गुरुवार, 30 मई 2019

लोदी मीडिया की ढहती सल्तनत

पैगम्बरवादी पंथ मूर्तिभंग को मानभंग का प्रमुख औजार मानते हैं और ज्ञान का अन्यधाराओं से उनकी शत्रुता उन्हें शब्दबैरी.शास्त्रबैरी बना देती है। इसलिए प्रभाव.विस्तार के लिए यदि गाजियों और क्रूसेडर्स के निशाने पर सबसे पहले धर्मस्थान और धर्मशास्त्र आते रहे हैं तो यह अनायास नहीं है। इसके स्पष्ट राजनीतिक.मनोवैज्ञानिक आयाम हैं। मनोवैज्ञानिक स्तर पर आइकनौक्लाज्म ;मूर्तिभंगद्ध और ष्बुक बर्निंग ;शास्त्र को जलानाद्धष् सभ्यताओं के संहार की प्रक्रिया है। अंग.भंग से व्यक्ति आहत होता है लेकिन इन सेमेटिक परम्पराओं से पूरी सभ्यता आहत होती है।

शब्द और मूर्ति सामूहिक स्मृति को गढ़ती है। शब्द के माध्यम से परम्पराएं आगे बंढ़ती है और इस तरह शब्द सभ्यता के संरक्षक बन जाते हैं । दूसरी तरफ हजारों सालों का चिंतन मूर्तियों के रुप में आकार लेता है और इन मूर्तियों से संस्कृति को गढ़नेवाली अनेकों परम्पराएं जन्म लेती हैं। मूर्ति चिंतन और परम्परा का निकर्ष होती है। मूर्तिभंग और शास्त्रोच्छेद के साथ चिंतन और परम्परा दोनों अवरुद्ध हो जाती है। ऐसे में सामूहिक स्मृतियों का लोप होना प्रारंभ हो जाता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि स्मृतिहीन समाज आसानी से दासता स्वीकार कर लेता है। इसलिए अपने सत्य को अंतिम सत्य घोषित करने वाली सभ्यताओं ने यदि बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में मूर्तियाें को तोड़ा और किताबों का जलाया तो उनका मंतव्य किसी भी प्रकार अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करना था।

भारतीय संदर्भों में देखें तो मूर्तिभंग और शास्त्रबैर दोनों का ही दंश भारत को लगभग हजार साल तक झेलना पड़ा। सामूहिक स्मृति फिर भी बची रहीए तो इसका कारण  भारत की श्रुति परम्परा है। मूर्तिंयां टूटींए शास्त्र जलाए गएए लेकिन कंठस्थ शब्दों और हृदयंगम भावनाओं का आक्रमणकारी क्या कर सकते थेघ् उन्हें तो वह देख ही नहीं सकते थे। इस्लामिक आक्रमण काल में जिन व्यक्तियों ने मूर्तिभंग और शास्त्रोच्छेद के परम्पराओं को जिहादी मानसिकता और क्रूर तरीके से आगे बढ़ायाए उसमें से एक का नाम सिकंदर लोदी है। इसलिए भारतीयता को हिंसक और क्रूर तरीके से मिटाने वाली मानसिकता को लोदी मानसिकता कहा जा सकता है।

भारतीय सभ्यता को स्मृतिहीन करने का महाअभियान अब भी विविध रूपों में चल रहा हैए जहां पर संभव है वहां पर मूर्तिभंग के जरिए और जहां पर नहीं है वहां पर मीडिया के जरिए क्योंकि शब्दों को पालने.पोषने अथवा उन्हें मारने का कार्य मुख्यतः मीडिया के जरिए ही हो रहा है। सेनाओं के बजाय अब मीडिया भारतीय सभ्यता को स्मृति बनाने के कार्य को अंजाम दे रहा है। भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसमें संलिप्त रहा है। मीडिया के इस वर्ग की करतूतें सिंकदर लोदी जैसी हैए इसीलिए मीडिया के इस वर्ग को लोदी मीडिया कहा जा सकता है। 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह लोदी मीडिया किस कदर पूर्वाग्रहों से संचालित होता रहा हैए इसका सबसे अच्छा आकलन पिछले 6 दशकों में चलाए गए प्रमुख आंदोलनों पर उसके दृष्टिकोण और कवरेज के आधार पर किया जा सकता है। इन 6 दशकों में देश के मानस को अभिव्यक्त करने वाली सभी प्रमुख आंदोलनों को या तो कवरेज ही नहीं मिलीए या फिर उसे सनकी.साम्प्रदायिक लोगों को आंदोलन बताने की कोशिश की गई। इसी कारण नई पीढ़ी स्वतंत्रता बाद के आंदोलनों से या अपरिचित है या फिर उनके प्रति नकारात्मक नजरिया रखती है।

