गुरुवार, 30 मई 2019

सीधे संवाद की नई राजनीति



प्रेस-कान्फ्रेंस न करने के लिए मीडिया का एक धड़ा वर्तमान प्रधानमंत्री को पिछले 15 वर्षों से घेरता रहा है। मीडिया के इस वर्ग के अनुसार प्रेस-कान्फ्रेंस करना ही जनता और उसके सवालों से जुड़े रहने का सबूत है और प्रेस कान्फ्रेंस न करना संवादहीनता का प्रतीक। मीडिया-राजनीति में इसका सीधा सा मतलब यह है कि मध्यस्थता के बिना कोई राजनेता न तो जनता के प्रश्नों से जुड़ सकता है और न ही उन प्रश्नों का कोई सटीक राजनीतिक समाधान ढूंढ़ सकता है। हैरत  यह है कि मीडिया के एक वर्ग ने सार्वजनिक जीवन में सीधे संवाद की संभावनाओं को लगभग दरकिनार कर दिया था।यह अलग बात है कि मीडिया में घर कर चुकी इस अवधारणा के बीच ही वह 2007 और 2012 में गुजरात के मुख्यमंत्री चुने जाते हैं और 2014 में देश के प्रधानमंत्री। जाहिर है इस दौरान उन्होंने जनता से संवाद के लिए प्रेस-कान्फ्रेंस से इतर कोई प्रभावी मेकेनिज्म तैयार किया होगा। यह मेकेनिज्म क्या है और कैसे काम कर रहा है, मीडिया के तमाम विरोधों के बावजूद वह गुजरात की जनता का दिल जीतने में कैसे सफल हो रहे हैं इसका विश्लेषण करने के बजाय मीडिया यही राग गाता रहा कि वह प्रेस कान्फ्रेंस क्यों नही कर रहे हैं? इस धड़े के शब्दों और उसमें निहित भावना से संदेश यह जाता था कि उनमें मीडिया को फेस करने की क्षमता नही है।
मीडिया और मोदी के संबंध एक प्रेस कान्फ्रेंस के जरिए परिभाषित होने की कोशिशें होती रही, इसी बीच वह गुजरात से आकर दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक देते हैं और देश के प्रधानमंत्री बन जाते हैं। फिर भी देश की नब्ज को पकड़ने का दावा करने वाले मीडिया के उस वर्ग की हठधर्मिता जारी रही। 2014 के बाद भी मीडिया का यह खेमा इस बात की पड़ताल नही करता है कि वह कहां चूक रहा है और मोदी के सीधे संवाद का मेकेनिज्म कैसे सफल हो रहा है?
2019 में हो रहे लोकसभा चुनावों में तो यह मेकेनिज्म और भी अधिक प्रभावी दिख रहा है, क्योंकि इन चुनावों में उम्मीदवार गौड़ हो गए हैं और यह बात लगभग हर जुबां पर है कि हर सीट पर मोदी ही लड़ रहा है। चुनाव प्रचार के दौरान जनता उम्मीदवारों को एक नया अनुभव मिल रहा है। वह यह कि जनता पहले से ही अपना स्पष्ट मत बनाए बैठी हुई है। वह आश्वस्त है। उम्मीदवारों से उसकी कुछ खास अपेक्षा नहीं है।
सबसे बड़ी बात यह कि सामान्य नागरिक ही मोदी के पक्ष में तर्क गढ़ रहा है, उत्तर-प्रत्युत्तर दे रहा है। इन चुनावों में सामान्य नागरिकों की वैचारिक स्तर पर सहभागिता बहुत अधिक है। मानो वह मतदाता न होकर खुद ही उम्मीदवार हो। हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा कि यह चुनाव कोई दल नही लड़ रहा है बल्कि पूरा देश ही लड़ रहा है। आम लोगों के मुंह से स्थानीय उम्मीदवार के बजाय मोदी को ही वोट देने की बात कही जा रही है। स्थानीय मुद्दे और उम्मीदवार चुनावी परिदृश्य पर कोई छाप नही छोड़ पा रहे हैं।
