शुक्रवार, 31 मई 2019

युवा-आदर्शों का विस्मृत अध्याय हैंः वीर राम सिंह पठानिया



डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई किल्ला पठानियां खूब लड़ेया।

डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई बेटा वजीर दा खूब लड़ेया।।

सुविधाभोगी सन्नाटों के बीच सच के रास्ते को चुनने, और उस पर चलने का काम कुछ धीर-वीर ही कर पाते हैं। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि जो ऐसे रास्ते पर अकेले चलने की हिम्मत जुटा लेते हैं वह नायक बनकर लोकस्मृति में दर्ज हो जाते हैं। तभी तो विश्वकवि ‘तोर दक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे’ के जरिए लोगों से अकेला चलने की गुहार लगाते हैं और हिमाचली मानस ‘किल्ला पठानियां खूब लड़ेया’ के जरिए वीर राम सिंह पठानिया को याद करता है।

अंग्रेजों के दमनचक्र के खिलाफ अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन हुआ, तो उसकी पहली चिंगारी वजीर राम सिंह पठानिया के रूप में फूटी थी। विधर्मी अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ पहली तलवार वजीर राम सिंह पठानिया की उठी, जिन्होंने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवा लिया था। किशोरवय उम्र में वीर राम सिंह पठानिया ने यह दिखा दिया कि अकेले चलकर भी विरोध की ऐसी चिंगारी पैदा की जा सकती है जो अन्याय की हुकूमत को घुटने के बल पर खड़ा कर दे। उन्होंने छोटी सी उम्र में ही जिस धीरता-वीरता का परिचय दिया वह आज भी लाखों-करोडों युवाओं को देशभक्ति की भावना से भर देती है। दुर्भाग्य यह है कि हिमाचल के इस वीर सपूत की शौर्य गाथा से आज की नई पीढ़ी अपरिचित है।

राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर के बासा वजीरां में वजीर शाम सिंह एवं इंदौरी देवी के घर 1824 में हुआ था। उस समय अंग्रेजों की ललचाई आंखें पंजाब समेत पूरे भारत पर थी। पिता के बाद इन्होंने 1848 में वजीर का पद संभाला। उस समय रियासत के राजा वीर सिंह का देहांत हो चुका था। उनका बेटा जसवंत सिंह केवल दस साल का था। अंग्रेजों ने जसवंत सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इनकार कर दिया तथा उसकी 20,000 रुपए वार्षिक पेंशन निर्धारित कर दी। यह शर्त भी थोप दी थी कि वह नूरपुर से बाहर जाकर रहें।

राम सिंह पठानिया और उनके पिता को अंग्रेजों की ये शर्तें मंजूर नहीं थीं। इसलिए जालंधर के कमिश्नर जॉन लारेंस और हर्सकाइन ने इस रियासत पर सख्ती बरतनी शुरू कर दी। बाद में लोभ पैदा करने के लिए जॉन लारेंस ने इतनी रियायत दे दी कि नूरपुर का राजा जहां भी रहना चाहे रह सकता है, बशर्ते वह वजीर शाम सिंह और उसके पुत्र राम सिंह को पद से हटा दें।

अंग्रेजों की यह धूर्तता राम सिंह को पसंद नहीं आई और इसका उचित जवाब देने का मन बना लिया। उन्होंने अंग्रेजी षड्यंत्र का जवाब देते हुए जसवंत सिंह को नूरपुर का राजा और खुद को उसका वजीर घोषित कर दिया। उनके विद्रोह की खबर जब होशियारपुर पहुंची, तो अंग्रेजों ने शाहपुर किले पर हमला कर दिया। जब अंग्रेजी सेना का दबाव बढ़ा, तो मजबूरी में राम सिंह और उनके साथियों को रात के समय किला छोडऩा पड़ा। उन्होंने जम्मू से मन्हास, जसवां से जसरोटिये, अपने क्षेत्र से पठानिये और कटोच राजपूतों को एकत्र किया। 14 अगस्त, 1848 की रात में इन सभी ने शाहपुर कंडी दुर्ग पर हमला बोल दिया। वह दुर्ग उस समय अंग्रेजों के अधिकार में था। भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को राम सिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेडक़र दुर्ग पर अपना झंडा लहरा दिया। कहा जाता है कि रामसिंह पठानिया की ‘चंडी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी। पठानिया की वीरता और उनकी तलवार का खौफ  अंग्रेजों के सिर चढ़कर बोलता था।

अपने हौसले और वीरता से वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। आमने-सामने की कई लड़ाइयों में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें पकडऩे के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए। उन्हीं के एक पुरोहित मित्र ने अंग्रेजों के लालच में आकर उन्हें पकडऩे का भेद बता दिया कि राम सिंह पूजा के वक्त अपने पास कोई हथियार नहीं रखते। पूजा के वक्त जब उन्हें घेर लिया, तो अपने कमंडल से ही उन्होंने नौ ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला था। एक युद्ध में कई अंग्रेजों ने मिलकर षड्यंत्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया। उन पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया। रंगून की जेल में ही 17 अगस्त, 1849 को इस वीर सपूत ने अपने प्राण त्याग दिए।

वजीर राम सिंह पठानिया की शहादत के प्रति इससे बड़ा और अन्याय क्या हो सकता है कि वर्तमान पीढ़ी उनके बारे में अनभिज्ञ हो। इसके कसूरवार वे तमाम इतिहासकार हैं, जिन्होंने अनजाने में या जानबूझ कर भारतीय इतिहास के इस पराक्रमी किरदार को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी।

आज जब देश धर्म का संघर्ष हथियारों से अधिक विचारों से लड़ा जा रहा है और युवाओं के सामने आदर्शों के अकाल की स्थिति पैदा  कर दी गई है, वीर राम सिंह पठानिया की वीरगति को याद किया जाना आवश्यक हो गया है। उनका स्मरण युवाओं में ऊर्जा के नव-स्फूरण पैदा कर सकती है।

राम सिंह पठानिया ने जब क्रान्ति का बिगुल फूंका था तो उनकी उम्र महज 23 वर्ष थी। उनकी मां चण्डी में अगाध श्रद्धा थी। अपने धर्म के प्रति वह बहुत सजग थे और देश के लिए सब कुछ समर्पित करने का संकल्प भी उनके पास था। एक ऐसे समय में युवाओं को भ्रमित करने के सायास कोशिशें चल रही हैं, नशे का दलदल गहरा होता जा रहा है, शैक्षणिक संस्थानों में विभाजनकारी प्रवृतियां पल रही हैं, वीर राम सिंह पठानिया के आदर्श को युवाओं के सामने रखना राष्ट्रीय कर्म बन जाता है।

गुरुवार, 30 मई 2019

लाल सलाम का काला कलाम

 अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है। कि गली मोहल्लो में घट रही घटनाओं का भी एक अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्षय हो सकता है और कोई वैश्विक-कांकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खडी कर सकता है।

साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाए हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयु से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जडों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशे कम ही हुई है।

हिंदी में तो बिलकुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।

इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब कहानी कम्युनिस्टों की सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्रूवाद की विभिध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय करवाती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होती है और सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद को समर्पित है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खेलने वाला है। मसलन फिलिट स्प्रैट का यह कथन कि मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे।


कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्रूवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह बहुत समज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी तफतीश से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने क े लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।


पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतो का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतो का उल्लेख कर इस किताब का ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्रूवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में जिस तरह की कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं करते। यह किताब वैश्विक पथ-प्रदर्शक के रूप् में स्थापित होने की सभी संभावनाएं खुद में समेटे हुए है।




अभिनंदनीय प्रेस कान्फ्रेंस



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सोशल मीडिया पर राजनीतिक फैक्ट चेक


एक रोड शो के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को एक व्यक्ति थप्पड़ मार देता है। उनकी पार्टी इसे विरोधी दलों का षड्यंत्र बताती है और थप्पड़ मारने वाले व्यक्ति को दूसरे दल का कार्यकर्ता घोषित कर देती है। मामला आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया पर उस व्यक्ति की छान-बीन शुरू हो जाती है और जो सच हाथ लगता है कि उससे एक प्रोपेगैंडा फैलने से पहले ही ध्वस्त हो जाता है। थोड़ी सी छानबीन के बाद यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति ‘आप’ से ही जुड़ा हुआ है और उसके कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा है। सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ के कारण राजनीति को अपना रास्ता सुधारने का यह एक उदाहरण है।

