाकरन अपने सामूहिक प्रार्थना कार्यक्रमों का जिन विशेष जगहों पर आयोजन करते हैं, उसे प्रेयर टाॅवर कहा जाता है। यह प्रेयर टाॅवर पाॅल दिनाकरन की संस्था जीसस काल्स की संपत्ति हैं।

लोगों के कल्याण के लिए वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना के एवज में मोटी रकम वसूलते हैं। प्रार्थना करना उनका पैतृक धंधा है। पाॅल दिनाकरन के पिता डीजीएस दिनाकरन का भी प्रमुख व्यवसाय प्रार्थना करना ही था। डीजीएस दिनाकरन  तो सशरीर स्वर्ग जाने और ईसा मसीह से प्रत्यक्ष संवाद करने का भी दावा करते थे। पाॅल दिनाकरन ने इस पैतृक धंधे का आधुनिकीकरण कर दिया है। अब आप बिना प्रेयर टाॅवर जाए और बिना चेक दिए भी उनसे प्रार्थना करवा सकते हैं। प्रार्थना करने के लिए आॅनलाइन आवेदन कर सकते हैं और उनके खाते में आॅनलाईन भी ।

पाॅल दिनाकरन ने प्रार्थना के लिए कई  श्रेणियां निधारित कर रखी हैं। उनके पास बेचने के लिए प्रार्थनाओं का एक पैकेज है। हर छोटी बडी समस्या का निदान उनकी प्रार्थनाएं करती हैं। मंत्री पद तक दिलवाने का दावा करते हैं दिनाकरन ।  जितनी बडी प्रार्थना , उतनी मोटी रकम । रकम मिलने के बाद पाॅल दिनाकरन प्रभु यीशु से प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना के इस पैकेज की  सबसे बडी खूबी यह है कि एक बार बिकी हुई प्रार्थना फिर वापस नहीं होती। यानी पाॅल दरबार में प्रार्थना ‘भूल चूक लेनी देनी’ के लिए कोई स्थान नहीं है।
 
पाॅल दिनाकरन पर अकेले तमिलनाडु में 15 हजार से अधिक लोगों को मतांतरित करने का आरोप है। उनकी भविष्यवाणियों पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि वह लोगों को मतांतरण के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख देशों के बारे में भविष्यवाणियां की हैं। वह स्पष्ट रुप से कहते हैं कि ईश्वरीय शक्तियों उन्हीं पर कृपा करेंगी जो ईसाइयत के रास्ते पर चल रहे हंै। वह प्रार्थना सभाओं में ईसाइयत की शरण में अपील करते हुए भी देखे जाते हैं।
मुद्दा यह है कि आसाराम बापू से लेकर निर्मल दरबार तक की सम्पत्ति पर सवाल उठाने वाले मीडिया की नजरें सम्पत्ति के इतने बडे साम्राज्य को क्यों नहीं देख पायी ? कहीं मीडिया ने जानबूझकर चमत्कार के इस गोरखधंधे की अनदेखी तो नहीं की ! अथवा छद्म पंथ निरपेक्षता की प्रवृत्ति मीडिया पर भी हावी हो गयी है, जो बहुसंख्यकों के मानबिंदुओं को ठेस पहुचाने को ही पंथनिरपेक्षता का पर्याय मानती है। या अन्य पंथों के चमत्कारी मठाधीशों का मीडिया प्रबंधन हिन्दू बाबाओं से बेहतर है , जिसके कारण उनसे जुडी नकारात्मक बातें मीडिया में नहीं आ पाती।  यही प्रश्न उमा भारती ने मीडिया के सामने अन्य शब्दों में उठाए थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दुओं को प्रयोग की वस्तु अथवा ‘गिनी पिग्स ’ मत बनाइए।

चर्च के मतांतरण अभियान के परिप्रेक्ष्य में भारतीय मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करने पर उमा के प्रश्नों के उत्तर आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं। 5,6,7 नवम्बर 1999 अपनी भारत यात्रा के दौरान पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने दिल्ली में ‘ एक्लेशिया इन एशिया ’ नामक एक दस्तावेज जारी किया था। एशिया के बिशप सम्मेलन में जारी किए गए इस दस्तावेज में   तीसरी सहस्राब्दी में चर्च के उद्देश्य , उसकी भावी रणनीति पर पर प्रकाश डाला गया है। इसमें कहा गया है कि तीसरी सहस्राब्दी एशिया में ‘ आस्था की फसल’ काटने का समय है और चर्च को ईश्वर द्वारा सौंपा गया काम तब तक पूरा नहीं होगा जब तक प्रत्येक व्यक्ति ईसाई न बन जाए।

‘एक्लेशिया इन एशिया’ में मतांतरण अभियान के लिए मीडिया का उपयोग करने की बात स्पष्ट रुप से कही गयी है। दस्तावेज कहता है कि मतांतरण के लिए भारत के प्रत्येक प्रदेश में मीडिया कार्यालय बनाए जाने चाहिए । यह दस्तावेज कैथोलिक स्कूलों में मीडिया प्रशिक्षण के जरिए  ऐसे पत्रकारों को तैयार करने की भी बात कहता है जो मतांतरण के प्रति सहानुभूति रखते हों।

मतांतरण अभियान में मीडिया की उपयोग करना चर्च की व्यापक रणनीति का एक  हिस्सा है। सूचना प्रवाह को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए चर्च मीडिया शिक्षा से लेकर मीडिया चैनलों तक में व्यापक पूंजी निवेश करता है। चर्च का यह पूंजी निवेश मीडिया की अंतर्वस्तु को प्रभावित करता है। भारत में भी कई चैनलों के लिए कैथोलिक चर्च ने व्यापक पंूजी निवेश किया है। अब उन चैनलों पर चर्च के खिलाफ खबरें तो आ नही सकती। उनके निशाने पर तो हिंदू संत ही होंगे।
लेकिन अब भारत में चर्च पोषित खबरिया चैनलों का एकाधिकार टूट रहा है। कुछ ऐसे स्वतंत्र खबरिया चैनल स्थापित हो चुके हैं , जिनके लिए पांथिक सीमाएं कोई महत्व नही रखती। उनके लिए दर्शक और टीआरपी ही सबकुछ है। ऐसे चैनल चर्च के नियमों के बजाय  बाजार  और कुछ हद तक पत्रकारिता के नियमों से संचालित होते हैं।

उमा के सवाल से मीडिया में मचा बवाल चर्च के इशारे पर नर्तन करने वाले पत्रकारों और चर्च पोषित मीडिया घरानों के लिए यह एक अशुभ संकेत है। लेकिन भारतीय परिदृश्य में यह एक शुभ घटना है। यह घटना राजनीति और पत्रकारिता के अंतर्सम्बंधों के लिहाज से तो महत्वपूर्ण है ही । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बताती है कि अब  आकाशीय सूचनाएं अपनी जमीन से जुडने लगी हैं।

चमकता रजतपटल, चुकता स्मृतिपटल


भारतीय रजतपटल शत शरद ऋतुओं का द्रष्टा बन चुका है। वह शतायु हो गया है। आगामी 12-15 महीनों में कई तथ्य और तिथियां आपकी नजरों के सामने से बहुत बार गुजरेंगी। मसलन, प्रथम भारतीय कहानी आधारित फिल्म (फीचर फिल्म) ‘राजा हरिश्चंद्र’ है। इसके निर्माता धुंडिराज गोविंद फाल्के उपाख्य दादासाहब फाल्के थे। इस फिल्म की शूटिंग की शुरुआत 21 अक्टूबर 1912 से प्रारम्भ हुई। 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलम्पिया हाॅल में इस फिल्म का पहला शो हुआ। यह शो पत्रकारों और बुद्धिजीवियों तक सीमित था। बाद में 3 मई 1913 को यह फिल्म जनसाधारण के समक्ष प्रदर्शित की गई। इन तमाम आंकड़ों को परोसने की प्रक्रिया में एक तथ्य को छुपाए जाने की प्रबल संभावना भी है। संभवतः पंथनिरपेक्षता की काली छाया और बाजार की कठोर काया का डर आंकड़ों के कारोबारियों को  उस तथ्य का जिक्र करने से रोकगा, जिसने भारतीय सिनेमा के पितामह को फिल्म निर्माण के लिए अपनी भूमि और भाषा अपनाने की ललक पैदा की। वह तथ्य यह है कि इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित मतांतरण अभियान से उपजे आक्रोश ने दादा साहब फाल्के को सिनेमा का भारतीय शिल्प गढ़ने के लिए प्रेरित किया था।

उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिशनरियों द्वारा सिनेमा के जरिए पश्चिमी आदर्शों को भारत पर  थोपने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करने के लिए दादा साहब ने भारतीय सिनेमा स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारम्भ किए। यह एक स्थापित तथ्य है कि औपनिवेशिक शासनकाल में मतांतरण की प्रकिया को राज्याश्रय प्राप्त था। हिन्दू धर्मावलम्बियों को मतांतरित करने के लिए आर्थिक प्रलोभन और राजनीतिक प्रभुसत्ता दोनों को प्रयोग इसाई मिशनरियां कर रही थी। भारतीयों को मतांतरण हेतु मानसिक स्तर पर तैयार करने के लिए साहित्य वितरण जैसे पारंपरिक तरीकों के साथ सिनेमा जैसी नवीनतम माध्यमों का भी प्रयोग किया जा रहा था। इस कड़ी में वर्ष 1910 में भारत के विभिन्न हिस्सों में यीशु मसीह के जीवन पर आधारित एक फिल्म ‘ द लाइफ आॅफ क्राइस्ट’ दिखायी गयी। इसी फिल्म ने 39 वर्षीय दादा साहब फाल्के को समानांतर भारतीय सिनेमा को स्थापित करने की प्रेरणा दी। विदेशी भाव और भाषा में निर्मित इस फिल्म को दखने के बाद दादा साहब फाल्के ने यह महसूस किया कि ईसाई मिशनरियां सिनेमाई प्रभाव का उपयोग भारतीय संस्कृति के उच्छेदन के लिए कर रहीं है।  उन्हें यह तथ्य समझने में भी समय नहीं लगा कि  सिनेमा मनोरंजन तक सीमित नहीं है। इसमें सांस्कृतिक संरक्षण अथवा सांस्कृतिक उच्छेदन की असीम संभावनाए भी निहित हैं। उनकी दूरदृष्टि ने दीवार पर लिखी उस इबारत को भी पढ़ लिया था कि  सिनेमा को भारतीय भाषा, भाव और भूमि से जोड़कर सांस्कृतिक नवचैतन्य के लिए संभावनाएं सृजित की जा सकती हैं।

उन्होंने अपनी पहली फिल्म के लिए जिस कथावस्तु का चयन किया और उसके निर्माण के लिए जिस तरह से संघर्ष किया, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए सिनेमा सांस्कृतिक संरक्षण का उपकरण था। उन्होंने किसी ऐसे भारतीय आदर्श पुरुष पर फिल्म बनाने की ठानी, जिसका भारतीय लोकमानस पर गहरा प्रभाव हो। इसके लिए उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति का लम्बे अरसे तक अध्ययन और अवलोकन किया। अंततः किसी आदर्श भारतीय पात्र की उनकी खोज महाराज हरिश्चंद्र पर समाप्त हुई। महाराज हरिश्चंद्र के चरित्र में निहित उदात्त नैतिक मूल्यों की स्मृति अब भी भारतीय लोकमानस में बनी हुई थी। कई नाटक कम्पनियां हरिश्चंद्र नाटक का मंचन करती थी और एक आम भारतीय में इस नाटक को जबरदस्त उत्सुकता भी थी। महात्मा गांधी ने इस बात को स्वीकार किया है  ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक ने उनके जीवन का बहुत प्रभावित किया है। यह स्वीकृति इस बात को साबित करती है कि सम्पूर्ण भारत में राजा हरिश्चंद्र नाटक अत्यंत लोकप्रिय था। दादासाहब फाल्के द्वारा राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण का निर्णय उनकी भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक संरचना की बेहतरीन समझ का संकेतक है। दरसअसल, रजतपटल को भारतीय स्मृतिपटल से जोडने की ललक ने ही दादासाहब फाल्के को महाराज हरिश्चंद्र पर फिल्म निर्माण करने के लिए प्रेरित किया ।

फिल्म निर्माण की बारीकियों को समझने के लिए 1 फरवरी 1912 को उन्होंने लंदन के लिए प्रस्थान किया। लंदन जाने के लिए उन्होंने अपनी बीमा पाॅलिसी और पत्नी के गहनों को गिरवी रखकर पैसे जुटाए थे। जाहिर है यह संघर्ष व्यवसायिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए था। व्यवसायिक इसलिए नहीं क्योंकि उस समय भारत जैसे देश में सिनेमा के जरिए व्यवसायिक हित साधना संभव नहीं था। फिल्म बनाना एक दुष्कर कार्य था और सिनेमा देखना एक अधम कार्य। सिनेमा को उस समय इतनी हीन दृष्टि से देखा जाता था कि दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र के महिला चरित्रों के लिए पुरुष कलाकारों का चयन करना पड़ा था। क्योंकि उस समय आम भद्र महिला तो दूर वेश्याएं भी सिनेमा में भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं थीं। तत्कालीन समाज में फिल्म के शौकीनों को भी तौहीन की नजर से देखा जाता था। फिल्म देखने के शौकीन लोगों को ‘ चवन्नी छाप ’ आदम कहकर बुलाया जाता था क्योंकि उस समय मुम्बई के नावेल्टी होटल में देशी दर्शकों के लिए टिकट का मूल्य चार आने निर्धारित किया गया था। ऐसे माहौल में फिल्म निर्माण के लिए पहल कोई सांस्कृतिक व्यक्ति ही कर सकता है , व्यवसायिक व्यक्ति नहीं।

दादा साहब फाल्के द्वारा ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रुप में रोपा गया भारतीय सिनेमा का वह नन्हा पौधा आज एक विशाल वट वृक्ष बन गया है। एक आंकडे़ के मुताबिक भारत में 1.3 करोड़ लोग प्रतिदिन वाॅलीवुड की फीचर फिल्मों को विभिन्न माध्यमों के जरिए देखते हैं। वाॅलीवुड में औसतन 1000 फिल्में सालाना बनती हैं। जबकि हाॅलीवुड में यह आंकड़ा 600 फिल्मों तक सीमित है। इस वटवृक्ष से तमिल, तेलगु, बंगाली, भोजपुरी फिल्मों की नई जडे़ं निकल आयी हैं। बाहर से देखने पर यह वृक्ष लहलहा रहा है। प्रभाव में वृद्वि हुई है। हमारे सुख, दुख, स्वप्न, शैली और शब्द सब फिल्मों की स्क्रिप्ट और धुनों के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं। लेकिन क्या प्रभाववृद्वि और व्यवसायिक सफलता रजतपटल के मूल्यांकन के एकमेव आधार बन सकते हैं। भारतीय संदर्भों में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि दादा साहब फाल्के ने यह पर रजतपटल के शुरुआत सामाजिक सांस्कृतिक संरक्षण और सामूहिक स्मृतिपटल  के पोषण के लिए की थी।

