रविवार, 15 मई 2016

शक्ति पूजा का निराला पथ



नवरात्र शक्ति के आह्वान का पर्व है। यह शक्ति के अवतरण के लिए आधारभूमि तैयार करने का साधना काल हैए इसलिए इसे साधनापर्व भी कहा जाता है। शाक्त सपं्रदाय की मान्यता है कि दैवीय शक्ति विविधए सूक्ष्म रुपों में सदैव ब्रह्मांड में विचरती रहती है लेकिन वह प्रत्यक्ष और भौतिक रुप तभी धारण करती हैए जब उसको उचित आधार मिलता है। उसका अवतरण उचित पात्र में संभव हो पाता है। आधार पुष्ट होए शक्ति के तेज को वहन करने योग्य होए तो शक्ति का अवतरण स्वयं घटित हो जाता है। इसलिएए नवरात्रों में स्वयं को साधने की कोशिश की जाती हैए स्वयं को एक मजबूत आधारए उचित पात्र में रुपांतरित करने की कोशिश होती है।

व्रतए उपवासए जपए अखंड दीपए संयमित जीवनशैली शक्ति के तेज को धारण करने की तैयारी ही तो हैं। नौ दिनों तक ब्रह्मांडीय शक्तियों का आह्वान और पिंडीय ;शरीरगतद्ध शक्तियों का स्मरण यही तो नवरात्र है। यहां पर यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि शक्ति का साधना का मतलब अप्राप्य शक्तियों की प्राप्ति भर नहीं है बल्कि यह प्राप्त शक्तियों के सतत स्मरण और उन पर विश्वास बनाए रखने की भी साधना है। ष्अहं ब्रह्मास्मिष् के स्वरुप को सतत याद रखने मात्र से हम विराट शक्तिपुंज से जुड़ जाते हैं। इस स्वरुप के स्मरण मात्र से हमारा कर्मक्षेत्र और लक्ष्य दोनांे विस्तृत हो जाते हैं। इसी तरह ष्का चुप साधि रहा बलवानाष् के जरिए भी जांबवान ने हनुमान को उनके ष्अतुलित बलधामंष् के स्वरुप से परिचित कराने की कोशिश भर की है। उसके बाद शक्ति का विस्फोट कैसे होता है और वह कौन.कौन अविश्वसनीय काम करा लेती हैए यह बताने की जरुरत नहीं है।

यहां पर प्रश्न यह उठता है कि क्या शक्ति जागरण अथवा शक्ति अवतरण केवल वाह्य उपकरणों तक सीमित है। क्या वाह्य पदार्थों के अर्पण तक ही शक्ति साधना सीमित है और क्या अंतःकरणीय रुपांतरणए शक्ति का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए आवश्यक नहीं हैघ् शक्ति जागरण में वाह्य विधि.विधान और अंतःकरणीय रुपांतरण संबंधों को लेकर भारतीय मनीषियों में चिंतन की एक सुदीर्घ परंपरा रही हैए लेकिन इस पर बहुत मौलिक और सामयिक चिंतन हमें निराला की कविता राम की शक्तिपूजा में मिलता है। आज जब शक्तिपूजा को लेकर विभ्रम की स्थिति पैदा हो गई है अथवा की जा रही हैए तो निराला की शक्तिपूजा हमें शक्ति और उसकी पूजा के सत्व से परिचित करा सकती है।

स्थूल दृष्टि से देखें तो यह कविता राम.रावण युद्ध के दौरान विजय प्राप्त विजय प्राप्त करने के लिए भगवान राम द्वारा की गई शक्ति उपासना का एक विशदए काव्यमय वर्णन मात्र है। लेकिन यदि गहराई में उतरें तो यह पाते हैं कि इस कविता शक्ति की गरिमा का बखान तो है ही ए उसके साथ ही शक्ति साधना का सूक्ष्म और तात्विक विवेचन भी हैए जिसके जरिए शक्ति.अवतरण के वास्तविक सूत्रों की पहचान की जा सकती है।

यह महाकविता शक्ति की प्रकृतिए गति और महत्ता को बहुत सूक्ष्मता से संबोधित करती है। शक्ति की सबसे अधिक आवश्यकता संक्रमणकाल में होती है। परिवर्तन के समयए यु़द्ध के समयए प्रत्येक व्यक्ति शक्ति का आकांक्षी हो जाता है। संक्रमण और परिवर्तन के दौर में जिसके पास शक्ति का बाहुल्य होता है वह मूल्यों को नई व्यवस्था को अपने ढंग से गढ़ता है। संभवतः यही कारण है कि शक्ति आराधना का पर्व ऐसे समय पर पड़ता है जब समय करवट ले रहा होता है। संक्रमणों से आदमी त्र्ास्त होता है। ऐसे में शक्ति साधना का आध्यात्मिक महत्व तो होता ही हैए उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी महत्व कम नहीं होता।

ष् राम की शक्ति पूजा ष् भी राम.रावण युद्व के एक बिंदु से प्रारंभ होती हैए जहां पर युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुंच चुका होता है। उस दिन विशेष का युद्ध थोड़ा रावण के पक्ष में झुका हुआ होता है। राम व्यथित और हताश है। कविता स्थिति का जीवंत वर्णन करते हुए कहती है.