इसी तरह, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ महागठबंधन ने बीएसएफ से बर्खास्त जवान तेजबहादुर यादव को उम्मीदवार बनाने की घोषणा कर बहुतों को आश्चर्य में डाल दिया। यह तर्क गढ़ने की कोशिश की गई कि सरकार सैन्य बलों की वास्तविक मांगों को अनसुना कर देती है और जो सही मुद्दे उठाता है, उसके खिलाफ तानाशाही रवैया और असहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाती है। तेजबहादुर यादव के जरिए राष्ट्रवाद, असहिष्णुता और अधिनायकवाद के त्रिकोण में प्रधानमंत्री को घेरने की योजना थी।

विपक्ष का एजेंडा आगे बढ़ता इससे पहले ही सोशल मीडिया के ‘फैक्ट-चेक’ ने उसकी हवा निकाल दी। पहले यह खबर आई कि तेजबहादुर यादव की फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हैं। रही-सही कसर उस वायरल वीडियो ने पूरी कर दी जिसमे तेजबहादुर यादव 50 करोड़ रूपए के एवज में प्रधानमंत्री की हत्या करवाने की बात कर रहे होते हैं। हिजबुल आतंकियों के साथ अपने संबंध होने की धौंस जमा रहा है, इसके आगे की कहानी बताने की जरूरत नहीं है।

इसी तरह चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री की एक वीडियो क्लिप वायरल करने की कोशिश की गई, जिसमें वह यह कहते हुए सुनाई पड़ रहे हैं कि ‘मैं पठान का बच्चा हूं’। उन्होंने यह बात इमरान खान को उद्धृत करते हुए कही थी। लेकिन वीडियो सुनने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे प्रधानमंत्री स्वयं को ही, पठान का बच्चा कह रहे हैं। इस वीडियो की भी पोल खुलते देर नही लगी।

ये कुछ उदाहरण भर है, जो यह दर्शाते हैं कि चुनावी मौसम में सोशल मीडिया के कारण किस कदर राजनीतिक प्रोपेगैंडा पर रोक लगी है और उसे और राजनीतिक-प्रक्रिया को ट्रैक पर रखने की मदद मिली है।

अभी तक सोशल मीडिया की प्रायः इसी संदर्भ मे चर्चा होती रही है कि यह झूठ को फैलाने का साधन बन गया है। सोशल मीडिया पर जिसके मन में जो आता है, वही लिख देता है और लोग बिना सच की पड़ताल किए पोस्ट्स को लाइक-शेयर करते रहते हैं।

कुल-मिलाकर सोशल मीडिया को झूठ का मंच साबित करने की पुरजोर कोशिश होती है, लेकिन इसी बीच चुनावी मौसम के दौरान सोशल मीडिया के फैक्ट चेक वाले रूप ने यह साबित कर दिया कि सोशल-मीडिया प्रोपेगैंडा-पॉलिटिक्स को लगभग नामुमकिन बना दिया है। झूठ की राजनीति न तो अब राजनेताओं के लिए संभव रह गई है और न ही पत्रकारों के लिए। चंद मिनटों में ही झूठ की राजनीति और झूठ की पत्रकारिता का किला सोशल मीडिया पर सक्रिय जंगजू फतह कर लेते हैं।

कारण यह है कि सोशल मीडिया ने प्रत्येक व्यक्ति को जुबान दे दी है। अब एक सामान्य सा आदमी भी बड़े से बड़े राजनेता अथवा पत्रकार द्वारा चलाए गए ‘विमर्श’ में न केवल हस्तक्षेप कर सकता है, बल्कि झूठ-सच की तरफ उसका ध्यान भी आकृष्ट करा सकता है। सच के लिए शाबाशी दे सकता है। झूठ के लिए झिड़की लगा सकता है।

आम आदमी को सोशल मीडिया ‘अभिव्यक्ति का नया आकाश’ दिया है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो हो-हल्ला मचा है, उसका कारण यह नही कि किसी की स्वतंत्रता छीनी गई है, बल्कि इसके पीछे टीस यह है कि अब हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए  एक मंच मिल गया है। वह किसी से भी प्रश्न पूछ सकता है। इस नई परिघटना के कारण राजनीति और पत्रकारिता ने दशकों से चली आ रही मठाधीशी ढह गई है और मठाधीश बेचैन हो गए हैं।

सोशल मीडिया के कारण जो ‘फैक्ट चेक मैकेनिज्म’ उभरा है, उससे झूठ की सियासत पर विराम लगने की संभावनाए भी बलवती हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों को अलग-अलग नजरिए से विश्लेषित किया ही जाएगा। इन सब विश्लेषणों के बीच देखने योग्य एक रोचक बात यह होगी कि सोशल मीडिया के कारण विकसित हुआ फैक्ट चेक मेकैनिज्म चुनावी दृष्टि से कितना कारगर हुआ है।

