बुधवार, 29 मई 2019

सभ्यतागत समझ और विभाजन की गुत्थी


सेमेटिक सभ्यताओं को सम-हजयने में भारतीय पिछली कई सदियों से लगातार चूक रहे हैं। हो यह रहा है कि भारतीय नेतृत्व अपनी सभ्यता के गुण-ंउचयदोषों को दूसरी सभ्यताओं पर आरोपित कर कुछ सहज, मानवीय और उदात्त निष्कर्ष निकाल लेता है। इस पद्धति से निकलने वाला सबसे बड़ा निष्कर्ष यह है कि सभी पंथ समान है और सभी धर्मों में शांति एवं भाईचारे की बात कही गई है। लेकिन जब भारतीय नेतृत्व का वास्ता  अन्य सभ्यताओं की वास्तविकताओं से पड़ता है तो वह किंकर्तव्यविमू-सजय़ और बेबस हो जाता है। इस सभ्यतागत सम-हजय की परिधि में ही गांधी और उनके चर्चित कथन-ंउचय ’ विभाजन मेरे लाश पर होगा ’ की सही तरीके से विश्लेषित किया जा सकता है।

गांधी के इस कथन ने पूरे देश को आश्वस्त किया था कि विभाजन नहीं होगा, विभाजनकारी शक्तियों के मंसूबे सफल नहीं होंगे। दुर्भाग्य से जब विभाजन ने यथार्थ रूप में दस्तक दी तो लाचारी के साथ गांधी ने उसे स्वीकार कर लिया। खान अब्दुल गफ्फार खान ने जब रोते हुए यह कहा कि कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर पख्तूनों के साथ विश्वासघात किया है, तो प्रकारांतर से वे गांधी की ही विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खड़े कर रहे थे।

प्रश्न यह उठता है कि गांधी की चूक क्या व्यक्तिगत चूक थी, या पूरी भारतीय सभ्यता ही पांथिक समानता के सम्मोहन में अपनी जड़ें खोदने पर उतारू है। भारतीय पिछले हजार-ंउचयबारह सौ सालों से यह रट लगाए हुए हैं कि सभी पंथ समानता और सह-ंउचयअस्तित्व का संदेश देते है। लेकिन क्या सेमेटिक पंथों का भी यही दृष्टिकोण है?

जहां पर दिन में पांच बार इस बात की घोषणा की जाती है कि केवल उनका सच ही अंतिम सच है और उनके पैगम्बर ही सच के एकमात्र उद्घोषक हैं, वहां पर समानता और सह-ंउचयअस्तित्व के लिए कितना स्पेस बनता है ? जिनकी विश्वदृष्टि दुनिया के पांथिक विभाजन पर निर्भर है और जहां पर अन्य मतावलम्बियों को पहले से ही जाहिल मान लिया गया हो, वहां पर शांति के लिए कितनी गुंजाइश बचती है ? जहां पर जन्नत में प्रवेश की संभावना दूसरों के सफाए के समानुपात में ब-सजय़ती हो, वहां पर मानवीय दृष्टिकोण कैसे काम कर सकता है ? दुर्भाग्यवश, इन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की हिम्मत भारतीय नेतृत्व लम्बे अरसे से नहीं जुटा पा रहा है। इसी कारण निर्णायक मौकों पर या तो हम औंधे मुंह गिरते हैं या हमें अपने पांव पीछे खींचने पड़ते हैं।

गांधी पांथिक समानता के नारे से कुछ अधिक ही सम्मोहित थे। वह असहयोग आंदोलन में भी खिलाफत के प्रश्न का जोड़ते हैं। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि भारत में तुष्टीकरण की राजनीति का प्रारंभ गांधी के खिलाफत आंदोलन से ही होता है। 1920 के बाद सार्वजनिक स्तर पर कई ऐसे मौके देखने को मिलते हैं, जहां गांधी मुस्लिमों की ’अतिरिक्त’ देकर रि-हजयाने की कोशिश करते हैं या हिंदुओं के वाजिब मांगों को भी साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील ठहरा कर उनकी चर्चा करने से भी परहेज करते हैं।