लौटे.युग.दल.राक्षस .पतदल पृथ्वी टलमलए बिंध महोल्लास से बार.बार आकाश विकल।

वानर वाहिनी खिन्नए लख निज पति चरण चिन्हएचल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित है वातावरण ए नमित मुख सांध्यकमलएलक्ष्मण चिंतापल पीछे वानर वीर.सकल।

स्थितियां बहुत निराशाभरी हैं। विश्वविजय की क्षमता रखने वाले भगवान राम अपनी क्षमताओं को बिसरा चुके हैं। पहली बार उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि युद्ध हाथ से निकल चुका है। इस मनःस्थिति और परिस्थिति का वर्णन कवि बहुत सजीव ढंग से करता है.

है अमानिशाए उगलता गगन घन अंधकारए खो रहा दिशा का ज्ञानए स्तब्ध है पवन.चारए

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अंबुधि विशालए भूधर ज्यों ध्यानमग्नए केवल जलती मशाल।

स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर.फिर संशयए रह.रह उठता जग जीवन में रावण जय.भय।

कारण बहुत स्पष्ट था। राम आज युद्ध भूमि में हतलक्ष्य हो गए थे। विश्वविजय की क्षमता रखने वाले और क्षात्रधर्म की प्रतिष्ठा रखने वाले उनके तमाम शस्त्र विफल हो गए थे। रावण को लक्ष्य करके वह जिस भी शक्ति का संधान कर रहे थेए वह निष्फल हो जा रही थी। महाशक्ति ने आज रावण को अपने आंचल की छांव दे रखी थी और वह राम के युद्ध विजय के प्रयासों से क्रोधित हो रही थी। शक्ति के इस रुप को देखकरए उसे रावण के पक्ष में देखकर मर्यादा पुरुषोत्तम स्वयं को हतबल पा रहे थे.

देखा है महाशक्ति रावण को लिए अंकए लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक

हत मंत्रपूत शर सम्वृत करतीं बार.बारए निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र बार.बार

विचलित लख कपिदल क्रुद्धएयुद्ध को मै ज्यो.ज्योंझक.झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यो.त्यों

पश्चातए देखने लगी बंध गए हस्तए फिर खिंचा न धनुए मुक्त ज्यों बंधा मैंए हुआ त्रस्त।

शक्ति को अन्याय के पक्ष देखकर श्री राम को घोर आश्चर्य हुआ। वह शिकायत भरे शब्दों में कहते हैं.ष् अन्याय जिधरए है उधर शक्ति ष्। मर्यादा पुरुषोत्तम की यह क्षोभ हर धार्मिक व्यक्ति का क्षोभ है। हम भी जब देखते हैं कि अन्याय के पक्ष में संसाधन हैंए शक्ति हैए ऐश्वर्य हैए पद .प्रतिष्ठा है तो हमारी मनोव्यथा भी रघुवर जैसी ही होती है। अन्याय के पक्ष में शक्ति होने की विडंबन हम सब को व्यथित करती है। कई बार इसे नियति भी मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में हम यह भूल जाते हैं कि शक्ति भी कुछ नियमों से संचालित होती है। ऐसे पड़ावों पर शक्ति की प्रकृति और उसकी गति को दरकिनार कर दिया जात़ा है। महाप्राण निराला जाम्बवान के माध्यम से शक्ति की उसी प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं.

हे पुरुष सिंहए तुम भी शक्ति को करो धारणए आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर

तुम बरो विजय संयत प्राणों को प्राणों परए रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त

तो निश्चय ही सिद्ध करोगे उसे ध्वस्तए शक्ति की करो मौलिक कल्पनाए करो पूजन

छोड़ दो समर जब तक न सिद्ध होए रघुनंदन!

जाम्बवान का यह कथन शक्ति को संचालित करने वाले कई सिद्धांतों का अनावरण करती है। पहला यह कि शक्ति का अर्जन प्रयासों के तत्र से जुड़ा है। जो भी प्रयास करता हैए शक्ति के द्वार पर प्रयासों के माध्यम से दस्तक देता हैए वह खाली हाथ नहीं लौटता। रावण खल है लेकिन पुरुषार्थी भी हैए इसलिए शक्ति उसके पक्ष में खड़ी हुई दिखाई पड़ती है। जब हम अच्छे.बुरे का विभाजन करए शक्ति को बुराई के पक्ष में खड़ा करने की धृष्टता कर रहे होते हैं तो पुरुषार्थ की महिमा और प्रक्रिया के महत्व को भी नकार रहे होते हैं।