सीधे संवाद की नई राजनीति



प्रेस-कान्फ्रेंस न करने के लिए मीडिया का एक धड़ा वर्तमान प्रधानमंत्री को पिछले 15 वर्षों से घेरता रहा है। मीडिया के इस वर्ग के अनुसार प्रेस-कान्फ्रेंस करना ही जनता और उसके सवालों से जुड़े रहने का सबूत है और प्रेस कान्फ्रेंस न करना संवादहीनता का प्रतीक। मीडिया-राजनीति में इसका सीधा सा मतलब यह है कि मध्यस्थता के बिना कोई राजनेता न तो जनता के प्रश्नों से जुड़ सकता है और न ही उन प्रश्नों का कोई सटीक राजनीतिक समाधान ढूंढ़ सकता है। हैरत  यह है कि मीडिया के एक वर्ग ने सार्वजनिक जीवन में सीधे संवाद की संभावनाओं को लगभग दरकिनार कर दिया था।यह अलग बात है कि मीडिया में घर कर चुकी इस अवधारणा के बीच ही वह 2007 और 2012 में गुजरात के मुख्यमंत्री चुने जाते हैं और 2014 में देश के प्रधानमंत्री। जाहिर है इस दौरान उन्होंने जनता से संवाद के लिए प्रेस-कान्फ्रेंस से इतर कोई प्रभावी मेकेनिज्म तैयार किया होगा। यह मेकेनिज्म क्या है और कैसे काम कर रहा है, मीडिया के तमाम विरोधों के बावजूद वह गुजरात की जनता का दिल जीतने में कैसे सफल हो रहे हैं इसका विश्लेषण करने के बजाय मीडिया यही राग गाता रहा कि वह प्रेस कान्फ्रेंस क्यों नही कर रहे हैं? इस धड़े के शब्दों और उसमें निहित भावना से संदेश यह जाता था कि उनमें मीडिया को फेस करने की क्षमता नही है।
मीडिया और मोदी के संबंध एक प्रेस कान्फ्रेंस के जरिए परिभाषित होने की कोशिशें होती रही, इसी बीच वह गुजरात से आकर दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक देते हैं और देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं। फिर भी देश की नब्ज को पकड़ने का दावा करने वाले मीडिया के उस वर्ग की हठधर्मिता जारी रही। 2014 के बाद भी मीडिया का यह खेमा इस बात की पड़ताल नही करता है कि वह कहां चूक रहा है और मोदी के सीधे संवाद का मेकेनिज्म कैसे सफल हो रहा है?
2019 में हो रहे लोकसभा चुनावों में तो यह मेकेनिज्म और भी अधिक प्रभावी दिख रहा है, क्योंकि इन चुनावों में उम्मीदवार गौड़ हो गए हैं और यह बात लगभग हर जुबां पर है कि हर सीट पर मोदी ही लड़ रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान जनता उम्मीदवारों को एक नया अनुभव मिल रहा है। वह यह कि जनता पहले से ही अपना स्पष्ट मत बनाए बैठी हुई है। वह आश्वस्त है। उम्मीदवारों से उसकी कुछ खास अपेक्षा नहीं है।
सबसे बड़ी बात यह कि सामान्य नागरिक ही मोदी के पक्ष में तर्क गढ़ रहा है, उत्तर-प्रत्युत्तर दे रहा है। इन चुनावों में सामान्य नागरिकों की वैचारिक स्तर पर सहभागिता बहुत अधिक है। मानो वह मतदाता न होकर खुद ही उम्मीदवार हो। हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा कि यह चुनाव कोई दल नही लड़ रहा है बल्कि पूरा देश ही लड़ रहा है। आम लोगों के मुंह से स्थानीय उम्मीदवार के बजाय मोदी को ही वोट देने की बात कही जा रही है। स्थानीय मुद्दे और उम्मीदवार चुनावी परिदृश्य पर कोई छाप नही छोड़ पा रहे हैं।
यह भारतीय मीडिया और राजनीतिक परिदृश्य में एकदम से चौंकाने वाली और नई परिघटना है। यहां पर वह प्रश्न फिर से अधिर मजबूती के साथ उभर आता है कि ‘‘प्रेस-कान्फ्रेस’’ करने वाले क्यों जनता से जुड़ नही पा रहे हैं, उसके मन में चल रहे सवालों को क्यों नहीं पढ़ पा रहे हैं? और प्रेस-कान्फ्रेस न करने वाला राजनेता न केवल जनता के मन को बेहतर ढंग से पढ़ पा रहा है, बल्कि उन्हे इस हद तक आश्वस्त करने में सफलता प्राप्त कर रहा है कि आम व्यक्ति उसका एम्बेसडर बना हुआ है। यद्यपि आजकल संचारीय सजगता को तकनीकी पैमाने पर आंकने का चलन है, लेकिन इसका उत्तर भारतीय संचार परम्परा और भारतीय संचार दर्शन को समझे बगैर ठीक से नही मिल सकता।
यह बात सही है कि नरेन्द्र मोदी ने संदेशों को सम्प्रेषित करने के लिए उपलब्ध तकनीकों का बड़ी कुशलता से उपयोग किया है। वह विश्व के उन अग्रणी नेताओं में से एक है, जिन्होंने सोशल-मीडिया की राजनीतिक संभावनाओं को न केवल पहचाना बल्कि उसका बेहतरीन इस्तेमाल भी किया। लेकिन यहां बात केवल तकनीकी कुशलता की नहीं है, भारतीय चित्ति में गहरे तक धंसे हुए उन संचारीय मूल्यों के पहचान और नए संदर्भों में उनके उपयोग की भी है।
भारत में विश्वसनीयता का सबसे बड़ा पैमाना यह है कि कही जा रही बात चरित्र के जरिए अभिव्यक्त हो भी रही है कि नही। चरित्र और चिंतन का सामंजस्य विश्वसनीयता रचता है। यदि आप कह रहे हैं कि मेरे लिए देश प्रथम है तो बड़ा प्रश्न यह है कि वह आपके आचरण भी उस अनुरूप है कि नही। इस पैमाने पर नरेन्द्र मोदी खरे उतरते हैं। जहां अन्य राजनेताओं के लिए राजनीति परिवार को सशक्त बनाने का जरिया हो, वहीं मोदी ने अपने परिजनों को किसी तरह का राजनीतिक लाभ नहीं पहुचाया है। उनका परिवार अब भी निहायत सामान्य स्थितियों में रहता है। इसके कारण देश के प्रति उनकी नीति और नीयत को लेकर आम लोगों में विश्वास का भाव रहता है।
वह भारतीय परम्परा बोध के प्रति उनकी सजगता भी उनकी संचार रणनीति को अधिक प्रभावी बनाती है। परम्परा प्रवाहमान बोध है, कोई स्थिर संरचना नही। इसलिए उसमें सातप्य और बदलाव दोनों होते हैं। मोदी में भारतीयता को नवाचारी ढंग से प्रस्तुत करने की ललक दिखती है। योग दिवस इसका उदाहरण है। इसी तरह नवरात्र व्रतों के दौरान भी देश-विदेश में निरन्तर  बैठकें करने का उनका तरीका लोगों में एक स्पष्ट संदेश देता है कि अपनी परम्पराओं के साथ भी ग्लोबल हुआ जा सकता है। एक साथ ही भारतीय परम्परा और आधुनिक आवश्यकताओं से संवाद करने वाला उनका व्यक्तिव भारतीयों के लिए आशा की किरण बन जाता है और यह स्थापित तथ्य है कि आशा और आकांक्षायुक्त संवाद लोगों को साथ जोड़ता है।
नरेन्द्र मोदी की संचार रणनीति का भाषिक पक्ष एक प्रमुख विशेषता है। गुजराती व हिंदी में जिस तरह अपने वक्तव्यों को पिरोते है, उससे उनकी सम्प्रेषण शैली सम्मोहक बन जाती है। उनकी राजनीतिक सफलताओं का यदि सही ढंग से आकलन किया जाए तो भाषिक आयाम भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता नजर आएगा।
नरेन्द्र मोदी की संचार रणनीति में शामिल ये तत्व जनता से सीधे-संवाद करने, उससे जुडने में सहयोग करते हैं। ऐसे में उन्हे संदेश-सम्प्रेषण लिए प्रेस-कान्फ्रेंस पर निर्भर रहने की जरूरत न के बराबर होती है। वह मध्यस्ता विहीन संवाद का ककहरा गढ चुके है, और उसकी दस्तक से भारतीय राजनीति नई करवट लेने लगी है।