स्वतंत्रता के बाद पहली बार जिस आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया थाए वह था 1966 में गोहत्या पर पाबंदी को लेकर साधु.संतों द्वारा चलाया गया आंदोलन। इस आंदोलन में सभी भारतीय सम्प्रदायों के संतों ने एकस्वर में गोहत्या पर पाबंदी और गोसंवर्द्धन के लिए ठोस कदम उठाने की सरकार से मांग की। गोरक्षा महाअभियान समिति के बैनर तले इस आंदोलन को आर्यसमाजएबौद्धए जैनए सिखए नाथए निरंकारी सम्प्रदायों का भी समर्थन प्राप्त था। ऐसी सांस्कृतिक एकता उसके बाद भारत ने अभी तक नहीं देखी। सरकार ने इस मुद्दे पर अडि़यल रुख अपनाया। 7 नवम्बर को दिल्ली में पुलिसिया कार्रवाई में कई संत गोलोकवास हुए। इसी आंदोलन के दौरान शंकराचार्य निरंजनदेवतीर्थ का 72 दिनों का अनशन और करपात्री जी महाराज की भूमिका को यादकर आज भी गोभक्त रोमांचित हो जाते है। लेकिन इसके बारे में मीडिया ने तब जो मौन धारण कियाए वह अब तक बरकरार है। लोदी मोडिया भारतीय भावनाओं को नजरंदाज की इस प्रवृत्ति के कारण सामान्य व्यक्ति तो दूरए अच्छे.खासे पढ़ लिख लोग भी इस आंदोलन और 7 नवम्बर 1966 को संतो ंके अविस्मरणीय बलिदान के बारे मे नहीं अनभिज्ञ हैं।

छोटी.छोटी घटनाओं के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जो बनावटी बखेड़ा लोदी मीडिया आज खड़ा करने की कोशिश कर रहा हैए उसकी भूमिका आपातकाल में निहायत संदिग्ध रही। आज के दौर को जबरदस्ती आपातकाल जैसा साबित करने की कोशिश की जाती हैए जबकि आपातकाल तो सचमुच का संकट था। ष्जैसे खतरे को ष् को ष्सचमुच के खतरेष् से बड़ा बताने का कारनामा तो लोदी मीडिया ही कर सकता है। आज भी आपातकाल की चर्चा आते ही मीडिया का यह वर्ग चर्चा करने से बचता है या शातिराना तरीके से ष्हंसकर टाल देने वाली मुद्राष् अपना लेता है। नतीजनए आपातकाल के बारे में आज भारतीय समाज खुद को स्मृतिहीन अवस्था में पाता है।

रामजन्मभूमि आंदोलन लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारतीय चिति को स्थापित करने वाला राष्ट्र की तरफ से चलाया गया सर्वाधिक प्रभावी आंदोलन था। इसके केन्द्र में सभ्यता की पांच सौ सालों की संघर्षगाथा थी। दुर्भाग्य से मीडिया ने बहुत चालाकी से रामजन्मभूमि के विमर्श को 1949 से पहले नहीं जाने देने का षड्यंत्र रचा और सफल भी रहा। राजजन्मभूमि के लिए किए पचास पीढि़यों के संघर्ष का इतिहास हर भारतीय के लिए प्रेरणास्त्रोत बन सकती थीए लेकिन इसे आस्थाए पहचानए आदर्श और इतिहास के बजाय बहुत सीमित दायरे में लिया। लोदी मीडिया ने प्रयासपूर्वक राष्ट्र की शताब्दियों की आकांक्षा को ष्मदिर बने या अस्पताल बनेष् जैसी टुच्ची बहस में उलझा दिया। 