 आज की स्थिति बिल्कुल उलटी है। रजतपटल भारतीय स्मृतिपटल को पोषित करने के बजाय उसकी जडों में मट्ठा डाल रहा हैं ,उसको खरोंचकर लहूलुहान कर रहा है। आज भारतीय रजतपटल के पास पैसा और तकनीकी दोनों हैं लेकिन भारतीयता को पोषित करने वाली दृष्टि नहीं है। उसकी अंतर्वस्तु या तो बाजारु-भारतीय है अथवा विदेशी। भारतीय समाज और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य की पहचान और अभिव्यक्ति का कोई भी प्रयास रजतपटल के चमकीले लोग नहीं कर रहे है। अभिव्यक्ति की बात तो दूर भारतीय मूल्यों को उपहास की विषयवस्तु के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। चाणक्य जैसे धारावाहिक के निर्माता और रजतपटल की दुनिया भारतीयता को अभिव्यक्ति देने में सक्रिय कुछ गिने चुने लोगों में से एक डाॅ0चंद्रप्रकाश द्विवेदी आज की स्थितियों का सटीक आकलन करते हुए कहते हैं कि -

‘‘भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के के पास उस समय कई विषय रहे होंगे,लेकिन उन्होेंने अपनी फिल्म की कथा अतीत से चुनी। मतलब यह नहीं कि वे अतीतजीवी थे। उन्हें भारत के सामने एक आदर्श रखना था।उनका उद्देश्य था इस असाधारण उपकरण सिनेमा का इस्तेमाल हम समाज के लिए करें। आजादी और उससे पहले जो फिल्में हमारे यहां बनी उसमें भारत की जडें थी।भारतीय आत्मा थी।भारत के सवाल थे। उन सवालों के उत्तर देने की कोशिशें भी उनमें थी।पांचवें छठें दशक का सिनेमा भारतीय तत्वों से भरा था। परन्तु जैसे-जैसे सिनेमा का विकास होता गया , बाजार का दबाव बढता गया। हमारी कहानियां भारत से दूर होती गयीं। अब स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारत के पात्र होत हैं और पीछे विदेशी भीड घूम रही होती है। हमारी गलियां भी अमृतसर , राजस्थान , यूपी और बिहार की नहीं रह गयीं, बल्कि अब हम गलियां भी न्यूयार्क , लंदन , शंघाई, स्पेन और कनाडा जैसे देशों की ढूंढ रहे हैं। ’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

वर्तमान  भारतीय रजतपटल में भारत और भारतीयता दोनों एकसिरे से गायब हैं। आज के रजतपटल में गोवध की समस्या नहीं है, मैली होती गंगा नहीं है, किसान आत्महत्या नहीं है, 90 करोड़ निर्धन नहीं हैं, बिजली से महरुम और ढिबरी से टिमटिमाते 10 करोड़ घर नहीं हंै, गांव की पगडंडिया नहीं हैं, हाथरस, भदोही, मुरादाबाद के हस्तशिल्पियों की दारुण दशा नहीं है। भारतीय स्मृतिपटल में रची बसी छवियां नहीं हैं, मुहावरे नहीं है। वह तो राजपथ, फ्लाईओवर, शाॅपिंगमाल्स से जगमगा रहा है। विदेशों में पिकनिक मना रहा है, बास्टर्ड कहने में इतरा रहा है और च्यूतिया कहने में लजा रहा है। उद्योगपतियों के कौशल को मसाला लगाकर दिखा रहा है। डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी इस संदर्भ में कहते हैं कि -
‘‘ पिछले 63 सालों में भारत के विभाजन पर कितनी फिल्में बनी? उंगलियों पर गिन सकते हैं 1984 के दंगों पर कितनी फिल्में हैं? कश्मीर का सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा हमारी फिल्मों का विषय नहीं हैं। आतंकवाद और नक्सलवाद को लेकर, भ्रष्टाचार को लेकर, आरक्षण को लेकर, रामजन्म भूमि विवाद को लेकर फिल्में नहीं बनी हैं। इतने सारे विषय देश में मौजूद हैं, परंतु हमारे फिल्मकारों को उनसे कोई सरोकार नहीं है।’’ (झंकार ,दैनिक जागरण , 5 फरवरी 2012 , पृष्ठ 4)

सर्वाधिक पीड़ादायी दृश्य यह है कि कई पीढि़यों से लोकस्मृति में घर कर चुकी छवियां और शब्द में रजतपटल पर जगह नहीं पा रहे हैं। 60 और 70 के दशक में फिल्मों के आधिकांश गाने लोकधुनों पर आधारित होते है। आज भी लोग उन्हें बडे आत्मीय भाव से गुनगुनाते हैं। नैन लडी जईहैं तो मनवा में खटक होईबै करी, चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिजडे वाली मुनिया ,दुख भरे दिन बीते रे भइया सुख भरे दिन आयो रे, जैसी लोकधुने अब रजतपटल से लुप्तप्राय हो गयी हैं। भारतीय नाटको की परंपरा सुखांत रही है, अच्छाई के पथ पर चलने वाले नायक की विजय सुनिश्चित होती है। लेकिन अब रजतपटल पर पश्चिमी दुखांत परंपरा हावी हो रही है। अच्छाई और बुराई की रेखाएं मिट रही हैं।

सोनचिरैया संस्था की संस्थापक और प्रख्यात लोकगायिक मालिनी अवस्थी रजतपटल पर लोकधुनों के गायब होने से काफी आहत हैं। वह रजतपटल में लोक के लिए सिमटते स्थान पर चिंता जाहिर करते हुए कहती हैं कि  -‘‘स्थिति यह है कि सिर्फ गायन में ही नहीं लोक के सभी अंग -उपांग में क्षति है।लोक कलाकार के अस्तित्व से सीधे जुडा हुआ है लोक कलाओं का अस्तित्व।नक्कारा ,ताशा ,मृदंग ,झांझ,सींगी ,करताल और हुडुक जैसे वाद्य तभी तक सुरक्षित है ,जब तक कि इनके कलाकार । इन कलाओं को बचाना है तो इन लोक कलाओं को बढावा देना होगा । नई पीढी को इस अनमोल थाती से जोडना है तो लोककलाओं को अब स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा । यदि अपनी संस्कृति और अपने निजत्व की पहचान बनाए रखनी है तो समाज को हर हाल में नई पीढ़ी को लोक-साक्षर बनाना ही होगा।

निश्चय ही, वर्ण साक्षरण और ई साक्षरता से कम जरुरी नहीं है लोक साक्षरता। लोकसाक्षरता एक व्यापक शब्द है। इसका सम्बंध केवल गायन वादन से नहीं है। यह उस परंपरा से परिचय है जो भारतीय व्यक्तित्व को वैशिष्ट्य प्रदान करती है। इस परंपरा का उल्लेख किसी शास्त्रीय पोथी में नहीं है। इस परंपरा के प्राण भारतीयों के सामूहिक स्मृतिपटल में बसता है। इसी स्मृति पटल की बदौलत लाखों शब्द और छवियां समय के अवरोधों को पार करते हुए निरंतर एक पीढी से दूसरी पीढी में प्रवाहित हो रही हैं। स्मृतिपटल का चुकना भारतीयों की सबसे बडी सांस्कृतिक पराजय होगी। सामूहिक स्मृति पटल को बचाने के लिए लोकसाक्षरता आवश्यक है। यही सैकडों सालों की पराधीनता के कारण भारतीय भावभूमि पर जड जमा चुकी आत्महीनता की ग्रंथि को उखाड सकती है।

स्मृतिपटल और रजतपटल के बीच स्वस्थ संवाद स्थापित कर  लोकसाक्षरता को बढाया जा सकता है , यह सवंाद स्मृतिपटल के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए रजतपटल पर सांस्कृतिक समझ वाले लोगों की सक्रियता बढनी आवश्यक है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के आकांक्षी व्यक्तियों को भी रजतपटल को हल्के में लेने और उससे दूर रहने की प्रवृत्ति परिवर्तित करने होगी। जो रजतपटल प्रतिदिन 1.3 करोड भारतीयों तक पहुंचता है ,उन्हें हंसाने -रुलाने की क्षमता रखता है,युवावर्ग जिससे सर्वाधिक प्रभावित होता हो ,उसको नजरंदाज कर व्यवस्था परिवर्तन की रुपरेखा कैसे तय की जा सकती है? क्या श्री रामजन्म भूमि आंदोलन की सफलता में श्री रामानंद सागर कृत रामायण के योगदान को एकदम से नकारा जा सकता है। रजतपटल पर सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता समय की मांग है। सांस्कृतिक व्यक्तियों की सक्रियता रजतपटल पर स्मृतिपटल का प्रभाव और दबाव सृजित करेगी। यह प्रभाव और दबाव सांस्कृतिक सम्पन्नता और निरंतरता के लिए आवश्यक है।

भारतीय स्मृतिपटल को लहुलूहान करने में मात्र रजतपटल की अंतर्वस्तु और तकनीकी ही जिम्मेदार नहीं है। रजतपटल से सम्बंधित सूचना-प्रवाह भी भारतीय स्मृतिपटल की जडें खोद रही है। व्यवसायिक सिनेमा के अतिरिक्त बहुत कुछ सर्जनात्मक भी रजतपटल की दुनिया हो रहा है। लेकिन फिल्म की दुनिया में उसकी कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। बिग बाॅस को लेकर तो प्रिंट और मीडिया ने आसमान अपने सिर पर उठा लिया था लेकिन लगभग एक दशक के शोध के बाद मार्च से प्रसारित होने वाले डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी के धारावाहिक उपनिषद गंगा की चर्चा सूचना-संसार और फिल्म,धारावाहिक समीक्षा के काॅलम का हिस्सा नहीं बन सका । डाक्यूमेंट्री की समीक्षा अब भी रजतपटल पत्रकारिता का हिस्सा नहीं बन सकी है, जबकि यह फिल्मों की अपेक्षा भारतीय भावभूमि और समस्याओं से अधिक जुडी है। रजतपटल की पत्रकारिता को साहित्य समीक्षा जैसा गांभीर्य देकर रजतपटल के भारतीयकरण की दिशा में प्रारम्भिक कदम बढाया जा सकता है।
















मदारी से मुद्दई बनता मीडिया


कांस्टीट्यूशन क्लब में मीडिया पर आयोजित एक संगोष्ठी में उपस्थित श्रोताओं की आलोचना से खीझकर आज तक के संपादक कमर वाहिद नकवी ने खुले मंच से कहा था कि ‘मीडिया अब मदारी बन गया है।’ एक ऐसा मदारी जो तरह-तरह के तमाशे दिखाकर लोगों का मनोरंजन करता है, लेकिन व्यक्ति और समाज के अस्तित्व को चुनौती देने वाली मूल समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत उसके पास नहीं है। और न ही इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में उसकी कोई सहभागिता है। कमर वाहिद नकवी का यह कथन प्रसिद्ध मीडिया विश्लेषक नोम चोमस्की की मीडिया के बाजारु खिलौना बनने के संदर्भ में की गई टिप्पणी में मेल खाती है। चोमस्की कहते हैं कि- अपने दर्शकों को बाजार के हाथों उपभोक्ता के रुप में बेचना अब मीडिया का प्राथमिक कार्य हो गया है।

इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में भारतीय मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस दिशा में अग्रसरित होने की कोशिश कर रहा था। खबरों के चयन और प्रस्तुतीकरण के जिस तरीके को अपनाया जा रहा था, उस पर दृष्टिपात करें तो उपरोक्त दोनों टिप्पणियां एक हद तक सही प्रतीत होती हैं। श्मशान पर किए जाने वाले विभिन्न तांत्रिक प्रयोगों और कापालिक क्रियाओं का प्रसारण ‘एक्सक्लूसिव’ खबर के रुप में हमारे खबरिया चैनल कर रहे थे। कोई बकरा शराब क्यों पी रहा है ? स्वर्ग के लिए सीढि़या कहां से निकलती हैं ? जैसे ‘महत्वपूर्ण प्रश्नों’ को लेकर हमारे खबरिया चैनल कई दिनों तक माथापच्ची करते थे। राजू श्रीवास्तव के भद्दे चुटकुले और राहुल महाजन की अश्लील हरकतें मुख्य समाचार हुआ करते थे। किसी विशेष धारावाहिक के अगले एपीसोड में सास बाहू का रिश्ता किस मोड पर पहुंचेगा, इसका कयास भी खबरिया चैनल लगाते थे। समलैंगिकता जैसे गम्भीर मुद्दों पर ‘विशेषज्ञ टिप्पणी’ के लिए समाजशास्त्रियों की बजाय सेलिना जेटलियों को आमंत्रित किया जाता था। इन महत्वपूर्ण खबरों के बीच यदि कोई रामसेतु आंदोलन हो जाता, तो पूरे देश में चक्काजाम होने तक उसके कवरेज की जरुरत नहीं समझी जाती थी। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा जैसी ‘छोटी मोटी’ घटनाएं सामाजिक मुद्दों पर गहरी नजर और पैनी दृष्टि रखने का दावा करने वाले पत्रकारों की पकड में नहीं आती थीं। जबकि इस यात्रा के जरिए साढे़ आठ करोड़ भारतीय नागरिकों ने अपना हस्ताक्षर कर गोसंरक्षण और गोसंर्वद्वन लिए राष्ट्रपति से गुहार लगाई थी। गोग्राम यात्रा को मिला जनसमर्थन उस मतसंख्या के लगभग बराबर है, जिसको प्राप्त कर कोई राजनीतिक दल केन्द्र में सत्तारुढ हो सकता है। मीडिया के तृणमूल तथ्यों के प्रति अज्ञान के अध्ययन के लिए विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा को ‘केस स्टडी’ के लिए चुना जा सकता है। वास्तव में इस दौर का मीडिया मदारी नहीं मदारी का बंदर बन गया था ।

यह सबकुछ अनवरत रुप से चल रहा था । इसी बीच कालेधन के मुद्दे को लेकर योगऋषि स्वामी रामदेव और जनलोकपाल बनाने को लेकर अण्णा हजारे मीडिया मंे अवतरित होते हैं। सम्पूर्ण मीडिया में इन दोनों व्यक्तियों और इनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के प्रति दीवानगी देखने को मिलती है। प्रोटोजोआ प्रजाति के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्डेटा प्रजाति के स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे के मैदान में उतरने की घटना न केवल भारतीय जनता को प्रेरित करती है, बल्कि जनता को सम्मोहन में रखने वाली मीडिया को भी सम्मोहित करती है। मीडिया में आम आदमी से जुडे़ इन मुद्दों और इन मुद्दों को उठाने वाली आवाजों को पर्याप्त समय और स्थान मिलता है। साथ ही, इस मुद्दे के सतत कवरेज को लेकर मीडिया में एक सर्वसम्मति भी दिखाई दी।
आम आदमी से जुडे किसी मुददे पर सर्वसम्मति बनना भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास की एक दुर्लभतम घटना है। कभी किसी मुद्दे पर बनी भी तो वह दो चार दिनों में बिखर गई। भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया का व्यवस्था विरोध भी एक दायरे में होता रहा है। मुद्दों के आधार पर व्यवस्था को खुली चुनौती देने की प्रवृति भारतीय इलेक्टा्रनिक मीडिया में अभी तक नदारद रही है। व्यवस्था द्वारा निर्धारित दायरे में ही व्यवस्था का विरोध यह माध्यम करता रहा है। दूसरों शब्दों में कहें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया में मुद्दों को लेकर की जाने वाली ‘मुद्दई पत्रकारिता’ नहीं की जाती थी। इस पड़ाव पर मुद्दई शब्द के संदर्भ में एक तथ्य स्मरण कराते चलें कि जब कोई व्यक्ति अथवा संस्था मुद्दों के आधार पर जीवनयापन की कोशिश करता है तो शोषणकारी व्यवस्था और व्यक्तियों से उसका टकराव स्वाभाविक हो जाता है। शायद इसीलिए न्यायालय में चलने वाले मुकदमों में प्रतिपक्ष को मुद्दई और समाज में अपने दुश्मन को भी मुद्दई कहा जाता है।

स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे के संदर्भ मे पहली बार इलेक्ट्रानिक मीडिया में न केवल एक सर्वसम्मति बनी बल्कि यह लम्बे समय तक चली भी । विशेषकर अण्णा हजारे के 16 अगस्त से प्रारम्भ होने वाले अनशन के संदर्भ में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने जिस अभूतपूर्व एकजुटता का परिचय दिया और जिस तरह व्यवस्था विरोध की व्यवस्था द्वारा निर्धारित पारंपरिक चैखटों का धाराशायी किया , उससे इलेक्ट्रानिक मीडिया के बेहतर भविष्य से एक आस बंधी है।

 हम जानते हैं कि भारतीय पत्रकारिता अनुवांशिक रुप से व्यवस्था विरोधी रही है। स्वंत्रतता पूर्व की पत्रकारिता अपने तेवरदार और व्यवस्था विरोधी रवैये के लिए जानी जाती है। स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसे कई मौके आए जब प्रिंट मीडिया ने अद्भुत एकजुटता का प्रदर्शन किया और व्यवस्था के खिलाफ जाकर मुद्दों के उभारने का प्रयास किया । प्रिंट मीडिया के इस मुद्दई रवैये के कारण ही व्यवस्था को कई बार शीर्षासन करना पडा । अन्ना के अनशन को लेकर भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया पहली बार उस ‘मोड’ में दिखी जिसकी उससे अपेक्षा की जाती रही है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया का यह व्यवस्था विरोधी ‘न्यू मोड’ न केवल आम जनता के लिए बल्कि खुद उसके स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। उलूल जलूल कार्यक्रमों  के प्रसारण से पैदा हुए विश्वसनीयता के संकट ने खुद मीडिया की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर दिया था। शायद इसी कारण नेता -अभिनेता भी बीच बहस में रुककर मीडिया को आईना दिखा देते थे । आज तक पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘सीधी बात ’ में एकबार अभिनेता शाहरुख खान ने प्रभु चावला को लगभग डांटते हुए कहा था कि आप लोग जिस तरह अपनी टीआरपी बढाने के लिए उलूल जलूल कार्यक्रम दिखाते हैं , ठीक उसी तरह हम भी फिल्म को सफल बनाने के लिए कई स्टंट करते हैं । हम और आप दोनो पैसा कमाने के लिए यह सब करते हैं। फिर आपको नैतिक प्रश्न पूछने का क्या अधिकार है। इसी तरह उदयन शर्मा की पुण्यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम में कपिल सिब्बल मीडिया की क्षमताओं पर कई सवाल खडे कर दिए थे। यह बात 2009 के चुनावों के तुरंत बाद की है। ऐसा नहीं था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रभाव क्षीण हो गया था बल्कि वह इतना विखंडित था की अनेक सटीक मुद्दों पर भी उसका स्वर  ‘ मास मोबलाईजेशन’ की परिघटना को जन्म नहीं दे पाता था । जब सभी चैनलों ने एकस्वर में अन्ना के अनशन से जुडे मुद्दों को उठाया  और लगभगत 12 दिनों तक उसकी सतत कवरेज की, तब जाकर सत्ताधारियों को इलेक्ट्रानिक मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा । सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने चैनलों से सभी पक्षों को दिखलाने का आग्रह किया तो दूसरी तरफ कुछ सरकारी प्रवक्ताओं ने अन्ना की आंधी को ‘ मीडिया मैनेज्ड ’ कहकर मीडिया को ताकत को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया ।

इस पूरे प्रकरण से यह भी स्पष्ट हुआ है कि मीडिया की असली ताकत आमजनता ही है । आमजनता की आवाज को प्रतिध्वनित कर इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने व्यवसायिक हितों और सामाजिक प्रतिबद्धता को एक साथ साध सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है अन्ना के अनशन के समय उभरी मुद्दई प्रवृति  समय-समय पर मुखरित होती रहे । मुद्दई प्रवृत्ति को अपवाद की बजाय स्थायी भाव बनाकर ही मीडिया भारत की पहचान और अपनी भूमिका को  बेहतर ढंग से परिभाषित और पोषित कर सकती है ।


जैक्सन का जीवन और सभ्यता के सवाल


 25 जून 2009 को पाॅप संगीत की दुनिया में किवदंती बन माइकल जैक्सन का निधन हो गया था। उनकी जिंदगी की तरह ही उनकी मौत भी रहस्यपूर्ण रही और मीडिया की सुर्खियों का हिस्सा बनी। जैक्सन पाॅप संगीत की दुनिया के बादशाह ही नहीं थे, वे वर्तमान उपभोक्तावादी सभ्यता के लिए ‘आदर्श प्रतीक’ भी थे। बाजारु जीवन दर्शन और मूल्यों पर आधारित वर्तमान सभ्यता के विश्लेषण के लिए, उसकी खूबी एवं खामियों को जानने के लिए जैक्सन के जीवन और उनकी जीवन-शैली को ‘केस स्टडी’ के रुप में चुना जा सकता है।

माइकल जैक्सन को उस जीवन-दर्शन और जीवनशैली का साक्षात उदाहरण माना जा सकता है, जिनको ‘मीडिया-मार्केट नेक्सस’ वैश्वीकरण के नाम पर पूरी दुनिया में आरोपित करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। बाजार और संचार द्वारा गढे़ गए तमाम सुख एवं विकास के मानकों को जैक्सन ने अपने जीवन में स्पर्श किया। उन्होंने लोकप्रियता की उन ऊंचाईयों को छुआ, जो किसी के लिए ईष्र्या का विषय बन सकती हैं। विज्ञापनों में ही सम्भव दिखने वाली लोकप्रियता से आगे निकल गए थे जैक्सन। उनकी थिरकन पर झूमने वाले पूरी दुनिया में मिल सकते हैं। एक समय वह अकूत संपत्ति के मालिक थे। संक्षेप में कहें तो माइकल जैक्सन के पास वह सब कुछ था जिसे आज की व्यवस्था एक जीवन की सफलता और सार्थकता के पैमाने के रुप में आम आदमियों के सामने परोसती है।

दरअसल ,मीडिया -मार्केट नेक्सस उत्पादों के संग्रह और उनके प्रदर्शन को आज की जीवनशैली में ‘चरम-मूल्य’ के रुप में स्थापित करने का प्रयास कर रही है।। बाजारु प्राथमिकता में खरीददारी का सबसे ऊपर होना स्वाभाविक भी है। खरीददारी की उत्तेजना पैदा करने के लिए लोगों में दिखावे की संस्कृति रोपी जाती है। जैक्सन की जीवन में खरीददारी और दिखावे का जबरदस्त संयोग देखा जा सकता है। प्रदर्शन प्रभाव पैदा करने के लिए जैक्सन ने अपने पूरे शरीर को प्रयोगशाला बना दिया था। बीसियांे से अधिक बार उन्होंने नाक की सर्जरी करायी थी। उनके लिंग-प्रत्यारोपण के किस्स भी काफी चर्चित रहे । प्रदर्शन प्रभाव पैदा करने के लिए माइकल जैक्सन कितने संसाधनों का प्रयोग करते थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1996 में मुम्बई में हुए शो के लिए जैक्सन का सामान तीन रुसी मालवाहक पोतों के जरिए मुम्बई पहुंचा था। शौक का आलम यह कि उन्होंने अपना एक चिडि़याघर ही बसा डाला। एक द्वीपसमूह की खरीददारी कर डाली। हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि जैक्सन के दिखावे और खरीददारी का संबंध उनकी काली त्वचा और उससे जुड़ी हीनता-ग्रंथि से अधिक है। लेकिन इस तर्क को यह कहकर खारिज किया जा सकता है कि बाजार और संचार के गठजोड़ के बिना कालेपन से जुड़े हीनता के क्षणिक भाव को स्थायी भाव में नहीं बदला जा सकता।

लेकिन क्या वास्तव में जैक्सन एक खुशहाल जीवन जी सके ? क्या जैैक्सन के लोकप्रिय जीवन और लक-दक भरी जीवनशैली के स्याहपक्षों और दुःखद कराह को अनदेखा किया जा सकता है। जैक्सन की दर्दनाक मौत कुछ सवाल छोड़ गई है। ये साधारण सवाल नहीं है। आज की पूरी सभ्यता इन सवालों से जूझ रही है और इनका उत्तर पाने को छटपटा रही है।

जैक्सन की मौत को लेकर जो खबर सामने आई उसके मुताबिक जैक्सन के उपर लगभग 8 हजार करोड़ रुपए का कर्ज था। इस कर्ज ने ही जैक्सन का   ‘कमबैक कन्सर्ट’ पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया। हालांकि उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति उन्हें किसी भी शो की तैयारी की अनुमति नहीं देती थी। जैक्सन की पोस्टमार्टम रिपार्ट के मुताबिक उनका शरीर कंकाल का ढांचा मात्र रह गया था। और उनकी मौत के वक्त उनके आंतो में दर्द निवारक गोलियां ही थीं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक जैक्सन प्रतिमाह 20 लाख से अधिक रुपए दवाईयों पर व्यय करते थे। उनका स्वास्थ्य इतना बिगड़ चुका था कि उन्हें आॅक्सीजन के टेंटों का सहारा लेना पड़ता था। जैक्सन एल्फा -1 एंटीट्राईप्सिन नामक गंभीर बीमारी से पीडित थे । इस बीमारी में पूरे शरीर में फेफडों को सुरक्षा प्रदान करने वाली प्रोटीनों की संख्या तेजी से घटने लगती है।

सवाल यह है कि एक समय संगीत के क्षेत्र में विश्व के सर्वाधिक अमीर जैक्सन कर्जे के इतने बड़े कुचक्र में कैसे फंस गए। क्या ऐसी जीवनशैली को मान्यता दी जा सकती है, जिसमें चोटी पर बैठा व्यक्ति भी कर्ज के कुचक्र का शिकार हो जाए, भोजन के बजा दर्दनिवारक गोलियों का आहार ले। क्या उस बाजारु नियम को सामाजिक नियम में तब्दील किया जा सकता है, जो अपने कर्ज वसूली के लिए किसी की जान लेने में न हिचके। ये सवाल व्यक्तिगत नहीं हैं, साभ्यतिक हैं। वैश्विक मंदी से लेकर ग्लोबल वार्मिंग तक की ऐसी  समस्त समस्याओं जिनका सामना हमारी सभ्यता कर रही है, का जुड़ाव इन सवालों से है। ऐसा नहीं है कि इन प्रश्नों को जैक्सन को पैदा करने वाली पश्चिमी सभ्यता महसूस नहीं कर रही है। पश्चिमी दुनिया इन प्रश्नों की गम्भीरता और उनके समाधान की अनिवार्यता से वाकिफ है। लेकिन आदिम मानव प्रवृत्तियों के रुपंातरण और उसकी अभिव्यक्ति में सहज तथा सामान्य बोध के समावेश की  कला से वाकिफ न होने के कारण पश्चिम कोई सार्थक समाधान नहीं ढूढ पा रहा है । प्रकृति तथा  समाज के प्रति अपने सीमित दृष्टिकोण के कारण भी पश्चिम के  समाधान ढूंढने का रास्ता और दुर्गम हो जाता है।

आखिरकार इन प्रश्नों का उत्तर भी हमको हमको माइकल जैक्सन के जीवन का आखिरी पड़ाव दे जाता है। जैक्सन अपने जीवन के अंतिम दिनों में उपनिषदों के अद्वैतवाद से अपनी सर्जनात्मक -उर्जा खींचने वाले भारतीय कवि रविन्द्रनाथ टैगोर का अध्ययन कर रहे थे। रविन्द्रनाथ को पढ़कर जैक्सन पर्यावरण के विषय पर कुछ कविताएं लिखने और स्टेज शो करने की योजना बना रहे थे। जलवायु परिवर्तन की भयावह समस्या के प्रति आमजन को जागरुक करने के लिए वह योगदान देना चाहते थे।

आखिर वह कौन सा तत्व है जो माइकल जैक्सन का झुकाव भारत की तरफ कर रहा था? भारतीयता में निहित समग्रता और संतुलन की दृष्टि ही वह तत्व हैं जो जैक्सन का आकर्षित कर रहे थे। इसे पूर्व भी यह तत्व पश्चिमी चिंतकों को आकर्षित करती रही है। मानव प्रकृति की समग्र समझ तथा आदिम प्रवृत्तियों का रुपांतरण कर उनका उध्र्वगमन करने वाला भारतीय जीवनदर्शन एवं जीवनशैली पश्चिमी विचारकों को समय-समय पर आकर्षित करती रही है। भारतीय जीवनदर्शन और जीवनशैली का आधार व्यापक है। वैदिक ऋचाओं की उदात्त अभिव्यक्तियां, औपनिषदिक प्रश्नोत्तर में निहित व्यापक आध्यात्मिक ंिचंतन तथा षड्दर्शन वह मूलतत्व हैं, जिनसे भारतीय जनमानस को जीवनरस मिलता है। समाज सुधारकों और प्रकाण्ड विद्वानों की मनीषा ने इसको अधिक सुगठित बनाए रखने कालप्रवाह के साथ प्रासंगिक बनाए रखने वाले अनेक आयाम जोडे़ हैं। इसके कारण भारतीय जीवनशैली और जीवनदर्शन में सभी मानवीय प्रवृत्तियों को स्वीकार्यता प्रदान की गई है। अर्थ  और काम के प्रति निषेध भाव नहीं है। परंतु इनकी सेवन और अभिव्यक्ति में धर्माधारित संतुलन की बात जरुर कही गयी है।  पश्चिम अभी उपभोग को चरममूल्य मानने वाली जीवनशैली को अपनाए हुए है इसलिए वहां सुख एवं समृद्धि का संतुलन नही सध पा रहा है।

एजेंडा सेट करना मीडिया का काम माना जाता है। दुर्भाग्य से, मीडिया बाजारु मूल्यों को नैतिक मूल्यों के रुप में स्थापित करने के एजेंडे पर काम कर रहा है। बाजारु मूल्यों को नैतिक मूल्यों के रुप में स्थापित करने की प्रक्रिया पूरी दुनिया में एक भीषण सांस्कृतिक संहार को जन्म दे रही है। इसलिए इस प्रक्रिया पर समग्र चिंतन किया जाना मानव और मानवता दोनों के लिए आवश्यक है। चिंतन की यह प्रक्रिया जैक्सन के जरिए शुरु हो सकती है क्योंकि जैक्सन का जीवन और उनकी मौत बाजार के साथ संचार जगत को अपने मूल्यों के प्रति आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करती है।

