गुरुवार, 30 मई 2019

सेकुलर सेंसर से स्वतंत्रता


शब्दों को प्रमाण मानने वाले भारतीय समाज में दिन-रात शब्दों से खेलने वाले मीडिया के प्रति विश्वसनीयता का संकट जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसके कारणों की पड़ताल उतने ही ठहरे और भोथरे तरीके से हो रही है। अब मीडिया का लगभग हर मंच इस बात को स्वीकार करता है कि आज के दौर में मीडिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती समाज में उसकी गिरती साख है। साख का प्रश्न मीडिया के अस्तित्व से जुड़ा हुआ प्रश्न है, क्योंकि किसी भी स्थिति में मीडिया केवल सूचना का कारोबार भर नहीं है, यह साख से संचालित होने वाला पेशा भी है। सूचना और साख मिलकर वह प्रभाव पैदा करते हैं, जो जनमानस का यथार्थ से परिचय कराने के साथ उसे यथास्थिति में बदलाव के लिए उद्वेलित भी करते हैं।
दुर्भाग्यवश, मीडिया की गिरती साख की छानबीन अब भी पल्ला झाड़ने वाले ढर्रे पर की जाती है। जब भी साख का सवाल उठता है तो यह तर्क दिया जाता है कि बाजारू दबाव के कारण सरोकारी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क हो रहा है या असहनीय राजनीतिक दबाव के कारण सच्ची खबरों को शब्द नहीं मिल पा रहे। पर क्या यह पूरा सच है ? अथवा ये जिम्मेदारियां खुद उठाने के बजाय दूसरों पर थोपने के सामान्य चलन से उपजे हुए तर्क हैं।    
मीडिया नैरेटिव्स तो यही बताते हैं कि विश्वसनीयता के संकट के लिए बाहरी से अधिक आंतरिक कारण जिम्मेदार हैं। बाहरी दबावों का बोझ बहुत बढ़ा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण में मीडिया के भीतर काम कर रहे पूर्वाग्रह समाज में उसकी स्थिति को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। भारतीय मीडिया में कुछ खास बिंदुओं को लेकर पूर्वाग्रहों का साम्राज्य अरसे से रहा है। सत्ता-प्रतिष्ठान में बदलाव के कारण यह पूर्वाग्रह अधिक छिछले और हठीले रूप में सामने आ रहे हैं और सोशल मीडिया के कारण पूर्वाग्रहों को पकड़ना अधिक आसान हो गया है।
पहले भी ऐसे पूर्वाग्रह कभी-कभी पकड़ में आते थे और एक दायरे में उनकी चर्चा भी होती थी। अब सोशल-मीडिया के कारण कोई भी झूठी या एकांगी खबर चंद मिनटों में न केवल पकड़ी जाती है, बल्कि जगहंसाई का कारण भी बन जाती है। पूर्वाग्रहों के अधिक मुखर होने से विश्वसनीयता का संकट भी बढ़ रहा है। पूर्वाग्रही पत्रकारिता के अभ्यस्त कुछ पत्रकारों की करतूतें पूरी पत्रकारिता की साख पर बट्टा लगा रही हैं।
पिछले सात-आठ दशकों में भारतीय मीडिया की प्रोग्रामिंग इस तरह से की गई, नैरेटिव्स इस तरह से सेट किए गए कि एक खास तरह के सेकुलरिज्म को केन्द्रीय स्थान मिल गया है। यूरोपीय संदर्भों में सेकुलरिज्म समानता और समग्रता का परिचायक है, लेकिन भारत में सेकुलरिज्म की बहस को इस तरह से गढ़ा गया कि इसमें समानता और समग्रता के तत्व गायब हो गए और यह कुछ के लिए विशेष-अधिकार बन गया और कुछ के लिए विशेष कर्तव्य।
भारतीय मीडिया में सेकुलरिज्म के इस खास संस्करण के सेंसर लगे हुए हैं। मीडिया के पटल पर हलचल तभी होती है, जब यह सेकुलर सेंसर किसी खबर को पकड़ता है, अन्यथा मीडिया को न तो खबरों की भनक लगती है और न ही वह इससे इतर अन्य खबरों को ट्रीट करने लायक मानता है। इस प्रवृत्ति के कारण भारतीय मीडिया में समग्रता हमेशा से हाशिए पर रही है और इसी समग्रता का अभाव की विश्वसनीयता का संकट पैदा करने में सबसे बड़ी भूमिका है।