हो सकता है और प्रायः होता ही है कि खल पक्ष सापेक्षिक दृष्टि से अधिक पुरुषार्थी होता हैए ज्यादा प्रयत्नशील होता है और शक्ति अर्जन की प्रक्रियाओं के बारे में अधिक सजग भी होता है। दूसरी तरफ सद्पक्ष पुरुषार्थ के जरिए शक्ति को प्राप्त करनेए घटित हो रही घटनाओं के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और हस्तक्षेप करने की बजायए बाहर खड़ा अच्छाई के लिए रुदन कर रहा होता है जिसकी अंतिम परिणति एक ऐसे दृष्टिकोण के रुप में आकार लेती है जो मानता है कि शक्ति असत्य के पक्ष में ही खड़ा होता है। लेकिन पुरुषोत्तम तो परम पुरुषार्थी हैंए मूर्तिमान धर्म हैं। इसलिए जांबवान उनको समझाते हुए कहते हैं कि आप तो शक्ति धारण करने के स्वाभाविक अधिकारी हैं। जांबवान यहां पर इसी तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं कि कुछ नियमों से संचालित होने के कारण शक्ति ऐसे किसी भी व्यक्ति पर अनुग्रह करती है जो उन नियमों के अनुसार उनकी उपासना कर रहा होता है। लेकिन शक्ति का प्रियपक्ष तो सद्पक्ष ही होता है। शक्ति के मंगलकारी आयाम की अभिव्यक्ति और दीर्घकालीन उपस्थिति तो धर्मपक्ष में ही होती है।

यहां पर जांबवान के माध्यम से निराला यह भी संकेत कर रहे हैं कि शक्ति का मौलिकता से बहुत गहरा संबंध होता है। मौलिकता एक कष्टकर प्रक्रिया है। यह खुद को सदैव सत्य की खराद पर चढ़ाए रखने से ही पैदा होती है। मौलिकता वस्तुतः स्वयं को सत्य के वृहदतर और सामयिक आयामों से जोड़ने से पैदा होती है। जब तक स्वयं के सत्य को ब्रह्मांड के सत्य से नहीं जोड़ा जाताए तब तक ब्रह्मांडीय शक्ति हममें अवतरित नहीं होती। चूंकि हर व्यक्ति और उसकी स्थितियां अद्वितीय होती हैंए इसलिए मौलिकता स्वयं को सत्य से जोड़ने की मूलशर्त बन जाती है। इसलिए जांबवान मौलिक तरीके से शक्ति की आराधना की बात कर रहे हैं।

एक और रोचक तथ्य यह है कि जांबवान राम को एक ऐेसे समय युद्ध छोड़ने की सलाह दे रहे हैं ए जब युद्ध निहायत ही निर्णायक दौर में पहुंच चुका है। रघुवर के बिना सेना संचालन और युद्ध में जीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन राम इस सुझाव को स्वीकार कर लेते हैं और यही असंदिग्ध निष्ठा ही उन्हें शक्ति के समीप ले जाती है।

अब मर्यादा पुरुषोत्तम शक्तिपूजा को उद्यत होते हैं। सिंह को देवी का प्रतीक मानकर ष्सिंहभावष् से देवी की उपासना का निर्णय करते हैं।

जनरंजन.चरण.कमल.तलए धन्य सिंह गर्जितए यह मेरा परम प्रतीक मातः समझा इंगितए

मैं सिंहए इसी भाव से करूंगा अभिनिंदित।

शक्ति का सिंहभाव से संबंध समझने जैसा है। शक्ति सिंहारुढ़ है। सिंह की सवारी करती है और सिंहभाव मंे निवास करती है। शेर की सवारी बहुत ही दुष्कर और खतरे से भरा कार्य है। जो शेर की सवारी करने जैसा दुष्कर कार्य कर सकते हैंए असंभव माने जाने वाले लक्ष्यों के लिए सब कुछ दांव पर लगा देता हैए वही सिंह पर सवारी कर सकता है। शेर पराक्रमी हैए चतुर हैए फुर्तीला हैए जो इन गुणों से युक्त हैए माता उस पर सवारी करती हैं। पराक्रम भाव के बिना शक्ति का आशीर्वाद नहीं मिलता। यदि व्यक्ति में सिंहभाव हैए वह शत्रु को क्षत.विक्षत करने में हिचकता नहींए आज के शब्दों में उसके भीतर किलिंग इंस्टिंक्ट हैए कालज्ञ हैए उचित समय पर वार करता हैए तो माता उस व्यक्ति पर सवारी करती हैं उसके भीतर अवतरित होती हैं।

इसके बाद श्रीराम प्रकृति के अंग.उपांगों में देवी की उपस्थिति की अनुभूति करते हैं। उनके लिए समुद्र से लेकर अंबर तक सब कुछ शक्ति का स्वरुप हो जाता है। वह देवी जप के पुरश्चरण के लिए 108 कमल पुष्पों की मांग करते हैं। उनके लिए कमल के पुष्प प्रकृति में उपलब्ध अर्पण करने योग्य सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। राम कहते हैं.

देखो बंधुवरए सामनेएस्थिर जो वह भूधरए शोभित शत .हरित गुल्म.तृण से श्यामल सुंदरए

पार्वती कल्पना हैए इसकी मकरंद विंदु ए गरजता चरण प्रांत पर हिस वहए नहीं सिंधु।

दशदिक समस्त हैं हस्तए और देखो ऊपरए अंबर में हुए दिगंबर अर्चित शशि.शेखर

ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्

चहिए हमें एक सौ आठए कपिए इंदीवर एकम से कमए अधिक और होंए अधिक और सुंदर

जओ देवीदहए उषःकाल होते सत्वरए तोड़ोए लाओ वे कमलए लौटकर लड़ो समर।

साधना प्रतिदिन गहन होती जाती है। श्रीराम की कुंडलिनी शक्ति जागृत होना प्रारंभ होती है। उनके आराधना के प्रभाव से संपूर्ण सृष्टि कंपायमान हो जाती है।  लेकिन ज्यों ही शक्ति सहस्रार चक्र को बेधने वाली होती हैए और श्रीराम 108 वां कमलपुष्प देवी को अर्पित कर आराधना का समापन करने का उ़द्यत होते हैंए देवी उनकी परीक्षा लेने के लिएए उनके पीछे रखे 108 वें पुष्प को हंसकर उठा ले जाती हैं। श्रीराम नीलकमल का अंतिम पुष्प अर्पित करने के लिए हाथ बढ़ाते हैं और वहां पर कुछ न पाकर साधना में स्थिर हो चुका उनका मन यकायक चलायमान हो उठता है। आशंकाएं उनको घेरने लगती हैं। वह अपने जीवन का घिक्कारते हैं .धिक धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध। लेकिन राम तो मर्यादा के लिए सतत संघर्ष के प्रतीक हैं। वह तुरंत ही स्वयं को संभालते हैं और 108 वें नीलकमल की जगह अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित करने का निर्णय लेते हैं। इस निश्चय के साथ ही उनकी शक्ति आराधना अपने शीर्षतम बिंदु को स्पर्ष करती है और उनके व्यक्तित्व को उज्जवलतम पक्ष भी हमारे सामने आता है.

ष्यह है उपायष् कह उठे राम ज्यों मंद्रित घनएक्हती थींए माता मुझे सदा राजीवनयन।

दो नील कमल है शेष अभी ए यह पुरश्चरणए पूरा करता हूं देकर मातः एक नयन।

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशरए रहा झलकए ले लिया हस्तए लक.दक करता वह महाफलक।

ले अस्त्र वाम परए दक्षिण कर दक्षिण लोचनए ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन

जिस क्षण बंध गया बेधने को दृढ निश्चयए कांपा ब्रह्मांडए हुआ देवी का त्वरित उदय.

साधु.साधु साधक धीरए धर्म.धन धन्य राम! क्हए लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।

नील कमल के गायब होते ही मर्यादापुरुषोत्तम को स्मरण हो आता है बचपन मे उनकी माताए उनके सुंदर और विशाल नेत्रों के कारण उन्हें कमलनयन के नाम पुकारती थीं। अब उन्होंने कमल के पुष्प की जगह पर अपनी कमल जैसी आंखे भगवती को अर्पित करने का निर्णय लियाए अपने शरीर के इस सर्वाधिक सुंदर अंग को देवी को अर्पित करने का निश्चय किया। वह ज्योंहि ही बाण से अपनी दाहिनी आंख को भगवती को समर्पित करने का प्रयास करते हैंए भगवती स्वयं प्रकट होकर उनके हाथ को पकड़ लेती हैं। वह उनके धर्म की प्रति निष्ठा की प्रशंसा करती हैं।

यहां पर निराला का मन्तव्य स्पष्ट है कि साधना व्यक्तित्व के सर्वश्रेष्ठ अंश का समर्पण मांगती हैं। भगवती आसक्तियों और आकांक्षाओं का बलिदान मांगती हैं। यदि व्यक्ति अपनी प्रतिभाए क्षमताए उत्कृष्टता का समर्पण देवी के चरणों में करता है तो उसे वह वरदान मिलता ही हैए जो मर्यादा पुरुषोत्तम को मिला.

होगी जयए होगी जयए हे पुरुषोत्तम नवीनए कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन

शनिवार, 14 मई 2016

सामर्थ्य की विजिगीषु वृति



जो सहज उपलब्ध है, उसमें विस्तार की सतत इच्छा ही विजिगीषु वृत्ति है। यह वृत्ति भारतीय राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय तत्व रही है। राजनीतिक दर्शन हो, प्रक्रिया हो अथवा नीतियां, सभी इस वृत्ति के चहुंओर चक्कर लगाती हैं। यदि किसी राजा अथवा राज्य में विजिगीषु वृत्ति नहीं है,विस्तार की इच्छा नहीं है, तो उसकी योग्यता को शून्य और उसकी अवनति को स्वाभाविक मान लिया जाता था। ऐसे राजा अथवा राज्य, राजनीतिक ङ्क्षचतन की परिधि से बाहर थे। संभवतः इसी कारण विजिगीषु वृत्ति से विहीन हो चुके राजाओं के उबारने वाली किसी नीति का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता और न ही उनके कर्तव्यों के बारे में कोई संकेत मिलते हैं।
बहुत स्पष्ट है कि राजकर्म से संबंधित किसी व्यक्ति में विजिगीषु वृत्ति का न होना अयोग्यता का परिचायक मात्र नहीं बल्कि यह अधार्मिक होने जैसा था। यह इतनी अधम स्थिति मानी जाती थी कि उसके बारे में कर्तव्य-अकर्तव्य की स्थिति का विचार ही नहीं किया गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि परंपरागत राजनीतिक चिंतन में  विजिगीषु वृत्ति राजनीति की पूर्व शर्त तथा मूलभूत विशेषता थी। नीति, कार्यक्रम, विचार और कत्र्तव्य का पूरा राजमहल इसी वृत्ति पर खड़ा होता है। शांतिपर्व में राजनीति की महत्ता की बात हो अथवा चाणक्य द्वारा प्रतिपादित मंडल सिद्वांत, शुक्राचार्य जैसे आदि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित षड्गुण नीति हो अथवा विभिन्न राजर्षियों द्वारा आदर्श राजा की आदर्श दिनचर्या का प्रतिपादन, सबके आधार में विजिगीषु वृत्ति ही कार्य कर रही है।
इसे न केवल भारतीय राजनीतिक चिंतन, बल्कि भारतीय भूमि और संस्कृति का भी दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि इस वृत्ति को बाद में न केवल उपेक्षणीय बना दिया गया बल्कि हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। आज भी कुछ लोग सीना ठोंककर यह बताते हैं कि देखो जी! हम लोग कितने  उदात्त थे, आक्रांता आते रहे,जुल्म ढाते रहे, मूल्य ढहते रहे लेकिन हम सहिष्णु बने रहे। हमने कभी हिंसा को नहीं अपनाया।
ऐसे कथन न केवल भ्रामक समझ पर आधारित है बल्कि यह विजिगीषु वृत्ति को अपना प्राणतत्व मानने वाली महान चिंतन परंपरा का अपमान भी है। हां, यहां पर यह बात समझने योग्य है कि भारत में विजय की एक उदात्त और विशिष्ट परंपरा रही है, इसलिए अपने विस्तार तथा मूल्यों की स्थापना के लिए होने वाले युद्ध का प्रभाव सैनिकों और राजाओं तक ही सीमित होता था। आम आदमी ऐसे युद्धों से अछूता रहता था। इसके साथ ही इस परंपरा में विजय को कुछ आदर्श मूल्यों को बचाने और स्थापित करने की प्रक्रिया के साथ भी जोड़ा गया।
विजय की इस विशिष्ट भारतीय परंपरा को ’उत्खात प्रतिरोपण्य कहा जाता था। जैसे कुछ पौधों को उखाड़कर, उसे फिर से उसी जमीन पर रोप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे की मृत्यु नहीं होती बल्कि वह एक खर-पतवार से विकसित होकर वृक्ष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार भारतीय विजेता, पराजित राजा का उच्छेदन नहीं करते थे बल्कि पराजय और कुछ शर्तों को स्वीकार कर लेने के बाद उन्हें उनका राज्य वापस लौटा दिया जाता था और फिर से राजपद पर अभिषिक्त कर दिया जाता था। इस तरह विजेता के प्रभाव में वृद्धि भी होती थी और ढींठ शासकों को सीमा में रहने का सबक भी मिल जाता था। पराजित के अस्तित्व को तभी समाप्त किया जाता, जब वह पराजित होने के बाद भी युद्ध का आकांक्षी बना रहता था।
भूमिकाओं के विस्तार और सीमित होने की इस प्रक्रिया से आमजनता इससे अछूती ही रहती और उसके क्रियाकलापों पर इस तरह की जय-पराजय का खासा असर नहीं पड़ता। सिकंदर के सैनिकों ने अपने विजय अभियान में जब निहत्थे किसानों तक मौत के घाट उतार दिया था तो यह भारतीयों के लिए एक नई घटना थी और इसके कारण भारतीय जनमानस उस बहुत उद्वेलित भी हुआ।
’उत्खात प्रतिरोपण्य की प्रकिया में विजय और विजिगीषु वृत्ति के कई रहस्य छिपे हुए हैं। इसमें विस्तार की इच्छा है, मूल्यों को स्थापित करने की प्रेरणा है, लेकिन यह प्रक्रिया विस्तार और विजय को नरभक्षी बनाने से रोकती है और स्थानीय तत्वों के महत्व को राजनीतिक प्रक्रिया में रेखांकित करती है।
