शुक्रवार, 31 मई 2019

युवा-आदर्शों का विस्मृत अध्याय हैंः वीर राम सिंह पठानिया



डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई किल्ला पठानियां खूब लड़ेया।

डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई बेटा वजीर दा खूब लड़ेया।।

सुविधाभोगी सन्नाटों के बीच सच के रास्ते को चुनने, और उस पर चलने का काम कुछ धीर-वीर ही कर पाते हैं। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि जो ऐसे रास्ते पर अकेले चलने की हिम्मत जुटा लेते हैं वह नायक बनकर लोकस्मृति में दर्ज हो जाते हैं। तभी तो विश्वकवि ‘तोर दक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे’ के जरिए लोगों से अकेला चलने की गुहार लगाते हैं और हिमाचली मानस ‘किल्ला पठानियां खूब लड़ेया’ के जरिए वीर राम सिंह पठानिया को याद करता है।

अंग्रेजों के दमनचक्र के खिलाफ अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन हुआ, तो उसकी पहली चिंगारी वजीर राम सिंह पठानिया के रूप में फूटी थी। विधर्मी अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ पहली तलवार वजीर राम सिंह पठानिया की उठी, जिन्होंने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवा लिया था। किशोरवय उम्र में वीर राम सिंह पठानिया ने यह दिखा दिया कि अकेले चलकर भी विरोध की ऐसी चिंगारी पैदा की जा सकती है जो अन्याय की हुकूमत को घुटने के बल पर खड़ा कर दे। उन्होंने छोटी सी उम्र में ही जिस धीरता-वीरता का परिचय दिया वह आज भी लाखों-करोडों युवाओं को देशभक्ति की भावना से भर देती है। दुर्भाग्य यह है कि हिमाचल के इस वीर सपूत की शौर्य गाथा से आज की नई पीढ़ी अपरिचित है।

राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर के बासा वजीरां में वजीर शाम सिंह एवं इंदौरी देवी के घर 1824 में हुआ था। उस समय अंग्रेजों की ललचाई आंखें पंजाब समेत पूरे भारत पर थी। पिता के बाद इन्होंने 1848 में वजीर का पद संभाला। उस समय रियासत के राजा वीर सिंह का देहांत हो चुका था। उनका बेटा जसवंत सिंह केवल दस साल का था। अंग्रेजों ने जसवंत सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इनकार कर दिया तथा उसकी 20,000 रुपए वार्षिक पेंशन निर्धारित कर दी। यह शर्त भी थोप दी थी कि वह नूरपुर से बाहर जाकर रहें।

राम सिंह पठानिया और उनके पिता को अंग्रेजों की ये शर्तें मंजूर नहीं थीं। इसलिए जालंधर के कमिश्नर जॉन लारेंस और हर्सकाइन ने इस रियासत पर सख्ती बरतनी शुरू कर दी। बाद में लोभ पैदा करने के लिए जॉन लारेंस ने इतनी रियायत दे दी कि नूरपुर का राजा जहां भी रहना चाहे रह सकता है, बशर्ते वह वजीर शाम सिंह और उसके पुत्र राम सिंह को पद से हटा दें।

अंग्रेजों की यह धूर्तता राम सिंह को पसंद नहीं आई और इसका उचित जवाब देने का मन बना लिया। उन्होंने अंग्रेजी षड्यंत्र का जवाब देते हुए जसवंत सिंह को नूरपुर का राजा और खुद को उसका वजीर घोषित कर दिया। उनके विद्रोह की खबर जब होशियारपुर पहुंची, तो अंग्रेजों ने शाहपुर किले पर हमला कर दिया। जब अंग्रेजी सेना का दबाव बढ़ा, तो मजबूरी में राम सिंह और उनके साथियों को रात के समय किला छोडऩा पड़ा। उन्होंने जम्मू से मन्हास, जसवां से जसरोटिये, अपने क्षेत्र से पठानिये और कटोच राजपूतों को एकत्र किया। 14 अगस्त, 1848 की रात में इन सभी ने शाहपुर कंडी दुर्ग पर हमला बोल दिया। वह दुर्ग उस समय अंग्रेजों के अधिकार में था। भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को राम सिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेडक़र दुर्ग पर अपना झंडा लहरा दिया। कहा जाता है कि रामसिंह पठानिया की ‘चंडी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी। पठानिया की वीरता और उनकी तलवार का खौफ  अंग्रेजों के सिर चढ़कर बोलता था।

अपने हौसले और वीरता से वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। आमने-सामने की कई लड़ाइयों में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें पकडऩे के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए। उन्हीं के एक पुरोहित मित्र ने अंग्रेजों के लालच में आकर उन्हें पकडऩे का भेद बता दिया कि राम सिंह पूजा के वक्त अपने पास कोई हथियार नहीं रखते। पूजा के वक्त जब उन्हें घेर लिया, तो अपने कमंडल से ही उन्होंने नौ ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला था। एक युद्ध में कई अंग्रेजों ने मिलकर षड्यंत्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया। उन पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया। रंगून की जेल में ही 17 अगस्त, 1849 को इस वीर सपूत ने अपने प्राण त्याग दिए।

वजीर राम सिंह पठानिया की शहादत के प्रति इससे बड़ा और अन्याय क्या हो सकता है कि वर्तमान पीढ़ी उनके बारे में अनभिज्ञ हो। इसके कसूरवार वे तमाम इतिहासकार हैं, जिन्होंने अनजाने में या जानबूझ कर भारतीय इतिहास के इस पराक्रमी किरदार को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी।

आज जब देश धर्म का संघर्ष हथियारों से अधिक विचारों से लड़ा जा रहा है और युवाओं के सामने आदर्शों के अकाल की स्थिति पैदा  कर दी गई है, वीर राम सिंह पठानिया की वीरगति को याद किया जाना आवश्यक हो गया है। उनका स्मरण युवाओं में ऊर्जा के नव-स्फूरण पैदा कर सकती है।

राम सिंह पठानिया ने जब क्रान्ति का बिगुल फूंका था तो उनकी उम्र महज 23 वर्ष थी। उनकी मां चण्डी में अगाध श्रद्धा थी। अपने धर्म के प्रति वह बहुत सजग थे और देश के लिए सब कुछ समर्पित करने का संकल्प भी उनके पास था। एक ऐसे समय में युवाओं को भ्रमित करने के सायास कोशिशें चल रही हैं, नशे का दलदल गहरा होता जा रहा है, शैक्षणिक संस्थानों में विभाजनकारी प्रवृतियां पल रही हैं, वीर राम सिंह पठानिया के आदर्श को युवाओं के सामने रखना राष्ट्रीय कर्म बन जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें