रविवार, 6 दिसंबर 2015

पंथनिरपेक्षता का नया पाखंड


 भारत में पंथनिरपेक्षता की बहस 'नित नई ऊंचाइयोंÓ को छू रही है। पहले
इसकी सीमा में 'पंचतत्त्वÓ ही आते थे लेकिन पिछले कुछ महीनों में इसने
ऊंची छलांग लगाते हुए सूर्य नामक 'महातत्त्वÓ को भी अपने जद में ले लिया
है। अब सूर्य और सूर्य की किरणें भी पंथनिरपेक्षता की बहस का हिस्सा बन
गई हैं। संभवत: इसी कारण योग दिवस के दौरान कई हलकों से यह आवाज आई कि,
क्योंकि सूर्य और उसकी किरणों की पंथनिरपेक्षता संदिग्ध है, इसलिए सूर्य
नमस्कार करना भी हमारे संवैधानिक 'सेकुलरÓ ढांचे के खिलाफ है। इस
'वैज्ञानिकÓ तर्क को 'प्रगतिशीलÓ दुनिया में व्यापक स्वीकृति और सराहना
मिली और इसके आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई की योग एक
सांप्रदायिक कृत्य है।
सूर्य से थोड़ा नीचे उतरकर शब्दों की दुनिया में आएं, तो वहां
पंथनिरपेक्षता नए प्रतिमान, नए कीर्तिमान गढ़ती हुई दिखती है।
पंथनिरपेक्षता में नए आयाम जोडऩे के प्रक्रिया भारत में राजनीतिक बदलाव
की आहट  के साथ शुरू हो गई थी। भाजपा द्वारा अपना प्रधानमंत्री का
उम्मीदवार घोषित करने के साथ तरह-तरह के फतवे साहित्य जगत और विद्वत जगत
से आने लगे थे। उस समय कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने घोषणा की थी कि वह
उस भारत में रहना नहीं पसंद करेंगे, जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
होंगे। ऐसे साहित्यकारों में से एक अनंत विजय ने बाद में अपनी ही बात से
यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया था कि उन्होंने तो यह बात आवेग में आकर कह
दी थी।
उसी समय जर्मनी में तत्कालीन वित्त मंत्री ने अपने ज्ञान को बघारते हुए
कहा था कि मेरे जैसे विद्वान आदमी के बिना भारत आगे नहीं बढ़ सकता।
उन्होंने नरेंद्र मोदी की अर्थव्यवस्था संबंधी ज्ञान को तुच्छ और नगण्य
बताते हुए कहा था कि उनका ज्ञान तो  डाक टिकट के पिछले हिस्से पर लिखा जा
सकता है। इसी लाइन को आगे बढ़ाते हुए कभी-कभार बोलने वाले तत्कालीन
प्रधानमंत्री ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री
बनना देश के लिए 'विनाशकारीÓ साबित होगा।  खैर विधि को जो मंजूर था वही
हुआ। देश ने पिछले साठ वर्ष की राजनीतिक प्रक्रिया और विमर्श को सिर के
बल खड़ा कर दिया और भाजपा को अप्रत्याशित बहुमत दिया।
नई सरकार बनने के बाद कई दशकों से सत्ता की नजदीकी का सुख भोग रहे
बुद्धिजीवी और साहित्यकार बेरोजगार हो गए। उनके पास अब एक ही काम बचा था
और वह था बात-बात पर सरकार को प्रमाणपत्र देना। जाहिर है सबसे अधिक
प्रमाणपत्र पंथनिरपेक्षता के नाम पर बांटे जा सकते थे, लेकिन नई सरकार
जिस तरह 'सबके साथ और सबके विकास का बातÓ कर रही थी, उसने प्रमाणपत्र
जारी करने की संभावनाओं को बहुत क्षीण कर दिया था और पंथनिरपेक्षता की
दुहाई देने वाल खुद को बहुत दिक्कत में पा रहे थे।
सरकार के गठन के बाद जमीन पर तो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था, लेकिन कुछ
निश्चित खेमों में व्यग्रता दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। इन खेमों के
खांचे और निष्कर्ष दोनों, पूर्वनिर्धारित थे। घटना कोई भी हो, किसी भी
कारण घटी हो, उसकी व्याख्या निर्धारित खांचे में की जानी थी  और पहले से
तय निष्कर्षों की हर बार पुष्टि करना होता था। खांचा पंथरिपेक्षता का था
और निष्कर्ष पंथनिरपेक्षता बढ़ता हुआ खतरा।  चूंकि परंपरागत खाचें में
सरकार को कोसा नहीं जा पा रहा था, इसलिए उसमे नए पैमाने और तत्त्वों का
समावेश किया गया। लक्ष्य केवल इतना था कि देखो जी! हमने जैसा कहा था,
वैसा ही हो रह है। भारत की 'गंगा-जमुनी तहजीबÓ तार-तार हो रही है और
सांप्रदायिक सौहार्द हवा होता जा रहा है।
नई सरकार के बने बमुश्किल दो महीने भी नहीं हुए थे कि आउटलुक अंग्रेजी ने
अपनी कवर स्टोरी इस बात को बनायी की देश में कट्टरता बढ़ रही है। जबकि उस
समय ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था जिससे इस तरह की बहस की शुरुआत भी हो सके।
मंत्रिमंडल की संरचना और कुछ फुटकर बयानों के जरिए यह साबित करने की
कोशिश की गई की यहां पर पंथनिरपेक्षता धरातल में पहुंचने वाली है। इसी
पत्रिका ने चुनावों के समय नरेंद्र मोदी के चेहरे की मैपिंग करवाई थी और
यह साबित करने की थी कि नरेंद्र मोदी देश की पंथनिरपेक्षता के लिए घातक
साबित होंगे।
 हद तो तब हो गई भारतीय भाषाओ के प्रति सरकार द्वारा संजीदगी दिखाए जाने
के प्रकरण को बढ़ती तानाशाही के रूप में पेश किया गया और ऐशा बताया जाने
लगा कि इससे देश की एकता और विकास दोनों खतरे में पड़ जाएंगे।  गौरतलब है
कि उस समय संघ लोक सेवा आयोग में भारतीय भाषाओं के प्रति हो रहे अन्याय
को लेकर देश आंदोलित था।
इसके बाद शुरू हुआ चर्च पर हमले और नन बलात्कार का प्रकरण। यहां से लेकर
अमरीका तक हो-हल्ला मचाया गया कि नई सरकार बनने के बाद से चर्चों पर हमले
बढ़ गए है और पश्चिम बंगाल में एक नन के बलात्कार के बाद तो आसमान ही सिर
पर उठा लिया गया। बिना सबूत, बिना अदालत सरकार और संघ परिवार को पानी
पी-पीकर कोसा जाने लगा। बाद में पता चला कि जिसे चर्चों पर हिंदू
कट्टरपंथियों के हमले के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया
गया, वह चोरी की मामूली घटनाएं थी और नन के बलात्कार का आरोपी एक
बांग्लादेशी मुस्लिम निकला। लेकिन कई लोग इस प्रकरण को लेकर अमरीका से
सहायता तक मांगने पहुंच गए थे और दुनिया भर में यह ढिंढोरा पीटा की नई
सरकार भारत में गैर हिंदुओं के साथ अन्याय ढा रही है।
प्रमाणपत्र देने की इसी कड़ी और आगे बढ़ाया अमत्र्य सेन ने। नालंदा
विश्वविद्यालय में सरकार उनको दूसरा अवसर देने के पक्ष में नहीं थी। इससे
दु:खी होकर उन्होंने यह राग अलापा भारत की नई सरकार विद्वानों का सम्मान
नहीं कर रही है और बहुत ही औसत दर्जे के लोगों को आगे बढ़ा रही है। वैसे
दूसरों को बौद्धिक दृष्टि से हेय समझना वामपंथी विचारधारा की नैसर्गिक
प्रवृत्ति है। खुद कुछ करें या न करें,दूसरों को बौद्धिक दृष्टि से खोखला
जरूर बताते रहते हैं। अमत्र्य सेन अपनी इस व्यथा को प्रकट करने में भी
पंथनिरपेक्षता का फुटनोट की तरह उपयोग करते रहते थे ताकि उनकी निष्ठा और
बौद्धिकता पर संदेह न किया जा सके।
इस नवीन और पाखंडी पंथनिरपेक्षता के अभियान का सबसे ताजा संस्करण
साहित्यकारों द्वारा बढ़ती असहिष्णुता के नाम पर साहित्य अकादमी पुरस्कार
का लौटाया जाना है।
इसकी शुरुआत लेखक और कवि उदय प्रकाश द्वारा कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की
हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने से होती है। उदय
प्रकाश का कहना था कि भारत में अभिव्यक्ति का स्पेस संकुचित हो रहा है।
इस संकुचन के विरोध स्वरूप उन्होंने अपना पुरस्कार वापस कर दिया। गौरतलब
है कि पिछले कुछ सालों से उदयप्रकाश को प्रगतिशील साहित्यिक बिरादरी ने
अपनी जमात से बहिष्कृत कर रखा था। उन पर यह आरोप था कि उन्होंने योगी
आदित्यनाथ से सम्मान ग्रहण कर प्रगतिशीलता के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाई
है। भगवाधरी व्यक्ति से पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कोई प्रगतिशील कैसे
रह सकता है? संभवत: उदयप्रकाश अपनी प्रगतिशीलता के दामन पर लगे दोगों को
दूर करने तथा सुरक्षित 'घर वापसीÓ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को
औजार बना रहे थे और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। इस कदम के कारण उनको
'शहादती दर्जाÓ प्राप्त हो गया।
नयनतारा सहगल के साहित्यिक अवदान के बारे में लोगों को कम ही पता था।
इसीलिए उन्होंने जब पुरस्कार लौटाने की घोषणा की तो उनके पक्ष की लॉबी ने
भी उनका परिचय एक साहित्यकार से अधिक जवाहरलाल नेहरू की भांजी के रूप में
कराया। मानो जवाहरलाल नेहरू के सगे-संबंधियों द्वारा यदि पंथनिरपेक्षता
के बारे में कुछ कह दिया जाए तो वह अंतिम प्रमाण हो, उसके बाद कुछ कहने
सुनने के लिए बचता ही नहींै। वह अखलोक की हत्या से दु:खी थी, लेकिन इसके
लिए उन्होंने राज्य सरकार के बजाय मोदी सरकार को निशाने पर लिया। हो सकता
है वह भावना में बह गई होंं और इस कारण तथ्य को भूल गई हों कि कानून
व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। यहां यह याद दिलाना
प्रासंगिक होगा कि नयनतारा सहगल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार 1984 मे
दिल्ली में मचे कत्लेआम के आस-पास ही स्वीकार किया था।
अशोक वाजपेयी साहब की तो छवि ही साहित्यकार से अधिक साहित्यिक प्रबंंधक
की रही है। वह साहित्यकार की मुद्रा में व्यवस्था पर टिप्पणी देते हैं।
साहित्यिक संास्कृतिक संस्थानों में होने वाली नियुक्तियों पर उनकी पैनी