मंथन का महोत्सव कुंभ


जल की धाराएं तो हर बार हिमालय से निकल कर सागर में मिल जाती हैं लेकिन परम्परा की धाराएं कई बार समुद्र से निकलकर कर हिमालय तक पहुंच जाती हैं। परम्पराओं में चतुर्दिक चलने का सामर्थ्य होता है और ढलान हर बार इनके मार्ग का निर्धारण नहीं करता। परम्पराओं की इसी सामर्थ्य और प्रकृति से देश में एकता के सांस्कृतिक सूत्र निर्मित होते हैं।  समुद्र मंथन की कथा परम्पराओं के चहुंओर बढ़ने के इस सामर्थ्य का उदाहरण है। एक ऐसी कथा जिसके केन्द्र में समुद्र है लेकिन उसकी उपस्थिति और प्रभाव  अखिल भारतीय है। इस कथा की मथनी का सहयोग लेकर आज भी आम भारतीय अपना धर्मपथ निर्धारित करने की कोशिश करता है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि सबसे अधिक परम्पराओं का सृजन इस कथा ने ही किया है, शिव के जलाभिषेक की परम्परा हो या कुंभ स्नान की परम्परा और सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण से सम्बंधित परम्पराएं, सबके केन्द्र में समुद्र मंथन है। इससे भी अधिक आश्चर्य का विषय यह है कि समुद्र-मंथन से जुड़ी परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हैं, भारतीय संस्कृति के कुछ निश्चित संदेशों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सम्प्रेषित कर रही हैं। आखिर समुद्र मंथन की कथा भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की अभिव्यक्ति की महाकथा क्यों बन गई है ? मंथन की इस कथा ने अपने भीतर कौन से संदेश संजोए हुए हैं? इससे भी बड़ी प्रश्न यह कि भले ही समुद्र-मंथन निकली परम्पराएं अब भी जीवंत बनी हुई हों, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इस कथा में निहित संदेशों की कोई प्रासंगिकता बची भी है या नहीं। ये सारे प्रश्न एक पुनर्मंथन करने को विवश करते हैं।
समुद्र-मंथन की कथा के केन्द्र में मंथन है। मंथन ही इस कथा का सबसे बड़ा मूल्य भी है। प्रायः मंथन का यह मूल्य कुछ आदर्शों को स्थापित करने की इच्छा से उपजता है लेकिन कोरे आदर्शों के जरिए आगे नहीं बढ़ता। यह यथार्थ की सटीक समझ के आधार पर आदर्शों को स्थापित करने की प्रक्रिया है। कथा तो यही संदेश देती है। समुद्र-मंथन की योजना देवों के पराजित होने के बाद बनाई जाती है, और देवों को पराजित करने वाले असुरों को सहभागी बनाकर बनाई जाती है। शत्रु को सहभागी बनाने का कारण क्या है ? ऐसा नहीं था कि असुरों का मन बदल गया था। उन्हें अमृत प्राप्त करने की योजना का हिस्सा बनाने के अपने जोखिम थे लेकिन यथार्थ यह था कि उनकी शक्ति को नकारकर, उन्हें सहभागी बनाए बिना समुद्र मंथन नहीं किया जा सकता था। देवता अक्षम थे और अकेले समुद्र- मंथन करना उनके सामर्थ्य के बाहर था। उनको सहभागी बनाना यथार्थ की स्वीकृति थी। समुद्र-मंथन का सबसे बड़ा संदेश यथार्थ की स्वीकृति ही है। आपको प्रिय हो या अप्रिय, यथार्थ को स्वीकार किए बगैर सच और सफलता की तरह आगे नहीं बढ़ जा सकता। यथार्थ का सामना करने का साहस आदर्श गढ़ने, पाने की मूलभूत शर्त है।
यह कथा बताती है कि मंथन एक बहुआयामी और जटिल प्रक्रिया है। इतनी जटिल की कई बार विरोधाभासी प्रतीत होती है। लेकिन जो सत्य के लिए, धर्म के लिए विरोधाभासों को साध सके, विरोधियों को साथ ले सके, वही मंथन कर पाने में सक्षम होता है। मंथन का आदर्श शिव है और यथार्थ शक्ति है। देवता मंथन के लिए अपने अहंकार को त्यागकर असुरों से संवाद करते हैं, उनसे समुद्र मंथन में सहभागी होने का निवेदन करते हैं, तो इसका कारण बड़े लक्ष्य के प्रति उनकी सजगता है। मंथन की कथा का दूसरा प्रमुख संदेश यही है। अहंकार का कद कभी भी लक्ष्य से बड़ा नहीं होना चाहिए। पूरी तरह सजग रहते हुए सभी शक्ति-केन्द्रों का सम्मान करना, उनसे संवाद करना, सहभागी बनाना यही मंथन है। संवाद रचने या सहभागिता सुनिश्चित करने का आशय नहीं होता सजगता छोड़ दी जाए। लक्ष्य और शत्रु के प्रति सजगता मंथन की पूर्व शर्त है। समुद्र-मंथन में भी यह सजगता दिखती है। अमृत को लेकर मनमोहिनी रूप करने का प्रकरण यह साबित करता है कि निर्णायक क्षणों में देवपक्ष अपने लक्ष्य को लेकर सजग है।
मंथन भविष्य के अनिश्चय को स्वीकार करने का साहस है। यह मनमाने, मनमाफिक निष्कर्षों पर पहुंचने और उन पर विश्वास करने से हमें रोकती है। मंथन-जो है, उससे संवाद है और जो होना चाहिए, उसकी आकांक्षा है। और यथार्थ तो परिवर्तनशील है। वह कब, कौन सा रूप धरकर हमारे सामने खड़ा हो जाए, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। इसलिए भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर अपने मार्ग पर आगे बढ़ना यह मंथन का तीसरा संदेश बन जाता है। मंथन की प्रारंभिक स्थिति में कोई भी पक्ष यही नहीं जानता कि समुद्र-मंथन क्या परिणाम लेकर आएगा। लेकिन देवपक्ष इस बात को लेकर स्पष्ट है कि इसे टाला नहीं जा सकता। मार्ग में हलाहल विष है और अंत में अमृत का कुंभ भी। भविष्य के इस अनिश्चित स्वरूप को स्वीकार करने का साहस होने पर मंथन की घटना जन्म लेती है।
समुद्र-मंथन की यह कथा हमें इस बात के लिए भी आश्वस्त करती है कि यदि हम भविष्य का अनिश्चय स्वीकार कर आगे बढ़ते हैं तो अंतिम परिणाम अच्छा ही होता है, अंत में अमृत-कुंभ ही प्राप्त होता है। अंतिम निष्कर्ष सत्यमेव जयते ही है। यह इस कथा से मिलने वाला सम्बल है। सत्य में अनुरक्ति और उसकी विजय में विश्वास यह भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य है, समुद्र-मंथन भी इस मूल्य को पोषित करता है।
कुंभ को मंथन के इन संदेशों के परिप्रेक्ष्य में ही ठीक ढंग ढंग से समझा जा सकता है। कुंभ महोत्सव का मंथन की इस कथा से गहरा सम्बंध हैं। कुभ मंथन की देन है और यह मंथन की परम्परा को आगे बढ़ाने का आयोजन भी। कुंभ को मंथन का महोत्सव बनाकर ही अमृत की कुछ बूंदे प्राप्त देश-समाज के लिए प्राप्त की जा सकती हैं। मंथन का महोत्सव बनने की स्थिति में कुंभ संघर्ष-समाधान का सबसे प्रभावी और बड़ा उपकरण बन सकता है और संघर्षों से निजात खोजती दुनिया के लिए कुंभ की यह भूमिका अमृत की किसी बूंद से कम नहीं होगी।
कुंभ संघर्ष-समाधान की सनातन परम्परा है और संघर्षों के समाधाना की संभावनाएं अब भी इसमें बची हुई है। अपने-अपने हिस्से के सच को अंतिम सच मान लेना बहुत स्वाभाविक है। यदि टुकड़ों में बंटे सच एक दूसरे से संवाद न करें तो वृहदतर सच अपरिचित रह जाता है, बड़ी संभावनाएं आकार नहीं ले पातीं।यह स्थिति ही अतिवादिता को जन्म देती है। अपनी सीमाओं का भान न रहने पर सच का हर टुकड़ा, दूसरे के खिलाफ जिहाद छेड़ देने पर आमादा हो जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।  अतिवादित और संवादहीनता की वर्तमान दौर में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुनरूज्जीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है।
भारतीय संस्कृति संवाद से ही सत्य के उपलब्ध होने की बात कहती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं, इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और सहिष्णु लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। कुंभ, संवाद की इस परम्परा का सांस्थानिक स्वरूप है।
अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है।
कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए मंथन के मूल्य और संवार की संस्कृति को पुनर्स्थापित किया जा सकता है। यदि ऐसा हो सके तो हम निश्चित रूप से सनातन को पोषित करने की स्थिति में होंगे क्योंकि सनातन को अमरता की बूंदे मंथन के मूल्य और संवाद की संस्कृति से ही मिलती रही हैं।









सरस संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया


संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसकी घोषणा 19 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। अब इससे सम्बंधित वैश्विक कार्यक्रमों की विधिवत शुरुआत भी पेरिस स्थिति यूनेस्को हाउस से हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष को किसी चयनित मुद्दे के ’अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाता है। इस संस्था के लिए ’अंतराष्ट्रीय वर्ष’ घोषित करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता को बताने और उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है।

संयुक्त राष्ट्र की इस परम्परा के लिहाज से देखें तो वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने में कोई अनूठापन नहीं दिखता। सामान्य सम-हजय तो यही बनती है कि संयुक्त राष्ट्र इस वर्ष देशज भाषाओं के संरक्षण-ंउचयसंवर्द्धन के लिए विशेष प्रयास करेगा। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे भाषायी-ंउचयसम्मोहनों और दबावों के बीच संयुक्त राष्ट्र की ऐसी पहल साहसी मानी जाएगी। लेकिन बात केवल साहस की नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी सम-हजय के अनुसार इस वर्ष को मनाने जा रहा है, वह उसके निर्णय को अनूठा और क्रंातिकारी दोनों बना देते हैं।

संयुक्त राष्ट ने ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के लिए जो थीम निर्धारित की है, वह अब तक की भाषायी सम-हजय को सिर के बल खड़ी कर सकती है। थीम के अनुसार ’देशज भाषाएं विकास, शांति-ंउचयनिर्माण, सुलह का उपकरण हैं।’ इस थीम की जरूरत और आशय को अधिक स्पष्ट करते हुए संयुक्त राष्ट्र एक आकार लेती भाषायी सम-हजय की तरफ संकेत करता है।

इस संस्था के ही शब्दों में कहें तो ’भाषाएं लोगों के रोजमर्रा के जीवन में संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के उपकरण के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि लोगों की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक इतिहास, परम्परा और स्मृति का भण्डार भी हैं। इतना मूल्यवान होने के बावजूद विश्व भर में भाषाएं खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं। इस बात को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है, ताकि इनके बारे में जागरूकता पैदा हो सके। इसका लक्ष्य इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को लाभ पहुंचाना तो है ही, उन अन्य लोगों को भी इस बात का अहसास दिलाना है कि देशज भाषी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता में किस कदर योगदान कर रहे हैं।’