आजादी के नए आयाम


समय का प्रवाह शब्दों में नए आयाम जोड़ता है, घटाता है और कभी-कभी शब्द का अर्थ ही बदल देता है। आजादी एक ऐसा शब्द है जिसके अर्थ में बदलाव तो नहीं हुआ है, लेकिन पिछले 7 दशकों में कई नए आयाम जुडे़ हैं। यह नए आयाम गुलामी के स्वरुप और प्रकृति में आए व्यापक बदलाव के कारण जुड़े हंै। आजादी की 68वीं वर्षगंाठ मना रहा यह देश 15 अगस्त 1947 को मिली आधी-अधूरी राजनीतिक आजादी का जयगान कर रहा है, जबकि इसी दौर में गुलामी ने राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर नए क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया है। राजनीतिक क्षेत्र से प्रारम्भ हुई गुलामी की यात्रा अब आर्थिक क्षेत्र का पड़ाव पार कर सांस्कृतिक क्षेत्र तक पहुंच चुकी है।

हमने राजनीतिक साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त की थी, लेकिन वर्तमान में आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के अधीन जीने को अभिशप्त हैं। खतरनाक बात यह है कि साम्राज्यवाद और गुलामी का चेहरा हर पडाव पर अधिक मनमोहक हो रहा है लेकिन इसका प्रभाव अधिक जनसंहारक होता जा रहा है। जब हमने आजादी प्राप्त की थी तब साम्राज्यवाद राजनीतिक क्षेत्र से आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश कर रहा था और आज हम जिस काल में जी रहे हैं वह आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दुरभिसंधि का काल है। ऐसे में, आजादी को ठीक ढंग से परिभाषित करने के लिए गुलामी की परिर्वतन यात्रा का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मूल रुप से राजनीतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई थी। 1950 तक भारत में ही नहीं एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में राजनीतिक साम्राज्यवाद का पराभव हो चुका था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूरी दुनिया गुलामी के चंगुल से भी मुक्त हो गई। राजनीतिक साम्राज्यवाद के पराभव होने से पहले आर्थिक साम्राज्यवाद अस्तित्व में आ चुका था। आर्थिक साम्राज्यवाद की संकल्पना द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात अस्तित्व में आई। आर्थिक साम्राज्यवाद की अवधारणा का ध्येय सैद्धांतिक और व्यवहारिक रुप से राजनीतिक साम्राज्यवाद  को पदच्युत करना था। जब आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए एक-एक देश सैनिक हस्तक्षेप के जरिए किसी अन्य देश पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित कर लेता है तो उस प्रक्रिया को राजनीतिक उपनिवेशवाद अथवा राजनीतिक साम्राज्यवाद का नाम दिया जाता है।

इतिहास इस बात का गवाही देता है कि यूरोपीय देशों ने अतिरिक्त उत्पादन को बेचने तथा कच्चा माल प्राप्त करने के लिए एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देशों को अपना राजनीतिक उपनिवेश बनाया। अधिक से अधिक उपनिवेश बनाने की होड़ के कारण ही प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्व हुए। दो विश्वयुद्धों में हुई धन-जन की भयंकर हानि के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न देशों को इस बात का आभास हुआ कि अन्य देशों पर प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की प्रक्रिया को भविष्य में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। यह एक बहुत जटिल प्रक्रिया थी और इसमें स्थानीय स्तर पर प्रतिरोध की व्यापक संभावनाए भी होती हैं। विदेशी तत्वों की प्रत्यक्ष उपस्थिति स्थानीय अस्मिता को प्रतिरोध के लिए उकसाती थी। इसलिए, राजनीतिक साम्राज्यवाद की प्रक्रिया में अपने साम्राज्यवाद को टिकाए रखने के लिए विदेशी शक्तियों को धन-जन का व्यापक पैमाने पर निवेश करना पड़ता था। दूसरी तरफ सत्ता को बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले नृशंस और अमानवीय तरीकों के कारण भी वैश्विक शक्तियों के सफेद चोले पर काले धब्बे पड़ते थे।

राजनीतिक साम्राज्यवाद की राह में आने वाली इन तमाम कठिनाईयों से बचने के लिए शोषणकारी शक्तियों ने अपनी कार्यपद्धति और रणनीति में व्यापक परिवर्तन किए। उन्होंने अब प्रत्यक्ष की बजाय अप्रत्यक्ष नियंत्रण की रणनीति पर काम करना शुरु किया। अन्य देशों पर अप्रत्यक्ष रुप से नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रारम्भिक चरण आर्थिक साम्राज्यवाद के नाम से जाना जाता है। इस प्रक्रिया में किसी देश के भूभाग  अथवा सत्ता पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने के बजाय उन पर ऐसी आर्थिक नीतियां थोप दी जाती कि विपन्न देश की सम्प्रभुता विकसित देशों के नीति-नियंताओं के हाथों में स्थानांतरित हो जाती है। राजनीतिक साम्राज्यवादी की वाहक अमीर देशों की सेना होती है तो आर्थिक साम्राज्यवाद की वाहक बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं।

आर्थिक साम्राज्यवाद की शुरुआत बहुपक्षीय आर्थिक समझौते गैट से होती है और 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने तक यह प्रक्रिया अबाध गति से आगे बढ़ती है। विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने से पहले  होने वाली युरुग्वे दौर की वार्ता में पहली बार आर्थिक साम्राज्यवाद के चेहरे से दुनिया ठीक ढंग से परिचित हुई। विश्व व्यापार संगठन के बाद प्र्रारम्भ होने वाली सिंगापुर वार्ता ने इस बात को उघाड़कर रख दिया कि बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के नामपर गरीब देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और व्यापार पर कब्जा करने की क्रूर कोशिश है। सम्भवतः इसी कारण सन 2000 के बाद बहुपक्षीय व्यापार समझौते में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकी है।

 आर्थिक साम्राज्यवाद मे सन 2000 के बाद आए ठहराव से यह आशय नहीं निकाला जाना चाहिए कि साम्राज्यवादी शक्तियां हतबल हो गई हंै। आर्थिक साम्राज्यवाद में आने वाले ठहराव और प्रतिरोध को भांपते हुए साम्राज्यवाद ने अपना चोला फिर बदल लिया है। अब देश पर कब्जा करने के बजाय देश के नागरिकों को अपने कब्जे में करने की कोशिश की जा रही है। साम्राज्यवाद के नवस्वरुप को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का नाम दिया गया है ।

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद संचार माध्यमों के कंधे पर चढ़कर प्रत्येक व्यक्ति का दरवाजा खटखटा रहा है। इस प्रक्रिया के तहत व्यक्ति के जीवनदर्शन और जीवनशैली को प्रभावित कर उसे बाजारवादी मूल्यों को अनुरुप बनाने की कोशिश की जा रही है। यह प्रक्रिया साम्राज्यवाद के अन्यस्वरुपों की अपेक्षा अधिक मारक और घातक है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं अपने अंतःकरण की आत्महत्या कर देता है और अपने को बाजारवादी मूल्यों तथा उपभोक्तावादी जीवनशैली को सौंप देता है। यह प्रक्रिया अधिकतम उपभोग को ही जीवन के चरमलक्ष्य के रुप में प्रस्तुत करती है और उपभोक्तावादी जीवनशैली को अनिवार्य आवश्यकता के रुप में प्रस्तुत करती है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद में प्रतिरोध की संभवनाएं भी बहुत क्षीण होती है क्योंकि सूचनाओं की सतत बमबारी के जरिए व्यक्ति के मस्तिष्क को इस तरह ‘प्रोग्राम’ कर दिया जाता है कि साम्राज्यवाद द्वारा व्यक्ति के शोषण के लिए प्रस्तुत विकल्पों को ही अपने हित के लिए अपरिहार्य मान लेता है।

वर्तमान दौर में व्यक्ति आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दुरभिसंधि में जीने को विवश है। इस दुरभिसंधि के कई आयाम हैं। इसमें से कुछ की पहचान की जा चुकी है, जबकि कुछ अब भी अचिन्हित है। इस दुरभिसंधि के निर्माण में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है , इसलिए मीडियाई परिप्रेक्ष्य में आजादी शब्द अर्थ पुनर्पाठ आवश्यक बन जाता है। स्वतंत्रता पूर्व मीडिया की आजादी को व्यवस्था की आजादी की पूर्वशर्त के रुप देखा जाता था। स्वतंत्रता के बाद भी मीडिया की आजादी को एक चरम मूल्य के रुप में बनाए रखा गया। हालांकि इसी दौर में आपातकाल के दौरान मीडिया की आजादी का गला घोंटने का प्रयास किया गया, लेकिन मीडिया की आजादी में लोगों के अटूट विश्वास के कारण सत्ता इसमें सफल नहीं हो सकी।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अब तक मीडिया और आजादी के अंतर्सम्बंधों का विमर्श मीडिया की आजादी तक सीमित रहा है। लेकिन 1990 के बाद से मीडिया की आजादी के प्रति अकादमिक जगत और आमजगत में आकर्षण घटा है। कारण साफ है , मीडिया अब लोगों की आजादी को बचाए और बनाए रखने का हथियार नहीं रह गया है । कारपोरेट घरानों के इशारे पर अब मीडिया आमलोगों की आजादी को कुचलने पर आमादा है। मीडिया की आजादी का विमर्श धीरे-धीरे मीडिया से आजादी का विमर्श बनता जा रहा है। यह विमर्श विस्थापन मीडिया के परम्परागत छवि और मूलचरित्र की हत्या कर सकता है। मीडिया के पास अब भी आत्म रक्षा का एक उपाय शेष है, आजादी के नए आयामों के प्रति जागरुकता और सम्पूर्ण आजादी के प्रति ललक पैदा कर मीडिया अपने लिए एक रक्षा कवच का निर्माण कर सकता है।









मीडिया का ‘अघोर तंत्र’ है टीआरपी


भारतीय प्रज्ञा प्रकृति को त्रिगुणात्मक मानती है। व्यक्ति और व्यवस्था सभी में सत, रज, तम की यह त्रिगुणात्मक प्रकृति विभिन्न अनुपातों में अभिव्यक्त होती है। व्यक्ति और व्यवस्था में नई प्रवृत्तियों का उद्भव किसी नए गुण के प्रवेश के कारण नहीं बल्कि इन प्रवृत्तियों के आनुपातिक परिवर्तन से होता है। भारतीय मनीषा तो आत्म उन्नयन के लिए की जानी वाली साधनाओं को भी सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन श्रेणियों में बांटती है। तामसिक साधनाओं में अघोर साधना का प्रचलन विशेष रुप से रहा है और  जनसामान्य इससे  अधिक परिचित भी है। यह साधना शुरु तो आत्म अनुभूति के नाम पर हुई लेकिन कालांतर में यह चमत्कारी शक्तियों के अर्जन की साधना बन गई। अहंकार विसर्जन और प्रवृत्तियों के परिमार्जन की बजाय निकृृष्ट प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए जादू-टोने और सम्मोहन जैसी चमत्कारी शक्तियों के अर्जन और प्रदर्शन की साधना बन गई। जनसामान्य में भ्रम पैदा करना और यथार्थ से काटकर चमत्कारों की मायावी दुनिया रचना इस साधना की प्रमुख विशेषताएं बनकर उभरी। इस तामसिक साधना बाद में अमावनवीयता के पुट तो प्रारंभ से ही थे, लेकिन अमानवीयता की पराकाष्ठा तब हो गई जब इसमें शक्तियों के अर्जन के लिए ‘नरबलि’ जैसी प्रथा का समावेश हुआ। नर कपाल को कमण्डल मानने वाली साधना ‘नरबलि ’ तक पहंुच गई। यह साधना शक्ति उपासकों की बजाय शक्ति पीपासुओं की साधना बन गई।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में टीआरपी को मीडियाई अघोर तंत्र कहा जा सकता है। अघोर तंत्र की तरह टीआरपी भी बाजारु शक्ति पीपासुओं इच्छा से संचालित होती है। टीआरपी के जरिए व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे कुछ अभिजन अपनी शक्ति पीपासा को शांत करने के लिए संपूर्ण देश की सांस्कृतिक हत्या कर देने पर उतारु हैं। अघोर तंत्र में नर बलि दी जाती है , टीआरपी तंत्र में ‘सांस्कृतिक बलि’ दी जा रही है। अघोर तंत्र ने आध्यात्मिक विकास के कुछ भ्रामक संकेतक गढे़ थे और अपने हितों के अनुरुप सत्य की सीमाएं भी निर्धारित की थीं। टीआरपी ने मीडिया की स्थिति के आकलन के लिए भ्रामक संकेतकों को गढ़ा है और संपूर्ण सत्य को बाजारु सत्य के खांचे में फिट करने की कोशिश कर रहा है। टीआरपी के जरिए खुरदुरे सत्य को नकारने की कोशिश हो रही है। अघोर तंत्र की तरह टीआरपी भी सम्मोहन पर बहुत बल देती है। अघोर तंत्र में सम्मोहन को एक सिद्धि माना जाता है और उसके जरिए जनता को प्रभावित करने की कोशिश होती है। टीआरपी भी बाजारु मूल्यों के प्रति एक सम्मोहन रचती है। इसके जरिए भारतीयों को उपभोक्तावादी जीवनशैली और जीवनदर्शन की तरफ सम्मोहित किया जा रहा है।

टीआरपी की जरिए सम्पूर्ण देश की‘सास्कृतिक बलि’ कैसे दी जा रही है, इसके लिए कुछ आंकडों को समझना आवश्यक होगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 24 करोड़ घर हैं। इन घरों में लगभग 14 करोड़ टेलिविजन सेट लगे हुए हैं। इन 14 करोड़ टेलिविजन सेट में से केवल 10 हजार टेलिविजिन में ऐसे उपकरण लगे हुए हैं जो यह बताते हैं कि दर्शक किस समय, कौन सा कार्यक्रम देख रहा है अर्थात 0.00714 प्रतिशत टेलिविजन सेटों में ही टीआरपी संकेतक लगे हुए होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लगभग 14 हजार टेलिविजन में से किसी एक टेलिविजन मंे ही टीआरपी संकेतक लगे हुए होते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण और मजेदार तथ्य यह है कि अधिकांश टीआरपी संकेतक उन टेलिविजन में लगे हैं जिनकी खरीद या बिक्री शहरी क्षेत्रों में हुई है। सीधा सा मतलब यह है कि टीआरपी संकेतक  से युक्त टेलिविजन शहरी क्षेत्रों तक ही सिमटे हुए हैं।

टीआरपी संकेतकयुक्त टेलिविजन सेटों के शहरों तक सीमित होने के कारण टीआरपी शहरी दर्शकों की पसंद को ही पूरे भारत की पसंद बनाकर अपने आंकडों में परोसती है। अब यह बहुत सामान्य सी बात है कि उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के दर्शकों की कार्यक्रम पसंद  मध्य वर्ग , निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग की कार्यक्रम पसंद से बहुत अलग होगी। औपनिवेशिक शासनकाल की बदौलत घर कर चुकी आत्महीनता के कारण उच्च वर्ग , उच्च मध्यवर्ग में सांस्कृतिक संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। मध्य वर्ग भारतीयता और पश्चिमी मूल्यों में सामंजस्य बैठाने की कोशिश में‘त्रिशंकु’की स्थिति में है जबकि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग भारतीय संस्कृति के प्रति आग्रही है। केवल शहरी दर्शकों की पसंद को पैमाना बनाकर उसे सम्पूर्ण भारतीय दर्शकों पर थोपना पश्चिम को भारत पर थोपने के समान है। टीआरपी तंत्र सम्पन्न शहरी ‘इण्डिया’को विविधतायुक्त ‘ भारत’ का प्रतिनिधि बनाकर पेश करता है और यही इसकी सबसे बडी कमी है।

