भारतीय इतिहास जिस दौर को ‘गांधी-युग‘
कहता है, वह वैचारिक दृष्टि से रूमानियत और
सम्मोहन का का कालखंड है। उस समय कुछ संकल्पनाएं पूरी दुनिया को सम्मोहित किए हुए
थी। आम आदमी के बरक्स नेतृत्वकारी वर्ग इनका असर अधिक था। इसके कई कारण थे। आम
आदमी के सामने यथार्थ की इतनी कठोर भूमि थी कि वह चाहकर भी विचारों की हवाई उड़ान
अधिक समय के लिए नहीं भर सकता था लेकिन नेतृत्वकारी वर्ग के पास इसके लिए आवश्यक
अवकाश और संसाधन थे। सम्मोहन का एक अन्य कारण यह भी था कि ऐसी संकल्पनाएं आधुनिकता
और वैज्ञानिकता के कलेवर में परोसी गई थी। ऐसे में उनको अपनाना, आगे बढ़ाना खुद को आधुनिक और वैज्ञानिक साबित करने के समान था और उनका
विरोध करना खुद को पुरातनपंथी बताने जैसा था। पुरातनपंथी होने का खतरा कोई न तब
उठाना चाहता था और न ही अब। आधुनिकता की संकल्पना को इस तरह गढ़ा गया था कि विचारों
के सच का सरोकार हासिए पर पहुंच गया और परम्परा विरोधी होना ज्यादा महत्पवूर्ण हो
गया था। इसके साथ ही ये संकल्पनाएं एकदम नई थीं, यथार्थ के
धरातल पर इनका आकलन होना अभी बाकी था, कमियों का सामने आने
की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई थी, चुनौती देने के धरातल तैयार
नहीं हुए थे, इसलिए इन संकल्पनाओं में हर जगह अच्छाई का
दर्शन होना स्वाभाविक था।
गांधी-युग की ऐसी ही
सर्वाधिक-सम्मोहक संकल्पना थी- साम्यवाद और उससे सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीयतावाद का
नारा। गांधी ने साम्यवाद को उसके हिंसक, अमानवीय और अप्राकृतिक प्रवृत्ति
के कारण सिरे से नकार नकार ही। इससे भी भी बड़ी बात उनके द्वारा राष्ट्रवाद को
अंतर्राष्ट्रीयतावाद की पूर्वशर्त के रुप में स्वीकार किया जाना था। गांधी
राष्ट्रवाद को मानवता की बेहतरी के लिए एक आवश्यक उपकरण मानते थे। इसी कारण
उन्होंने राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयतावाद की ‘एंटी-थीसिस’
मानने से इनकार कर दिया। वह मानते थे कि सच्चा राष्ट्रवादी ही
अंतर्राष्ट्रीय चेतना के अधिक करीब पहुंच सकता है क्योंकि राष्ट्रवाद सामूहिकता की
एक भावना पैदा करती है, जिसकी अंतिम परिणति
अंतर्राष्ट्रीयतावाद के रूप में होती है। गांधी 18 जून 1925 को यंग इंडिया में
लिखते हैं कि ‘राष्ट्रवादी हुए बिना अंतर्राष्ट्रवादी होना
असंभव है। अंतर्राष्ट्रीयता तभी संभव है जब राष्ट्रवाद एक सच्चाई बन जाए।’
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि
गांधी उन दृष्टिकोणों और तथ्यों से अनभिज्ञ थे, जिनके आधार पर उस समय राष्ट्रवाद
की आलोचना की जा रही थी। वह जानते थे कि राष्ट्रवाद की यूरापीय संकल्पना ने ही
उपनिवेशवाद को जन्म दिया है। वह यूरोपीय देशों के बीच चल रही गलाकाट प्रतिस्पर्धा
और युद्धों का कारण भी उनके राष्ट्रवाद की संकल्पना में ढूंढते हैं लेकिन वह
भारतीय राष्ट्रवाद को अलग मानते हैं। उनकी दृष्टि में भारतीय राष्ट्रवाद मात्र
राजनीतिक नहीं है, वह सांस्कृतिक भी है। भारतीय राष्ट्रवाद
के सांस्कृतिक संदर्भों की तरफ संकेत करते हुए वह 18 जून 1925 को यंग इंडिया वह
लिखते हैं कि ‘राष्ट्रवाद बुराई नहीं है। आधुनिक राष्ट्रों
की संकीर्णता, स्वार्थपरता और एकमेवता बुराई है। सभी दूसरों
की कीमत पर लाभ कमाना चाहते हैं और दूसरे का विनाश कर अपना विकास करना चाहते हैं।