विजिगीषु वृत्ति बहुत नैसर्गिक प्रवृत्ति है। यह हेनरी किसिंजर जैसे आधुनिककूटनयिकों की इस बात से साम्यता और सहमति रखती है कि पूर्ण शांति इस दुनिया की स्वाभाविक अवस्था नहीं है। पराधीन करना और विजेता बनना बहुत ही स्वाभाविक इच्छाएं है और इनका पूर्ण निषेध नहीं हो सकता। यदि इनका निषेध किया जाता है और अपने विस्तार  में विश्वास नहीं किया जाता तो दूसरों के विस्तार का शिकार बनना तय है।  दूसरी तरफ यह भी एक स्थापित तथ्य है कि यदि विजेता बनने की इच्छा को बेलगाम छोड़ दिया जाए तो यह रक्तपात और अन्याय का सबसे बड़ा कारण बनती है। यह वृत्ति, न तो व्यक्तित्व को उदात्त बनने देती है और न ही संपूर्ण।
ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि विजिगीषु वृत्ति के साथ उदात्त मूल्यों को संबंधित किया जाए और दोनों में संतुलन स्थापित किया जाए। भारत में विजिगीषु वृत्ति और उदात्त मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित करने वाले सूत्रों को न केवल खोजा गया बल्कि व्यावहारिक धरातल पर इन सूत्रों के जरिए लंबे समय तक संतुलन साधा भी गया। इसके कारण एक तरफ राजनीति को समाज में उच्च प्रतिष्ठा और स्थान मिला, वहीं दूसरी तरफ राजनीति देश की संस्कृति और भूमि को संरक्षित और संवद्र्धित भी करती रही। लेकिन बाद में इसी भूमि पर पैदा होने वाले विभिन्न संप्रदायों के कारण, जिनका जोर शांति,अहिंसा और स्वीकार्यता पर अधिक था, यह संतुलन टूटा। विजिगीषु वृत्ति के जरिए अपने योगक्षेम की प्रक्रिया का गैर-आध्यात्मिक और घोर सांसारिक कृत्यों की श्रेणी में रख दिया गया, जो कि प्राथमिकताओं की उपेक्षित और हेय श्रेणी थी।
विजिगीषु वृत्ति को नेपथ्य में धकेले जाने की प्रक्रिया के कारण एक भूगोल और एक भाव के रूप में भारत को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। इस वृत्ति से युक्त व्यक्ति और समाज अपने अगल-बगल होने वाली घटनाओं के प्रति सजग रहता है और अपने ऊपर पढऩे वाले प्रभावों-दुष्प्रभावों का आकलन कर प्रोएक्टिव कदम उठाता है। इसके कारण संभावित खतरों को दरवाजे पर पहुंचने से पहले ही समाप्त कर देता है।  यदि खतरा अधिक प्रबल होने की स्थिति में  दरवाजे तक पहुंच ही जाता है तो भी विजिगीषु वृत्ति से लैस व्यक्ति के पास संभावित खतरे की पूर्व जानकारी होने के कारण इतना समय होता है कि वह उचित रणनीति बनाकर खतरे को जमींदोज कर सके।
विजिगीषु वृत्ति से विहीन व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र अगल-बगल हो रही घटनाओं के प्रति निहायत ही लापरवाह हो जाता है और अपने ’कंफर्ट जोन में  ही सिमटा रहता है। ऐसी स्थिति में खतरा, जो बहुत पहले ही जन्म ले चुका होता है, उसके सामने यकायक प्रकट होता है। इस खतरे से निपटने के  उसके पास आजमाने को बहुत सीमित और अनियोजित विकल्प रहते हैं। या तो वह खतरे को सांसारिक घोषित कर भाग जाता है अथवा उद्वेग में आकर लड़ाई करता है, जिसमें उसका पराजित होना तय होता है।
भारत के सामूहिक अवचेतन मन से विजिगीषु वृत्ति की खुरच-खुरचकर मिटा दिया गया। इसका नाम लेना भी कुफ्र घोषित कर दिया गया। इसके कारण हम आक्रांत होते रहे। इस्लाम की मूल मान्यताओं के बारे में आज भी अनभिज्ञ है, ईसाइयत के विश्व दृष्टि क्या है, इसके बारे में हम ठीक ढंग से नहीं जानते और सभी धर्म एक समान हैं, इसकी रट लगाए रहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह पूर्व में की गई गलतियां हैं। यह चलन आज भी बना हुआ है। हम आज भी  बिना तुलनात्मक और विशख्रेषणात्मक अध्ययन के यह मान लेते हैं कि जैसा हम मानते हैं, वैसे ही दूसरे हैं। जब वह दूसरे हमारी मान्यता के विपरीत अपने रूप में हमारे सामने आते हैं तो हम छाती पीटने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर पाते।
आज भी आईएसआईएस की ’खिलाफत की प्रेरणा अथवा ’गजवा-ए-हिंद की संकल्पना के बारे में भारतीयों में बौद्धिक अथवा रणनीतिक स्तर पर कोई उद्वेलन देखने को नहीं मिलता तो इसका कारण यही है कि हममें विजिगीषु वृत्ति का पूर्ण अभाव है। स्वविस्तार और स्वसंरक्षण की भावना रहने पर पैदा हो रहे प्रत्येक खतरे को आकलन एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में किया जाता है।
इस वृत्ति के अभाव में हम खुद कुछ सुविधाजनक निष्कर्ष निकाल लेते हैं और उसी की पट्टी अपने आंखों पर बांध लेते हैं। परिवेश के प्रति सजगता, विजिगीषु वृत्ति की सबसे बड़ी देन है। यही सजगता न केवल हमारे सामर्थ्य को बनाए रखती है, बल्कि सामर्थ्य को बढ़ाती भी है। इसलिए राष्ट्र के परंवैभव की कामना करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह प्राथमिक कत्र्तव्य है कि वह राष्ट्र के सामूहिक अवचेतन में विजिगीषु वृत्ति को प्रतिष्ठित करने का यत्न करे। यह वृत्ति अन्य आवश्यक उपायों और वृत्तियों को स्वयं पैदा कर लेगी।