संभवतः वह यह मानते थे कि मुस्लिमों को ’अतिरिक्त’ देकर उन्हें भारतीय मुख्यधारा में बनाए रखा जा सकता है। तुष्टीकरण के जरिए एक वर्गविशेष को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का यह प्रयोग गांधी से शुरू होकर अब तक जारी है। इस मृगमरीचिका से अब भी भारत का राजनीतिक प्रतिष्ठान निकल नहीं पाया है। इस प्रयोग के कारण कितने लोग मुख्यधारा में शामिल हुए, यह आकलन का विषय है लेकिन इसके कारण यह जरूर हुआ कि मुख्यधारा के ऊपर ही हासिए पर जाने का खतरा मंडराने लगा। इसी मानसिकता से वशीभूत होकर कुछ लोग आज भी यह तर्क देते हैं कि यदि जिन्ना को 1937 के बाद उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व दे दिया गया होता तो देश का विभाजन नहीं होता। ऐसे लोग उचित को परिभाषित करने की जहमत नहीं उठाते। उचित प्रतिनिधित्व की यह मांग का अंत क्या होता। शायद पहले वह देश का प्रधानमंत्री पद मांगते और बाद में देश ही मांगने लगते।

देश के विभाजन के साथ ही गांधी का कुछ अतिरिक्त देकर वर्ग विशेष को साथ जोड़ने का प्रयोग विफल हो गया था। देश ने इस प्रयोग की भारी कीमत चुकायी। इससे भी निराशाजनक तथ्य यह है कि इस प्रयोग की असफलता के कारण बहुत कुछ खोने के बावजूद 1947 के बाद भी राजनीतिक प्रतिष्ठान ने कुछ अतिरिक्त देने की नीति को जारी रखा बल्कि उसे अति की सीमा तक पहुंचा दिया गया। इसकी अति शाहबानो केस में तो देखने को मिली ही थी, संप्रग शासनकाल में प्रस्तावित साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक में इस तुष्टीकरण की नीति की अति देखी जा सकती है। इस विधेयक का लब्बोलुआब यह था कि अपराध कोई भी करे, दोषी हिंदू ही होगा।

गांधी ने अपने सार्वजनकि जीवन में कई प्रयोग किए। कुछ सफल हुए और कुछ असफल। एक तथ्य तो एकदम स्पष्ट है वह पांथिक समानता के मोर्चे में उनकी सम-हजय और प्रयोग दोनों बुरी तरफ असफल हुए। भारतीय राजनीतिक प्रतिष्ठान जितनी जल्दी यह मान ले कि पांथिक सह-ंउचयअस्तित्व का लक्ष्य गांधी के रास्ते पर चलकर नहीं प्राप्त किया जा सकता, भारत और भारतीयता को होने वाला नुकसान उतना ही कम होगा।

यहां पर प्रश्न यह भी उठता है कि फिर पांथिक सह-ंउचयअस्तित्व के संभावित रास्ते क्या होंगे? इतना तो कहा ही जा सकता है कि कोई तयशुदा रास्ता नहीं है। रास्ता पहचानने और रास्ते पर आने के लिए हमें सभी सभ्यताओं की एक निभ्र्रांत सम-हजय विकसित करनी होगी। यदि कुछ असुविधाजनक तथ्य हैं तो उन्हें स्वीकारना होगा, उन्हें कहना-ंउचयबताना होगा। तथ्यों के कठोर धरातल पर ही रास्ते बनते-ंउचयबिगड़ते हैं। हवाई किले बनाने की आदत के कारण यह देश पहले ही बहुत कुछ खो चुका है। सभ्यतागत प्रेरणाओं-ंउचयप्रतिक्रियाओं को ठीक ने की चुनौती को हमें स्वीकार करना ही होगा। गांधी इस कार्य में अवरोधक नहीं बनेंगे, न ही उन्हें अवरोधक बनाया जाना चाहिए क्योंकि प्रयोगधर्मिता गांधी की सबसे बड़ विशेषता है।

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