टीआरपी उस वर्ग की प्राथमिकताओं और पसंदगी को दरकिनार करने की साजिश है , जो भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता है। यह बाजारु मूल्यों को जबरदस्ती थोप रहे मीडिया को यह कहने का अवसर देती है कि पूरा भारत क्रिकेट , क्राईम और काॅमेडी ही देखता है ,सनसनी और अपराध ही देखता है। बाद में मीडिया दर्शकों की पसंद के नाम पर अधिक सनसनीखेज कार्यक्रमों के निर्माण की एक श्रृंखला प्रारम्भ होती है। बाजारवादी मूल्यों पर आधारित कार्यक्रमों की यह श्रृंखला भारतीयता पर विश्वास करने वाले लोगों पर दबाव बढाती है , उन्हें प्रेरित करती है  कि वह भी ‘मुख्यधारा’ की उस उपभोक्तावादी जीवनशैली और जीवनदर्शन को अपनाए जिसे अपनाकर शेष भारत  ‘आधुनिक’ बन चुका है। यह भारतीयों में भारतीयता के प्रति संदेह पैदा और उनकी आस्था को डिगाने का एक षडयंत्र है। टीआरपी एक सांस्कृतिक साजिश है, और  आंतरिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को संभव बना रही है। आंतरिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ,वैश्विक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का ही एक नया आयाम है । इसके अंतर्गत किसी बाहरी रोल माॅडल को थोपने के बजाय किसी देश में उपभोक्तावाद को पूरी तरह से अपना चुके वर्ग अथवा व्यक्ति को ‘रोल माॅडल’मानकर पूरे देश पर थोपने की कोशिश की जाती है।

भारत मे टीआरपी के आकलन का काम ए.सी.नीलसन नामक एक ग्लोबल मार्केट रिसर्च एजेंसी करती है। ए.सी. नीलसन के भारतीय संस्करण को टैम (टेलिविजन आडिएंज मेजरमेंट)के नाम से जाना जाता है। यह अंतर्राष्ट्रीय पूंजी से पोषित  है और बाजारु नियमों से संचालित होता है। बाजारु हितों की पूर्ति के लिए यह तंत्र आंकडो की जादूगरी और हेराफेरी भी करता है। टैम-टीआरपी के आकंडों के प्रति संदेह के कई कारण हैं। टैम के आंकडो पर संदेह इसके कम सैंपल साईज( बहुत टेलिजिवन सेट में टीआरपी संकेतकों का लगाना) और सैंपल एरिया ( टीआरपी संकेतकों का शहरों तक सीमित होना ) को लेकर तो उठते रहे है। इसके अजीवोगरीब आंकडों को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। टैम की रेटिंग की विश्वसनीयता  अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों  जब सूचना प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने टैम के आंकडों को लेकर सवाल उठाए और दर्शकों के पसंद के आकलन के लिए एक निष्पक्ष तंत्र की आवश्यकता बतायी तो रातोंरात  दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल की टीआरपी में जबरदस्त उछाल आ गया । बाद में मामला ठंडा होने पर दूरदर्शन की टीआरपी फिर से नीचे आ गयी। यह एक उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि टैम-टीआरपी के आंकडे फर्जी होते हैं, जिसका उद्देश्य दर्शकों की पंसद का आकलन नहीं बल्कि बाजारु आकाओं की हितों की पूर्ती करना है।

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि दूरदर्शन प्रसारण को प्रारम्भ होने  के 50 वर्ष बाद भी अभी तक भारत  टेलिविजन से प्रसारित कार्यक्रमों की पंसदगी के आकलन के लिए कोई सार्वजनिक और निष्पक्ष तंत्र नहीं खडा कर पाया है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सूचनाएं कूटनीतिक हथियार की  शक्ल अख्तियार  कर चुकी हैं और उन्मुक्त बाजार पूरी दुनिया में उपभोक्तावादी जीवनशैली को एक सर्वमान्य और अविवादित जीवनशैली के रुप में थोपने का प्रयास कर रहा है , कार्यक्रमों के पंसदगी के आकलन के लिए निष्पक्ष और सार्वजनिक तंत्र बनाए जान का प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। बाजार से प्रेरित और पोषित वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की परिघटना को जन्म दिया है। सहज और संतुलित मूल्यों पर आधारित विश्व की अधिकांश संस्कृतियां बाजारु सांस्कृतिक आक्रमण से दम तोड रही हैं और विश्व की सांस्कृतिक विविधता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। सूचना सम्प्रेषण और मनोरंजन जगत को अपनी मिट्टी से जोडे रख कर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद पर अंकुश लगाया जा सकता है। और इसके लिए यह आवश्यक है कि सूचना और मनोरंजन के क्षेत्र मंे दर्शकों की पसंद के निर्धारण का काम बाजारु एंजेसियों के हाथों में सौपने के बजाय एक सार्वजनिक और निष्पक्ष तंत्र को सौपा जाए।

दर्शकों की पसंद के निष्पक्ष आकलन के लिए सार्वजनिक तंत्र के अलावा कुछ चीजें भी आवश्यक हैं । पहला यह कि टीआरपी रेटिंग के आंकडे साप्ताहिक नही बल्कि त्रैमासिक अथवा अर्द्धवार्षिक अंतराल पर जारी किए जाएं। साप्ताहिक आंकडे मीडिया में बदहवासी और भागमभाग की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। पूरा मीडिया कुछ सफल फार्मूलों पर चलने के लिए बाध्य होता है क्योंकि सार्थक और गम्भीर प्रयोगों के लिए उसके पास समय ही नहीं होता । त्रैमासिक अथवा अर्द्धवार्षिक आकलन व्यवस्था से आंकडों की वस्तुनिष्ठता पर भी किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पडेगा क्योंकि टेलिविजन पर प्रसारित होने वाले अधिकांश कार्यक्रम की समयावधि कम से कम 6 महीने तो होती है । खबरिया  चैनलों में समसामयिक खबरों को छोड दे तो अधिकांश कार्यक्रम सालोंसाल चलते रहते हैं , ऐसे में त्रैमासिक आकलन व्यवस्था कम से कम खबिरया चैनलों का बदहवासी से बचाएगी और कुछ गम्भीर विषयों को उठाने के लिए प्रेरित भी करेगी। समय के उपलब्धता सम्पूर्ण खबरिया संसार को मानसिक उत्पीडन से बचाएगा और गम्भीरता की तरफ अग्रसरित करेगा ।

सैम्पलिंग के आकार और क्षेत्रफल को बढाकर भी टीआरपी को अधिक प्रतिनिधित्वयुक्त बनाया जा सकता है। प्रारम्भिक दौर में कम से कम 10 प्रतिशत टेलिविजन सेटों में  टीआरपी संकेतक लगाकर दर्शकों की वास्तविक पसंद का सही अंदाजा लगाया जा सकता है। टीआरपी को सटीक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि टीआरपी संकेतक का संजाल शहरों की परिधि से निकलकर पूरे देश में फैले । भारत एक अतिविविधता वाला देश है इसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों के दर्शकों की पसंद भी अलग है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में होते हुए भी बिहार और हरियाणा के दर्शकों की पसंद में व्यापक भिन्नता देखने को मिलती है।अब यदि दिल्ली के दर्शकों की पसंद को इन दोनो प्रदेशों की दर्शकों की पसंद माना जाएगा , तो वह हास्यास्पद भी होगा और अवास्तविक भी । इसलिए , ग्रामीण क्षेत्रों में टीआरपी संकेतकों का संजाल इसके आंकडों को वास्तविकता के करीब लाएगा।

मीडिया के अधःपतन पर विशेषज्ञ से लेकर जनसामान्य तक चिंतित है। चर्चाओं का दौर गर्म है। लेकिन टीआरपी के अघोरतंत्र पर किसी का ध्यान नहीं दिया जा रहा है ,जिसकी बाहुपाश में मीडिया जकडा हुआ है , जमीन से उखड़ा हुआ है। दर्शकों की पसंद की स्वतंत्र और सार्वजनिक आकलन व्यवस्था की स्थापना कर मीडिया को टैम-टीआरपी के अघोरतंत्री सम्मोहन से मुक्ति दिलायी जा सकती है। शायद , तब मीडिया भी कर्मयोग की सात्विक साधना करे और कर्मयोगी की तरह व्यवहार करना शुरु कर दे, जिसकी हम सब अपेक्षा रखते हैं।
































खलनायक नहीं, नायक है तू


समरथ के नही दोष गोसाईं की पंक्तियां व्यवस्था में मत्स्य न्याय जैसी स्थिति की तरफ संकेत करने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं। जब कानून व्यक्तियों का भार देखकर काम करने लगता है, व्यक्ति की प्रतिष्ठा और प्रभावित करने की क्षमता से संविधान के अनुच्छेद घुटन सी महसूस करने लगते हैं, तब गोस्वामी तुलसीदास की यह पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं। अभी तक इस पंक्ति का उपयोग राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में होता रहा है। शायद, यह मान लिया गया था कि सामर्थ्य इन दोनों क्षेत्रों तक सीमित रहती है। व्यवस्था के पारंपरिक ढांचे का विश्लेषण एक हद तक इस मान्यता पर मुहर भी लगाता है कि रसूख का स्वरूप या तो राजनीतिक होता है अथवा आर्थिक। लेकिन हाल-फिलहाल की कुछ घटनाओं ने इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि रसूखदारी अब राजनीति और आर्थिकी की बपौती नहीं रह गई है।

सामर्थ्य में हिस्सेदारी रखने वाले कुछ नवघटक व्यवस्था में जुड़ चुके हैं। संजय दत्त की सजा के बाद जिस तरह का गुबार और अंधड़ पैदा करने की कोशिश की गई, वह इस बात की तस्दीक करते हैं। सजा के बाद व्यवस्था की विसंगतियों पर जैसे गंभीर सवाल उठाए गए और जिस तरह से दूर-दराज के अपरिचित हमदर्द मदद के लिए सामने आए, उससे तो ऐसा लगा कि मानो गलती संजय दत्त की नहीं,माननीय उच्चतम न्यायालय की है। संजय दत्त के खिलाफ हुई कथित ज्यादती को दूर करने के लिए कुछ लोगों ने व्यवस्था परिवर्तन की बात की तो कुछ अन्य ने व्यवस्था के गैर-पारंपरिक विधानों का उपयोग कर उच्चतम न्यायालय द्वारा हो गई गलती को सुधारने का अभियान चलाया। इस अभियान के मुखिया बने प्रेस परिषद् के अध्यक्ष - मार्कंडेय काटजू और इस गंभीर वैधानिक विमर्श का आगे बढ़ाया मीडिया ने।

मार्कंडेय काटजू ने बहस की शुरूआत करते हुए कहा कि क्योंकि संजय दत्त एक अच्छे आदमी हैं, उनके पास परिवार है और उनका ताल्लुक एक समाजसेवी परिवार से है, इसलिए मानवीय आधार पर उनको सजा से मुक्ति मिलनी चाहिए। इसके बाद तो संजय दत्त के पक्ष में जिरह करने वालों की भीड़ लग गई। कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने कहा अपराध के समय उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी। उन्होंने बचपने में एक गलती कर दी थी, इसलिए उनको क्षमादान मिलना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मानना था कि संजय दत्त पहले ही काफी कुछ भुगत चुके हैं, और अधिक सजा की जरूरत नहीं है। अभिनेत्री राखी सावंत तो इतनी भावविह्वल थीं कि उन्होंने खुद को संजय की जगह जेल जाने के लिए प्रस्तुत कर दिया। आंध्र के पूर्व अभिनेता और वर्तमान में नेता चिरंजीवी ने कहा कि संजय ने काफी सजा पहले ही काट ली है अब उनको दया के आधार पर सजा से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। धर्मेंद्र ने फरमाया कि मेरा हृदय संजय के लिए रोता है। बीमार अमर सिंह यकायक सक्रिय हो गए और वह अभिनेत्री जयाप्रदा को लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल के.शंकरनारायणन के पास जा पहुंचे और दरबार में माफी की गुहार लगाई। इन सारे लोगों के पास कोई ठोस तर्क नहीं था। वह बेचारे संजय के हक की लड़ाई मानवीय मूल्यों के आधार पर लड़ रहे थे। अपने को हमेशा क्रांतिकारी मुद्रा और नई सोच की पैरोकार के रूप में प्रस्तुत करने वाली शोभा डे ने भी अपनी धारदार कलम संजय के पक्ष में चलाई।

संजय दत्त की असली पैरवी तो आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में से एक शांतिभूषण ने की। उन्होंने 26 मार्च को द हिंदू में एक लेख लिखकर कानूनी जिरह की और उच्चतम न्यायायलय से संजय दत्त को सजा देने की अपनी गलती सुधारने की अपील की। इस लेख में उन्होंने लिखा कि संजय दत्त ने सांप्रदायिक हिंसा से उपजी हुई स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पास एके-56 जैसे हथियार रखे थे। उस समय उग्र भीड़ कुछ भी कर सकती थी, इसलिए उन्होंने उग्र भीड़ से अपनी रक्षा के लिए सुरक्षा के घातक हथियार रखे थे। किसी भी व्यक्ति को अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा करने का हक है। अब चूंकि भारतीय कानून घातक हथियारों का लाइसेंस नहीं देते, इसलिए संजय दत्त के पास डी कंपनी की शरण में जाने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा था।

पहली श्रेणी के तर्क तो इतने सतही और भोथरे हैं कि उनके खंडन की जरूरत ही नहीं पड़ती। अब यदि किसी अपराधी के लिए इस आधार पर क्षमा मांगी जाए कि उसके पास बीवी-बच्चे हैं, तब तो भारत के 99 प्रतिशत अपराधियों को छोडऩा पड़ेगा। पिछले कुछ समय में काटजू द्वारा दिए गए बयानों का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि वह मानते हैं कि सारी विद्वता उनके पास है और निर्णय सुनाने का तो वह एकाधिकार रखते हैं। शायद, इसी कारण अधिकांश पत्रकार उनको मूर्ख लगते हैं। संजय दत्त के प्रकरण में भी वह अपने से असहमति रखने वाले लोगों को खुलेआम मूर्ख और बेवकूफ बता रहे थे। उनको याद रखना चाहिए कि वह माननीय न्यायालय की परिधि से बाहर आ चुके हैं। अब उनके निर्णयों और कथनों से सैकड़ों लोग असहमत होंगे। और इस स्थिति में गुर्राने की बजाय सलीके से और तथ्यों और तर्कों के आधार पर बातचीत करना ही अधिक प्रभावी होता है। मीडियाई क्षेत्र तो वैसे भी बाल की खाल निकालने के लिए प्रसिद्ध है और जब खाल ही उधड़ी हुई तो मीडिया को खिंचाई करने से कौन रोक सकता है। अन्य लोग तो हमदर्दी दिखाने के बहाने यह सिद्ध करना चाह रहे थे कि बालीवुड की पैरोकारी का दमखम उन्हीं के पास है और जब उच्चतम न्यायालय ने अन्याय किया है तो सभी लोग,सभी दिशाएं देख लें कि वह हक की लड़ाई लडऩे में सबसे आगे हैं।

