मंगलवार, 28 मई 2019

स्वदेशी भाव की हिंदी भाषा



गांधी के बाद बहुत चालाकी से उनकी स्वदेशी की संकल्पना को उत्पादों की खरीद.बिक्री तक सीमित कर दिया गया। गांधी की तो स्पष्ट मान्यता थी कि स्वराज और स्वदेशी के संघर्षों की शुरुआत भाषा के प्रश्न से ही होनी चाहिए। उनके लिए स्वराज का संघर्ष और कुछ नहीं बल्कि स्वदेशी के लिए किया जाने वाला संघर्ष है और उनके स्वदेशी के संघर्ष की शुरुआत स्वदेशी भाषा से होती है। स्वदेशी भाषा का प्रश्न उनके सभी संघर्षों के केन्द्र में है।

उनका आकलन था कि हिन्दी में ऐसा सामथ्र्य दिखाई पड़ता है कि वह स्वदेशी के भाव की संवाहिका बन सकती है। अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने हिन्दी को सार्वजनिक विमर्श के केन्द्र में लाने से पहले खुद ही सीखना प्रारम्भ किया। उनकी भाषायी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों के आ जाने को अयोग्यता का प्रतीक माना और उसके लिए सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगी।

गांधी संभवतः पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने औपनिवेशिक भाषा में बच्चों की शिक्षा को देश के साथ विश्वासघात बताया। वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जो भारतीय अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा देते हैं वह न केवल बच्चों के साथ विश्वासघात करते हैं बल्कि अपने देश के साथ भी विश्वासघात करते हैं। ऐसे अभिभावक बच्चों को राष्ट्र की आध्यात्मिक और सामाजिक विरासत से काट देते हैं और उन्हें देश सेवा के अयोग्य बना देते हैं। ; आत्मकथाए पृष्ठ 321द्ध।

यहां पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि गांधी की अंग्रेजी के प्रति आपत्ति उसे माध्यम बनाए जाने को लेकर अधिक थीए एक भाषा के रूप में वह उसे दुनिया के अलग.अलक हिस्सों से जुड़ने का साधन मानने को तैयार थे। अंग्रेजी को लेकर अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए वह यंग इंडिया के 1 जून 1921 के अंक में लिखते हैं कि .मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के दरवाजे और खिड़कियां पूरी तरह बंद हों। मैं चाहता हूं कि दूसरी संस्कृतियों की हवा मेरे घर तक पहुंचे। लेकिन इसके साथ मैं यह भी नहीं चाहता की बाहरी हवा का प्रवाह मेरे घर को ही उखाड़ फेंके। मैं दूसरे के घर में भिखारी या दास के रूप में भी नहीं रहना चाहता। मैं झूठे अहंकार या तथाकथित सामाजिक लाभ के लिए अपनी बहनों के ऊपर अंग्रेजी सीखने का दबाव डालना उचित नहीं समझता।

गांधी भाषा के प्रश्न को लेकर अपने जीवन के आरंभिक काल से ही सजग थे। इसलिए उनके विचारों का बीज माने जाने वाली पुस्तक हिंद स्वराज में भी भाषा के प्रश्न पर उनकी स्पष्ट राय देखने को मिलती है। वह अंग्रेजी की शिक्षा को भारतीयों का दासत्व से जोड़ते हैं। हिंद स्वराज में वह लिखते हैं.लाखों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें दास बनाने जैसा है। मैकाले द्वारा रखी गई शिक्षा की नींव हमें दास बना रही है। मुझे नहीं पता कि उसकी मंशा क्या थीए लेकिन निष्कर्ष से तो ऐसा ही लग रहा है। क्या यह एक पीड़दायी स्थिति नहीं है कि यदि मैं न्यायालय में जाता हूं तो मुझे अंग्रजी को ही अपना माध्यम चुनना पड़ता हैए यदि मैं वकील बन जाता हूं तो मैं अपनी अपनी भाषा नहीं बोल पाता हूं और किसी अन्य को मेरा अनुवाद करना पड़ता है। क्या यह पूरी तरह बेहूदा नहीं है। क्या यह दासता की निशानी नहीं है। ; पृष्ठ 73द्ध

