शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ ------ जयप्रकाश सिंह

गीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है बल्कि यह व्यवस्था की एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी स्थिति, जब सत्य और असत्य के बीच आमना-सामना अवश्यम्भावी बन जाता है। इस स्थिति में पूरी व्यवस्था व्यापक बदलाव के मुहाने पर खडी होती है।
असात्विक शक्तियों की चालबाजियों, फरबों और तिकड़मों से आम आदमी कराह रहा होता है। अभिव्यक्ति में असत्य हावी हो जाता है। परम्परागत सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं में सडांध इस कदर बढ़ चुकी होती है कि अपने हितों के लिए मूल्य एवं आदर्श को ताक पर रखना सहज व्यवहार बन जाता है। राज और समाज को संचालित करने वाली शक्तियां इतनी मदमस्त हो जाती है कि उनके खिलाफ ‘लो इन्टेंसिटी वार’ अप्रासंगिक हो जाता है।
लेकिन इस स्थिति का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वह यह कि सात्विक शक्तियां असात्विक शक्तियों की चुनौती को ताल ठोंककर स्वीकार करती हैं। इस कारण प्रत्यक्ष संघर्ष अपरिहार्य बन जाता है। दोनों पक्षों को एक-दूसरे के खिलाफ शंखनाद करना पडता है। चूंकि यह संग्राम धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लड़ा जाता है इसलिए जिस भूमि पर सेनाएं डटती हैं, वह धर्मभूमि बन जाती है । इस स्थिति की एक विशेषता यह भी है कि अपने तमाम अच्छे आग्रहों के बावजूद संचार और संचारक (मीडिया और पत्रकार) असात्विक शक्तियों के पाले में ही खडे दिखायी देते हैं और उनकी भूमिका मात्र आंखो देखा हाल सुनाने तक सीमित हो जाती है।
भारत जिस कालखण्ड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युद्ध का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर सम्पूर्ण भारत है। एक लम्बी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढने के लिए प्रयत्नशील हैं।
इस बिन्दु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले कई सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जिजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। 17वीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे।
18वीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परम्परा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने का एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोडा। 1990 के बाद मीडिया-मार्केट गठजोड के कारण लोगों में तेजी से रोपी जा रही उपभोक्तावादी जीवनशैली के कारण भारतीयता पर आक्रमण का एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल गया।
मीडिया-मार्केट गठजोड का भारतीयता से आमना-सामना अवश्यम्भावी था क्योंकि भारतीयता त्यागपूर्वक उपभोग के जरिए आध्यात्मिक उन्नति के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कहती है जबकि दूसरा पक्ष उपभोग को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है और अंधाधुध उपभोग पर आधारित जीवन-शैली को बढावा देता है। भारतीयता पर आक्रमण करने वाले इस त्रिकोण के अन्तर्सम्बंध आपस में बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। कहीं-कहीं तो वे एक-दूसरे पर जानलेवा हमला करते हुए भी दिखते हैं। लेकिन भारतीयता से इन तीनों को चुनौती मिल रही है। इसलिए इस त्रिकोण ने भारतीयता की समाप्ति को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया है।