दिग्विजय सिंह तो बयान ही खंडन करने के लिए देते हैं। हेमंत करकरे के बारे मे दिग्विजय के बयान का खंडन कुछ ही मिनटों में खुद करकरे की पत्नी ने कर दिया था। अब यदि मान लिया जाए कि संजय 33 साल की उम्र में एके-56 जैसे खिलौने का महत्व नहीं जानते थे, फिर भी उनको पाक-साफ नहीं बताया जा सकता। एबीपी न्यूज ने सन् 2000 में उनके दाउद के दाहिने हाथ माने जाने वाले गुर्गे से बातचीत की टेप का प्रसारण कर चुका है। अब प्रश्र यह उठता है कि संजयदत्त से अनजाने में गलती हुई थी तो 7 सालों बाद वह क्यों पाकिस्तानी आकाओं को याद कर रहे थे और कुछ फरियादें भी कर रहे थे।

अब कानूनी पक्ष की बात करते हैं। कानून की बारीकियों में जाने से पहले यह आवश्यक हो जाता है कि हम संजय दत्त के अपराधों की पड़ताल कर लें। टाडा कोर्ट में सीबीआई ने संजय दत्त के ऊपर जो आरोप लगाए हैं उसके अनुसार 16 जनवरी 1993 को अबू सलेम ने 3 एके-56 रायफलें, 25 हैंडग्रेनेड और 7 एमएम की पिस्टल रखने के लिए दी। इनमें से एक एके-56 रायफल को अपने पास रखकर, शेष सारे हथियार उन्होंने हनीफ लाकड़ावला और समीर हिंगोरा को सौंप दिये। मॉरीशस में शूटिंग के दौरान संजय दत्त को इस बात का पता चला कि सीबीआई मुंबई बम विस्फोटों में उनकी संलिप्तता की भी जांच कर रही है। उन्होंने युसूफ नलावाला, अजय मारवा और रसी मुल्लावाला को इन हथियारों को नष्ट करने की जिम्मेदारी दी। शुरूआत में, संजय दत्त पर टाडा के तहत मुकदमा चलाया गया, बाद में पता नहीं किन कारणों से उन पर से टाडा हटा लिया गया और केवल आम्र्स एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जाने लगा। बाद में संजय ने इन तथ्यों की स्वीकारोक्ति भी की।

अब प्रश्र यह उठता है कि क्या दया का अधिकार केवल सबल को मिलना चाहिए या सबल ही दया मांगने की क्षमता रखता है ? इसी आधार पर क्या अन्य लोगों के लिए भी पैरोकारी करने के लिए लोग आएंगे ? नेशलन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के 2011 के आंकड़ों के अनुसार पूरे भारत में लगभग 2 हजार लोग आर्म्स एक्ट के तहत सजा भुगत रहे हैं जबकि 10 हजार से अधिक लोगों पर आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमे चल रहे हैं। इनमें अधिकांश बहुत ही साधारण हथियार रखने के दोषी पाए गए हैं। इसी साल के आंकड़ों के अनुसार 1लाख 28 हजार सजायाफ्ता कैदियों में से 73 प्रतिशत दसवीं फेल हैं इनमें 30 प्रतिशत तो निरक्षर है। इसी तरह 2 लाख 41 हजार विचाराधीन कैदियों में निरक्षर कैदियों की संख्या 29.5 प्रतिशत और दसवीं फेल कैदियों की संख्या 42.4 प्रतिशत है। इन निरक्षरों और गरीबों के लिए देश में कोई काटजू अपनी आवाज नहीं उठाता। दया का थोड़ा-बहुत हक तो इनका भी है।

दया, निर्बलों और असहायों के लिए मांगी जाती है। जब व्यक्ति संसाधनों के अभाव में अपनी लड़ाई नहीं लड़ पाता अथवा वह बिना किसी गुनाह के किसी को सजा दे दी जाती है, तब दया मांगी जाती है। यहां तो उल्टी गंगा बहाने की कोशिश की जा रही है। अभियुक्त अपने गुनाहों को स्वीकार कर चुका है और सार्वजनिक रूप से यह घोषणा भी कर चुका है कि वह क्षमादान नहीं मांगेगा। फिर भी, उनके  नाम पर कुछ लोग कटोरा लिए हुए घूम रहे हैं। यह अजीब स्थिति है। खलनायक और खलनायकी को वैध ठहराने के प्रयास किसी स्वस्थ व्यवस्था में तो नहीं होते। संजय दत्त का क्षमादान प्रकरण, पूंजी के  अबाध प्रवाह के कारण पैदा हुए नवधनाढ्यों की अनियंत्रित मन:स्थिति का संकेतक है। यह अनियंत्रित मनोवृत्ति व्यवस्था को अपने ठेंगे पर नचाना चाहती है और सही-गलत को अपने ढंग परिभाषित करने की कोशिश करती है। व्यवस्था में ऐस मनोवृत्ति के शिकार लोगों का प्रचार पाना किसी भी दृष्टि से शुभ नहीं कहा जा सकता।

रविवार, 21 सितंबर 2014

मूक बदलाव का मुखर बटन

बदलाव एक सनातन प्रक्रिया है। परिवर्तन रहित व्यक्ति अथवा व्यवस्था जल्द ही संड़ाध का शिकार हो जाती है। यथास्थिति की चाहत रखने वाला व्यक्ति भी स्थिर होकर खड़ा नहीं रह सकता। अपनी जगह को बनाए रखने के लिए उसे कदम आगे बढ़ाने पड़ते हैं। नियत स्थान पर कदमताल करने वाले व्यक्ति को भी पैर आगे ले जाने पड़ते हैं अन्यथा वह धीर-धीरे अपने स्थान से पीछे हट जाता है और उसे इस बात का एहसास भी नहीं होता। इसलिए व्यक्तिगत और व्यवस्थागत जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया को जन्म देना और बदलाव को स्वीकार करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
बदलाव की व्यवस्थागत प्रक्रिया के लिए लोकतंत्र को सबसे बेहतर माना जाता है क्योंकि इसमें सत्ता का हस्तांतरण बिना किसी रक्तपात और अराजकता के संपन्न हो जाता है। बदलाव के लिए किसी लाल क्रांति की जरूरत नहीं होती। पहले प्रत्येक पांच वर्षों में बैलेट के जरिए बदलाव की इबारत लिखी जाती थी और अब बटन के जरिए बदलाव की प्रक्रिया पर मुहर लगाई जाती है। बदलाव की प्रक्रिया में मतदान की अहम भूमिका होती है। मतदान केवल राजनीतिक उत्तरदायित्व ही नहीं है बल्कि यह सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्य भी है। मतदान एक संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली सामाजिक सेवा है। हम सरकार के साथ उन नीतियों का भी चयन करते हैं जो सामाजिक स्थिति को निर्धारित करती हैं।  मतदान एक धार्मिक कार्य भी है क्योंकि यह मतदान ही है जिसके कारण अच्छाई की आबोहवा बनती है अथवा बुराई का बोलबाला बढ़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इतने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कार्य को करने के लिए मतदाता को कुछ मिनट अथवा कुछ घंटे खर्च करने होते हैं। 
अधिकांश नागरिक देश के हालात और सरकारी नीतियों को लेकर क्षुब्ध रहते हैं। घर-परिवार से लेकर नुक्कड़ की दुकानों और सभा-संगोष्ठियों तक में सरकारी नीतियों और अक्षमता की चीर-फाड़ करते हैं। सामान्य जन से लेकर बुद्धिजीवी तक सरकारी नीतियों और व्यवस्थागत विसंगतियों के विश्लेषण का कार्य पूरे मनोयोग और मेहनत के साथ करते हैं। लेकिन जब स्थितियों में बदलाव करने का वक्त आता है तो हम थोड़ी सी धूप सहन करने की जहमत नहीं उठा पाते। अपने दैनिक काम को कुछ मिनटों के लिए छोड़ना पसंद नहीं करते। यदि इन बाधाओं को पार करके मतदान करते भी हैं तो जाति-बिरादरी की चारदीवारी में उलझ जाते हैं। इसके कारण उम्मीदवार की योग्यता और दल की नीतियां गौण हो जाती हैं और बदलाव की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है और देश एक चक्करघिन्नी में फंस कर रह जाता है। हैरत की बात यह है कि मतदान के प्रति आत्मघाती लापरवाही में शिक्षित बुद्धिजीवी और शहरी वर्ग आगे है। 2014 के आम चुनावों में भी मुंबई के कम मतदान प्रतिशत ने सबको हैरान कर दिया। इसी तरह नोएडा और गुड़गांव में भी पिछले कई चुनावों से मतदान प्रतिशत उल्लेखनीय नहीं रहा है। राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र माने जाने वाली दिल्ली में भी 2009 में मतदान प्रतिशत महज 51 फीसदी था। हालांकि इस बार चुनाव आयोग के कारण इसमें सुधार देखा गया और यहां 65 फीसदी से अधिक मतदान हुआ। कम मतदान के कारण देश की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार नहीं मिल पाती और राजनीतिक प्रबंधन के जरिए मतदाताओं को रिझाने वाले लोग सत्तासीन हो जाते हैं और ऐसी सरकारें देश के हितों को नहीं बल्कि अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर निर्णय लेती हैं। भारत में कम मतदान के कारण ही कुल मतदाताओं के पांचवें हिस्से का मत प्राप्त करने वाले दल भी सरकार का गठन करने में सक्षम हो जाते हैं। इस बात को 2009 के चुनावों के जरिए बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चनावों में मतदाताओं की संख्या 71.4 करोड़ थी। इसमें से 59.7 प्रतिशत (लगभग 42 करोड़) मतदाताओं ने मतदान किया। इसमें से संप्रग के पक्ष में  37.22 प्रतिशत (लगभग 15 करोड़ 30 लाख)मतदाताओं ने मतदान किया था। इन चुनावों में कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत (लगभग 11 करोड़ 50 लाख) मत मिले थे। इस तरह कुल मतदाताओं में से 16 प्रतिशत का मत प्राप्त करके कांग्रेस ने सरकार बनाने की स्थिति प्राप्त कर ली थी। क्या इसे संपूर्ण देश का जनादेश कहा जा सकता है। मात्र 16 प्रतिशत वोट सरकार बनाने में यदि निर्णायक भूमिका निभाते हैं तो इसका मूल कारण यही है कि बड़ी संख्या में नागरिक मतदान करने की जहमत नहीं उठाते।
अधिकांश मतदाताओं में यह वहम होता है कि मेरे एक मत से क्या बन-बिगड़ जाएगा? इस परिप्रेक्ष्य में यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि एक मत के कारण ही 13 महीने की अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली सरकार गिर गई थी। सरकारें मतों के मामूली अंतर से बनती अथवा बिगड़ती हैं। 2004 में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन को मतों के बहुत मामूली अंतर से सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। इस चुनाव में कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन को 35.4 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे और भाजपा नीत राजग गठबंधन 33.3 प्रतिशत मत प्राप्त कर मामूली अंतर से पीछे रह गया था। इसलिए प्रत्येक मतदाता को यह मानकर मतदान केंद्र तक जाना चाहिए कि उसका मत अमूल्य है।
निर्णायक क्षणों में की गई गलती की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। मतदान का समय देश की दशा और दिशा को निर्धारित करने वाला होता है। ऐसे समय में हर नागरिक से यही अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी भूमिका को सजगता और सक्रियता के साथ निभाएगा। कार्य की महत्ता केवल उसकी प्रकृति पर ही निर्भर नहीं करती। यह इस बात पर निर्भर करती है कि कार्य किस क्षण में किया जा रहा है। कार्य करने के समय पर भी सफलता-असफलता निर्भर करती है। इसी कारण अपने यहां शुभ कार्य, शुभ मुहूर्त में किए जाते हैं। मतदान का दिन बदलाव की चाहत रखने वाले लोगों के लिए सबसे शुभ होता है। ज्योतिषीय भाषा में कहें तो इस दिन बदलाव का सर्वार्थसिद्ध योग होता है। इस शुभ मुहूर्त में मतदान करने का परम-पवित्र कार्य जरूर करना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का समयचक्र पंचवर्षीय होता है। पांच सालों में हमारे पास मूक बदलाव का मौका आता है और ईवीएम की बटन दबाकर बदलाव का मुखर बनाया जा सकता है। यदि इन लम्हों में हम मतदान न करने की खता करते हैं तो हमें सदियों तक सजा मिलती रहेगी।