पार्टनर अब पार्टनर अब मुजाहिद हैं!


लाल सलाम की दुनिया में वैचारिक शुद्धता को परखने और निष्ठाओं को जांचने के लिए मुक्तिबोध की एक पंक्ति का काफी उपयोग किया जाता रहा है। वैचारिक संदिग्धों की कमियों को उघाडऩे के लिए साम्यवादी एक.दूसरे से पूछते रहे हैं ष्पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या हैघ्ष्

शुरुआती दौर में इस पंक्ति का उपयोग व्यक्ति और विचारधारा दोनों की दिशा को जांचने के लिए किया जाता था। अब इसका उपयोग व्यक्तिगत स्तर पर आपसी लानत.मलानत के लिए ही अधिक किया जाता है। स्वयं को वैचारिक दृष्टि से अधिक प्रतिबद्ध साबित करने के लिए अब भी इस पंक्ति का उपयोग यदा.कदा होता है।

पार्टनर की पॉलिटिक्स जानने का सबसे हालिया घटनाक्रम तब देखने को मिलाए जब वीरेंद्र यादव ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए स्वनामधन्य वामपंथी साहित्यकारों की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए। उन्होंने यह सवाल एक लेख लिख कर उठाएए जिसका शीर्षक मुक्तिबोध की यही चर्चित पंक्ति थी। प्रगतिशील होने का दावा करने वाली यह विचारधारा अपनी अमर्यादित प्रतिक्रियाओं के कारण जानी जाती है। ऐसा इस प्रकरण में भी दिखा। वीरेंद्र यादव की अवसरवादिता के उदाहरण प्रस्तुत किए गए और उनसे भी यही सवाल दाग दिया गया कि ष्पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या हैघ्

हैरत की बात यह है कि बात.बात पर पार्टनर की पॉलिटिक्स पूछने वाली इस विचारधारा की पॉलिटिक्स पर सवाल उठने बंद हो गए हैं। वैचारिक विचलन को विषय बनाकर एक.दूसरे का कपड़ा उतारने पर उतारू लोगए अपनी विचारधारा की दशा.दिशा को लेकर आत्मघाती लापरवाही से ग्रसित हैंए जबकि पूरी विचारधारा में विचलन.स्खलन स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों से साम्यवादी दलों के ऐजेंडे में किसान.मजदूरए पूंजीवाद.साम्राज्यवादए भाषा.संस्कृति  पीछे छूट गए हैं। भाषायी मुद्दे के जरिए साम्यवादियों की प्राथमिकता में आए परिवर्तन को आसानी से समझा जा सकता है। डाण् रामविलास शर्मा के बाद साम्यवादी दुनिया में हिंदी भाषा को लेकर कोई संघर्ष नहीं दिखता। हद तो तब हो जाती हैए जब पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे लोग संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षााओं में घोषित रूप से अंग्रेजी का पक्ष लेते हैं और अंग्रेजी को योग्यता का पैमाना बनाने की वकालत करते हैं। संभवतरू भारत में मजलूमों के शोषण का सबसे बड़ा माध्यम अंग्रेजी भाषा है। इसके कारण सामान्य पृष्ठभूमि के लोगोंं को अपनी पहचान बनानेए व्यवस्था में स्थान बनाने के लिए हर कदम पर बाधा खड़ी होती हैए लेकिन साम्यवादी भाषा के लिए कुछ नहीं बोलते।

देखते ही देखते साम्यवादियों की प्राथमिकता सूची में सांप्रदायिकता सबसे ऊपर आ गई है। हर तरह की सांप्रदायिकता का विरोध किया ही जाना चाहिए। लेकिन इस विचारधारा में दिवालियापन इस हद तक पहुंच गया है कि यह सांप्रदायिकता से लडऩे के नाम पर जिहादियोंं की शब्दावली में बोलने लगा है।

हालिया घटनाक्रमों से तो ऐसा लगता है कि विभ्रम का लाभ उठाकर इस विचारधारा को जिहादी तत्वों ने ष्हाईजैकष् कर लिया है। समानता के सिद्धांत पर विश्वास रखने वाली विचारधाराए सभी पंथों को अफीम मानने वाली विचारधारा एक पंथ विशेष की कट्टरता का खुला समर्थन करने की स्थिति में कैसे पहुंच जाती है और सभी तरह के शोषण एक ही पंथ में कैसे दिखाई देने लगते हैंए इसकी गंभीर पड़ताल आवश्यक है।

महिला.मुक्ति इस विचारधारा के प्रिय विषयों में एक रहा है। महिला.मुक्ति संबंधी चिंतन की पड़ताल के जरिए इस विचारधारा में आए भटकाव और जिहादी तत्वों के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित किया जा सकता है। यहां पर इस पचड़े में नहीं पड़ा जा रहा है कि स्त्री.मुक्ति संबंधी  इस विचारधारा की मान्यताएं कितनी सही और कितनी गलत हैं। लेकिन समानता को अपना सर्वोच्च आदर्श मानने वाली विचारधारा से इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह सभी पंथों की स्त्रियों की मुक्ति की कामना करेए लेकिन व्यवहार में ऐसा दिखता नहीं।

