सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

महिला सशक्तीकरण की मातृभाषा

सहज और मौलिक चिंतन की सर्वाधिक संभावनाएं परिवेश की भाषा में निहित होती हैं। कोई भी ऐसा समूह अथवा वर्ग जो हासिए पर हो और जिसको सशक्त बनाए जाने के प्रयास चल रहें हों, उसे मूलभूत सुविधाएं परिवेश की भाषा में, मातृभाषा में, उपलब्ध कराना व्यवस्था का मूलकर्म बन जाता है।
सशक्तीकरण के कई पहलू होते है। भाषा उन सभी पहलुओं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित होती है। यह शैक्षणिक दृष्टि से यह अधिक सस्ती, सुलभ और समावेशी शिक्षा का आधार तैयार करती है, स्वास्थ्य सम्बंधी जटिलताओं को सुबोध बनाकर सजगता को बढ़ाती है, आर्थिक परिदृश्य को अधिक विस्तृत और समावेशी बनाती है। भाषा का सबसे महत्वपूर्ण अवदान तो सांस्कृतिक होता है। मातृभाषा न केवल व्यक्तियों को सांस्कृतिक प्रवाह से जोड़े रखती है बल्कि यह आत्मबल को बनाए रखने का भी महत्वपूर्ण साधन है।
मातृभाषा महिला सशक्तीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में कैसे सहायक हो सकती है इस बात को कुछ उदारण के जरिए समझा जा सकता है। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय ने गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के लिए मोबाइल पर मैसेज भेजने शुरू किए हैं। यह संदेश एनीमिया की स्थिती खान-पान की सावधानियां और दिनचर्या को लेकर होते हैं। यह जानकारी वास्तव दूर-दराज में रहने वाली महिलाओं के  बहुत उपयोगी है। लेकिन दुर्भाग्य से ये सभी मैसेज अंग्रेजी में भेजे जाते है। जो महिलाएं पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं, अंग्रेजी ज्ञान रखती हैं, उनके लिए इन संदेशों का कोई खास मतलब नहीं रह जाता क्योंकि वह इन सभी सूचनाओं को प्रायः जानती ही है। यह उन महिलाओं के लिए भी किसी काम के नही होती जिनको यह संदेश भेजे जाते है अथवा लिनके लिए यह जानकारी बहुत उपयोगी साबित हो सकती है क्योकि वह अंगे्रजी भाषा में लिखे संदेशो को ठीक ढंग से समझ नही पाती। इस तरह से दोनो स्थितियों में अंग्रेजी में लिखे स्वास्थ्य के प्रति सजगता पैदा करने वाले ये संदेश सफेद हाथी बन जाते है।
यदि यहि संदेश हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में संप्रेषित किए जाएं तो जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य को ठीक रखने और कुपोषण से छुटकारा पाने सफलता प्राप्त की जा सकती है। और यह सफलता स्त्री सशक्तीकरण का ही एक रूप और महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी मातृभाषा महिला सशक्तीकरण को ऊंचे मुकाम तक पहुंचा सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पिछले दो दशको में बालिका नामांकन दर में काफी सुधार हुआ है। लेकिन दो कारण ऐसे है जो शिक्षा क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण के लिहाज से मातृभाषा को बहुत महत्वपूर्ण बना देते है।