आपदा की आहट देता विकास


          उत्तराखंड में आई आपदा और उससे हुई अपार धन-जन की हानि को विभिन्न तरीकों से व्याख्यायित किया जा रहा है। कुछ लोगों के लिए यह एक प्राकृतिक आपदा है तो कुछ लोग इसे दैवीय प्रकोप मानते हंै। जबकि कुछ लोग इसे पर्यावरणीय संतुलन को क्षत-विक्षत करने वाले आधुनिक विकास मॉडल की देन बताते हैं। ऐसी हाहाकारी तथा दर्दनाक घटनाओं को  दैवीय प्रकोप मान लेने पर मानवीय भूमिका और चिंतन के लिए स्थान सीमित हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह मान लिया जाता है कि यह तो होना ही था और और मानवीय चिंतन अथवा कर्मों का इससे कोई भी लेना देना नहीं हैं। इसके उलट पर्यावरणीय नजरिए से सोचने वाले लोगों की यह मान्यता होती है कि प्रकृति अनायास कुपित नहीं होती । जब उसके साथ होने वाली छेड़छाड़ असहनीय हो जाती है तभी वह रौद्र रूप दिखाती है।
  आधुनिक विकास मॉडल प्रकृति के शोषण पर आधारित है। यह आधुनिक विज्ञान के उस चिंतन पर आधारित है जिसकी मान्यता है कि संपूर्ण प्रकृति उपभोग्य है और एकमात्र मनुष्य ही उपभोक्ता है। मनुष्य को प्रकृति का अंश मानने की बजाय उसे प्रकृति का उपभोक्ता बना देने से इन दोनों के संबंधों में संवेदनशीलता का अभाव हो जाता है। इस संवेदनशीलता के अभाव में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का क्रूरतापूर्वक दोहन करता है और प्रकृति अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति रौद्ररूप धारण कर करती है। यदि प्रकृति और मनुष्य के संबंधों में संवेदनशीलता स्थापना कर दी जाए तो प्राकृतिक आपदाओं की दर और भयावहता दोनों घट जाती है। जाहिर है इस संवेदनशीलता की स्थापना विकास मॉडल में पर्यावरणीय पहलुओं को निवेश करके ही किया जा सकता है। इस निवेश के लिए जरूरी है कि  अंधाधुंध उपभोग को ही विकास का एकमेव पैमाना मानने वाले आधुनिक विकास मॉडल में पर्यावरण समृद्धि को भी एक महत्वपूर्ण पैमाने के रूप में प्रवेश कराया जाए।  इस काम की शुरुआत  वृहद औद्योगीकरण और बेतरतीब शहरीकरण का सीमांकन करके भी हो सकती है।
 अधिकांश लोगों ने शहरीकरण को विकास के एकमेव पैमाने के रूप में स्वीकार कर लिया है। ऐसी चर्चा औद्योगीकरण के  संदर्भों में भी देखने को मिलती है। यहां पर इस प्रश्र का उठना स्वाभाविक है कि क्या शहरीकरण और औद्योगीकरण को सभी भौगोलिक परिस्थितियों के लिए विकास का एकमात्र पैमाना माना जा सकता है? 
इन प्रश्रों के उत्तर स्थानीय स्तर पर खोजने मुश्किल हैं। वैश्विक स्तर पर भी राजनीतिक और बौद्धिक तबका विकास-मॉडल से जुड़े प्रश्रों से जूझ रहा है। 2007 में इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की चौथी रिपोर्ट ने वर्तमान विकास मॉडल के मानकों के पर गहरे प्रश्रचिन्ह खड़े किए थे। इस रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई थी कि अंधाधुंध उपभोग पर आधारित वर्तमान विकास मॉडल को लंबे समय तक जारी नहीं रखा सकता। यदि उपभोग आधारित विकास प्रारूप को नहीं बदला गया तो आने वाली पीढिय़ां प्राकृतिक संसाधनों से महरूम हो सकती हैं। इसी तरह 2008-09 की वैश्विक मंदी ने फिर इस बात को साबित किया कि जिस विकास मॉडल को हम अप्रश्रीय मानकर ,आंख मूंदकर अपनाए हुए हैं ,वह अपने ही दोषों के कारण धाराशायी होने के कगार पर पहुंच गया है। उससे अपना ही भार नहीं संभाला जा रहा है। मंदी की मार उन देशों पर सर्वाधिक पड़ी थी जिन्होंने विश्वबैंक से नीतियों को आयातित किया था। इसके विपरीत जिन देशों ने अपनी जरूरतों और विशेषताओं के अनुरूप नीतियों का निर्माण किया था उन पर मंदी की मार का असर कम हुआ। मंदी ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को भी वर्तमान विकास मॉडल के फंडामेंटल्स पर फिर से विचार करने के लिए विवश कर दिया।
आईपीसीसी की रिपोर्ट और वैश्विक मंदी ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट की मांग को नई ताकत दी तथा अप्रत्यक्ष रूप से इस तथ्य को स्थापित किया कि विकास का सार्वभौमिक पैमाना नहीं हो सकता। स्थानीय भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश से उपजे विकास के मानदंड ही कल्याणकारी साबित होते हैं। दूसरे देशों अथवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा गढ़े गए मानकों को ज्यों का त्यों स्वीकार करना दूरगामी लिहाज से हानिकारक साबित होता है और इसका लाभ भी आमआदमी तक नहीं पहुंच पाता। एक देश के रूप में भारत  इसका उदाहरण है। देश के बड़े वर्ग तक अब विकास की किरण नहीं पहुंच पाई है तो इसका बड़ा कारण आयातित नीतियां ही है। 
 औद्योगीकरण और शहरीकरण के महत्व को एकदम से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह निरपेक्ष रूप से प्रासंगिक है। भूगोल इसके स्वरूप को प्रभावित करता है।  शहरीकरण और औद्योगीकरण की बात करते समय सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। इसके कई रूप होते हैं, यह कोई होमोजीनस अवधारणा नहीं है।
 विकास की प्रक्रिया को भौगोलिक और जनसांख्यिकीय दबावों और विशेषताओं से मुक्त नहीं रखा जा सकता। समान परिवेश के विकास मॉडल औैर विकास नीतियों को ही अपनाया जाना ठीक होता है। साधारणतया,शहरीकरण और औद्योगीकरण की बात ब्रिटिश और अमरीकी मॉडल को ही ध्यान में रखकर की जाती है और उसी को स्वीकार करने के लिए पैरोकारी भी की जाती है। लेकिन यह मॉडल निरापद नहीं है।
ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि स्थानीय परिवेश को ध्यान में रखते हुए विकास मॉडल के नए प्रारूप रचे जाएं । स्थानीय भूगोल की  उपेक्षा करके यदि हम अमेरिका और ब्रिटेन की चीजों को ज्यों का त्यों रोपने प्रयास करेंगे तो इसके परिणाम उत्तराखंड की तरह विनाशकारी होंगे। हिमाचल और उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति लगभग समान है।   वहां की आपदा ने इस बात को सिद्ध किया है कि  प्राकृतिक आपदाओं के के समय अवैज्ञानिक तरीके से निर्मित बांधों के कारण जन-धन की  हानि बढ़ जाती है। सेस्मिक जोन-5 में हिमाचल में भी जलविद्युत परियोजनाओं का संजाल फैला हुआ है,शहरों का बेतरतीब विस्तार हो रहा है,औद्योगीकरण के नए हब उभर रहे हैं । भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय स्थिति कितनी भयावह हो सकती है,इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। यहां किसी आपदा का कहर टूटे,इससे पहले वर्तमान नीतियों की समीक्षा नीति-निर्धारकों को कर लेनी चाहिए।                             





मंगलसंवाद का अमृतकलश


सत्यव्रतियों के लिए भारतीय संस्कृति का घोष वाक्य वादे वादे जायते तत्वबोध:है। संवाद से ही सत्य की उपलब्धि होती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं,इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और लोकतांत्रिक लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं।
 संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। संवाद के ही एक अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत  रूप-शास्त्रार्थ के जरिए हमने असत्य धारणाओं का खंडन किया,मिथ्याचारी लोगों को जमींदोज किया। अद्वैत का परचम लहराने के लिए शंकराचार्य ने किसी विरोधी का सिर उसके धड़ से अलग नहीं किया था।  सनातन परंपरा के सामने खड़ी तमाम चुनौतियों को ध्वस्त करने के लिए उन्होंने शास्त्रार्थ का सहारा लिया। शास्त्रार्थ के जरिए ही उन्होंने भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को अमृत की कुछ बंूदे पिलाईं और सभी विजातीय तत्वों से लडऩे के योग्य बनाया।
अब यहां पर एक प्रश्र का उठना बहुत स्वाभाविक है,वह यह कि क्या भारत में संवाद की प्रक्रिया को सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में स्थापित करने के लिए कुछ प्रयास किए गए अथवा नहीं। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में यह देखा गया है कि बौद्धिक जगत और आमजगत के मूल्यों में काफी भिन्नता होती है। यह भिन्नता राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों के अलावा सांस्कृतिक संदर्भों में भी देखने को मिलती है। एक ही समाज के इन दो घटकों में मूल्यों और मान्यताओं का एक स्पष्ट विभाजन सर्वत्र स्वयमेव दिखाई पड़ जाता है।
संवाद की प्रक्रिया के प्रति भारतीय आस्था की पड़ताल के लिए बौद्धिक परिवेश और आम समाज के बीच उपस्थित संवादसेतु की पहचान आवश्यक है। संवाद के विचार के संस्थानीकरण के लिए किए गए प्रयासों को चिंहित करना होगा। संवाद के ऐसे वृहदतर प्लेटफार्म के मूल स्वरूप को पहचानना होगा जहां पर व्यवस्था के सभी घटक एकत्रित होकर संवाद करते रहे हैं।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद व्यवस्थागत घटकों के एकत्रीकरण का प्रश्र और महत्वपूर्ण हो गया है। इस प्रक्रिया के कारण राज और समाज के बीच की खाईं अधिक चौड़ी हो गई है। समाज आज भी परंपराओं की गठरी को लादे सहज और स्वाभाविक दिशा में चलने के प्रति आस्थावान है और सांस्कृतिक दृष्टि से निरक्षर नीति-नियंता उसे स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम के तहत आयातित होने वाली नीतियों के खांचे में फिट करना चाहते हैं। दुर्भाग्य यह है कि इन दोनों पक्षों के बीच संवाद स्थापित करने के परंपरागत प्लेटफार्म समाप्त हो गए है और ऐसे नए प्लेटफार्म का सृजन नहीं हो पा रहा है जहां राज और समाज एक दूसरे से संवाद स्थापित कर सकें। किसी रामकथा, किसी धार्मिक आयोजन अथवा पारंपरिक आयोजनों में ये दोनों पक्ष सहभागी तो होते हैं लेकिन उनका समागम नहीं हो पाता। दरी और कुर्सी का फर्क साफ देखा जा सकता है। कुर्सी और दरी के भाव अलग होते हैं,भाषाएं अलग होती है और इसी कारण दोनों के बीच संवाद की संभावनाओं का सृजन नहीं हो पाता। इसके कारण व्यवस्था के घटकों के बीच एक कम्युनिकेशन गैप की स्थिति बन गई है।
संवादहीनता की इस स्थिति में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुनरूज्जीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है। इस बिंदु पर कुंभ के मूलस्वरूप को लेकर प्रश्र उठना स्वाभाविक है। साथ ही इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या कुभ के मूलस्वरूप को आज भी ज्यों का त्यों अपनाया जा सकता है या नहीं। यदि नहीं तो कुंभ मूलभाव का अक्षत बनाए रखते हुए उसके स्वरूप को समसामयिक कैसे किया जा सकता है?पौराणिक कहानियों के अनुसार कुंभ के आयोजन का समुद्र मंथन की प्रक्रिया से उत्पन्न अमृतकलश से है। समुद्र मंथन के कारण जिन चौदह रत्नों की समुद्र से उत्पत्ति होती है,उसमें अमृतकलश भी शामिल था। अमृतकलश पर आधिपत्य जमाने के लिए जो भागदौड़ और एक दूसरे को छकाने को खेल शुरू हुआ,उसके कारण कुछ बूंदे जमीन पर छलक पड़ी थीं। जहां-जहां पर ये अमृत बूंदे छलकी थीं वहां-वहां पर कुंभ के आयोजनहोने लगे। समुद्र मंथन की प्रक्रिया में अपने परंपरागत मतभेदों को भुलाकर देव और दानवों ने सहभागिता की थी और इनसे उपजे रत्नों में हलाहल विष भी शामिल था। यदि समुद्र मंथन की प्रक्रिया को एक मिथक मानकर,संवाद और व्यवस्था के संदर्भों में हम इसकी व्याख्या करें तो इसके कई पुरातन और सनातन अर्थ निक ल सकते हैं। समुद्र मंथन की प्रक्रिया हमारे सामने दो असुविधाजन तथ्यों को उजागर करती है। पहला यह कि संवाद एकरस नहीं होता। एक ही मान्यताओं को मानने वाले लोगों के बीच संवाद से अधिक समर्थन होता है। संवाद की प्रक्रिया अधिक कष्टसाध्य होती है। यह अपने अहं और मूढ़ता को दरकिनार करते हुए दूसरे को समझने और सहने की प्रक्रिया है। दूसरा यह कि एकरसीय संवाद प्रक्रिया के परिणाम भी बहुत सीमित दायरे में रहते हैं। विरोधाभास व्यक्ति को एक व्यापक फलक पर आरूढ़ करते हैं और विरोधाभासों की उपस्थिति संवाद के जरिए सत्य के वृहत्तर आयामों को साधने की कोशिश की जाती है। इन वृहत्तर आयामों के साधने की प्रक्रिया में कई बार बहुत कुछ अशुभ भी घटित होता है। समुद्र मंथन की प्रक्रिया में देव-दानव दोनों का शामिल होना और अमृत के साथ हलाहल की उत्पत्ति संवाद के इसी मूलचरित्र की तरफ संकेत करती है।
 अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है। 

