गुरुवार, 30 मई 2019

अकादमिक आलस्य के बोझ तले गांधी

भारत में पसरे अकादमिक आलस्य का असर गांधी के आकलन पर भी साफ देखा जा सकता है। इस आलस्य के कारण ही गांधी या तो ष्प्रातःस्मरणीय पूज्यपादष् बन जाते हैं अथवा ष्हास्यास्पद गलतियों का घृणास्पद पुतलाष् बन जाते हैं। आकलन का यह तरीका खुद को अंतिम सच घोषित कर चुके पैगम्बरों का तो हो सकता हैए किसी व्यक्ति को उसकी खूबियों.खामियोंए क्षमताओं.अक्षमताओं के अनुपात में स्वीकार या अस्वीकार करने वाले संतुलित दृष्टिकोण का नहीं। एक राष्ट्र या व्यवस्था यदि पैगम्बरी दृष्टिकोण को अपनाती है तो उसमें सृजनात्मकता का तो लोप होता ही हैए आकलन की त्रुटियां उसे सही निर्णय में लेने में भी बाधा पहुंचाने लगती है और एक विभ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है।

गांधी को लेकर समाज में एक ऐसी ही विभ्रम की स्थिति दिखाई पडती है। उनकी सीमाएं और सामथ्र्य दोनों इतने प्रत्यक्ष हैं कि उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है। इसी कारण कई बार आम व्यक्ति उनका आकलन अधिक सटीक ढंग से कर पाता है। पर अकादमिक जगत घ् अकादमिक जगत की त्रासदी यही रही है कि या तो उनकी सीमाओं को दार्शनिक लबादा पहनाकर सामथ्र्य बताने की कोशिश करता है या अहिंसा को निष्क्रियता का समानार्थी घोषित कर उनके खूबियों को भी खामी के तौर पर पेश करता है।

आखिर इसे क्यों स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता कि उनकी हिंदू.मुस्लिम एकता की अवधारणा में तुष्टीकरण के तत्व दिखलाई पड़ते हैं। हमें उनका मूल्यांकन करते समय यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने हिंदुत्व के उदार नजरिए से इस्लाम को देखा और उसका मूल्यांकन किया। यदि उन्होंने इस्लाम के नजरिए से हिंदुत्व को देखने का कष्ट उठाया होता तो वह हिंदू.मुस्लिम एकता पर अधिक संतुलित दृष्टिकोण विकसित कर पाते। जब एक पंथ का सबसे बड़ा आग्रह यह है कि उसका पैगंबर ही अंतिम और एकमात्र सच है तो ईश्वर.अल्लाह तेरो नाम के समन्वयकारी दृष्टिकोण के लिए स्पेस ही कितना बचता हैघ् क्यांेकि यहां तो संवाद करनेए खुद को बदलने को दीन से खारिज होने जैसा हैं। गांधी इस मूलभूत सच को पकड़ने से चूके और एक ही पक्ष से देने.बदलने की अपील करते रहे। इससे संवादए शांति और समन्वय का एक भ्रम तो पैदा हुआ लेकिन देश में ये चीजें स्थापित न हो सकीं।

इसके साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि गोसरंक्षण.गोसंवर्द्धनए मतांतरणए राष्ट्र और भाषा पर उनका दृष्टिकोण नितांत हिंदुत्ववादी है। मतांतरण को लेकर उनका रुख इतना स्पष्ट और कड़ा था कि आज का राजनीतिक विमर्श उन्हें आसानी से साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ठहरा सकता है। जब पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीयता की लहर चल रही थी तब उन्होंने राष्ट्रवाद की पैरोकारी करते हुए कहा था कि भारतीय राष्ट्रीयताए अंतरराष्ट्रीयता की पूर्व शर्त है। गोसंरक्षण और गोसंवर्द्धन से उनके लगाव के कारण उन्हें पिछड़ा और अप्रगतिशील ठहराया जाता रहा। औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलन के बीच गांवों को राजनीति.अर्थनीति का केंद्र बताना उनको एक अलग श्रेणी में पहुंचा देता है। 

दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद गांधी को समग्रता में देखने के बजायए अपनी सुविधा के अनुसार स्वीकार.अस्वीकार करने का चलन पैदा हुआ। अकादमिक जगत इस चलन से कुछ अधिक ही प्रभावित हुआ। संभवतः इस खंडित दृष्टि के कारण ही भारतीय सार्वजनिक विमर्श में गांधी की उपस्थिति हर जगह महसूस की जाती हैए हर पक्ष उनके विचार और व्यक्तित्व पर चर्चा करता हैए लेकिन कोई भी पक्ष उन्हें पूरी तरह अपना नहीं मानताए उन्हें विरोधी खेमे में रखता है। कट्टर मुसलमानों के लिए वह चतुर हिंदू नेता थेए तो कुछ हिंदू उन्हें मुसलमानों का पक्षधर मानते रहे हैं। हरिजनों के लिए वह सवर्णवादी थेए तो सवर्णों के लिए हरिजनवादी। साम्यवादियों के लिए वह ष्पूंजीवादी एजेंटष् थे और पूंजीवादी उन्हें मशीनों का विरोध कर समानता का स्वप्र देखने वाला साम्यवादी मानते थे। संतों के लिए वह एक व्यावहारिक नेता थे और राजनेताओं के लिए अव्यावहारिक संत। आधुनिकतावादी उन्हें पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं और पुरातत्वपंथियों के लिए वह धर्म भ्रष्ट करने वाले परिवर्तनों के वाहक रहे हैं। अकादमिकों के लिए वह कम पढ़े.लिखे व्यक्ति और सामान्य व्यक्तियों के लिए उच्च कोटि के दार्शनिक और साधक। आखिर एक ही व्यक्ति के प्रति इतने विरोधाभासी निष्कर्ष कैसे निकल सकते हैंघ् यह एक जटिल प्रश्र है और गांधी के संदर्भ में निकाले जाने वाले निष्कर्षों की एकांगिकता की तरफ संकेत भी। उन्हें जिन प्रचलित दृष्टिकोणों या उपलब्ध उपकरणों के जरिए समझने की कोशिश की जाती रही हैए वे बौने साबित हुए हैं। अभी तक गांधी को उनके मौलिक.लोकधर्मों और प्रयोगधर्मी परिप्रेक्ष्य में देखने.समझने के बजाय प्रक्षेपण पद्धति से देखने समझने की कोशिश अधिक हुई है।

यदि किसी विचार या व्यक्ति को प्रक्षेपण पद्धति से समझने की कोशिश की जाती हैए तो गलत निष्कर्ष निकलने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अध्येता अपने पूर्वाग्रहों का संबंधित व्यक्ति या विचार पर प्रक्षेपण करता है और वही निष्कर्ष निकाल लेता हैए जो वह निकालना चाहता है। गांधी जैसे व्यक्ति के संदर्भ में तो गलत निष्कर्ष की संभावना और भी बढ़ जाती हैए क्योंकि उनके चिंतन का कैनवास बहुत बड़ा है और मौलिक भी। उनकी विशालता सभी चिंतन धाराओं को स्पर्श करती हैए लेकिन उनकी सत्य के साथ प्रयोग करने की आदतए सभी पक्षों द्वारा उन्हें गलत समझे जाने की संभावना को बढ़ा देती है।

गांधी स्वयं में एक अलग ष्टाईपष् हैं और उस ष्टाईपष् के आधारभूत तथ्यों को समझे बिना उनकी सीमाओं और संभावनाओं का सम्यक आकलन नहीं किया जा सकता। गांधी अधेड़ उम्र में जब भारत वापस आते हैंए तो गोखले की सलाह पर लगभग पांच वर्ष भारतीय लोक को समझने में लगाते हैं। इस अवधि में लोक के जरिए सत्य से साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहे थे और समाज के बारे में अपनी अवधारणाओं को गढ़ रहे थे। बाद में भी वह लोक से वह गहरे से जुड़े रहे यानी उनकी अवधारणाओं का स्रोत किताब और शास्त्र से कहीं अधिक लोक था। लोक पर इस निर्भरता के कारण ही उनकी संकल्पनाओं में ऐसी कमजोरी के दर्शन होते हैंए जो लंबे समय से आक्रांत समाज में हो सकते हैं। भारतीय समाज की विशिष्ट संरचना तथा सनातन आधारों पर आधिष्ठित संस्कृति के कारण लंबी पराधीनता के बाद भी तत्कालीन समाज में कुछ परंपराएं इतनीस्वस्थ रूप में प्रवाहमान थी कि उनके शुद्ध तत्त्व से परिचित हुआ जा सकता है। दूसरी तरफ कुछ परंपराएं सड़ांधता का शिकार हो चुकी थीं कि उन्हें आसानी से त्यागा जा सकता था। इन दोनों छोरों के बीच बहुत कुछ ऐसा थाए जिनकी उपयोगिता.अनुपयोगिता के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था। इनके बारे में टिप्पणी करने के लिए पर्याप्त शोध की आवश्यकता थी। गांधी ने स्वस्थ को स्वीकाराए अस्वस्थ को नकारा एवं कुछ को शोधन किया।