पहला लड़कियों की ड्राप आउट की दर का अधिक होना और उनकी दूरस्थ शिक्षा पर अनकी अधिक निभर््ारता तथा दूसरा लड़कियों की शिक्षा केा लेकर लापरवाही और कम खर्च करने की मानसिकता। आर्थिक स्थिती तथा शादी विवाह जैसे अन्य कारणांे की वजह से लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। पहले तो डाप आउट होेने के बाद लड़कियों के पास शिक्षा के विकल्प समाप्त हो जाते थे। लेकिन दूरस्थ शिक्षा प्रारम्भ होने के बाद अपनी शिक्षा केा आगे जारी रखने की नया तरीका लड़कियों को मिला। दुर्भाग्यवश भाषायी बाधाओं के कारण दूरस्थ शिक्षा में निहित संभावनाओ का संपूर्ण लाभ लड़कियों को नही मिल पा रहा है। दूरस्थ शिक्षा में व्यक्ति को स्वयं की प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ना होता है और उन्हें नाममात्र की औपचारिक सहायता से ही विषयों को समझना होता है। मातृभाषा की बजाय किसी अन्य भाषा में विषय सामग्री के होने से समझने की प्रक्रिया बाधित होती है।
अपनी भाषा में समग्री उपलब्ध होने पर सारा जोर विषय को समझने पर लगता है जबकि अन्य भाषा में सामग्री उपलब्ध होने पर विद्यार्थी की उर्जा और मेधा का बड़ा भाग भाषा को समझने में ही खर्च हो जाता है। इसके कारण विषय पर आवश्यक पकड़ नहीं बन पाती और विद्यार्थी इसके कारण कठिन प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाता है। यह हैरत की बात है कि दूरस्थ शिक्षा कि इस सीमा से परिचित होने के बावजूद इग्नू द्वारा संचालित पाठयक्रमों में से साहित्य और कुछ गिने चुने विषयों को छोड़कर अधिकांश विषयों की पाठय सामग्री अंग्रेजी में उपलब्ध कराई जाती है। और अंग्रेजी में ही परीक्षा की अनिवार्यता विद्यार्थी के सामने रख दी जाती है इनकी सबसे अधिक मार शिक्षा ग्रहण करने की इच्छुक लड़कियों पर पड़ती है।
इन दोनों विवशताओं के कारण या तो वे आगे पढ़ाई जारी रखने का विचार ही छोड़ देती हैं अथवा गलाकाट प्रतस्पर्धा में पीछे रह जाने को अभिशप्त हो जाती हैं। यदि दूरस्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम को हिंदी में मुहैया कराया जाए और अंग्रेजी में ही परीक्षा देने की अनिवार्यता को हटा लिया जाए तो इस सबसे अधिक लाभ लड़कियों को प्राप्त होगा। इन कारणों से आधी दुनिया के सामने संभावनाओं का संसार खुल सकेगा और शिक्षा जगत में उनके समक्ष आने वाली दुश्वारियां कुछ कम हो सकेंगी। यह महिला सशक्तीकरण को भी मजबूती प्रदान करेगा।
एक अन्य कारण से भी मातृभाषा में शिक्षा, महिला सशक्तीकरण के लिहाज से उपयोगी है। यह दुर्भाग्यजनक किंतु कटु सत्य है कि अब भी अभिभावकों की तरफ से लड़का-लड़की को दी जाने वाली शिक्षा में विभेद देखने को मिलता है। यह विभेद अंग्रेजी-हिंदी माध्यम के विद्यालयों के चयन के रूप में सामने आता है। लड़के को इंग्लिश मीडियम और लड़की को हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने की प्रवृत्ति समाज में दिखायी पडती है। इसके कारण उच्च -शिक्षा में जहां पर अब भी अंग्रेजी का बोलबाला है, लड़कियों को पीछे रह जाना पड़ता है। यदि उच्च शिक्षा के समस्त द्वार हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए जाएं तो इससे सबसे अधिक लाभी लड़कियों को ही मिलेगा।