व्यवस्थागत व्याख्या से मिलेगा कुंभ का अमृत


भारतीय मनीषा, परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है, कि अवधारणा से पूरी तरह सहमत नहीं है। वह इससे एक कदम आगे जाकर सातत्य के साथ परिवर्तन की अवधारणा में विश्वास करती है। परिवर्तन हवा में नहीं बल्कि सातत्य की आधारभूमि पर ही अवतरित होते हैं। इसके अलावा नए तत्वों के अवतरण को ही हम परिवर्तन नहीं मानते। इसमें रूपांतरण का आयाम भी शामिल है। जन्म-मरण और पुनर्जन्म के संदर्भों में तो परिवर्तन का मतलब ही रूपांतरण है। यह रूपांतरण शाश्वत तत्व का होता है,जो समय की मर्यादा के अनुरूप नया चोला धारण कर लेता है। आत्मा अमर है और शरीर बदलता रहता है। यह हमारी मान्यता है। यह मान्यता सातत्य के साथ परिवर्तन की अवधारणा को आध्यात्मिक पृष्ठभूमि उपलब्ध कराती है। लौकिक  परिप्रेक्ष्य और राष्ट्रीय सामाजिक जीवन में भी इस मान्यता के कई उदाहरण आज भी हमको देखने को मिलते हैं। इसीकारण,हम सामयिक अभिव्यक्ति के साथ शाश्वत तत्वों की पहचान पर भी जोर देते हैं। जब शाश्वत प्रज्ञा और सामयिक बुद्धि का संतुलन सधता है तो सुंदरता का आविर्भाव होता है। महाकवि माघ ने सुंदरता को परिभाषित करते हुए कहा है कि-
क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैती
तदैव रूपं रमणीयताया।
यदि स्थिरता को धारण करने वाला कोई तत्व क्षण-क्षण में रूपांतरण करे,नया रूप धारण करे तो वहां रमणीकता पैदा हो जाती है,सुं्दरता पैदा हो जाती है। शाश्वत को पहचानकर उसको सामयिक अभिव्यक्ति प्रदान करना भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता कही जा सकती है और कुंभ को इसी मान्यता की एक वृहद अभिव्यक्ति माना जा सकता है।
धर्म संसद का बारह-वर्षीय सत्र है कुंभ : पश्चिमी शिक्षा-व्यवस्था में पले-बढ़े अधिकांश बुद्धिजीवियों की मान्यता है कि लोकतंत्र में निहित विशेषताओं का विकास पश्चिमी देशों में हुआ है। यह वर्ग मानता है कि व्यवस्थागत मुद्दों में समाज की सहभागिता और सार्वजनिक चर्चा जैसी लोकतांत्रिक विशेषताओं का इतिहास दो सौ साल से अधिक पुराना नहीं है। परंतु यह अवधारणा सही नहीं है । भारत में लोकतांत्रिक परंपराएं लंबे समय से मौजूद रही हैं। यह अलग बात है कि यदि हम ब्रिटेन अथवा अमेरिका को केंद्र में रेखकर भारत का अध्ययन करेंगे तो ऐसी विशेषताओं की पहचान कर पाना मुश्किल होगा। पश्चिमी देशों में नीति-निर्माण की प्रक्रिया पूरी तरह राजसत्ता के हाथों में केंद्रित है। दूसरे,शब्दों में कहें तो वहां पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया पर राजसत्ता का एकाधिकार है। भारत की व्यवस्थागत संरचना पश्चिमी दुनिया से अलग है। यहां पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया बहुध्रवीय है। यह राज,समाज और धर्म में विकेंद्रित है। इन त्रिपुटी के सुंदर समन्वय से यह व्यवस्था  संचालित होती है। राजदंड पर धर्मदंड के नियंत्रण की बात राज और धर्म के संतुलन की तरफ संकेत करता है। इसी तरह पंचायत प्रणाली लोकसत्ता औश्र राजसत्ता के संबंधों की तरफ संकेत करती है।
भारतीय व्यवस्था का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मतंत्र और राजतंत्र के बीच संवाद के अवसरों की बहुलता है। इसी तरह राजतंत्र और  समाजतंत्र के बीच संवाद के अवसर भी बन जाते हैं लेकिन धर्मतंत्र और समाजतंत्र के बीच संवाद के अवसरों की संभावना स्वाभाविक रूप से नहीं बन पाती । उनका सृजन करना पड़ता है। धर्म और समाज के बीच एक नियमित अंतराल पर संवाद का सृजन हो सके ,इसके लिए ही कुंभ जैसे आयोजन अस्तित्व में आए। कुंभ  समाज और धर्म के बीच संवाद का एक वृहद प्लेटफार्म है।
कुंभ की व्यवस्थागत व्याख्या: भारतीय चिंतन सदैव से लोक और वेद के संतुलन पर जोर देता है। कुछ लोग इसी विशेषता को ऋषि और कृषि परंपरा के संतुलन के रूप में परिभाषित करते हैं। समय के कारण हो रहे बदलावों को समाज अपने ढंग से महसूस करता है और आदर्श की मर्यादाओं में रहकर नए बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता है। परिवर्तन की बयार मर्यादा के स्तंभों को धाराशायी न कर दे, इसके लिए समाज लगभग एकदशक में कुछ सूत्रों की तलाश कर लेता है और यह चाहता है कि व्यवस्था में उनको स्थान मिले। हालांकि ये सूत्र अभिव्यक्ति के लिहाज से अनगढ़ होते हैं और कुछ हद तक अपरिष्कृत भी। लेकिन ये व्यवहारिक दृष्टि से अधिक सक्षम भी होते हैं। इन सूत्रों और समाधानों की खूबसूरती यह है कि इनकी रचना  दैनिक जीवन के झंझावातों में स्वाभाविक रूप से सृजित होते हैं। ऐसे सूत्र एकांत में पैदा होने वाले एकांगी सूत्र नहीं होते बल्कि जीवन की धूप-छाव में ,दु:ख-सुख में,उतार-चढ़ाव में पैदा होते हैं। शायद इसीलिए इनमें व्यवस्था को ठीक रास्ते पर रखने की क्षमता अधिक होती है।
धर्मसत्ता का तो ध्येय ही है-आत्मनोमोक्षार्थ जगत् हिताय च। आत्म मुक्ति का रास्ता सामाजिक कल्याण से पृथक नहीं है। इसीलिए,धर्मसत्ता की भी सामाजिक बदलावों पर बड़ी गहरी नजर होती है। वह एक परिदृश्य में हो रहे बदलावों का विश£ेषण करने में सक्षम होते है और राजसत्ता जिस शब्दावली और मुहावरों को समझती है,उनमें ही नए बदलावों को अभिव्यक्त भी कर सकती है। धर्मसत्ता का चिंतन लोकसत्ता की अपेक्षा अधिक उदात्त और आदर्शवादी होता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक हो जाता है कि धर्मसत्ता और लोकसत्ता  एकदशकीय संगम हो। ताकि यथार्थ और आदर्श का सम्मिलन हो सके। अपरिष्कृत विचारों को सुघड़ अभिव्यक्ति मिल सके। लोकसत्ता ,धर्मसत्ता के आकाश में उड़ान भर सके और धर्मसत्ता,लोकसत्ता की खुरदुरी जमीन पर चलने के कटु अनुभव से वाकिफ हो सके । एक संतुलित और समग्र विधायन के लिए धर्मसत्ता और लोकसत्ता का संगम आवश्यक है। कुंभ को एक ऐसा ही संगम माना जा सकता है।कुंभ की इस तरह की व्यवस्थागत व्याख्या परंपरा के आग्रही और आधुनिकता के दुराग्रही,दोनों को अजीब लग सकती है। यह तर्क दिया जा सकता है कि कुंभ का सम्बंध तो समुद्र मंथन और उससे उपजे अमृतकलश से है। यह भी कहा जा सकता है कि कुंभ का आयोजन ज्योतिषीय गणनाओं पर आधारित है। आधुनिकतावादी यह तर्क दे सकते हैं कि इतनी बारीक व्यवस्थागत समझ और उसके संस्थानीकरण की क्षमता भारत के पास कभी भी नहीं रही। कुंभ तो अंधविश्वास का महामेला है। इन प्रश्रों के बीच पूरी विनम्रता से यह प्रश्र भी पूछा जाना चाहिए कि क्या सैकड़ों सालों के प्रयास के बिना इस तरह के आयोजन अस्तित्व में आ सकते है? एक ऐसा आयोजन जिसकी पहुंच निरक्षर,गरीब और दुर्गम इलाकों तक है। कुंभ जैसे जटिल और वृहद आयोजन को किसी एक खांचे में रखकर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। फिर भी,एक ऐसे दौर में जब युवा पीढ़ी अपनी पहचान को नए सिरे से खोजने का प्रयास कर रही है,कुंभ पर भी नई चर्चा शुरू होनी चाहिए। 
अमृतकलश के अस्तित्व की खोज तभी सार्थक होगी जब यह भारतीय परिप्रेक्ष्य में,भारतीय दृष्टि से और भारतीय शब्दावली में की जाए। पश्चिम अगर कुंभ की जड़ों को खोजने चलेगा तो परिणाम अनर्थकारी होंगे। उसके पास वह दृष्टि ही नहीं है जो इसकी व्याख्या कर सके। वह तो कुंभ को आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ही व्याख्यायित करने की कुशलता रखता है। यही उसकी सीमा भी है। कितने लोग आए,कितने लोग गए,कितने का सामान बिका,सरकार ने कितना खर्च किया,पुलिस-प्रशासन की व्यवस्था कैसी रही,इस नजरिए से कुंभ की व्याख्या पश्चिम कर सकता है और कर भी रहा है। दुर्भाग्य से मीडिया भी अपनी व्याख्याएं इसी तर्ज पर कर रहा है। कुंभ की व्याख्या व्यवस्थागत और सांस्कृतिक नजरिए से कोई कोशिश हो रही हो ,ऐसा नहीं दिखाई देता।भारतीय दृष्टि से होने वाली व्याख्या हिसाब-किताब से आगे की व्याख्या होगी। हमारी व्याख्या के केंद्र में यह होना चाहिए कि कैसे बिना-बुलावे के लाखों-करोड़ों लोग आते हैं? कैसे भारतीय समाज में गहरे तक जड़ जमा चुकी जातिवादी व्यवस्था संगमतट और अन्यकुंभों में पहुंचकर दम तोड़ देती है। वह क्या कारण है जिसके कारण लाखों लोग कंपकंपाती ढंठ में अपनी छोटी गठरी लेकर साधुओं का सान्निध्य के जरिए पुण्य कमाने पहुंच जाते हैं? क्या कुंभ भारतीय समाज को एकसूत्र में बांधे रखने में अहम भूमिका निभाता है अथवा निभा रहा है? और क्या कुंभ के जरिए उन प्रतीकों और मान्यताओं को पुनर्जीवन मिलता है,जिन्हें हम भारतीय संस्कृति का आधार कहते हैं। पिछले दो दशकों से भारतीय लोकअनुभवों के जरिए जलसंरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय राजेंद्र सिंह कुंभ के आयोजन को एक नए परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हैं। उनका मानना है कि कुंभ समाज को नदियों के प्रति संवेदनशील बनाता है,आस्थावान बनाता है। यह लोकसंवेदना नदियों को सदानीरा और स्वच्छ बनाए रखती है। कुंभ के जरिए भारतीय समाज जल संपदा के प्रति संवेदनशील बना रहता है। राजेंद्र सिंह की अवधारणा में सत्य का कितना पुट है,इसको लेकर बहस की जा सकती है। लेकिन यह हमको कुंभ की व्याख्या का एक नया और मौलिक भारतीय परिप्रेक्ष्य जरूर उपलब्ध कराता है।
भारत को भारतीय दृष्टि से समझना और समझाना समय की सबसे बड़ी मांग है। यदि एक राष्ट्र के रूप में हम अपने अस्तित्व को अपनी दृष्टि और अपनी भाषा में समझने में सफल हो जाते हैं तो सदियों की गुलामी से हमारे भीतर पनपी आत्महीनता की ग्रंथि का अपने आप उच्छेदन हो जाएगा। कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए हम स्वयं को नए सिरे से समझने की प्रक्रिया की शुरूआत कर सकते हैं। यह शुरूआत राष्ट्र और समाज जीवन के अन्य  तत्वों को भी मौलिक भारतीय दृष्टि से समझने के लिए प्रेरित करेगी। इसके जरिए हमारे सनातन पुण्यप्रवाह को अमृत की कुछ नई बूंदे मिल सकेंगी।

   



नए मुद्दों और मुहावरों के चुनाव


लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती इसका परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ कदमताल करते हुए आगे बढऩा है। लोकतांत्रिक शासनप्रणाली बदलावों के प्रति सजग और संवेदनशील होती है।  परिवर्तन को पहचानने और अभिव्यक्त करने में सक्षम होने के कारण यह एक सेफ्टी वाल्व की तरह भी काम करती है, जिसके जरिए लोगों का गुस्सा और गुबार समय-समय पर बाहर निकलता रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में हिंसा का स्पेस कम होता है और सत्ता का हस्तांतरण भी शांतिपूर्ण ढंग से संभव हो पाता है। यह प्रणाली समय-समय पर समकालिक बदलावों के अनुरूप मुद्दों और मुहावरों को भी गढ़ती है।
हाल ही में,हिमाचल प्रदेश और गुजरात में हुए चुनाव सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया तक सीमित नहीं हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में, इन चुनावों  का महत्व कुछ नए लक्षणों के कारण भी है। इस चुनाव ने राजनीतिक गलियारे को कुछ नए मुद्दे और मुहावरे दिए हैं। यह मुद्दे और मुहावरे इस बात की तरफ संकेत करते हैं कि भारतीय राजनीति नए चरण में प्रवेश कर चुकी हैं।
इस चुनाव को सबसे रोचक मुहावरा दिया गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने। उनसे जब कुछ पत्रकारों ने पूछा कि आप पिछले 11 सालों से सत्ता में हैं,क्या आपको सत्ता विरोधी लहर अथवा एंटी-इंकम्बेंसी से डर नहीं लगता। मोदी ने इसका बड़ा रोचक उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि एंटी-इंकम्बेंसी अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण का यह हथियार गुजरात में काम नहीं करेगा। गुजरात में इस बार सत्ता के पक्ष में लहर अर्थात प्रो-इंकम्बेंसी है। मोदी के द्वारा दिया गया यह नया मुहावरा जल्द ही राजनीतिक विश£ेषकों की शब्दावली में शामिल हो गया। चुनाव  परिणाम आने के बाद बहुत राजनीतिक पंडित इस बात कि चर्चा करते सुने गए कि कैसे दिल्ली,ओडीशा और असम में प्रो-इंकम्बेंसी काम कर रही है।
मोदी का 3 डी प्रचार अभियान भी इस चुनाव के जरिए भारतीय राजनीति को दी गई एक नई देन है। इस तकनीक को अस्तित्व में आए ता लम्बा अरसा हो गया है लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इसका उपयोग गुजरात चुनावों के समय हुआ।   
हिमाचली परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहां पहली बार चुनाव अभियान में  रिपीट जैसे पारंपरिक शब्द के साथ डिलीट जैसे सायबर शब्द का भी इस्तेमाल हुआ । चुनाव की पूरी अवधि के दौरान आम आदमी की चर्चा भी मिशन रिपीट और मिशन डिलीट के चहुंओर चक्कर काटती रही। चुनावों के परिणाम आने के बाद अधिकांश समाचार पत्रों की लीड स्टोरी की हेडिंग में रिपीट और डिलीट शब्द ही छाए रहे।
इन चुनावों का महत्व मुहावरों से अधिक मुद्दों के लिहाज से है। हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों में पहली बार चुनाव विशुद्ध रूप से विकास के नाम पर लड़े गए। गुजरात के चुनाव में तो आंकड़ेबाजी अपने चरमसीमा पर पहुंच गई थी। टेलिविजन पर होने वाली चुनावी चर्चाओं को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों की चर्चा सुन रहे हैं। कोई यह बताने में जुटा था कि गुजरात में औद्योगिक और कृषि विकास दर क्या है तो कोई गुजरात मे एनीमिक महिलाओं और कुपोषित बच्चों का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहा था। देखने में तो यह साधारण बात लगती है लेकिन यदि हम तमिलनाडु,उत्तर प्रदेश अथवा बिहार के चुनावी मुद्दों पर नजर डालें तो इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है। तमिलनाडु में चर्चा इस बात को लेकर थी कि कौन सी पार्टी कितने मुफ्त उपहार दे रही है। उत्तर प्रदेश  और बिहार के चुनाव में तो हर चर्चा जाति से शुरू होती है और उसी में समाहित हो जाती है। इसी कारण,तमाम क्षमताओं के बावजूद ये राज्य विकास के पैमाने पर यह राज्य अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। गुजरात के चुनाव में पटेल फैक्टर की बात जरूर की जा रही थी,कई लोग इससे भी आगे जाकर कड़वा पटेल और लेउआ पटेल की भी चर्चा कर रहे थे,लेकिन मूल मुद्दा तो गुजरात का विकास ही था। इसीलिए,इस बार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने मोदी को विकास के मोर्चे पर घेरने की कोशिश की। गुजराती विकास को छलावा बताया। इससे पहले गुजरात चुनाव सांप्रदायिक मुद्दे के आस-पास ही घूमता था। 2007 के चुनावों में सोनिया ने विकास के छलावा होने की बात नहीं कही थी,बल्कि मौता का सौदागर होने की टिप्पणी की थी। इससे साबित होता है कि गुजरात चुनाव मोदी द्वारा गढ़े गए विकास -प्रतिमान के चहुंओर ही लड़े गए।  

हिमाचल में भी विकास ही प्रमुख मुद्दा रहा। चुनाव हारने के बाद प्रेम कुमार धूमल ने जो पहली प्रतिक्रिया दी वह प्रमुख मुद्दे की तरफ इशारा करती है। उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश में कोई भी ऐसा घर नहीं है,जो पिछले पांच सालों में सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों से किसी न किसी रूप में लाभान्वित नहीं हुआ हो। फिर भी हमारी पार्टी को अपेक्षित मत नहीं मिले ,तो यह मंथन का विषय है। जाहिर है उनको  विकास के कामों के जरिए सत्ता में पुनर्वापसी का भरोसा था।
चुनाव जीतने के बाद मोदी ने कहा कि यह गुजरात के विकास मॉडल की जीत है तो वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने कहा कि हिमाचल और गुजरात में लोगों ने भाजपा के विकास मॉडल को नकार दिया है। यह दोनों टिप्पणियां विकास मॉडल पर केंद्रित थी और इस बात की तरफ संकेत कर रही थीं कि भारतीय राजनीति एक नई और ऊंची कक्षा में प्रवेश कर रही है।