यह संकट अब अधिक विकट इसलिए हो गया है, क्योंकि मीडिया के सेकुलर सेंसर पिछले कुछ अरसे से हायपरएक्टिव मोड पर चले गए हैं। मीडिया नैरेटिव्स का बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि मीडिया की सबसे अधिक छीछालेदर उसके विकृत सेंस ऑफ सेकुलरिज्म और खबरों के चयन में कार्य कर रहे सेकुलर सेंसरके कारण ही हो रही है।
पिछले तीन-चार वर्षों में मीडिया द्वारा गढे़ तीन प्रमुख नैरेटिव-मॉब लिंचिंग, बलात्कार और असहिष्णुता हैं। इनका बारीकी से किया गया विश्लेषण यह बताता है कि इनसे संबंधित घटनाओं के चयन और प्रस्तुतिकरण में समग्रता का अभाव रहा है और सेकुलर सेंसर के आधार पर कुछ खबरों को अभियान के तौर पर लिया गया, जबकि उसी श्रेणी की कुछ खबरों पर ठीक से चर्चा करने की जहमत भी नहीं उठाई गई। मॉब लिंचिंग और बलात्कार जैसे मामलों में भी सेकुलर एंगल ढूंढने का एकांगी और अमानवीय रवैया इस बात की तसदीक करता है कि मीडिया में सेकुलर सेंसर हालिया दिनों में किस कदर हायपरएक्टिव मोड पर चला गया है।
पिछले कुछ दशकों में हमने जिस तरह का उपभोक्तावादी समाज गढ़ा है और समाज में जिस तरह से नई तकनीकों की घुसपैठ हुई है, उससे सामाजिक संरचना और सामाजिक मानस दोनों प्रभावित हुए हैं। अच्छे परिणामों के साथ कुछ दुष्प्रवृत्तियां भी पैदा हुई हैं। मॉब लिंचिंग और बलात्कार की घटनाएं इसी कारण तेजी से बढ़ी हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों की चपेट में कमोबेश पूरा समाज ही है। दुर्भाग्य से मीडिया ऐसी घटनाओं का नाप-जोख सेकुलर एंगल से कर रही है।
हाल के दिनों में घटित हुई मॉब लिंचिंग और बलात्कार की घटनाओं के प्रति मीडिया के व्यवहार का विश्लेषण यह बताता है कि वह सेकुलर-पूवाग्रह से ग्रसित है। कठुआ रेप केस में मीडिया के एक वर्ग ने इस सेकुलर एंगल को ढूंढने के चक्कर में इस घटना को न केवल विद्वेषपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया, बल्कि संजीदा खबर की कवरेज को अमानवीय स्तर तक नीचे गिरा दिया। रिपोर्टिंग के सामान्य सिद्धांतों तक का पालन नहीं किया गया। किसी भी बच्ची के साथ हुआ दुराचार घृणित और निंदनीय है, लेकिन इसको आधार बनाकर एक पूरे समुदाय को बलात्कारी घोषित कर देना, देवस्थानों को अनैतिक कर्मों का अड्डा बता देने का जो अभियान चलाया गया, उससे मीडिया को लेकर पूरा देश आक्रोशित हुआ। मीडिया में एक सामान्य सा नियम यह है कि ऐसे मामलों में समुदाय का नाम नहीं लिया जाता। यह आक्रोश तब और अधिक बढ़ा, जब ऐसी ही अमानवीय घटना दिल्ली के एक मदरसे में हुई, मध्य प्रदेश के मंदसौर में भी एक बच्ची के साथ हैवानियत की हद की गई। हाल ही में झारखंड के खूंटी में एक मिशनरी स्कूल से पांच बच्चियों को उठाकर दुराचार किया गया। लेकिन कठुआ के योद्धा इन सभी मामलों में चुप्पी साध गए। यह सेकुलर एप्रोच तब है, जब राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की तसदीक करते हैं कि बच्चियों के प्रति बलात्कार की घटनाएं पूरे देश में अप्रत्याशित ढंग से बढ़ रही हैं। ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में बच्चियों से दुराचार के मामलों में 82 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक सामाजिक प्रवृत्ति को पांथिक प्रवृत्ति बनाकर पेश करना न केवल विद्वेषकारी है, बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता पर किया गया कुठाराघात भी है। मीडिया में कहीं भी बच्चियों के प्रति पूरे देश में बढ़ते दुराचारों के बारे में इंटरनेट, पोर्नोग्राफी, फिल्मों, विज्ञापनों की भूमिका पर विमर्श करने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई। सब कुछ हिन्दू-मुसलमान बनाकर छोड़ दिया गया।
इसी तरह मॉब लिंचिंग की घटनाएं भी अलग-अलग कारणों से पूरे समाज में बढ़ रही हैं। ऑनर किलिंग, रोड-रेजिंग की घटनाएं सामाजिक दुष्प्रवृत्तियां हैं। ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन पांथिक नजरिए से पेश करना नई मीडिया परिघटना है। सीट के झगडे को लेकर वल्लभगढ़ में की गई जुनैद खान की हत्या हो या कहासुनी के बाद दिल्ली में डा. पंकज सक्सेना की हत्या, बिसाहड़ा में मारे गए अखलाक हों या जम्मू-कश्मीर में अयूब पंडित, अलवर में पहलू खान या बाड़मेर में खेतराम भील, ये सभी घटनाएं बताती हैं कि समाज किस कदर अधीर हो रहा है, उसके धैर्य का पैमाना खत्म हो रहा है और वह अमानवीय हो रहा है लेकिन इन घटनाओं की पांथिक आधार पर कवरेज, मीडिया का सेकुलर होने-दिखने के चक्कर में अमानवीयता होने का संकेत है। सेकुलर सेंसर से संचालित भारतीय मीडिया पांथिक कवरेज की जिस त्रासद स्थिति को जन्म दे रहा है, वह खुद उसकी विश्वनीयता को भी रसातल में पहुंचा रही है।
पूूर्वाग्रहों के आरोपों से बचने के लिए कई बार तर्क दिया जाता है कि हर घटना की समान तीव्रता और व्यापकता से कवरेज संभव नहीं है। इसमें सच्चाई जान पड़ती है। पर हर बार यदि एक ही तरह की घटनाओं को व्यापक कवरेज मिले और दूसरी तरह की घटनाओं पर चर्चा तक न हो, तो इस तरह के तर्क केवल लीपापोती बनकर रह जाते हैं। एक श्रृंखलाबद्ध कवरेज के बाद इसमें कार्य कर रहे पूर्वाग्रहों को सामान्य आदमी भी पकड़ लेता है और इसके कारण उसका विश्वास डिगता है। 
यह सेकुलर सेंसर हर घटना में पंथ ढूंढने की त्रासद स्थिति को ही जन्म नहीं दे रहा है, इससे भी भयावह स्थिति यह है कि इसके कारण भारतीय मीडिया, राष्ट्रीय आकांक्षाओं का आईना नहीं बन पा रही है। समाज और देश करवट ले रहे हैं, अच्छे-बुरे नए चलन अस्तित्व में आ रहे हैं, लेकिन मीडिया के विश्लेषण के नए उपकरण ईजाद नहीं कर पा रहे हैं। विविध अवसरों पर देश के लोग बार-बार साबित कर रहे हैं कि मीडिया का हाथ जनता की नब्ज पर नहीं है, लेकिन मीडिया व्याख्या के घिसे-पिटे उपकरणों-आख्यानों को बार-बार आजमा रहा है और अपनी भद्द पिटवा रहा है।
मीडिया आकार लेती संभावनाओं से अनभिज्ञ, भविष्य की चुनौतियों से अनजान, राष्ट्रीय आकांक्षाओं से मुंह मोड़े, गाल-फुलाए पुराने आख्यानों से चिपका हुआ है। वह समाज का आईना नहीं बनना चाहता, खुद को ही समाज पर थोपना चाहता है। यदि मीडिया सही मायने में समाज का आईना बनने को तैयार हो जाए, जनाकांक्षाओं का प्रतिबिंब ग्रहण करने के लिए तत्पर हो जाए तो यह राष्ट्रीय नवोन्मेष का कारण बन सकता है। मीडिया में समग्रता की एक मूल्य के रूप मे स्वीकृति देश में कार्य कर रही कई कुंठाओं से मुक्ति का कारण बन सकता है। कुंठाओं के हटने से ही क्षमताएं अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में हमारे सामने आती हैं। स्वतंत्रता दिवस सफलताओं का उत्सव मनाने का दिन तो है ही, नए राष्ट्रीय संकल्पों का भी पर्व है। इस स्वतंत्रता दिवस पर एक संकल्प मीडिया में समग्रता का परिप्रेक्ष्य गढ़ने को लेकर भी होना चाहिए, यह एक संकल्प कई वैचारिक-सांस्कृतिक जकड़नों से हमें स्वतंत्र कर सकता है। 











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