गांधी जी के भाषा सम्बंधी विचारों में स्पष्टता और सातत्य तो दिखता ही हैए एक अन्य कारक जो उन्हें अलहदा बना देता हैए वह है साहस। अन्य मसलों को लेकर गांधी संतुलित राय ही रखते थे लेकिन भाषा को लेकर वह हमेशा से ही बहुत मुखर रहे। 1914 में भारत आने के बाद वह 1918 तक सार्वजनिक दृष्टि से बहुत सक्रिय नहीं दिखाई पड़ते लेकिन भाषा को लेकर उनकी राय इस दौर में भी बहुत मुखर होकर अभिव्यक्त होती है। 27 दिसम्बर 1917 को पहली आॅल इंडिया सोशल सर्विस कान्फ्रेंस में दिया गया उनका सम्बोधन इस बात की तस्दीक करता है कि वह भाषा को लेकर कुछ निश्चित निष्कर्षों पर सम्भवतः अफ्रीका में ही पहुंच गए थे और उनके ये निष्कर्ष जीवन पर अपरिवर्तनीय रहे।

पहली सोशल सर्विस काॅन्फ्रेंस में वह कहते है.अंग्रेजी सीखने से सम्बंधित अंधविश्वासों से मुक्त होकर हम समाज की सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं। अंग्रेजी के प्रशिक्षण की आवश्यकता में हमारा विश्वास हमें दास बना देता है और हम देश की सेवा करने के अयोग्य हो जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है कि हम इस बात को देख पाने में असक्षम हो गए हैं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण हमारे बुद्धिजीवी सामान्य आदमी से कट गए हैंए हमारे देश के श्रेष्ठ दिमाग एक दायरे में सिमट गए हैं और आम लोगों तक नए विचार नहीं पहुंच पा रहे हैं। पिछले साठ दशकों में तथ्यों को आत्मसात करने के बजाय हमारी ऊर्जा शब्दों को रटने और उनका उच्चारण सीखने में खर्च हो रही है। अपने पूर्वजों से प्राप्त नींव पर भवन खड़ा करने के बजाय हम जिस तरह विस्मृत कर हैंए वह इतिहास में अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ता। यह एक राष्ट्रीय आपदा है।

हिन्दी को लेकर वह टैगोर भी टकराते हैं और उन्हें एक कड़ा पत्र लिखते हैं। अब यहां पर प्रश्न यह उठता कि गांधी के बाद गंगा में काफी पानी बह चुका है। क्या अब भी उनके भाषायी विचारों की प्रासंगिकता बनी हुई है। 1991 के बाद वैश्वीकरण के आंधी में अंग्रेजी की अनिवार्यता का भ्रम तो और भी अधिक मजबूत हुआ है। भाषायी स्तर पर एक दौर में जो स्वदेशी का आग्रह हुआ करता थाए वह भी अब क्षीण हुआ है। निश्चय ही स्थिति अधिक जटिल हुई है और यह जटिलता ही गांधी के भाषायी विचारों की प्रासंगिकता को बढ़ा देती है।

आज के परिदृश्य में सांस्कृतिक स्खलन और आर्थिक शोषण का सबसे बड़ा जरिया अंग्रेजी ही है। आधुनिकता के दबावए वैज्ञानिकता के व्यामोह या साहस की कमी के कारण यदि हम इस स्थिति को हम गांधी की तरह राष्ट्रीय आपदा नहीं कह पा रहे हैंए राष्ट्र के साथ विश्वासघात नहीं ठहरा पा रहे हैं तो इसका आशय यह क्यों न निकाला जाए कि  भारतीयों के जड़ोन्मूलन के इस अभियान मे हम भी हत्बुद्धि होकर अपनी मौन सहमति दे बैठे हैं। 

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