नजर रहती है। उनके स्तंभ को पढऩे पर यह पता चलता है कि समय-समय पर वह
अधिकारी भाव से यह प्रमाणपत्र देते रहते हैं कि अमुक नियुक्ति सही है
अथवा अमुक नियुक्ति गलत। जाहिर है उनके साहित्य पर उनका प्रशासक हावी
रहता है।  उनकी चिंंता भी पंथनिरपेक्षता ही है लेकिन इन्हीं साहब का दिल
भापाल गैस कांड,जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, के खिलाफ नहीं पसीजा था।
इसके बाद तो पुरस्कार लौटाने की भेड़चाल शुरू हो गई।
यहां पर यह बात याद रखनी जरूरी है कि जिस साहित्यिक   बिरादरी से संबंधित
लोग पुरस्कारों को वापस कर रहे हैं, प्रारंभ से उनका विश्वास साहित्य
सर्जना से अधिक प्रमाणपत्र देने में रहा है। वामपंथी विचारधारा साहित्य
सृजन कम किया है और आलोचना अधिक। इस आलोचना में भी विवेचन कम, बुरा -भला
साबित करने की प्रवृत्ति अधिक रहती है। सभी वामपंथी आलोचना को ही अपना
केंद्रीय विषय बनाते हैं और इसे ही अपने साहित्यिक अवदान के रूप में
परिभाषित करते हैं। इस आलोचना ने पिछले चालीस सालों में साहित्यिक
मठाधीशी को जन्म दिया है। कुछ न करके भी, किसी के खिलाफ फतवा जारी करने
की प्रवृति वामपंथी साहित्य मंडली के रग-रग में बस चुकी है। इसके कारण
हिंदी ही सरसता को ठेस तो लगी ही है, उसकी विषयवस्तु भी भारत नहीं, रूस,
फ्रांस, चीन और क्यूबा बन गए हैं। नए और स्वतंत्र चेता साहित्यकारों  के
लिए यहां पर कोई स्पेस नहीं था। अज्ञेय जैसे महान साहित्यकारों को भी
उनके अंतिम पड़ाव पर भारतीय दर्शन की तरफ झुकाव के कारण इस मंडली ने
लानत-मलानत की थी।
 खैर, पहले इन साहित्यिक फतवों का सत्ता प्रतिष्ठान पर असर होता था,
लेकिन अब इनकी कोई पूछ नहीं है। सारी छटपटाहट का कारण भी यही है। इन
साहित्यिक मठाधीशों से पूछे बगैर ही साहित्यिक रीति-नीति तय की जा रही
है।  इसलिए धर्म को राजनीति से दूर रखने की पैरोकारी करने वाली मंडली अब
साहित्य और राजनीति के घालमेल को पंथनिरपेक्षता की कसौटी बता रही है और
इस तरह पंथनिरपेक्षता को और भी अधिक पाखंडी बना रहे हैं। इनका दुर्भाग्य
यह है कि देश अब उनके चेहरों को पहचान चुका है और निर्णय मुखौटों के बजाय
वास्तविक चेहरे के आधार पर ले रहा है।

सहिष्णुता का पाक संस्करण

पिछले दिनों महरूम खुशवंत सिंह की याद में हिमाचल प्रदेश के कसौली में एक
'लिटफेस्टÓ का आयोजन हुआ था। इसमें देेश विदेश के खाने-पीने के शौकीन कई
समृद्ध साहित्यकारों ने भाग लिया। खुशवंत के निधन के बाद यह 'लिटफेस्टÓ
पिछले कुछेक सालों से आयोजित होता रहा है और इसको थोड़ी बहुत मीडया कवरेज
भी मिलती रही है लेकिन इस बार इसकी खास कवरेज हुई। वजह थी पाकिस्तानी
पत्रकार मेहर तरार की एक टिप्पणी।
 मेहर ने साहित्यक समझ बढ़ाने वाली कोई खास बात तो नहीं बोली। हां,
स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की बात को खींचते हुए शहीदी मुद्रा में यह जरूर
कह डाला कि- 'हम लोगों को गोमांस खाने से कोई नहीं रोक सकता।Ó फिर क्या
था मीडिया का एक वर्ग तो बावला हो गया मानो सातो  इल्मों का ज्ञान रखने
वाले किसी हकीम नेे किसी बड़े रोग के लिए  कोई रहस्यमयी नुस्खा सुझा दिया
हो।
 कई समाचार पत्रों ने उनके इस कथन को पहले पन्ने की पहली खबर बनाया।
प्रस्तुत इस तरह से किया गया जैसेे  यह समझाया जा रहा हो कि देखो! गोमांस
खाने के जिस अधिकार के हनन की बात पिछले कुछ दिनों से हो रही है और जिसके
लिए 'पुरस्कार वापसीÓ जैसे त्यागपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं, अब उसकी
पीड़ा पड़ोसी देश के नागरिक भी व्यथित होने लगे हैं। इसीकारण, वहां की एक
नेक दिल महिला ने हमें आकर यह सीख देने की जहमत उठाई है कि भारत में
बढ़ती असहिष्णुता को पाक जैसा 'महानÓ देश भी बर्दाश्त करने के मूड में
नहीं है।
यह 'सहिष्णुताÓ के पैरोकारों को पड़ोस से मिला बहुत बड़ा प्रमाणपत्र था
और शायद इसीलिए  'सहिष्णुÓ मीडिया ने भी इस खबर को पहले पन्ने पर देना
अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझी। आखिर मेहर ने गोमांसभक्षियों के जिस समुदाय
के लिए 'हमÓ शब्द इस्तेमाल किया, उसके अंंतर्गत कुछ गिने-चुने लोगों को
छोड़कर सवा अरब की भारतीय आबादी तो नहीं आती। फिर वह किससे नाता जोड़
रहीं थीं और किसको उपदेश दे रही थीं? और मीडिया का एक वर्ग उनके 'हमÓ से
इतना दिली जुड़ाव कैसे महसूस कर रहा था, यह भी  कम रहस्यपूर्ण नहीं है?