यह भारतीय मीडिया और राजनीतिक परिदृश्य में एकदम से चौंकाने वाली और नई परिघटना है। यहां पर वह प्रश्न फिर से अधिर मजबूती के साथ उभर आता है कि ‘‘प्रेस-कान्फ्रेस’’ करने वाले क्यों जनता से जुड़ नही पा रहे हैं, उसके मन में चल रहे सवालों को क्यों नहीं पढ़ पा रहे हैं? और प्रेस-कान्फ्रेस न करने वाला राजनेता न केवल जनता के मन को बेहतर ढंग से पढ़ पा रहा है, बल्कि उन्हे इस हद तक आश्वस्त करने में सफलता प्राप्त कर रहा है कि आम व्यक्ति उसका एम्बेसडर बना हुआ है। यद्यपि आजकल संचारीय सजगता को तकनीकी पैमाने पर आंकने का चलन है, लेकिन इसका उत्तर भारतीय संचार परम्परा और भारतीय संचार दर्शन को समझे बगैर ठीक से नही मिल सकता।
यह बात सही है कि नरेन्द्र मोदी ने संदेशों को सम्प्रेषित करने के लिए उपलब्ध तकनीकों का बड़ी कुशलता से उपयोग किया है। वह विश्व के उन अग्रणी नेताओं में से एक है, जिन्होंने सोशल-मीडिया की राजनीतिक संभावनाओं को न केवल पहचाना बल्कि उसका बेहतरीन इस्तेमाल भी किया। लेकिन यहां बात केवल तकनीकी कुशलता की नहीं है, भारतीय चित्ति में गहरे तक धंसे हुए उन संचारीय मूल्यों के पहचान और नए संदर्भों में उनके उपयोग की भी है।
भारत में विश्वसनीयता का सबसे बड़ा पैमाना यह है कि कही जा रही बात चरित्र के जरिए अभिव्यक्त हो भी रही है कि नही। चरित्र और चिंतन का सामंजस्य विश्वसनीयता रचता है। यदि आप कह रहे हैं कि मेरे लिए देश प्रथम है तो बड़ा प्रश्न यह है कि वह आपके आचरण भी उस अनुरूप है कि नही। इस पैमाने पर नरेन्द्र मोदी खरे उतरते हैं। जहां अन्य राजनेताओं के लिए राजनीति परिवार को सशक्त बनाने का जरिया हो, वहीं मोदी ने अपने परिजनों को किसी तरह का राजनीतिक लाभ नहीं पहुचाया है। उनका परिवार अब भी निहायत सामान्य स्थितियों में रहता है। इसके कारण देश के प्रति उनकी नीति और नीयत को लेकर आम लोगों में विश्वास का भाव रहता है।
वह भारतीय परम्परा बोध के प्रति उनकी सजगता भी उनकी संचार रणनीति को अधिक प्रभावी बनाती है। परम्परा प्रवाहमान बोध है, कोई स्थिर संरचना नही। इसलिए उसमें सातप्य और बदलाव दोनों होते हैं। मोदी में भारतीयता को नवाचारी ढंग से प्रस्तुत करने की ललक दिखती है। योग दिवस इसका उदाहरण है। इसी तरह नवरात्र व्रतों के दौरान भी देश-विदेश में निरन्तर  बैठकें करने का उनका तरीका लोगों में एक स्पष्ट संदेश देता है कि अपनी परम्पराओं के साथ भी ग्लोबल हुआ जा सकता है। एक साथ ही भारतीय परम्परा और आधुनिक आवश्यकताओं से संवाद करने वाला उनका व्यक्तिव भारतीयों के लिए आशा की किरण बन जाता है और यह स्थापित तथ्य है कि आशा और आकांक्षायुक्त संवाद लोगों को साथ जोड़ता है।
नरेन्द्र मोदी की संचार रणनीति का भाषिक पक्ष एक प्रमुख विशेषता है। गुजराती व हिंदी में जिस तरह अपने वक्तव्यों को पिरोते है, उससे उनकी सम्प्रेषण शैली सम्मोहक बन जाती है। उनकी राजनीतिक सफलताओं का यदि सही ढंग से आकलन किया जाए तो भाषिक आयाम भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता नजर आएगा।
नरेन्द्र मोदी की संचार रणनीति में शामिल ये तत्व जनता से सीधे-संवाद करने, उससे जुडने में सहयोग करते हैं। ऐसे में उन्हे संदेश-सम्प्रेषण लिए प्रेस-कान्फ्रेंस पर निर्भर रहने की जरूरत न के बराबर होती है। वह मध्यस्ता विहीन संवाद का ककहरा गढ चुके है, और उसकी दस्तक से भारतीय राजनीति नई करवट लेने लगी है।

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