भारतीय राष्ट्रवाद का रास्ता इससे पृथक है। भारत स्वयं की पूर्ण अभिव्यक्ति और
मानवता की सेवा के लिए स्वयं को संगठित करना चाहता है।’
वह राष्ट्रवाद को मानवता की
सेवा उपकरण ठहराते हुए यंग इडिया के उपरोक्त अंक में लिखते हैं कि ‘ईश्वर ने मुझे भारतीयों के
बीच जन्म दिया है। यदि मैं उनकी सेवा नहीं करता तो अपने अपने स्रष्टा के प्रति ईमानदार
नहीं हो सकता। यदि मैं यह नहीं जानता कि उनकी सेवा कैसे की जा सकती है तो मुझे कभी
भी इस बात का ज्ञान नहीं हो सकता कि मानवता की सेवा कैसे की जा सकती है।’ इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वह हरिजन के 17 जनवरी 1933 के अंक में लिखते हैं
कि ‘सार्वजनिक जीवन में 50 वर्ष व्यतीत करने के बाद मैं मेरा
इस सिद्धांत में विश्वास बढ़ गया है कि राष्ट्र की सेवा, विश्व
की सेवा में कोई असंगति नहीं है।
यंग इंडिया के 5 फरवरी
1925 के अंक में गांधी इस बात का पुनः संकेत देते हैं कि वह भारतीय राष्ट्रवाद को
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानते थे। वह लिखते हैं कि ‘भारत मूलरूप से एक कर्मभूमि
है भोगभूमि नहीं।’ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अपनी मान्यता पर
विस्तार से प्रकाश डालते हुए वह 6 अप्रैल 1921 को यंग इंडिया में लिखते हैं कि-
मेरी देशभक्ति मेरे धर्म के अधीन है। मैं भारत से वैसे ही सम्पृक्त हूं जैसे एक
बच्चा अपनी मां के स्तनों से, क्योंकि मैं महसूस करता हूं
इसने मुझे आध्यात्मिक पोषण प्रदान किया है। भारत ने मुझे वह परिवेश प्रदान किया है,
जिसमें मेरी उच्चतम आकांक्षाएं अभिव्यक्त हो सकती है।’
गांधी का राष्ट्रवाद के
प्रति यह दृष्टिकोण उस समय के राजनीतिक आख्यान के लिए एकदम नई परिघटना थी। गांधी
ने राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक धरातल प्रदान कर इसके उदात्त स्वरूप को लोगों के
सामने रखा। वह भारतीय राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बताकर उसे राजनीतिक
विमर्श के केन्द्र में खड़ा कर देते हैं। सांस्कृतिक संदर्भों में राष्ट्रवाद को
परिभाषित कर गांधी न केवल एक उदात्त भारतीय पहचान गढ़ते हैं बल्कि स्वतंत्रता
आंदोलन के लिए एक नया और व्यापक धरातल भी तैयार करते हैं।
उस समय जब अधिकांश नेता
स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के वैश्विक मूल्य के आधार पर भारत को स्वतंत्र किए जाने
का वकालत कर रहे थे, गांधी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उदात्त
आधार पर भारत को स्वतंत्र किए जाने की मांग कर रहे थे। गांधी के अनुसार- ‘मुझे अनुभूति होती है कि भारत की भूमिका अन्य देशों से पृथक है। भारत
धार्मिक श्रेष्ठता के लिए सर्वाधिक योग्य है। इस देश ने स्वैच्छिक रूप से
आत्मशुद्धि की जिस प्रक्रिया को आत्मसात किया है, उसकी
दुनिया में कोई अन्य मिसाल नहीं मिलती।’
राष्ट्रवाद को
राजनीतिक-आख्यान बनाकर,
स्वतंत्रता आंदोलन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को केन्द्रीय विमर्श
बनाकर गांधी ने भारतीय पहचान और भावधार की जो सेवा की है, उसका
आकलन होना अभी बाकी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में गांधी का आकलन
राष्ट्रवाद और गांधी दोनों के लिए जरूरी है।( स्पीचेज एंड रायटिंग्स आफ महात्मा
गांधी, पृष्ठ 405)
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