उदाहरणतः राजनीति और धर्म के अंतर्सबंधों के बारे में उनकी संकल्पना को लिया जा सकता है।  वह मानते थे कि राजनीति एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कार्य है। राजनीति और धर्म का पृथक्करण से अंततः राजनीति स्वार्थी हो जाती है और धर्म पंगु बन जाता है। परंतु राजनीति की संपूर्ण जटिलताओं स्वीकार करते हुए भी धार्मिक बना रहा जा सकता हैए वह इस बात को स्वीकार नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने अपनी राजनीति ष्सामष् तक सीमित रखी। ष्दामष्ए ष्दंडष्ए ष्भेदष् के बारे में उनके मन में हिचक बनी रही। इसी हिचक के कारण ष्गीताष् तो आजीवन उनकी मार्गदर्शक बनी रहीए लेकिन जिस महाभारत का यह हिस्सा हैए उसे उन्होंने मानसिक.मनोवैज्ञानिक युद्ध करार दिया। वह इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि कृष्ण जैसा तत्त्वदर्शीए धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए ष्युद्धाय कृतनिश्चयष् के लिए प्रेरित कर सकता है।

यदि इसी ग्रंथ के शांतिपर्व में उल्लिखित ष्राजधर्मष् की महत्ता और जटिलता से उनका पूर्ण परिचय हुआ होताए तो संभतया यह हिचक टूटती। ऐसा न हो पाने के दो कारण रहे होंगे। पहला गांधी की लोकधर्मिता और दूसरा भारतीय संकल्पनाओं के विस्तृत शोध प्रबंधों का अभाव। गांधी लोक जीवनदर्शन  और जीवन शैली से तत्त्व खींचकर संकल्पनाएं गढ़ते थे। उस समय लोकजीवन में राजधर्म के प्रति उदात्त भाव तो बचा हुआ थाए लेकिन हिंसा के प्रति घृणा के स्तर तक भावना विद्यमान थर। इस कारण उनकी राजनीतिक अवधारणा शिखर तक नहीं पहुंच सकी। दूसरे लोकधर्मी होने के बावजूद गांधी अध्ययन भी खूब करते थे। 1924 की उनकी जेल डायरी उनकी अध्ययन क्षमता का प्रमाण है। अध्ययन की इस प्रवृत्ति के बावजूद यदि वह राजनीति की भारतीय संकल्पना को सम्यक ढंग से नहीं समझ सके तो उसका कारण भारतकेंद्रित अध्ययन का शैशवावस्था में होना था। यदि उन्हें भारतीय संकल्पनाओं पर विस्तृत सामग्री उपलब्ध हो पातीए तो शायद उनकी वैचारिक यात्रा पूर्णता को प्राप्त हो पाती। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि उनकी इन सीमाओं के बावजूद गांधी ने भारतीय संकल्पनाओं को सामाजिक रूप देने और उन्हें सार्वजनिक विमर्श में प्रतिष्ठित करने का भागीरथ प्रयास किया था।

लोकधर्मिता के साथ प्रयोगधर्मिता भी विशिष्ट गुण था। बने.बनाए सत्यों के बजाय वह स्वनिर्मित अनुभूत सत्यों पर विश्वास करते थे और ष्सत्य के साथ प्रयोगष् करते रहे। एक स्पष्ट सभ्यतागत समझ के बावजूद वह व्यावहारिक धरातल पर निरंतर प्रयोगधर्मी रहे। इसीलिए एक तरफ वह 1909 में लिखी गई हिंद स्वराज में अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर केवल एक शब्द बदलने के लिए तैयार हुए थे। दूसरी तरफ एक चैरी.चैरा कांड के कारण जिस गांधी ने पूरे असहयोग आंदोलन को ठप्प कर दिया थाए वही गांधी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुई राष्ट्रव्यापी हिंसा के खिलाफ मौन रहे। इसी तरह जीवन के सांध्य काल में ब्रह्मचर्य को लेकर उनके प्रयोग भी उनकी स्वीकार्यता और छवि दोनों को प्रभावित कर रहे थेए फिर भी उन्होंने प्रयोगधर्मिता के लिए आवश्यक साहस को बनाए रखा।

एक ऐसे दौर में जब अकादमिक आलस्य और पैंतरेबाजी ने गांधी को अहिंसा और पंथनिरपेक्षता के नारों तक सीमित कर दिया हैए यह आवश्यक हो जाता है कि उन्हें सम्पूर्णता में समझा जाए। उनकी सीमा और सामथ्र्यए दोनों को खुलेमन से स्वीकार किया जाए। यह स्वीकृति.अस्वीकृति आज के भारत की कई गांठें खोल सकती हैए उसकी भविष्य की यात्रा को अधिक सृजनात्मक और साहसपूर्ण बना सकती है। यह श्रृखला गांधी को खुलेमन से समझने का प्रयास है ताकि उनकी जीवतंता को अपनाया जा सके और प्रेतछाया से मुक्ति मिल सके।

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