लोदी मीडिया का ऐसा ही रवैया रामसेतु आंदोलन और अमरनाथ आंदोलन के प्रति भी रहा। इन आंदोलनों की तीव्रता और व्यापकता को दरकिनार कर लोदी मीडिया में इनकी कवरेज कानून.व्यवस्था के प्रश्न के नजरिए सी गई। कहां पर कितनी ट्रकें रूकी रहींए कैसे यातायात व्यवस्था प्रभावित हुईए ऐसे आंदोलनों के कारण कैसे एक खास वर्ग अप्रसन्न होता हैए जैसे कोणों से इतने बड़े आंदोलनों की कवरेज करने की कुचेष्टा की गई। इसी कारणए अभी पिछले दशक में हुए इन आंदोलनों और उनके उद्देश्यों के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है।

शब्दों के जरिेए भारतीयता की छविभंग करने की कोशिशों को लोदी मीडिया पिछले दशक तक सफलतापूर्वक अंजाम देता रहा है। अब वह ऐसा नहीं कर पा रहा है। मीडिया पर उसका एकाधिकार खत्म हो रहा हैए उसकी सल्तनत ढहती हुई दिख रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम परए आदर्शों को बचाने के नाम पर मीडिया में जो धमा.चौकड़ी मची हुई हैए उसका एकमात्र कारण लोदी मीडिया की एजेंडा तय करने की ताकत में आ रही गिरावट है।

लोदी मीडिया को पहला सबसे बड़ा झटका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक शाम के बहाने ष्भारत तेरे टुकड़े होंगेष् का नारा लगाने वाली गैंग के पक्ष में पूरी ताकत से बैटिंग करने के बावजूद देश द्वारा नकार दिए जाने बाद लगा। लोदी मीडिया के इस तर्क से कोई भारतीय सहमत नहीं हो सका कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत की बर्बादी तक जंग रहेगीए गो.इंडिया.गो.बैकए इंडियन आर्मी जिंदाबादए भारत तेरे टुकड़े होंगे.इंशाअल्लाहए इंशाअल्लाहए बंदूक के दम पर लेंगे आजादी जैसे नारे लगाए जा सकते हैं। इस मामले में अरोपियों की जमानत देते समय जस्टिस प्रतिभा रानी का 2 मार्च 2016 को यह निर्णय कि नारेबाज इसलिए नारे लगा पा रहे हैंए क्योंकि कच्छ और सियाचिन जैसे दुर्गम क्षेत्रों सशस्त्र बल सीमा की सुरक्षा कर रहे हैए पूरे देश की भावनाओं की सच्ची अभिव्यक्ति बन गया।

भीमा.कोरेगांव प्रकरण में भी बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर के विचारों के साथ अर्बन.नक्सलियों ने जिस तरह खिलवाड़ कियाए और लोदी मीडिया ने इसे जिस तरह न्यायसंगत ठहराने की कोशिश की उससे अनुसूचित जाति के लोगों सहित पूरे देश ने नकार दिया। याकूब मेमन का प्रकरण होए या कठुआ कांड लोदी मीडिया का झूठ अब आसानी से पकड़ा जाने लगा है। सोशल मीडिया का प्लेटफार्म और नागरिकों में बढ़ता भारतीयता के बोध ने झूठ के कारोबार को असंभव बना दिया है।

ऐसे में अपनी गिरती साख को बचाने के लिए यह लोदी मीडियाए खुद को सच का एकमात्र पैरोकार साबित कर दूसरों को गोदी मीडिया बताने में जुटा हैए सेल्फी लेने न लेने पर फतवे जारी हो रहे हैंए सहानुभूति बटोरने की कोशिश हो रही है। इन तमाम हथकंडों के बावजूद आम आदमी लोदी मीडिया के एजेंडे को तवज्जो नहीं दे रहा है। शायद वह लोदी मीडिया के प्राथमिकताओंए नारों के आवरण में छिपे असलियत को पहचानने में सक्षम हो गया है। लोदी मीडिया की ढहती सल्तनत से भारत न केवल शाब्दिक कत्लोगारत से मुक्त हो सकेगा बल्कि उसे स्वस्थ.संवाद का परिवेश और नया सांस्कृतिक.आत्मविश्विास भी उपलब्ध हो सकेगा।

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