मेहर की तकरीर और उसका कवरेज एक उदाहरण मात्र है। हाल के दिनों मे कुल
'कुलीन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारोंÓ ने 'सहिष्णुताÓ का पाठ पढ़ाने का
अभियान चला रखा है। कुलीन शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि
इनके विश£ेषणों में आजकल एक पीड़ा सबसे अधिक झलकती है और वह यह है कि
'आजकल अज्ञात कुलशीलÓ के लोग प्रतिष्ठान में प्रतिष्ठा पा रहे हैं।
कुलीनों  के  यह अभियान वास्तव में भारतीयता को बचाने के बहाने भारतीयता
की ही लानत-मलानत करने का अभियान है।
इस अभियान के बारे में अधिकांश लोगों का मानना है कि यह सत्ता से दूर
होने की खीझ से उपजा है। यह सही भी लगता है कि क्योंकि खीझ में ही
पाकिस्तान से आए किसी बयान अथवा पाकिस्तान जाकर अपने देश को कोसने का
असाधारण काम हो सकता है।
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर डालें तो अपने यहां  के सहिष्णु
महानुभाव, सरकार और देश को कोसने के लिए विदेशी प्रमाणपत्रों और विदेशी
जमीन का खुलकर सहारा ले रहे हैं। विरोध कितना नकारात्मक और निचले स्तर का
है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस कुनबे के लाग पाक में
जाकर वहां का गुणगान और भारत को सही रास्ते पर आने की नसीहत दे रहे हैं।
अभी पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद साहब पाकिस्तान की यात्रा पर गए
थे। वहां पर खा-पीकर ऐसे टुन्न हुए कि मुंह से अनाप-शनाप निकल गया।
जिन्ना इंस्टीच्यूट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए
उन्होंनें पाकिस्तान को बहुत शांतिपूर्ण देश बताया, पाक सेना की बहुत
तारीफ की और जिस देश में वह रहते हैं उसकी मुखिया को नासमझ और हठी बता
दिया। उनके कहने का भाव तो यही था एक देश के रूप में भारत बहुत जालिम है,
वह पाकिस्तान की शांतिपूर्ण बातों को समझता ही नहीं। पाकिस्तान भारत के
प्रति क्या भाव रखता है, यदि विदेश मंत्री रहने के बाद सलमान खुर्शीद इस
बात को नहीं समझ पाए तो यह तो उनकी योग्यता पर सवाल खड़े करता है।
हालांकि, उन्हें अपनी योग्यता पर बहुत गर्व है। उन्होंने पाकिस्तान में
दिए गए अपने संबोधन में इसका इजहार भी किया और कहा कि हम जैसे लोगों के
हाथ में मंत्रालय होते हैं तो बात ही और होती है, मोदी बेचारे तो अभी
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का ककहरा सीख रहे हैं।
इसके पहले पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री, जिनके नाम में भी हैरतअंगेज
ढंग खुर्शीद जुड़ा हुआ है, भी किताब विमोचन के बहाने भारत आकर सहिष्णुता
के कई उपदेश दे गए थे। इसके कारण हमारे देश की साहिष्णु टोली भी काफी
गद्गद् महसूस कर रही थी, उसे खुर्शीद महमूद कसूरी के बहाने ही सही, सरकार
को कोसने का बहाना मिल गया था।
कसूरी साहब अपने पूरे भारत दौरे में स्वघोषित शांतिदूत बने हुए थे और
हमारी साहिष्णु टोली भी बिना किसी ना-नुकूर के उन्हें शांतिदूत की तरह ही
'ट्रीटÓ कर रहा था। कुछ लोग तो बिना कुछ कहे सुने ही भाव-विह्वल हुए जा
रहे थे और उनकी किताब के विमोचन के लिए हर 'जुल्मोसितमÓ सहने को तैयार हो
गए थे। ऐसे ही लोगों में से एक सुधींद्र कुलकर्णी को किसी और ने नहीं कहा
तो उन्होंने किताब विमोचन का बहाना बनाकर खुद ही स्वयं को  'शांति का
दूतÓ घोषित कर लिया।
उस समय कुलकर्णी के रुख और बातों में कुछ लोगों का उच्च नैतिक
प्रतिबद्धता नजर आई थी। असली माजरा तो कुछ दिनों बाद ही समझ में आया। हुआ
यह कि कसूरी के पुस्तक विमोचन कार्यक्रम की चर्चित मेजबानी करने के कुछ
दिनों बाद ही कुलकर्णी जी को उसी किताब को विमोचन करने के लिए पाकिस्तान
आमंत्रित किया गया। जनरल परवेज मुशर्रफ की उपस्थिति वाले उस कार्यक्रम
में उन्होंने कश्मीर की समस्या और ज्यादतियों के लिए भारत को जिम्मेदार
ठहरा दिया। जिस समय बड़े जोरदार ढंग से कश्मीर समस्या के लिए भारत को कोस
रहे थे, उस समय परवेज मुशर्रफ मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। संभवत: वह कारगिल
में अपनी भूमिका को याद करके प्रफुल्लित हो रहे होंगे।
बाद इससे भी आगे बढ़ी। आजादी के 67 सालों बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
हिंदुओं के महत्त्वपूर्ण त्योहार 'दीपावालीÓ के कार्यक्रम में शरीक हुए।
उन्होंने इच्छा जाहिर की यदि अगली होली पर उनके ऊपर रंग-गुलाल पड़े तो
उन्हें अच्छा लगेगा। यहां पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सब पाकिस्तान
में पहली बार हो रहा था। लेकिन हैरत हुई कि पाकिस्तानी समाचार पत्रों के
साथ-साथ कई भारतीय समाचार पत्रों ने नई भारतीय सरकार को पाकिस्तान के
उदात्त मूल्यों से सीख लेने की सलाह देनेी शुरु कर दी।