इस अभारतीय त्रिकोण के उभार के कारण संघर्ष की प्रकृति और त्वरा में व्यापक बदलाव दिखने लगे हैं। पहले दोनों पक्षों के बीच अनियोजित अथवा अल्पयोजनाबद्ध ढंग से विभिन्न मोर्चों पर छोटी-मोटी लडाईयां होती रही हैं। अब सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से भारतीयता पर आक्रमण हो रहे हैं और उसके अस्तित्व को समाप्त करने प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीयता की वाहक शक्तियां भी चुनौती को स्वीकार करने का भाव जता रही हैं इसलिए अब महासंग्राम का छिडना तय सा दिख रहा है।
पिछले दो-तीन वर्षों सें हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को रोपने का जो प्रयास किया जा रहा है और उसका जिस तरह से प्रतिवाद हो रहा है, वह भावी महासंग्राम का कारण बन सकता है। हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा अभारतीय शक्तियों का एक व्यवस्थित और दूरगामी प्रयास है। पश्चिम में तेजी से फैल रही आध्यात्मिकता तथा उदात्त और समग्र भारतीय जीवनशैली की बढ़ती स्वीकार्यता से भयभीत अनुदार सभ्यताएं इस अवधारणा के जरिए वस्तुतः उपभोक्तावादी जीवनशैली और पूंजीवादी दर्शन के लिये सुरक्षा कवच तैयार करना चाहती हैं।
योग और आयुर्वेद के प्रति सम्पूर्ण दुनिया की नई पीढी का आकर्षण बढ़ रहा है। इसी तरह अनेक संस्थाएं और संत पश्चिम में आध्यात्मिकता की अलख जगा रहे हैं और वहां नई पीढी इस ओर तेजी से आकर्षित हो रही है। इस आकर्षण भाव के चलते भारतीयता विरोधी त्रिकोण के हाथ-पांव फूल गए है। भारतीय दर्शन की यह स्वीकार्यता जहां एक ओर चर्च की वैचारिक जड़ता और अवैज्ञानिकता को रेखांकित करती है वहीं पूंजीवादी दर्शन पर भी कठोर प्रहार करती है।
योग और आयुर्वेद केवल रोगमुक्ति नहीं देते बल्कि जीवन-शैली बदलने के लिये भी प्रेरित करते हैं। इसके साथ शाकाहार आता है, संयम आता है, सादगी आती है, व्यसनमुक्ति आती है। जैसे-जैसे यह सदगुण बढ़ते हैं, मनुष्य का रोग ही नहीं घटता, भोग की प्रवृत्ति भी घटती है। इसका सीधा असर उपभोक्तावाद पर आधारित पूंजीवाद पर होता है। इसलिये पूंजी और उपभोग पर आधारित जीवनशैली के उपासक योग और आयुर्वेद का गला उसके घर में ही घोंट देना चाहते हैं। इसके लिये वे अपनी आर्थिक-राजनैतिक-सामरिक शक्तियों का भरपूर उपयोग करते हैं। भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों में जमे उनके प्रतिनिधि उनके इस खेल के मोहरे बनते हैं।
भारतीयता की छवि को संकीर्ण और कट्टर पेश कर यह त्रिकोण उसके प्रति तेजी से पनप रहे आकर्षण भाव को भंग करना चाहता है। हिन्दू आतंकवाद का नया शिगूफा छोडकर इस त्रिकोण ने भारतीयता की ध्वजवाहक शक्तियों को भारत में ही घेरने की रणनीति बनायी है। वे जानते हैं कि जब तक यहां का समाज बिखरा और बंटा रहता है, उन्हें भारत की धरती पर अपना हितसाधन करने में कोई कठिनाई नहीं होती। संगठित भारतीय समाज उनके लिये चुनौती पेश करता है। इसलिये अगर वे भारत के संसाधनों को निचोड़ना चाहते हैं तो उन्हें पहले भारत की संगठनशक्ति पर चोट करनी होगी। यही कारण है कि देश की राष्ट्रवादी शक्तियां उनके निशाने पर हैं। उनके पिठ्ठुओं द्वारा गढ़े गये भगवा आतंकवाद के निराधार जुमले का निहितार्थ यही है। सत्ता और मीडिया से जुड़े कुछ लोगों और समूहों का यह चीत्कार सत्य का संधान नहीं बल्कि सात समुन्दर पार बैठे आकाओं के सामने अपनी वफादारी साबित करने की कोशिश है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की अतिउत्साही भूमिका भी देखने लायक है। दो वर्ष पहले तक किसी पंथ को आतंकवाद से न जोडने का उपदेश देने वाला मीडिया बिना किसी सबूत और साक्ष्य के हिन्दू आतंकवाद शब्द को बार-बार दोहरा रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि हिन्दू आतंकवाद शब्द को मीडिया के जरिए आम-लोगों से परिचित पहले करवाया गया और उसकी पुष्टि के सबूत बाद में जुटाए जा रहे हैं। एक अवधारणा के रुप में हिन्दू आतंकवाद हाल के दिनों में मीडिया ट्रायल का सबसे बडा उदाहरण है।
