शनिवार, 14 मई 2016

सामर्थ्य की विजिगीषु वृति



जो सहज उपलब्ध है, उसमें विस्तार की सतत इच्छा ही विजिगीषु वृत्ति है। यह वृत्ति भारतीय राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय तत्व रही है। राजनीतिक दर्शन हो, प्रक्रिया हो अथवा नीतियां, सभी इस वृत्ति के चहुंओर चक्कर लगाती हैं। यदि किसी राजा अथवा राज्य में विजिगीषु वृत्ति नहीं है,विस्तार की इच्छा नहीं है, तो उसकी योग्यता को शून्य और उसकी अवनति को स्वाभाविक मान लिया जाता था। ऐसे राजा अथवा राज्य, राजनीतिक ङ्क्षचतन की परिधि से बाहर थे। संभवतः इसी कारण विजिगीषु वृत्ति से विहीन हो चुके राजाओं के उबारने वाली किसी नीति का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता और न ही उनके कर्तव्यों के बारे में कोई संकेत मिलते हैं।
बहुत स्पष्ट है कि राजकर्म से संबंधित किसी व्यक्ति में विजिगीषु वृत्ति का न होना अयोग्यता का परिचायक मात्र नहीं बल्कि यह अधार्मिक होने जैसा था। यह इतनी अधम स्थिति मानी जाती थी कि उसके बारे में कर्तव्य-अकर्तव्य की स्थिति का विचार ही नहीं किया गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि परंपरागत राजनीतिक चिंतन में  विजिगीषु वृत्ति राजनीति की पूर्व शर्त तथा मूलभूत विशेषता थी। नीति, कार्यक्रम, विचार और कत्र्तव्य का पूरा राजमहल इसी वृत्ति पर खड़ा होता है। शांतिपर्व में राजनीति की महत्ता की बात हो अथवा चाणक्य द्वारा प्रतिपादित मंडल सिद्वांत, शुक्राचार्य जैसे आदि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित षड्गुण नीति हो अथवा विभिन्न राजर्षियों द्वारा आदर्श राजा की आदर्श दिनचर्या का प्रतिपादन, सबके आधार में विजिगीषु वृत्ति ही कार्य कर रही है।
इसे न केवल भारतीय राजनीतिक चिंतन, बल्कि भारतीय भूमि और संस्कृति का भी दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि इस वृत्ति को बाद में न केवल उपेक्षणीय बना दिया गया बल्कि हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। आज भी कुछ लोग सीना ठोंककर यह बताते हैं कि देखो जी! हम लोग कितने  उदात्त थे, आक्रांता आते रहे,जुल्म ढाते रहे, मूल्य ढहते रहे लेकिन हम सहिष्णु बने रहे। हमने कभी हिंसा को नहीं अपनाया।
ऐसे कथन न केवल भ्रामक समझ पर आधारित है बल्कि यह विजिगीषु वृत्ति को अपना प्राणतत्व मानने वाली महान चिंतन परंपरा का अपमान भी है। हां, यहां पर यह बात समझने योग्य है कि भारत में विजय की एक उदात्त और विशिष्ट परंपरा रही है, इसलिए अपने विस्तार तथा मूल्यों की स्थापना के लिए होने वाले युद्ध का प्रभाव सैनिकों और राजाओं तक ही सीमित होता था। आम आदमी ऐसे युद्धों से अछूता रहता था। इसके साथ ही इस परंपरा में विजय को कुछ आदर्श मूल्यों को बचाने और स्थापित करने की प्रक्रिया के साथ भी जोड़ा गया।