भारत में लंबे समय तक इनसाइड वोमनःआउटसाइड मैन की धारणा का गहरा प्रभाव रहा है। अब यह धारणा टूट रही है। महिलाएं बाहर निकल रही हैं और घुल-मिल रही हैं। लेकिन उनकी स्वस्थ सामाजीकरण में एक प्रमुख बाधा अंग्रेजी के कारण पैदा हो रही है। सामान्य, मेहनती, प्रतिभावान महिला भी अंग्रेजी के आतंक से प्रतिदिन आतंकित होती हैं। लंबे समय तक घर से बाहर न निकलने के अभ्यस्त आधी दुनिया पर अंग्रेजी प्रतिदिन हीनता का भाव रचती है और उसे गाढ़ा करती है।
इस तरह मातृभाषा, मातृशक्ति के सशक्तीकरण का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन निहित स्वार्थ, अंग्रेजी के मोह तथा अभिजन वर्ग के दुराग्रह के कारण व्यवस्था आज तक मातृभाषा को महिला सशक्तीकरण के  उपकरण के रूप में रेखांकित नहीं कर सकी है। हैरत तो यह है कि जो भारतीय परिप्रेक्ष्य से परिचित हैं वे भी मातृभाषा और मातृशक्ति के आपसी संबंधों को रेखांकित नहीं कर पा रहे हैं। इस अपरिचय के कारण महिलाओं को भाषायी मानवाधिकार प्रदान करने के लिए कोई समुचित पहल नहीं दिख रही है।

मूलभूत इच्छा का वैकल्पिक विमर्श

एक आदर्श शासन प्रणाली की चाहत हमेशा से मानवीय चिंतन और गतिविधियों के
केंद्र में रही है। यह एक सार्वकालिक और सार्वभौमिक इच्छा है। महाभारत के
शांतिपर्व में 'स्थितप्रज्ञ राजा की खोज हो अथवा प्लेटो द्वारा 'फिलॉसफर
किंग का खोजा जाना, इन सबके केंद्र में आदर्श शासक और शासन प्रणाली ही
है।
'शासक केंद्रित विचारों से लंबी दूरी तय करते हुए अब हम 'संस्था
केंद्रित, 'व्यवस्था केंद्रित शासन प्रणालियों के दौर में जी रहे हैं।
इन प्रणालियों में लोकतंत्र सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय है। अपने देश
भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र का 'वेस्टमिंस्टर संस्करण अपनाया गया,
लेकिन अपनाने के 65 वर्षों बाद भी यह प्रणाली निर्धारित अपेक्षाओं को
पूरा करने में बुरी तरह विफल साबित हुई है। इसके कारण देश में हर स्तर पर
एक व्यग्रता देखने को मिलती है। भानू धमीजा की पुस्तक 'व्हाई इंडिया
नीड्ज प्रेजिडेंशियल सिस्टम इसी व्यग्रता की सकारात्मक और समाधानपरक
अभिव्यक्ति है।
मीडिया और प्रकाशन जगत से संबद्ध होने के कारण लेखक भानू धमीजा का
व्यवस्थागत विकृतियों से सीधा वास्ता पड़ा है। लेेखक ने इन विकृतियों को
एक सच्चे भारतीय की तरह महसूस किया है और यह भारतीयता की छटपटाहट
वैकल्पिक व्यवस्था तलाशने के श्रमसाध्य रास्ते पर धकेलती है। पुस्तक की
भूमिका में ही लेखक ने 'इंडिया इज माई ओनली कॉज लिखकर अपनी मूल चिंता को
बहुत स्पष्ट तरीके से व्यक्त कर दिया है।
पुस्तक में बहुत शोधपूर्ण तरीके से इस बात को स्थापित किया गया है कि
सत्ता के अतिशय सकेंद्रीकरण के कारण भारतीय शासन प्रणाली गंभीर खतरों का
सामना कर रही है। नेहरू के लगाव के कारण किस तरह संसदीय शासन प्रणाली
स्वीकार की गई और उनके प्रभाव ने किस तरह इसकी दिशा-दशा तय की, इसका बहुत
रोचक लेखा-जोखा इस पुस्तक में मिलता है। प्रसिद्ध संविधानविद् सुभाष
कश्यप के एक कथन को उद्घृत कर लेखक ने बहुत चुटीले तरीके से वर्तमान शासन
प्रणाली पर व्यंग्य किया है। सुभाष कश्यप के अनुसार 'यदि जवाहर लाल
नेहरू भारत के प्रथम राष्ट्रपति होते और राजेंद्र प्रसाद देश के पहले
प्रधानमंत्री होते तो आज देश का राजनीतिक तंत्र, संसदीय से अधिक
राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ झुका हुआ होता और इसके लिए मौजूदा संविधान में
किसी बदलाव की जरूरत नहीं पड़ती। यह कथन बताता है कि भारतीय शासन
प्रणाली कितनी व्यक्ति केंद्रित है।
इतिहास के पुराने पन्नों और वर्तमान के पड़ावों की यात्रा के बाद लेखक इस
निष्कर्ष पर पहुंंचा है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र के मूल में ही
गड़बड़ी है। इसलिए, सुधार के जरिए इसे सही रास्ते पर लाने के कोशिशों का
असफल होना तय है। ऐसे में भारत को अन्य शासन प्रणालियों को जांचने की
दिशा में आगे बढऩा चाहिए। भानू को लगता है कि अमरीका की राष्ट्रपति
प्रणाली भारत के लिए सबसे अधिक मुफीद है। उन्होंने राष्ट्रपति प्रणाली के
कई तथ्यों को रेखांकित करके अपनी बात को पुष्ट किया है। पहला तथ्य यह है
कि संघात्मक संप्रभुता के कारण राष्ट्रीयता और स्थानीयता दोनों की
भावनाएं संतुष्ट होती हैं और इसके कारण शासन-प्रशासन को पहचान के
प्रश्रों को सुलझाने के लिए बहुत श्रम नहीं करना पड़ता। इसी तरह न्यायिक
पुनरावलोकन व्यक्ति के बजाय संस्थान और कानून को सर्वाेपरि नियंत्रक के
रूप में स्थापित करता है। राष्ट्रपति प्रणाली में सरकारों का कार्यकाल
स्थिर होता है। इसके कारण राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्रीय आत्मबल का विकास
होता है। इसके उलट संसदीय शासन प्रणाली में जोड़-तोड़ की राजनीति के कारण
सरकारें बनती-बिगड़ती रहती हैं, जिसके कारण असुरक्षा की भावना पनपती है
और दूरगामी लक्ष्य तय नहीं हो पाते। इसी तरह कानूनों का कम हस्तक्षेप भी
व्यक्ति में पहल करने की भावना भरता है।
निश्चित रूप से अमरीका में राष्ट्रपति प्रणाली काफी सफल रही है।
शासन-प्रशासन के कई अच्छे उदाहरण वहां से आए हैं। इस प्रणाली को अपनाना
एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। लेखक ने पूरे विमर्श को खुला और
अकादमिक रखा है। इसीलिए, पुस्तक की भूमिका में वह अपने विचारों को ज्यों
का त्यों स्वीकार करने के बजाय अमरीकी संविधान निर्माताओं की तीक्ष्ण
बुद्धि पर विश्वास रखने को कहता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किताब
का जोर किसी निष्कर्ष को थोपने की बजाय एक वैकल्पिक विमर्श को खड़ा करने