पाकिस्तान जैसे परीक्षित और धुर विरोधी की जमीन और तर्कों को जिस सहजता
के साथ स्वीकार किया जा रहा है और भारतीय सरकार तथा समाज को सहिष्णुता की
घुट्टी पिलाई जा रही है, उससे तो यही साबित होता है कि इन लोगों की
प्राथमिकता सूची में 'राष्ट्रहितÓ का स्थान दूर-दूर तक कहीं नहीं है।
सारा चिंतन सत्ता भोगने तक सीमित रहा है और पूरा वितंडा सत्ता में न होने
के कारण खड़ा किया जा रहा है। इस सबसे तो यही लगता है कि घर के मसलों को
सरे बाजार प्रदर्शन करने और परिजनों का गला काटने के लिए दुश्मनों की
सहायता लेने की जयचंदी और मीरजाफरी परंपरा अब भी मरी नहीं है। ऐसे में
बौद्धिक सजगता अपरिहार्य बन जाती है।

मुद्दे,मुहावरे,मोदी और मीडिया

 भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी की पहचान एक ऐसे राजनेता के रूप में की जाती है,जिसने मीडिया के भीषणतम् और दीर्घतम् प्रहार को सहते हुए भी अपने वजूद को न केवल बचाए रखा है,बल्कि मजबूत भी किया है। एक पार्टी के रूप में भाजपा ने भी ऐसे प्रहार को लंबे समय तक सहा। एक लंबा अरसा  गुजर जाने के बाद आज भी मीडिया में बैठे कुछ मठाधीश भाजपा को रामजन्म भूमि आंदोलन और नरेंद्र मोदी को गोधरा हत्याकांड के बाद भड़के दंगों के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करना चाहते हैं। मोदी और मीडिया के  बीचछत्तीस का आंकड़ा होना कोई स्वाभाविक परिघटना नहीं है,इसके पीछे भारतीय राजनीति की विकृतियों का हाथ और चर्च के साम्राज्य का साथ था। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनावों में यकायक एक बड़ा बदलाव देखने को मिला जो  इस बात को साबित किया है कि कुछ व्यक्तियों को सदैव के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है लेकिन सभी व्यक्तियों को कुछ समय तक ही मूर्ख बनाया जा सकता है। 
 हाल ही में,हिमाचल प्रदेश और गुजरात में हुए चुनाव सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया तक सीमित नहीं हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में, इन चुनावों  का महत्व कुछ नए लक्षणों के कारण भी है। इस चुनाव ने राजनीतिक गलियारे को कुछ नए मुद्दे और मुहावरे दिए हैं। मोदी और मीडिया के संबंधों में बदलाव किए हैं। इन चुनावों ने इस बात का भी अहसास कराया है कि सत्ता के लिए मीडिया से अधिक मास के समर्थन जरूरी है। यदि जनता आपको सही मानती है तो मीडिया के हवाई हमले किसी के किले को नहीं तोड़ सकते।
 2012 के  चुनावों के दौरान मोदी और मीडिया के संबंधों में सकारात्मक बदलाव के चिन्ह दिखायी पड़े। इस बदलाव को लोकतंत्र की खूबी माना जा सकता है। कहते हैं कि परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ कदमताल करते हुए आगे बढऩा लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी हैै। लोकतांत्रिक शासनप्रणाली बदलावों के प्रति सजग और संवेदनशील होती है।  परिवर्तन को पहचानने और अभिव्यक्त करने में सक्षम होने के कारण यह एक सेफ्टी वाल्व की तरह भी काम करती है, जिसके जरिए लोगों का गुस्सा और गुबार समय-समय पर बाहर निकलता रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में हिंसा का स्पेस कम होता है और सत्ता का हस्तांतरण भी शांतिपूर्ण ढंग से संभव हो पाता है। यह प्रणाली समय-समय पर समकालिक बदलावों के अनुरूप मुद्दों और मुहावरों को भी गढ़ती है।
इन चुनावों के दौरान पहली बार कांग्रेसी प्रवक्ता बड़े सहज रूप से यह कहते हुए सुने गए कि मीडिया,मोदी की सुप्रचार कर रही है। गुजराती विकास और अस्मिता का जो नारा मोदी उछाल रहे हैं,वह झूठा,खुरदुरा और बदसूरत है लेकिन उनकी मार्केटिंग और मैनेजमेंट के कारण मीडिया स्याह पक्ष को नहीं दिखा रही है। कांग्रेसी प्रवक्ताओं का यह तर्क और भी हैरतंगेज था कि मीडिया जबरदस्ती मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर तुली हुई है,जबकि भाजपा में और भी कई योग्य उम्मीदवार हैं और इस मुद्दे को लेकर भाजपा अंतर्कलह का शिकार है। यह बड़ी विरोधाभासी स्थिति थी क्योंकि  इससे पहले मोदी के संदर्भ में भाजपा के प्रवक्ता यह दलील देते रहे हैं कि  मोदी मीडिया के दुष्प्रचार के शिकार है। मोदी का आकलन मीडिया दुराग्रह और पूर्वाग्रह के साथ करती है। मीडिया इस बार के चुनावों में भी मोदी के लिए स्पष्टी करण दे रहा था और कांग्रेसी नेताओं से स्पष्टीकरण मांग रहा था।
तर्कों का 180 डिग्री घूमकर विपक्षी पाले में चले जाना मोदी और मीडिया के संबंधों में सकारात्मक बदलावों की तरफ संकेत करते हैं। हालांकि मोदी की भीतर अब भी मीडिया को लेकर टीस बाकी है। चुनाव जीतने के बाद अपने पहले संबोधन में उन्होंने अपील कि गुजराती जनता उन लोगों के चैन से सोने के लिए प्रार्थना करे जो दिनरात मेरे खिलाफ दुष्प्रचार चलाते हैं। मोदी और मीडिया के संबंधों में बदलाव केवल राजनीतिक पिच तक सीमित नहीं रही। मुहावरों एवं मुद्दों के लिहाज से भी मीडिया और मोदी के नए अंतर्संबंधों की झांकी देखने को मिली। इस बार के चुनावों में मोदी ने कुछ नए मुहावरे दिए और मीडिया ने जमकर उसका उपयोग किया।   
एक चुनावी जनसभा के बाद जब कुछ पत्रकारों ने पूछा कि आप पिछले 11 सालों से सत्ता में हैं,क्या आपको सत्ता विरोधी लहर अथवा एंटी-इंकम्बेंसी से डर नहीं लगता। मोदी ने इसका बड़ा रोचक उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि एंटी-इंकम्बेंसी अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण का यह हथियार गुजरात में काम नहीं करेगा। गुजरात में इस बार सत्ता के पक्ष में लहर अर्थात प्रो-इंकम्बेंसी है। मोदी के द्वारा दिया गया यह नया मुहावरा जल्द ही राजनीतिक विश£ेषकों की शब्दावली में शामिल हो गया। चुनाव  परिणाम आने के बाद बहुत राजनीतिक पंडित इस बात कि चर्चा करते सुने गए कि कैसे दिल्ली,ओडीशा और असम में प्रो-इंकम्बेंसी काम कर रही है।
मोदी का 3 डी प्रचार अभियान भी इस चुनाव के जरिए भारतीय राजनीति को दी गई एक नई देन है। इस तकनीक को अस्तित्व में आए ता लम्बा अरसा हो गया है लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इसका उपयोग गुजरात चुनावों के समय हुआ।
मोदी के नेतृत्व मेें लड़े गए चुनाव को भारतीय राजनीति का ऐसा पहला चुनाव माना जा सकता है जिस पर विकास के मुद्दे ने अन्य पारंपरिक मुद्दों को काफी पीछे छोड़ दिया था। इस चुनाव में विकास संबंधी आंकड़ेबाजी अपने चरमसीमा पर पहुंच गई थी। टेलीविजन पर होने वाली चुनावी चर्चाओं को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों की चर्चा सुन रहे हैं। कोई यह बताने में जुटा था कि गुजरात में औद्योगिक और कृषि विकास दर क्या है तो कोई गुजरात मे एनीमिक महिलाओं और कुपोषित बच्चों का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहा था। देखने में तो यह साधारण बात लगती है लेकिन यदि हम तमिलनाडु,उत्तर प्रदेश अथवा बिहार के चुनावी मुद्दों पर नजर डालें तो इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है। तमिलनाडु में चर्चा इस बात को लेकर थी कि कौन सी पार्टी कितने मुफ्त उपहार दे रही है। उत्तर प्रदेश  और बिहार के चुनाव में तो हर चर्चा जाति से शुरू होती है और उसी में समाहित हो जाती है। इसी कारण,तमाम क्षमताओं के बावजूद ये राज्य विकास के पैमाने पर यह राज्य अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। गुजरात के चुनाव में पटेल फैक्टर की बात जरूर की जा रही थी,कई लोग इससे भी आगे जाकर कड़वा पटेल और लेउआ पटेल की भी चर्चा कर रहे थे,लेकिन मूल मुद्दा तो गुजरात का विकास ही था। इसीलिए,इस बार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने मोदी को विकास के मोर्चे पर घेरने की कोशिश की। गुजराती विकास को छलावा बताया। इससे पहले गुजरात चुनाव सांप्रदायिक मुद्दे के आस-पास ही घूमता था। 2007 के चुनावों में सोनिया ने विकास के छलावा होने की बात नहीं कही थी,बल्कि मौत का सौदागर होने की टिप्पणी की थी। इससे साबित होता है कि गुजरात चुनाव मोदी द्वारा गढ़े गए विकास -प्रतिमान के चहुंओर ही लड़े गए।
चुनाव जीतने के बाद मोदी ने कहा कि यह गुजरात के विकास मॉडल की जीत है तो वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने कहा कि हिमाचल और गुजरात में लोगों ने भाजपा के विकास मॉडल को नकार दिया है। यह दोनों टिप्पणियां विकास मॉडल पर केंद्रित थी और इस बात की तरफ संकेत कर रही थीं कि भारतीय राजनीति एक नई और ऊंची कक्षा में प्रवेश कर रही है। 
भारतीय राजनीति में मुद्दों और मुहावरों के हिसाब से एक नया परिदृश्य उभर रहा है। मोदी और मीडिया के संबंध सुधर रहे हैं। राजनीतिक पटल पर इस 4 एम के नए रूप में आगमन के बाद राजनीति की कक्षा में आवेदन के लिए अर्हताओं का बदलना तय है। राजनीति की इस नई और ऊंची कक्षा में परंपरागत राजनीति के खिलाड़ी अपना वजूद किस हद तक और कैसे बचाए रख पाएंगे,यह देखना रोचक होगा।

आत्मलांछन का अहोभाव


स्वत्व की असंदिग्ध पहचान और अखंड आत्मविश्वास की स्थिति में आत्मलांछन को मूल्यांकन-प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति माना जाता है। आत्मलांछन अपने अहं को दरकिनार कर वस्तुस्थिति को स्वीकार करने का एक तरीका है, जो प्रायः व्यंग्यात्मक और चुटीला होता है। अपनी मान्यताओं और विश्वासों को हवा में उडाकर, खुद को हंसी का पात्र बनाकर, अपनी कुंठित गांठों को खोलने की यह प्रक्रिया बहुत कष्टप्रद और दुर्लभ होती है। सहज और स्वस्थ रुप मंे आत्मलांछन की प्रक्रिया वहीं प्रकट होती है जहां पर सत्यनिष्ठा और प्रयोगधर्मिता का स्तर बहुत ऊंचा होता है। सत्य के साथ सातत्य बनाए रखने के लिए अपने अहं को समय की खराद पर चढाकर लहूलुहान करने का साहस बहुत कम व्यक्तियों और समाजों में दिखाई देता है। सामान्य चलन तो तुच्छता को भी श्रेष्ठता के लबादे में प्रस्तुत करने का रहा है।
दुर्भाग्यवश, आत्मलांछन सदैव सहज नहीं होता, यह आरोपित भी होता है। यदि व्यक्ति अथवा समाज विशेष के आत्मबल को क्षीण कर रसातल में पहुंचा दिया जाए और आत्मछवि को धूमिल कर दिया जाए तो अपना मूल्यांकन खुद करने की बुद्धि और विश्वास का भी हरण हो जाता है। इस स्थिति में व्यक्ति खुद को कोसने और दूसरी द्वारा की गई नकारात्मक टिप्पणियों को भी स्वीकार करने में रस लेने लगता है। वस्तुतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति का शरीर तो उसका होता है लेकिन उसके अंतःकरण पर किसी और का कब्जा होता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे के उलाहने को, तथ्यपूर्ण विवेचन किए बगैर, स्वीकार करने में उत्साह दिखाए तो समझ लीजिए कि उसके भीतर दासता की प्रवृत्ति गहराई तक अपनी जडें जमा चुकी है।
भारत के बुद्धिजीवी मठाधीशों के एक बडे वर्ग में आरोपित आत्मलांछन का रोग अपनी कुपित अवस्था में दिखाई पडता है। जरा सा किसी विदेशी व्यक्ति ने भारत, भारत के व्यक्तियों और भारत के समाज को कोसा नहीं और यहां पर लाउडस्पीकर लगाकर मुनादी की जाने लगती है कि सुनो! सनुो! सुनो! अमुक व्यक्ति ने हमें भला-बुरा कहा है। आप सभी को सूचित किया जाता है कि अपने आचार -व्यवहार में वक्ता के कथन के अनुसार उचित परिवर्तन करें, अन्यथा उनकी नजरों में हमें गिरने से कोई नहीं रोक पाएगा। और ऐसी दशा में अच्छाई का प्रमाण पत्र हमसे छीन लिया जाएगा।
बोल-बचन यदि पश्चिम से दिशा से आया हो तब तो लोग बिना नित्यक्रिया किए, खाना-पीना छोडकर उस पवित्र कथन के प्रचार कार्य में खुद को झोंक देते है। वैसे भी भारतीय संदर्भ में यह कहा जाता है कि पछुआ हवाएं फसलों का रस चूसकर उन्हें जल्दी ही सूखा देती हैं। शायद पछुआ बातें भी भारत का स्वत्व सोखने के लिए ही चलती हैं। इसीलिए रससिक्त पूरवइया से अपरिचित और पछुआ परिवेश में पढे लिखे बुद्धिजीवी तब तक वहां से चली बातों का निष्ठाभाव से प्रचार करते रहते हैं जब तक कि खुद को गाली देने और आत्मलांछित करने का माहौल न बन जाए। खुद को लांछित करने का जितना सुख भारत में भोगा जाता है, उतना आनंद दुनिया में कहीं और उठाने का उदाहरण नहीं मिलता।
इसी का एक उदाहरण ओबामा द्वारा हाल ही नेशनल प्रेयर बे्रकफास्ट के सालाना उर्स के दौरान भारत संबंधी दिए गया उपदेश हैं, जिसे सुनकर भारत को कोसने की ताक में बैठे रहने वाले बुद्धिजीवियों का एक वर्ग निहाल हो गया। हालांकि उनका यह बयान सभी धर्मों में निहित कुछ बुराइयों की ओर केंद्रित था। लेकिन उसके एक बहुत छोटे से अंश को भारत मंे इस तरह प्रचारित प्रसारित किया गया मानो ओबामा यह कह रहें हो कि एक पार्टी विशेष को भारत में सत्ता में आने और एक व्यक्ति विशेष को भारत का प्रधानमंत्री बनने से भारत की सहिष्णुता की परंपरा तहस -नहस होने की कगार पर पहुंच गई है। जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने अपने भाषण में ईसाइयत और इस्लाम के बारे में बहुत कटु टिप्पणियां की थी और उन टिप्पणियों के कठोरता के सामने भारतीय स्थिति का उल्लेख बहुत हल्का बहुत प्रतीत होता है।
नेशनल प्रेयर फास्ट फरवरी के प्रथम सप्ताह में होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का आयोजन एक ईसाई संगठन द फेलोशिप फाउंडेशन की तरफ से किया जाता है हालांकि इसका औपचारिक औपचारिक कांग्रेस अमरीकी संसद की कांग्रेस है। इसमें 100 देशों के लगभग 3500 प्रतिनिधि भाग लेते हैं। इसका आयोजन व्यापारिक, सामाजिक और राजनीतिक अभिजनों के बीच बेहतर संबंधों के निर्माण के उद्देश्य से किया जाता है। आइजनहावर के बाद से प्रत्येक अमरीकी राष्ट्रपति इस कार्यक्रम में शिरकत करता है।
इस वर्ष कार्यक्रम में सहभागिता करते हुए ओबामा ने अपने भाषण मंे धर्म के अच्छे और बुरे पक्षों का जिक्र किया। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि -हम धर्म के महान मूल्य को विकृत और तोडने मरोडने की घटनाओं को देखते रहे हैं। कभी कभी तो इसका उपयोग एक हथियार के रुप में भी किया जाता है। हमने पाकिस्तान से लेकर पेरिस की गलियों तक हिंसा और आतंक का नंगा नाच देखा है। यह सब उन लोगों द्वारा किया गया जो अपनी आस्था यानी इस्लाम के साथ खडे होने की बात कहते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वह अपने धर्म के साथ धोखा कर रहे हैं।