संयुक्त राष्ट्र ने देशज भाषाएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए 6 कारण गिनाए हैं। संस्था के अनुसार देशज भाषाएं ज्ञान और दुनिया को सम-हजयने की एक विशिष्ट प्रणाली से हमारा परिचय कराती है। देशज भाषाएं शांति का माध्यम है, यह टिकाउ विकास, निवेश, शांति-ंउचयस्थापना और सुलह का के रास्ते खोलती हैं। भाषा मूलभूत मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यह सामाजिक समावेशन को ब-सजय़ावा देती है। और अंतिम यह कि यह विविधता की पोषक है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा देशज भाषाओं के पक्ष में दिए गए इन तर्कों की वजह से भाषा का कद यकायक ब-सजय़ जाता है। इस बड़े फलक पर भाषा का जुड़ाव हर उदात्त आदर्श से हो जाता है, वह मानवीय मूल्यों तक पहुंचने का प्राथमिक उपकरण बन जाती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ’मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ या ’सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ के संदर्भों में भाषाओं की अहमियत ब-सजय़ जाती है। ऐसा लगता है कि भाषायी सामथ्र्य का निवेश किए बगैर किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। भाषा मूलभूत अधोसंरचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है।

संयुक्त राष्ट्र ने भाषायी सामथ्र्य के अनछुए लेकिन प्रभावी पहुलओं की अपनी स्वीकृति दे दी है। इसी के साथ बदलाव और टकराव की भूमिका भी तैयार कर दी है। भाषा अब जिस नए कलेवर में हमारे सामने आ रही है, उसका सामथ्र्य यदि अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ अवतार ले रहा है, तो इससे भविष्य में व्यापक बदलाव दिख सकते हैं। लेकिन इसके साथ टकराव के नए मोर्चे भी तैयार होंगे।

अभी तक भाषा को पहनने वाले कपड़े के तरह परोसा जाता था। जब चाहे बदल लो। वह तो अभिव्यक्त का उपकरण भर है, इसे संस्कृति, पहचान से जोड़ना मूर्खता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र तो स्पष्ट कह रहा है कि भाषा पहचान को ग-सजय़ती है और यह सांस्कृतिक स्मृतियों का सामूहिक कोश है। चुनौती इस तर्क को भी मिलेगी कि परम्परा को किसी भी भाषा में आगे ब-सजय़ाया जा सकता है, इसलिए परम्परा के आग्रही व्यक्तियों को भाषा के बारे में आग्रह नहीं रखना चाहिए।

प्रश्न उस लोकप्रिय तर्क पर भी उठेंगे, जो कहता है कि विकास की खास भाषा होती है। भाषा-ंउचयविविधता को कलह का कारण मानने वाले भी संयुक्त राष्ट्र की नई भाषायी लाइन से निराश होंगे। भाषायी मानवाधिकार और भाषायी स्वतंत्रता की संकल्पनाएं, किस कदर उठापटक पैदा कर सकती हैं, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। अभी तक मानवाधिकार की एक खास वैश्विक भाषा है और उसी खास भाषा में दक्षता प्राप्त कर स्वतंत्र होने की घोषणा की जा सकती है।

देशज भाषाओं के बहाने ही सही, संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी सम-हजय को ग-सजय़ने और फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसके असर से कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। देश के भीतर भी विभिन्न मोर्चों पर इसके अलग-ंउचयअलग तीव्रता के प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। भारतीय संदर्भों में देखें तो संयुक्त राष्ट्र के नव-ंउचयभाषायी संकल्पों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक मीडिया का क्षेत्र होगा। भारतीय मीडिया अब भी परम्परागत भाषायी आख्यानों से संचालित होता है। अधिकांश बिंदुओं पर उसकी दिशा संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के उलट दिखाई पड़ती है।

भाषा सम्बंधी एक आयाम का विश्लेषण भी इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा कि भारतीय मीडिया की भाषायी सम-हजय ठहर गई है। नए अध्ययनों के आलोक में वह अपनी भाषायी सम-हजय का विश्लेषण करने के लिए न तो तैयार है और न ही कहने का नया व्याकारण तैयार करने में उसकी रुचि है। मसलन, संयुक्त राष्ट्र जहां भाषा के माध्यम से शांति की संभावनाओं को तलाश रहा है। भाषा के संयमित-ंउचयसंतुलित उपयोग पर जोर दे रहा है, वहीं भारतीय मीडिया दिन-ंउचयब-ंउचयदिन कर्कश होती जा रही है। उसे लगता है कि सच चिल्लाकर-ंउचयशोर मचाकर ही सच कहा जा सकता है।

भाषायी मर्यादा का हनन भारतीय मीडिया का स्थायी चरित्र बनता जा रहा है। शोरगुल तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो यह घृणा के स्तर तक पहुंच गया है। इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब द क्विंट की एक पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से अमित शाह की मौत की कामना की। 16 जनवरी 2019 को अमित शाह ने ट्वीट किया कि -ंउचयमु-हजये स्वाइन फ्लू हुआ है, जिसका उपचार चल रहा है। ईश्वर की कृपा, आप सभी के प्रेम और शुभकामनाओं से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा। इस पर द क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की मौत की इच्छा ट्वीटर पर जाहिर की।

इसी तरह द क्विंट के ही स्तंभकार विकास महरोत्रा ने 7 मार्च 2017 को ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड की तस्वीर सा-हजया करते हुए उनके मौत की कामना की थी। कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर जब तेजिन्दर पाल बग्गा ने सिखों की चिंताओं को आवाज दी तो एक महिला पत्रकार ने उनके मरने की कामना करते हुए उन्हें शोक संवेदना भेजी।

एनडीटीवी की राजनीतिक सम्पादक सुनेत्रा चैधरी से इससे भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। उन्होंने 3 अक्टूबर 2009 को एक ट्वीट किया था। ट्वीट नरेन्द्र मोदी को स्वाइन फ्लू होने से जुडा़ था और उसका आशय भी स्तुति मिश्रा जैसा ही था। अपने इस ट्वीट पर घिरने के बाद उनका उत्तर था कि मु-हजये ऐसा लिखने का कोई पछतावा नहीं है।

मृणाल पांडे के नाम से पत्रकारिता जगत में सब परिचित ही हैं। उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े कई सरकारी-ंउचयगैरसरकारी पदों की शोभा ब-सजय़ाई है। एक मात्र बौद्धिक होने की आत्ममुग्धता उनमें मौक-ंउचयबेमौके दिखती रहती है। इसी कड़ी में वह प्रधानमंत्री को            ’वैशाखनंदन’ कह जाती हैं। आलोचना होने पर उन्हांेने अपनी इस गलती को भी बौद्धिकता का मायाजाल रचकर

ये उदाहरण भारतीय मीडिया की भाषायी सम-हजय पर प्रश्न जैसे हैं। संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया अपनी भूमिका को नए सिरे से कैसे परिभाषित करेगी, उस पर बहुतों की नजर रहेगी। भविष्य में विमर्श और विश्वसनीयता का स्तर मीडिया की भाषायी सम-हजय पर ही निर्भर करेगा।

संज्ञाओं के संदर्भ में सभ्यता (लोदी मीडिया की ढहती सल्तनत-2)


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#Youtoo……………ब्रूटस


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लोदी मीडिया की ढहती सल्तनत

पैगम्बरवादी पंथ मूर्तिभंग को मानभंग का प्रमुख औजार मानते हैं और ज्ञान का अन्यधाराओं से उनकी शत्रुता उन्हें शब्दबैरी.शास्त्रबैरी बना देती है। इसलिए प्रभाव.विस्तार के लिए यदि गाजियों और क्रूसेडर्स के निशाने पर सबसे पहले धर्मस्थान और धर्मशास्त्र आते रहे हैं तो यह अनायास नहीं है। इसके स्पष्ट राजनीतिक.मनोवैज्ञानिक आयाम हैं। मनोवैज्ञानिक स्तर पर आइकनौक्लाज्म ;मूर्तिभंगद्ध और ष्बुक बर्निंग ;शास्त्र को जलानाद्धष् सभ्यताओं के संहार की प्रक्रिया है। अंग.भंग से व्यक्ति आहत होता है लेकिन इन सेमेटिक परम्पराओं से पूरी सभ्यता आहत होती है।