पर है।
इस किताब में कई मूलभूत प्रश्रों का उत्तर मिलना शेष रह जाता है। मसलन,
क्या पूरी की पूरी व्यवस्था को आयात करना एक फलदायी प्रक्रिया साबित
होगी। इतिहास इसके बारे में हमें सजग रहने और चयनित दृष्टिकोण अपनाने का
सबक देता है। इसके बावजूद, भारत के उज्ज्वल भविष्य के आकांक्षी प्रत्येक
नागरिक, अकादमिक जगत, पत्रकार बिरादरी तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए
यह पुस्तक वैकल्पिक व्यवस्था के विमर्श  हेतु एक प्रस्थान बिंदु की तरह
है। विमर्श का फलक विस्तृत बनाने के लिए पुस्तक का हिंदी संस्करण सहयोगी
साबित होगा।
पुस्तक : व्हाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम
प्रकाशक : हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्ज, इंडिया
कुल पृष्ठ : 373
दाम : 550 रुपए (पेपर बैक)

महती और आवश्यक परंपरा की खोज

वैश्वीकरण के दौर में एक अजीब सा विरोधाभास बडे वेग के साथ आकार ले
रहा है। कास्मोपाॅलिटन होने के नारे के बीच पूरी दुनिया में स्वयं को
पहचानने और अपनी जडों को खोजने की व्यग्रता भी बढी जा रही है।
अधिकांश संजीदा विचारक अब इस तथ्य को बहुत स्पष्टता के साथ स्वीकार करने
लगे हैं कि पूरी दुनिया में जो संघर्ष दिख रहा है, वह कुछ नहीं बल्कि
अपनी पहचान के श्रेष्ठ अंश को खोजने और उसे पुनः साकार करने का
संघर्ष है। दाएस का खिलाफत का दुःस्वप्न हो, रूस का क्रीमिया में हस्तक्षेप
हो अथवा चर्च द्वारा सोलहवीं शताब्दी को पैपेसी को स्थापित करने का
प्रयास हो, सभी अपने अतीतकाल काल के स्वर्णयुग की ज्यांे की त्यांे वापसी
चाहते हैं।
इस स्थिति में भारत की स्थिति बहुत अनूठी और सर्जनात्मक है। यह स्थिति
भारत की परंपरा के प्रति अनूठी समझ के कारण है। यहां पर परंपरा का मतलब,
नियम-कानूनों का वाह्य ढांचा नहीं बल्कि सनातन तत्व का बोध है। सनातन
तत्व को सामयिक बनाना भी भारतीय परंपरा का एक आवश्यक अंश होता है।
इसलिए यहां पर परंपरा जड नहीं है, वह सतत प्रवाहित होती रहती है, नए-नए
कलेवरों के साथ। हां, उसका स्वत्व हमेशा एक रहता है। इसीलिए यह परंपरा
पुनरुत्थान से अधिक नवोत्थान पर विश्वास करती है। इसमें ठहराव नहीं है
बल्कि यह देश, काल, पात्र के अनुसार सत्य को परिष्कृत और प्रवाहित करती है।
यह व्यावहारिक भी है क्योंकि अतीत को जिंदा नहीं किया जा सकता। नई
परिस्थितियों के अनुसार किसी भी भावना का सर्जनात्मक पुनर्गठन जरूर किया
जा सकता है।
भारत में अपने मूलचरित्र को समझने के प्रयासों में बढोतरी हुई है।
लेकिन इन प्रयासों का स्वरूप बहुत ही सर्जनात्मक और सकारात्मक है। यहां पर
अतीत को पुनर्जीवित करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं, बल्कि इससे ज्यादा
जोर उस भावना को समझने पर है, जिसके कारण परंपराएं और व्यवस्थाएं
खडी हुईं ताकि उस भावना के अनुरुप नई परंपराए गढी जा सकें। इससे सातत्य
और परिवर्तन दोनों को साधा जा सकता है। अपनी पहचान से जुडे रहकर भी