सबसे पहले मालेगांव प्रकरण में हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया गया। इस प्रकरण में सांगठनिक स्तर पर अभिनव भारत तथा व्यक्तिगत स्तर पर साध्वी प्रज्ञा का नाम उछाला गया। मालेगांव विस्फोट प्रकरण में मीडिया को तमाम मनगढंत कहानियां उपलब्ध कराने के अतिरिक्त आजतक जांच एजेंसियां कोई ठोस सबूत नहीं इकट्ठा कर पायी हैं। अभिनव भारत जैसे अनजान संगठन को लपेटने पर भी भारतीयता पर कोई आंच आती न देख अब इस त्रिकोण ने भारत और विश्व के सबसे बडे सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू आतंकवाद से जोडने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है। संघ इस त्रिकोण के निशाने पर पहले भी सबसे उपर रहा है। क्योंकि आतंकवाद, धर्मान्तरण और खुली अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के प्रति संघ आमजन को जागरुक करता रहा है। इस कारण पूरे भारत में धीरे-धीरे इस त्रिकोण के खिलाफ एक प्रतिरोधात्मक शक्ति खडी होती जा रही थी ।
अब इन शक्तियों ने संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश, जिन्हें मुसलमानों को भी संघ के कार्य से जोडने के लिए विशेष रुप से जाना जाता है, का नाम अजमेर बम विस्फोट में घसीटा है। यह त्रिकोण इन्द्रेश के नाम को अजमेर बम विस्फोट से जोडकर एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश कर रहा है। इससे जहां एक तरफ त्रिक़ोण के सर्वाधिक सशक्त प्रतिरोधी की राष्ट्रवादी और लोककल्याणकारी छवि को धूमिल किया जा सकेगा वहीं इस्लामिक आतंकवाद के समकक्ष हिन्दू आतंकवाद शब्द खडा कर हिन्दू-मुस्लिम संवाद के एक संभावित धरातल को नष्ट भी किया जा सकेगा।
संघ ने भी इस चुनौती को स्वीकार करने का मन बन लिया है। संघ ने 10 नवम्बर को पूरे देश में हिन्दुत्व और भारतीयता को बदनाम करने के इस कुत्सित प्रयास के खिलाफ धरना देने का फैसला किया है, आमजनता के बीच जाने का निर्णय लिया है।
इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ जाता है कि क्योंकि संघ ने धरने-प्रदर्शन के पूरे अभियान के सूत्र अपने हाथ में रखे हैं। इससे पहले महात्मा गांधी की हत्या के बाद बेवजह संघ का नाम इससे जोड़ कर उस पर प्रतिबंध लगाया गया तब संघ ने सत्याग्रह किया था। साठ वर्ष बाद यह पहला मौका है जब संघ किसी मुद्दे की बागडोर खुद अपने हाथ मे लेकर आमजन के बीच जा रहा है। धरने-प्रदर्शन का यह अभियान मात्र अभारतीय त्रिकोण को उत्तर देने की तैयारी मात्र नहीं है। एक महासंग्राम की स्थितियां पूरी तरह बन गयी हैं। भारत तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की तरफ बढ रहा है। लेकिन कोई ऐसा संजय नहीं दिखाई दे रहा है जो असत्य के पाले में रहते हुए भी अंधी सत्ता को बीच-बीच में टोक कर उसे सत्य मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता रहे और स्थिति की भीषणता की तरफ उसका ध्यान भी आकर्षित करे।

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