विजय की इस विशिष्ट भारतीय परंपरा को ’उत्खात प्रतिरोपण्य कहा जाता था। जैसे कुछ पौधों को उखाड़कर, उसे फिर से उसी जमीन पर रोप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में पौधे की मृत्यु नहीं होती बल्कि वह एक खर-पतवार से विकसित होकर वृक्ष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार भारतीय विजेता, पराजित राजा का उच्छेदन नहीं करते थे बल्कि पराजय और कुछ शर्तों को स्वीकार कर लेने के बाद उन्हें उनका राज्य वापस लौटा दिया जाता था और फिर से राजपद पर अभिषिक्त कर दिया जाता था। इस तरह विजेता के प्रभाव में वृद्धि भी होती थी और ढींठ शासकों को सीमा में रहने का सबक भी मिल जाता था। पराजित के अस्तित्व को तभी समाप्त किया जाता, जब वह पराजित होने के बाद भी युद्ध का आकांक्षी बना रहता था।
भूमिकाओं के विस्तार और सीमित होने की इस प्रक्रिया से आमजनता इससे अछूती ही रहती और उसके क्रियाकलापों पर इस तरह की जय-पराजय का खासा असर नहीं पड़ता। सिकंदर के सैनिकों ने अपने विजय अभियान में जब निहत्थे किसानों तक मौत के घाट उतार दिया था तो यह भारतीयों के लिए एक नई घटना थी और इसके कारण भारतीय जनमानस उस बहुत उद्वेलित भी हुआ।
’उत्खात प्रतिरोपण्य की प्रकिया में विजय और विजिगीषु वृत्ति के कई रहस्य छिपे हुए हैं। इसमें विस्तार की इच्छा है, मूल्यों को स्थापित करने की प्रेरणा है, लेकिन यह प्रक्रिया विस्तार और विजय को नरभक्षी बनाने से रोकती है और स्थानीय तत्वों के महत्व को राजनीतिक प्रक्रिया में रेखांकित करती है।
विजिगीषु वृत्ति बहुत नैसर्गिक प्रवृत्ति है। यह हेनरी किसिंजर जैसे आधुनिककूटनयिकों की इस बात से साम्यता और सहमति रखती है कि पूर्ण शांति इस दुनिया की स्वाभाविक अवस्था नहीं है। पराधीन करना और विजेता बनना बहुत ही स्वाभाविक इच्छाएं है और इनका पूर्ण निषेध नहीं हो सकता। यदि इनका निषेध किया जाता है और अपने विस्तार  में विश्वास नहीं किया जाता तो दूसरों के विस्तार का शिकार बनना तय है।  दूसरी तरफ यह भी एक स्थापित तथ्य है कि यदि विजेता बनने की इच्छा को बेलगाम छोड़ दिया जाए तो यह रक्तपात और अन्याय का सबसे बड़ा कारण बनती है। यह वृत्ति, न तो व्यक्तित्व को उदात्त बनने देती है और न ही संपूर्ण।
ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि विजिगीषु वृत्ति के साथ उदात्त मूल्यों को संबंधित किया जाए और दोनों में संतुलन स्थापित किया जाए। भारत में विजिगीषु वृत्ति और उदात्त मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित करने वाले सूत्रों को न केवल खोजा गया बल्कि व्यावहारिक धरातल पर इन सूत्रों के जरिए लंबे समय तक संतुलन साधा भी गया। इसके कारण एक तरफ राजनीति को समाज में उच्च प्रतिष्ठा और स्थान मिला, वहीं दूसरी तरफ राजनीति देश की संस्कृति और भूमि को संरक्षित और संवद्र्धित भी करती रही। लेकिन बाद में इसी भूमि पर पैदा होने वाले विभिन्न संप्रदायों के कारण, जिनका जोर शांति,अहिंसा और स्वीकार्यता पर अधिक था, यह संतुलन टूटा। विजिगीषु वृत्ति के जरिए अपने योगक्षेम की प्रक्रिया का गैर-आध्यात्मिक और घोर सांसारिक कृत्यों की श्रेणी में रख दिया गया, जो कि प्राथमिकताओं की उपेक्षित और हेय श्रेणी थी।