वैश्विक हुआ जा सकता है और सबसे बडी बात यह कि कूपमंडूकता की स्थिति से
बचा सकता है।
प्रो.कौशल किशोर मिश्र की किताब महाभारत में राजधर्म, भारतीय स्वत्व
बोध की इसी दिशा में किया गया एक सार्थक प्रयास है। प्रो मिश्र ने
भारतीय चिंतन के महाकोश को आधार मानकर भारतीय राजनीतिक परंपरा के
मूल अधिष्ठानों को समझने-समझाने की कोशिश की है। इससे पहले भारतीय
राजनीतिक चिंतन को समझने की कोशिशंें अधिकांशतः आचार्य कौटिल्य तक
ही जाती है। छिटपुट प्रयास शुक्रनीति और महाभारत के शांतिपर्व पर भी
हुए हैं। प्रो.मिश्र ने संपूर्ण महाभारत को आधार मानकर भारतीय चिंतन
को समझने की कोशिश की है, इसलिए उनके कार्य का परिप्रेक्ष्य बहुत विस्तृत
है और महत्ता अधिक है।
विषय वस्तु विस्तृत होने के कारण पुस्तक दो खंडों में विभाजित हैं।
पहले खंड में भारतीय राजनीति परंपरा और महाभारत, महाभारत में धर्म
नैतिकता और राजनीति, महाभारत में राज्य एवं राजा का स्वरूप तो दूसरे
खंडमें  महाभारत में राजत्व की शक्ति एवं दायित्व तथा साामजिक व्यवहार
एवं राजधर्म पर प्रकाश डाला गया है। महाभारत केंद्रित होने के बावजूद
लेखक ने राज्य शास्त्र के प्रमुख चिंतकों को मतों को समावेश कर ग्रंथ
को अधिक समग्र बना दिया है। शुक से लेकर कामंदक तक के विचारों का पुट
देकर महाभारतीय राजधर्म के मर्म का व्याख्यायित करने की कोशिश की गई
है।
पुस्तक में भारतीय राजनतिक चिंतन से संबंधित कई भ्रांतियों को दूर
करने की कोशिश की गई है। पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में राजतंत्र की कंेद्रीय
एकाधिकारवाद को माना जाता है और इसी एकाधिकारवादी अवधारणा को भी
भारतीय राजतंत्र पर थोपकर उसकी व्याख्या करने की कोशिश की जाती है,
जिसके कारण भारतीय राजतंत्र से कई सकारात्मक पक्ष गायब हो जाते हैं। लेख
इस तथ्य को रेखांकित करता है कि भारतीय संदर्भों मे ंराजतंत्र को
एकाधिकारवाद का प्रर्याय नहीं माना जा सकता- ’प्राचीन भारत में वैदिक
राष्ट्रª का स्वरूप् मुख्यतः राजतंत्रात्मक रहा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि
राजतंत्र एकात्मक प्रणाली है। राजतंत्र आधुनिक लोकतंत्र से भी अधिक व्यापक
और जनाभिमुख है। ऋ़ग्वेद में गणों का उल्लेख है।‘(प्रथम खंड-पृष्ठ
6)
इसीतरह राजतंत्र को निरंकुश और स्वच्छंद मानने को भारतीय संदर्भों में
लेखक अप्रासंगिक मानता है। यहां पर राजदंड मे धर्मदंड का अंकुश होता
था, जो उसे नागरिक-कल्याण के प्रथम कर्तव्य के प्रति सचेत रखता था। सभी
विजिगिषु राजाओं के दैनिक व्यवहार के लिए भारतीय परंपरा एक कठोर
जीवनशैली की तरफ संकेत करती है, जिसमें स्वच्छंदता के लिए स्थान कोई
स्थान नहीं है। राजतंत्र में राजा के ऊपर ऐसे कठोर नियंत्रण के कारण ही
महाभारत के शांतिपर्व में स्पष्ट रूप से यह कह दिया गया है कि समस्त त्याग
और साधनाओं का राजधर्म में समावेश है। राजा के लिए पृथक से तपस्या