शब्द और मूर्ति सामूहिक स्मृति को गढ़ती है। शब्द के माध्यम से परम्पराएं आगे बंढ़ती है और इस तरह शब्द सभ्यता के संरक्षक बन जाते हैं । दूसरी तरफ हजारों सालों का चिंतन मूर्तियों के रुप में आकार लेता है और इन मूर्तियों से संस्कृति को गढ़नेवाली अनेकों परम्पराएं जन्म लेती हैं। मूर्ति चिंतन और परम्परा का निकर्ष होती है। मूर्तिभंग और शास्त्रोच्छेद के साथ चिंतन और परम्परा दोनों अवरुद्ध हो जाती है। ऐसे में सामूहिक स्मृतियों का लोप होना प्रारंभ हो जाता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि स्मृतिहीन समाज आसानी से दासता स्वीकार कर लेता है। इसलिए अपने सत्य को अंतिम सत्य घोषित करने वाली सभ्यताओं ने यदि बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में मूर्तियाें को तोड़ा और किताबों का जलाया तो उनका मंतव्य किसी भी प्रकार अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करना था।

भारतीय संदर्भों में देखें तो मूर्तिभंग और शास्त्रबैर दोनों का ही दंश भारत को लगभग हजार साल तक झेलना पड़ा। सामूहिक स्मृति फिर भी बची रहीए तो इसका कारण  भारत की श्रुति परम्परा है। मूर्तिंयां टूटींए शास्त्र जलाए गएए लेकिन कंठस्थ शब्दों और हृदयंगम भावनाओं का आक्रमणकारी क्या कर सकते थेघ् उन्हें तो वह देख ही नहीं सकते थे। इस्लामिक आक्रमण काल में जिन व्यक्तियों ने मूर्तिभंग और शास्त्रोच्छेद के परम्पराओं को जिहादी मानसिकता और क्रूर तरीके से आगे बढ़ायाए उसमें से एक का नाम सिकंदर लोदी है। इसलिए भारतीयता को हिंसक और क्रूर तरीके से मिटाने वाली मानसिकता को लोदी मानसिकता कहा जा सकता है।

भारतीय सभ्यता को स्मृतिहीन करने का महाअभियान अब भी विविध रूपों में चल रहा हैए जहां पर संभव है वहां पर मूर्तिभंग के जरिए और जहां पर नहीं है वहां पर मीडिया के जरिए क्योंकि शब्दों को पालने.पोषने अथवा उन्हें मारने का कार्य मुख्यतः मीडिया के जरिए ही हो रहा है। सेनाओं के बजाय अब मीडिया भारतीय सभ्यता को स्मृति बनाने के कार्य को अंजाम दे रहा है। भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसमें संलिप्त रहा है। मीडिया के इस वर्ग की करतूतें सिंकदर लोदी जैसी हैए इसीलिए मीडिया के इस वर्ग को लोदी मीडिया कहा जा सकता है। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह लोदी मीडिया किस कदर पूर्वाग्रहों से संचालित होता रहा हैए इसका सबसे अच्छा आकलन पिछले 6 दशकों में चलाए गए प्रमुख आंदोलनों पर उसके दृष्टिकोण और कवरेज के आधार पर किया जा सकता है। इन 6 दशकों में देश के मानस को अभिव्यक्त करने वाली सभी प्रमुख आंदोलनों को या तो कवरेज ही नहीं मिलीए या फिर उसे सनकी.साम्प्रदायिक लोगों को आंदोलन बताने की कोशिश की गई। इसी कारण नई पीढ़ी स्वतंत्रता बाद के आंदोलनों से या अपरिचित है या फिर उनके प्रति नकारात्मक नजरिया रखती है।

स्वतंत्रता के बाद पहली बार जिस आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया थाए वह था 1966 में गोहत्या पर पाबंदी को लेकर साधु.संतों द्वारा चलाया गया आंदोलन। इस आंदोलन में सभी भारतीय सम्प्रदायों के संतों ने एकस्वर में गोहत्या पर पाबंदी और गोसंवर्द्धन के लिए ठोस कदम उठाने की सरकार से मांग की। गोरक्षा महाअभियान समिति के बैनर तले इस आंदोलन को आर्यसमाजएबौद्धए जैनए सिखए नाथए निरंकारी सम्प्रदायों का भी समर्थन प्राप्त था। ऐसी सांस्कृतिक एकता उसके बाद भारत ने अभी तक नहीं देखी। सरकार ने इस मुद्दे पर अडि़यल रुख अपनाया। 7 नवम्बर को दिल्ली में पुलिसिया कार्रवाई में कई संत गोलोकवास हुए। इसी आंदोलन के दौरान शंकराचार्य निरंजनदेवतीर्थ का 72 दिनों का अनशन और करपात्री जी महाराज की भूमिका को यादकर आज भी गोभक्त रोमांचित हो जाते है। लेकिन इसके बारे में मीडिया ने तब जो मौन धारण कियाए वह अब तक बरकरार है। लोदी मोडिया भारतीय भावनाओं को नजरंदाज की इस प्रवृत्ति के कारण सामान्य व्यक्ति तो दूरए अच्छे.खासे पढ़ लिख लोग भी इस आंदोलन और 7 नवम्बर 1966 को संतो ंके अविस्मरणीय बलिदान के बारे मे नहीं अनभिज्ञ हैं।

छोटी.छोटी घटनाओं के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जो बनावटी बखेड़ा लोदी मीडिया आज खड़ा करने की कोशिश कर रहा हैए उसकी भूमिका आपातकाल में निहायत संदिग्ध रही। आज के दौर को जबरदस्ती आपातकाल जैसा साबित करने की कोशिश की जाती हैए जबकि आपातकाल तो सचमुच का संकट था। ष्जैसे खतरे को ष् को ष्सचमुच के खतरेष् से बड़ा बताने का कारनामा तो लोदी मीडिया ही कर सकता है। आज भी आपातकाल की चर्चा आते ही मीडिया का यह वर्ग चर्चा करने से बचता है या शातिराना तरीके से ष्हंसकर टाल देने वाली मुद्राष् अपना लेता है। नतीजनए आपातकाल के बारे में आज भारतीय समाज खुद को स्मृतिहीन अवस्था में पाता है।

रामजन्मभूमि आंदोलन लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारतीय चिति को स्थापित करने वाला राष्ट्र की तरफ से चलाया गया सर्वाधिक प्रभावी आंदोलन था। इसके केन्द्र में सभ्यता की पांच सौ सालों की संघर्षगाथा थी। दुर्भाग्य से मीडिया ने बहुत चालाकी से रामजन्मभूमि के विमर्श को 1949 से पहले नहीं जाने देने का षड्यंत्र रचा और सफल भी रहा। राजजन्मभूमि के लिए किए पचास पीढि़यों के संघर्ष का इतिहास हर भारतीय के लिए प्रेरणास्त्रोत बन सकती थीए लेकिन इसे आस्थाए पहचानए आदर्श और इतिहास के बजाय बहुत सीमित दायरे में लिया। लोदी मीडिया ने प्रयासपूर्वक राष्ट्र की शताब्दियों की आकांक्षा को ष्मदिर बने या अस्पताल बनेष् जैसी टुच्ची बहस में उलझा दिया। 

लोदी मीडिया का ऐसा ही रवैया रामसेतु आंदोलन और अमरनाथ आंदोलन के प्रति भी रहा। इन आंदोलनों की तीव्रता और व्यापकता को दरकिनार कर लोदी मीडिया में इनकी कवरेज कानून.व्यवस्था के प्रश्न के नजरिए सी गई। कहां पर कितनी ट्रकें रूकी रहींए कैसे यातायात व्यवस्था प्रभावित हुईए ऐसे आंदोलनों के कारण कैसे एक खास वर्ग अप्रसन्न होता हैए जैसे कोणों से इतने बड़े आंदोलनों की कवरेज करने की कुचेष्टा की गई। इसी कारणए अभी पिछले दशक में हुए इन आंदोलनों और उनके उद्देश्यों के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है।