विजिगीषु वृत्ति को नेपथ्य में धकेले जाने की प्रक्रिया के कारण एक भूगोल और एक भाव के रूप में भारत को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। इस वृत्ति से युक्त व्यक्ति और समाज अपने अगल-बगल होने वाली घटनाओं के प्रति सजग रहता है और अपने ऊपर पढऩे वाले प्रभावों-दुष्प्रभावों का आकलन कर प्रोएक्टिव कदम उठाता है। इसके कारण संभावित खतरों को दरवाजे पर पहुंचने से पहले ही समाप्त कर देता है।  यदि खतरा अधिक प्रबल होने की स्थिति में  दरवाजे तक पहुंच ही जाता है तो भी विजिगीषु वृत्ति से लैस व्यक्ति के पास संभावित खतरे की पूर्व जानकारी होने के कारण इतना समय होता है कि वह उचित रणनीति बनाकर खतरे को जमींदोज कर सके।
विजिगीषु वृत्ति से विहीन व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र अगल-बगल हो रही घटनाओं के प्रति निहायत ही लापरवाह हो जाता है और अपने ’कंफर्ट जोन में  ही सिमटा रहता है। ऐसी स्थिति में खतरा, जो बहुत पहले ही जन्म ले चुका होता है, उसके सामने यकायक प्रकट होता है। इस खतरे से निपटने के  उसके पास आजमाने को बहुत सीमित और अनियोजित विकल्प रहते हैं। या तो वह खतरे को सांसारिक घोषित कर भाग जाता है अथवा उद्वेग में आकर लड़ाई करता है, जिसमें उसका पराजित होना तय होता है।
भारत के सामूहिक अवचेतन मन से विजिगीषु वृत्ति की खुरच-खुरचकर मिटा दिया गया। इसका नाम लेना भी कुफ्र घोषित कर दिया गया। इसके कारण हम आक्रांत होते रहे। इस्लाम की मूल मान्यताओं के बारे में आज भी अनभिज्ञ है, ईसाइयत के विश्व दृष्टि क्या है, इसके बारे में हम ठीक ढंग से नहीं जानते और सभी धर्म एक समान हैं, इसकी रट लगाए रहते हैं। ऐसा नहीं है कि यह पूर्व में की गई गलतियां हैं। यह चलन आज भी बना हुआ है। हम आज भी  बिना तुलनात्मक और विशख्रेषणात्मक अध्ययन के यह मान लेते हैं कि जैसा हम मानते हैं, वैसे ही दूसरे हैं। जब वह दूसरे हमारी मान्यता के विपरीत अपने रूप में हमारे सामने आते हैं तो हम छाती पीटने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर पाते।
आज भी आईएसआईएस की ’खिलाफत की प्रेरणा अथवा ’गजवा-ए-हिंद की संकल्पना के बारे में भारतीयों में बौद्धिक अथवा रणनीतिक स्तर पर कोई उद्वेलन देखने को नहीं मिलता तो इसका कारण यही है कि हममें विजिगीषु वृत्ति का पूर्ण अभाव है। स्वविस्तार और स्वसंरक्षण की भावना रहने पर पैदा हो रहे प्रत्येक खतरे को आकलन एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में किया जाता है।
इस वृत्ति के अभाव में हम खुद कुछ सुविधाजनक निष्कर्ष निकाल लेते हैं और उसी की पट्टी अपने आंखों पर बांध लेते हैं। परिवेश के प्रति सजगता, विजिगीषु वृत्ति की सबसे बड़ी देन है। यही सजगता न केवल हमारे सामर्थ्य को बनाए रखती है, बल्कि सामर्थ्य को बढ़ाती भी है। इसलिए राष्ट्र के परंवैभव की कामना करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह प्राथमिक कत्र्तव्य है कि वह राष्ट्र के सामूहिक अवचेतन में विजिगीषु वृत्ति को प्रतिष्ठित करने का यत्न करे। यह वृत्ति अन्य आवश्यक उपायों और वृत्तियों को स्वयं पैदा कर लेगी।

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