इस विचार से जुड़े बुद्धिजीवी एक तरफ स्त्री.मुक्ति को ष्वैवाहिक.बलात्कारष् की सीमा तक घसीटते हैं। अंतरंग संबंधों को भी कानूनी पहरे में लाने की बात करते हैंं। विवाह में भी बलात्कार की संभावनाओं को तलाशते हैं और ऐसे ष्अत्याचारष् को दूर करने के लिए एड़ी.चोटी का जोर लगाए हुए दिखते हैं। दूसरी तरफ समान नागरिक संहिता के मुद्दे को सांप्रदायिक ठहराकरए एक पंथ विशेष की महिलाओं को पालन.पोषण जैसे मूलभूत अधिकार प्राप्त करने से वंचित किए हुए हैं। बिना किसी कानूनी प्रक्रिया अपनाएए जब मन में तीन बार तलाक कहकरए स्त्रियों के जीवन को मंझधार में झोडऩें वाली व्यवस्था के विरोध में उनके मुंह से आवाज नहीं निकलती। हद तो तब हो जाती हैए जब इस पंथ विशेष की महिलाओं को कानूनी कवच प्रदान करने के सरकारी प्रयासों का ये मित्र विरोध करने लगते हैं।

धर्मस्थलों के प्रवेश संबंधी विषय में भी ऐसा ही दोमुंहापन दिखता है। किसी एक शनि मंदिर में प्रवेश न दिए जाने का मसला इनके लिए स्त्री.मुक्ति का प्रश्र बनता है और इस प्रश्र को जोर.शोर से उठाकर एक समुदाय विशेष को पिछड़ा और सामंती घोषित कर दिया जाता हैए लेकिन सभी मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश निषेधए इस वर्ग के लिए कोई मुद्दा नहीं बनता और न ही इसके कारण वह पंथ हिकारती बनता है।

समानता के नारे में अमानवीय असमानताओं की एक पूरी शंृखला नजर आती है। यह दिन.ब.दिन बढ़ और मजबूत हो रही है। वामपंथी दृष्टिदोष का एक ऐसा ही रोचक उदाहरण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भी देखने को मिलता है।

साम्यवाद अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा होने के दंभ से ग्रसित है और साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सबसे बड़े विशेषज्ञ होने के रोग से ग्रसित हैं। दुनिया में कहीं भी कुछ हो रहा हैए उसका निष्कर्ष देना साम्यवादी अपना अधिकार मानते हैं और निष्कर्ष यह होता है कि दुनिया की सारी गड़बडिय़ों का कारण साम्राज्यवादी अमेरिका है।

हाल के दशकों में यह अंतर्राष्ट्रीय समझ फिलिस्तीन.इजरायल के मामलों में काफी सजग दिखती है। इसमें भी निष्कर्ष तय होते हैं और इजरायल की दानवी भूमिका बताई जाती है और फिलिस्तीन को पीडि़त। कुछ हद तक यह सही भी हैए लेकिन हद तब हो जाती हैए जब फिलीस्तीन के पीडि़त होने की बात के जरिए अरब जगत से फैल रहे आतंकवाद को जायज ठहराने की कोशिश होने लगती है और फ्रांस पर होने वाले हमलों को स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया जाने लगता है। एक समझ का एक पहलू यह भी है कि यह सुदूर फिलीस्तीन शरणार्थियों की पीड़ा तो महसूस करती हैए लेकिन तिब्बती शरणार्थियों की पीड़ा इसे छू भी नहीं पाती। कश्मीर में पंडितों के विस्थापन को इस विचारधारा ने कभी नोटिस में ही नहीं लिया।

समानता के सिद्धांत में जिहादी नारों की घुसपैठ का सबसे नंगा प्रदर्शन तो जेएनयू प्रकरण में हुआ है। समानता के पैरोकार जिस तरह से भारत की बर्बादी के लिए जंंग का ऐलान करते और देश के टुकड़े.टुकड़े करने के लिए अल्लाह से गुहार करते हुए सामने आएए उसे देखकर पूरा देश स्तब्ध रह गया।

स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के समय नक्सल.चर्च गठजोड़ की बात सामने आई थी। अब यह नक्सल.चर्च गठजोड़ए नक्सल.चर्च.जिहादी त्रिकोण में तब्दील हो चुका है। सबसे खतरनाक बात यह है कि इस गठजोड़ में जिहादी तत्वों ने केंद्रीय भूमिका अख्तियार कर ली है। अब जिहादी तत्व साम्यवादियों के समानता के मुखौटे और उससे जुड़ी शब्दावलियों का उपयोग कर रहे हैं। दूसरी तरफ साम्यवादी केवल जिहादियों को वैधता प्रदान नहीं कर रहे हैंए बल्कि जिहादी स्वप्रों और नारों का उपयोग कर हैं। साम्यवादी विचारधारा में जिहादी घुसपैठ इतनी प्रबल है कि साम्यवाद का चोला अब जिहादी दिखने लगा है। शायद इसी कारण अब कहीं से यह आवाज नहीं उठ रही है कि पार्टनर! हमारी पॉलिटिक्स क्या हैघ् आखिरकारए पार्टनर मुजाहिद जो बन गए हैं और मुजाहिद न तो ऐसे प्रश्र करते हैं और न ही ऐसे प्रश्र सहते हैं।मुजाहिद हैं!