शब्दों के जरिेए भारतीयता की छविभंग करने की कोशिशों को लोदी मीडिया पिछले दशक तक सफलतापूर्वक अंजाम देता रहा है। अब वह ऐसा नहीं कर पा रहा है। मीडिया पर उसका एकाधिकार खत्म हो रहा हैए उसकी सल्तनत ढहती हुई दिख रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम परए आदर्शों को बचाने के नाम पर मीडिया में जो धमा.चौकड़ी मची हुई हैए उसका एकमात्र कारण लोदी मीडिया की एजेंडा तय करने की ताकत में आ रही गिरावट है।

लोदी मीडिया को पहला सबसे बड़ा झटका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक शाम के बहाने ष्भारत तेरे टुकड़े होंगेष् का नारा लगाने वाली गैंग के पक्ष में पूरी ताकत से बैटिंग करने के बावजूद देश द्वारा नकार दिए जाने बाद लगा। लोदी मीडिया के इस तर्क से कोई भारतीय सहमत नहीं हो सका कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत की बर्बादी तक जंग रहेगीए गो.इंडिया.गो.बैकए इंडियन आर्मी जिंदाबादए भारत तेरे टुकड़े होंगे.इंशाअल्लाहए इंशाअल्लाहए बंदूक के दम पर लेंगे आजादी जैसे नारे लगाए जा सकते हैं। इस मामले में अरोपियों की जमानत देते समय जस्टिस प्रतिभा रानी का 2 मार्च 2016 को यह निर्णय कि नारेबाज इसलिए नारे लगा पा रहे हैंए क्योंकि कच्छ और सियाचिन जैसे दुर्गम क्षेत्रों सशस्त्र बल सीमा की सुरक्षा कर रहे हैए पूरे देश की भावनाओं की सच्ची अभिव्यक्ति बन गया।

भीमा.कोरेगांव प्रकरण में भी बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के विचारों के साथ अर्बन.नक्सलियों ने जिस तरह खिलवाड़ कियाए और लोदी मीडिया ने इसे जिस तरह न्यायसंगत ठहराने की कोशिश की उससे अनुसूचित जाति के लोगों सहित पूरे देश ने नकार दिया। याकूब मेमन का प्रकरण होए या कठुआ कांड लोदी मीडिया का झूठ अब आसानी से पकड़ा जाने लगा है। सोशल मीडिया का प्लेटफार्म और नागरिकों में बढ़ता भारतीयता के बोध ने झूठ के कारोबार को असंभव बना दिया है।

ऐसे में अपनी गिरती साख को बचाने के लिए यह लोदी मीडियाए खुद को सच का एकमात्र पैरोकार साबित कर दूसरों को गोदी मीडिया बताने में जुटा हैए सेल्फी लेने न लेने पर फतवे जारी हो रहे हैंए सहानुभूति बटोरने की कोशिश हो रही है। इन तमाम हथकंडों के बावजूद आम आदमी लोदी मीडिया के एजेंडे को तवज्जो नहीं दे रहा है। शायद वह लोदी मीडिया के प्राथमिकताओंए नारों के आवरण में छिपे असलियत को पहचानने में सक्षम हो गया है। लोदी मीडिया की ढहती सल्तनत से भारत न केवल शाब्दिक कत्लोगारत से मुक्त हो सकेगा बल्कि उसे स्वस्थ.संवाद का परिवेश और नया सांस्कृतिक.आत्मविश्विास भी उपलब्ध हो सकेगा।

सही मोर्चे की खबर


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सेकुलर सेंसर से स्वतंत्रता


शब्दों को प्रमाण मानने वाले भारतीय समाज में दिन-रात शब्दों से खेलने वाले मीडिया के प्रति विश्वसनीयता का संकट जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसके कारणों की पड़ताल उतने ही ठहरे और भोथरे तरीके से हो रही है। अब मीडिया का लगभग हर मंच इस बात को स्वीकार करता है कि आज के दौर में मीडिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती समाज में उसकी गिरती साख है। साख का प्रश्न मीडिया के अस्तित्व से जुड़ा हुआ प्रश्न है, क्योंकि किसी भी स्थिति में मीडिया केवल सूचना का कारोबार भर नहीं है, यह साख से संचालित होने वाला पेशा भी है। सूचना और साख मिलकर वह प्रभाव पैदा करते हैं, जो जनमानस का यथार्थ से परिचय कराने के साथ उसे यथास्थिति में बदलाव के लिए उद्वेलित भी करते हैं।
दुर्भाग्यवश, मीडिया की गिरती साख की छानबीन अब भी पल्ला झाड़ने वाले ढर्रे पर की जाती है। जब भी साख का सवाल उठता है तो यह तर्क दिया जाता है कि बाजारू दबाव के कारण सरोकारी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क हो रहा है या असहनीय राजनीतिक दबाव के कारण सच्ची खबरों को शब्द नहीं मिल पा रहे। पर क्या यह पूरा सच है ? अथवा ये जिम्मेदारियां खुद उठाने के बजाय दूसरों पर थोपने के सामान्य चलन से उपजे हुए तर्क हैं।    
मीडिया नैरेटिव्स तो यही बताते हैं कि विश्वसनीयता के संकट के लिए बाहरी से अधिक आंतरिक कारण जिम्मेदार हैं। बाहरी दबावों का बोझ बहुत बढ़ा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण में मीडिया के भीतर काम कर रहे पूर्वाग्रह समाज में उसकी स्थिति को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। भारतीय मीडिया में कुछ खास बिंदुओं को लेकर पूर्वाग्रहों का साम्राज्य अरसे से रहा है। सत्ता-प्रतिष्ठान में बदलाव के कारण यह पूर्वाग्रह अधिक छिछले और हठीले रूप में सामने आ रहे हैं और सोशल मीडिया के कारण पूर्वाग्रहों को पकड़ना अधिक आसान हो गया है।
पहले भी ऐसे पूर्वाग्रह कभी-कभी पकड़ में आते थे और एक दायरे में उनकी चर्चा भी होती थी। अब सोशल-मीडिया के कारण कोई भी झूठी या एकांगी खबर चंद मिनटों में न केवल पकड़ी जाती है, बल्कि जगहंसाई का कारण भी बन जाती है। पूर्वाग्रहों के अधिक मुखर होने से विश्वसनीयता का संकट भी बढ़ रहा है। पूर्वाग्रही पत्रकारिता के अभ्यस्त कुछ पत्रकारों की करतूतें पूरी पत्रकारिता की साख पर बट्टा लगा रही हैं।
पिछले सात-आठ दशकों में भारतीय मीडिया की प्रोग्रामिंग इस तरह से की गई, नैरेटिव्स इस तरह से सेट किए गए कि एक खास तरह के सेकुलरिज्म को केन्द्रीय स्थान मिल गया है। यूरोपीय संदर्भों में सेकुलरिज्म समानता और समग्रता का परिचायक है, लेकिन भारत में सेकुलरिज्म की बहस को इस तरह से गढ़ा गया कि इसमें समानता और समग्रता के तत्व गायब हो गए और यह कुछ के लिए विशेष-अधिकार बन गया और कुछ के लिए विशेष कर्तव्य।
भारतीय मीडिया में सेकुलरिज्म के इस खास संस्करण के सेंसर लगे हुए हैं। मीडिया के पटल पर हलचल तभी होती है, जब यह सेकुलर सेंसर किसी खबर को पकड़ता है, अन्यथा मीडिया को न तो खबरों की भनक लगती है और न ही वह इससे इतर अन्य खबरों को ट्रीट करने लायक मानता है। इस प्रवृत्ति के कारण भारतीय मीडिया में समग्रता हमेशा से हाशिए पर रही है और इसी समग्रता का अभाव की विश्वसनीयता का संकट पैदा करने में सबसे बड़ी भूमिका है।
यह संकट अब अधिक विकट इसलिए हो गया है, क्योंकि मीडिया के सेकुलर सेंसर पिछले कुछ अरसे से हायपरएक्टिव मोड पर चले गए हैं। मीडिया नैरेटिव्स का बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि मीडिया की सबसे अधिक छीछालेदर उसके विकृत सेंस ऑफ सेकुलरिज्म और खबरों के चयन में कार्य कर रहे सेकुलर सेंसरके कारण ही हो रही है।
पिछले तीन-चार वर्षों में मीडिया द्वारा गढे़ तीन प्रमुख नैरेटिव-मॉब लिंचिंग, बलात्कार और असहिष्णुता हैं। इनका बारीकी से किया गया विश्लेषण यह बताता है कि इनसे संबंधित घटनाओं के चयन और प्रस्तुतिकरण में समग्रता का अभाव रहा है और सेकुलर सेंसर के आधार पर कुछ खबरों को अभियान के तौर पर लिया गया, जबकि उसी श्रेणी की कुछ खबरों पर ठीक से चर्चा करने की जहमत भी नहीं उठाई गई। मॉब लिंचिंग और बलात्कार जैसे मामलों में भी सेकुलर एंगल ढूंढने का एकांगी और अमानवीय रवैया इस बात की तसदीक करता है कि मीडिया में सेकुलर सेंसर हालिया दिनों में किस कदर हायपरएक्टिव मोड पर चला गया है।
पिछले कुछ दशकों में हमने जिस तरह का उपभोक्तावादी समाज गढ़ा है और समाज में जिस तरह से नई तकनीकों की घुसपैठ हुई है, उससे सामाजिक संरचना और सामाजिक मानस दोनों प्रभावित हुए हैं। अच्छे परिणामों के साथ कुछ दुष्प्रवृत्तियां भी पैदा हुई हैं। मॉब लिंचिंग और बलात्कार की घटनाएं इसी कारण तेजी से बढ़ी हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों की चपेट में कमोबेश पूरा समाज ही है। दुर्भाग्य से मीडिया ऐसी घटनाओं का नाप-जोख सेकुलर एंगल से कर रही है।
हाल के दिनों में घटित हुई मॉब लिंचिंग और बलात्कार की घटनाओं के प्रति मीडिया के व्यवहार का विश्लेषण यह बताता है कि वह सेकुलर-पूवाग्रह से ग्रसित है। कठुआ रेप केस में मीडिया के एक वर्ग ने इस सेकुलर एंगल को ढूंढने के चक्कर में इस घटना को न केवल विद्वेषपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया, बल्कि संजीदा खबर की कवरेज को अमानवीय स्तर तक नीचे गिरा दिया। रिपोर्टिंग के सामान्य सिद्धांतों तक का पालन नहीं किया गया। किसी भी बच्ची के साथ हुआ दुराचार घृणित और निंदनीय है, लेकिन इसको आधार बनाकर एक पूरे समुदाय को बलात्कारी घोषित कर देना, देवस्थानों को अनैतिक कर्मों का अड्डा बता देने का जो अभियान चलाया गया, उससे मीडिया को लेकर पूरा देश आक्रोशित हुआ। मीडिया में एक सामान्य सा नियम यह है कि ऐसे मामलों में समुदाय का नाम नहीं लिया जाता। यह आक्रोश तब और अधिक बढ़ा, जब ऐसी ही अमानवीय घटना दिल्ली के एक मदरसे में हुई, मध्य प्रदेश के मंदसौर में भी एक बच्ची के साथ हैवानियत की हद की गई। हाल ही में झारखंड के खूंटी में एक मिशनरी स्कूल से पांच बच्चियों को उठाकर दुराचार किया गया। लेकिन कठुआ के योद्धा इन सभी मामलों में चुप्पी साध गए। यह सेकुलर एप्रोच तब है, जब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की तसदीक करते हैं कि बच्चियों के प्रति बलात्कार की घटनाएं पूरे देश में अप्रत्याशित ढंग से बढ़ रही हैं। ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में बच्चियों से दुराचार के मामलों में 82 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक सामाजिक प्रवृत्ति को पांथिक प्रवृत्ति बनाकर पेश करना न केवल विद्वेषकारी है, बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता पर किया गया कुठाराघात भी है। मीडिया में कहीं भी बच्चियों के प्रति पूरे देश में बढ़ते दुराचारों के बारे में इंटरनेट, पोर्नोग्राफी, फिल्मों, विज्ञापनों की भूमिका पर विमर्श करने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई। सब कुछ हिन्दू-मुसलमान बनाकर छोड़ दिया गया।
इसी तरह मॉब लिंचिंग की घटनाएं भी अलग-अलग कारणों से पूरे समाज में बढ़ रही हैं। ऑनर किलिंग, रोड-रेजिंग की घटनाएं सामाजिक दुष्प्रवृत्तियां हैं। ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन पांथिक नजरिए से पेश करना नई मीडिया परिघटना है। सीट के झगडे को लेकर वल्लभगढ़ में की गई जुनैद खान की हत्या हो या कहासुनी के बाद दिल्ली में डा. पंकज सक्सेना की हत्या, बिसाहड़ा में मारे गए अखलाक हों या जम्मू-कश्मीर में अयूब पंडित, अलवर में पहलू खान या बाड़मेर में खेतराम भील, ये सभी घटनाएं बताती हैं कि समाज किस कदर अधीर हो रहा है, उसके धैर्य का पैमाना खत्म हो रहा है और वह अमानवीय हो रहा है लेकिन इन घटनाओं की पांथिक आधार पर कवरेज, मीडिया का सेकुलर होने-दिखने के चक्कर में अमानवीयता होने का संकेत है। सेकुलर सेंसर से संचालित भारतीय मीडिया पांथिक कवरेज की जिस त्रासद स्थिति को जन्म दे रहा है, वह खुद उसकी विश्वनीयता को भी रसातल में पहुंचा रही है।
पूूर्वाग्रहों के आरोपों से बचने के लिए कई बार तर्क दिया जाता है कि हर घटना की समान तीव्रता और व्यापकता से कवरेज संभव नहीं है। इसमें सच्चाई जान पड़ती है। पर हर बार यदि एक ही तरह की घटनाओं को व्यापक कवरेज मिले और दूसरी तरह की घटनाओं पर चर्चा तक न हो, तो इस तरह के तर्क केवल लीपापोती बनकर रह जाते हैं। एक श्रृंखलाबद्ध कवरेज के बाद इसमें कार्य कर रहे पूर्वाग्रहों को सामान्य आदमी भी पकड़ लेता है और इसके कारण उसका विश्वास डिगता है। 
यह सेकुलर सेंसर हर घटना में पंथ ढूंढने की त्रासद स्थिति को ही जन्म नहीं दे रहा है, इससे भी भयावह स्थिति यह है कि इसके कारण भारतीय मीडिया, राष्ट्रीय आकांक्षाओं का आईना नहीं बन पा रही है। समाज और देश करवट ले रहे हैं, अच्छे-बुरे नए चलन अस्तित्व में आ रहे हैं, लेकिन मीडिया के विश्लेषण के नए उपकरण ईजाद नहीं कर पा रहे हैं। विविध अवसरों पर देश के लोग बार-बार साबित कर रहे हैं कि मीडिया का हाथ जनता की नब्ज पर नहीं है, लेकिन मीडिया व्याख्या के घिसे-पिटे उपकरणों-आख्यानों को बार-बार आजमा रहा है और अपनी भद्द पिटवा रहा है।
मीडिया आकार लेती संभावनाओं से अनभिज्ञ, भविष्य की चुनौतियों से अनजान, राष्ट्रीय आकांक्षाओं से मुंह मोड़े, गाल-फुलाए पुराने आख्यानों से चिपका हुआ है। वह समाज का आईना नहीं बनना चाहता, खुद को ही समाज पर थोपना चाहता है। यदि मीडिया सही मायने में समाज का आईना बनने को तैयार हो जाए, जनाकांक्षाओं का प्रतिबिंब ग्रहण करने के लिए तत्पर हो जाए तो यह राष्ट्रीय नवोन्मेष का कारण बन सकता है। मीडिया में समग्रता की एक मूल्य के रूप मे स्वीकृति देश में कार्य कर रही कई कुंठाओं से मुक्ति का कारण बन सकता है। कुंठाओं के हटने से ही क्षमताएं अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में हमारे सामने आती हैं। स्वतंत्रता दिवस सफलताओं का उत्सव मनाने का दिन तो है ही, नए राष्ट्रीय संकल्पों का भी पर्व है। इस स्वतंत्रता दिवस पर एक संकल्प मीडिया में समग्रता का परिप्रेक्ष्य गढ़ने को लेकर भी होना चाहिए, यह एक संकल्प कई वैचारिक-सांस्कृतिक जकड़नों से हमें स्वतंत्र कर सकता है।