करने की आवश्यकता नहीं है। उसके कार्य की प्रकृति ऐसी है कि यदि वह ठीक
ढंग से अपने उत्तरदायित्वों को निर्वहन करता है तो उसी में उसकी तपस्या
और साधानाएं स्वतः हो जाती हैं।
 राजतंत्र के उदारपक्ष और जनाभिमुखता की तरफ संकेत करते हुए लेखक कहता
है कि -‘वैदिक राजनीति का आधार सामाजिक सेवा है। इस उद्देश्य की प्राप्ति
में राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना होती है। राजा स्वामित्व नहीं सेवा का
हेतु है। राजा का अभीष्ट है कि वह राष्ट्र का विकास करे। सामाजिक
अर्थव्यवस्था में उत्पन्न विश्रृंखलता को दूर करे। विश की रक्षा एंव सैनिक
आवश्यकता के आधार पर राष्ट्र एंव राजा की शक्ति का विकास होता है।
राष्ट्रधारक के रूप् में वह राष्ट्रस्यमूर्धाय है। पायुर्विश होने के कारण वह
प्रजापालक है। राजनीति की इसी विशेषता में लोकतंत्र के समस्त मूल्य समाहित
हैं।’ (प्रथम खंड-पृष्ठ 7)। लेखक की इस दृष्टि से सहमत-असहमत हुआ जा
सकता है, लेकिन किताब की ऐसी स्थापनाएं एक वैकल्पिक भारतीय परिप्रेक्ष्य की
रचना करने सफल होती हैं, जिसमें भारतीय राजनीतिक चिंतन और परंपराओ
को बेहतर ढंग से समझने में सहूलियत होती है।
संपूर्ण किताब में लेखक महाभारत में प्रणीत इस तथ्य पर सर्वाधिक ध्यान
आकर्षित करता हुआ प्रतीत होता है कि राजधर्म, भी वृहदतर धर्म का एक
अंश है। और दूसरा यह कि विभिन्न सापेक्षिक धर्मों में इसका स्थान उच्च
है। क्योंकि अन्य धर्मों के उचित निर्वहन से जहां स्वयं का अथवा कुछ
व्यक्तियों का कल्याण होता है वहीं राजधर्म से संपूर्ण समाज और संस्कृति
का कल्याण होता है। राजधर्म के पथभ्रष्ट होने पर अन्यधर्म अपने आप
पथभ्रष्ट हो जाते हैं क्योंकि सभी कर्तव्यों के निर्वहन का परिवेश
राजधर्म ही रचता है। संभवतः इसीलिए महाभारत में सभी धर्मों को
राजधर्म में ही प्रतिष्ठित माना गया है।
पुस्तक में राजधर्म से संबंधित अन्य विषयांे पर भी रोचक सामग्री प्रदान
की गई है। जैसे कि महाभारतकालीन अस्त्रों का विस्तृत परिचय दिया गया है।
कणक, चक्राश्म और शतघ्नी जैसे अस्त्रों की जानकारी पाठकों को विस्मृत कर
सकती है। जिस लौहयंत्र क गर्भस्थ गोलियां आग्नेय द्रव्य की शक्ति से
उल्काओं की तरह चारों ओर विकीर्ण हो जाएं, उसे कणक कहते हैं।
आग्नेय औषधि के बल से फेंके एग प्रस्तरखंडों द्वारा जो शस्त्र एक साथ
सैकडों मनुष्यों की हत्या कर सके, उसे शतघ्नी कहते हैं। ऐसे अनकों
प्रकरण ग्रंथ को रोचक बनाए रहते है।
इतने गंभीर और महत्वपूर्ण ग्रंथ में प्रूफ की त्रुटियां कई जगहों पर
खटकती हैं।पुस्तक में कई जगहों पर विषयांतर भी हुआ है। पुस्तक की
कीमत को शोध ग्रंथों की तरह रखा गया है। यह सामान्य पाठकों को
बहुत अधिक प्रतीत हो सकता है। फिर भी भारतीय राजनीतिक ंचितन के मर्म से
परिचित होने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है और भारतीय वैकल्पिक
परिप्रेक्ष्य को रचने और समझने के उत्सुक पाठकों-विद्वानों को इस ग्रंथ
को जरुर पढना चाहिए।