धार्मिक सहिष्णुता पर आ रही कमी की तरफ संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि सीरिया में सांप्रदायिक संघर्ष, नाइजीरिया में मुसलमानों और ईसाइयों की हत्या, मध्य अफ्रीकी देशों में पांथिक युद्ध और यूरोप मंे सेमेटिज्म के खिलाफ बढती घृणा और अपराध, इस बात की तरफ संकेत करते हैं कि धर्म का एक नकारात्मक पक्ष भी है।
ओबामा के अनुसार मानवता, पंथ की अच्छाई और बुराई के प्रश्न से जूझती रही है। भाषण के इस पडाव पर उन्होंने ईसाइयत को भी आइना दिखाया और उस पर करारा प्रहार भी किया। उन्होंने कहा कि क्रूसेड( ईसाई धर्मयुद्ध ) और इन्क्विजिशन ( ईसाई धार्मिक-न्यायाधिकरण) के दौरान ईसाइयत के नाम पर जुल्मों को इंतहा की गई थी। हमारे अपने देश में दासता को भी ईसाइयत के नाम पर जायज ठहराने की कोशिश की गई।
भाषण के इस पडाव पर उन्होंने भारत का भी जिक्र किया और कहा कि मैं और मिशेल हाल ही में अद्भुत, सुंदर और शानदार विविधता से भरे देश भारत की या़त्रा करके वापस लौटे हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यहा पर रहे सभी मतावलंबियों के एकदूसरे पर हमले बढे हैं। साधारण ढंग से कहे तो अपनी विरासत और विश्वास के कारण इस बढती असहिष्णुता से गांधीजी को आघात लगता।
इस पूरे भाषण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें की गई टिप्पणियां किसी एक देश या पंथ के संदर्भ में नही कही गई हैं। यह पर एक व्यापक और जटिल प्रश्न को संबोधित किया जा रहा था, जिसमें ईसाइयत और इस्लाम पर नाम लेकर कठोर टिप्पणियां की गई। हिंदू धर्म की असहिष्णुता का तो उन्होने उल्लेख भी नहीं किया। हां, भारत में सभी धर्मों में बढ रही असहिष्णुता पर उन्होंने जरुर चिंता जताई।
अमेरिका में तो ओबामा के इन बयानों को ईसाई धर्म के विरुद्ध दिए गए बयान के रुप में देखा गया और रिपब्लिक पार्टी ने तो उनके इस बयान पर आसमां को सिर पर उठा लिया। रिपब्लिकन पार्टी ने ओबामा के इस बयान पर कडी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इस पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों जिसमें बाॅबी ंिजंदल से रुडी गुलियानी तक शामिल हैं, ने ओबामा के भाषण को ईसाई धर्म के विरुद्ध दिए गए बयान के रुप मंे लिया और प्रचारित किया। इनके अनुसार ईसाइयत ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं किया है जिसके लिए उसे माफी मांगनी पडे। यह भी कहने की कोशिश की गई कि ईसाइयत ही एक मात्र सच्चा धर्म है और पूरी दुनिया में धार्मिक हिंसा इस्लाम धर्म के कारण पैदा हो रही है। अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया मेें ओबामा की इसलिए निंदा की गई कि उन्होंने ईसाइयत को भला-बुरा कहा।
लेकिन भारत में एक दूसरी ही हवा चल रही थी। आत्मलांछन के रोग से पीडित लोगों को ईसाइयत और इस्लाम पर की गई टिप्पणियों से क्या मतलब। उन्हें तो भारत को लेकर की गई नकारात्मक टिप्पणी से मतलब था। हद तो तब हो गई जो “पिछले कुछ“ वर्षों को आठ महीने बताया गया, भारत में बढ रही “सभी धर्मों की असहिष्णुता“ को हिंदू धर्म की असहिष्णुता बताया जाने लगा और सबसे हैरतंगेज व्याख्या तो यह कि कट्टरपंथ के कारणों की तुरंत पहचान करते हुए इसके लिए केंद्र में वर्तमान सत्तासीन सरकार और प्रधानमंत्री को उत्तरदायी ठहराया जाने लगा।
ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से भारत की जनता आत्मलांछन को स्वीकार नहीं कर रही है और आत्मलांछन का धंधा कर रहे लोगों से किनारा करने लगी है अथवा उन्हें दरकिनार करने लगी है। इसलिए यह वर्ग पिछले कुछ समय से खुद को काफी उपेक्षित और कुंठित महसूस कर रहा था। सौभाग्य से पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाएं भी नहीं घट रही थी जिसको लेकर इस देश को आत्मलांछित किया जाए।
संभवतः इसीकारण इन बुद्धिजीवियों ने अब अपनी रणनीति में थोडा से बदलाव किया है और अब वह लेंस लेकर उन प्रकरणों और घटनाओं की खोज करने में जुटे रहते है, जिससे भारत को थोडा बहुत भला-बुरा कहा जा सके। भले ही इसके लिए किसी बात को संदर्भ से काटकर रखना पडे अथवा सामान्य से बात को अतिरंजित रुप में पेश करना पडे, उसमें झूठ का तडका भी लग जाए तो कोई बात नहीं लेकिन आरोपित आत्मलांछन की रेसिपी का स्वाद चखने और चखाने का लोभ यह बिरादरी बर्दाश्त नहीं कर सकती।
यह भी एक मजे की बात है कि भारत में धार्मिक सहिष्णुता को सबसे अधिक उपदेश वह लोग दे रहे हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं अथवा जिनकी आस्था भारत को गजवा-ए-हिंद बनाने की है। कश्मीर से पंडितों की सफाई की पैरवी करने वाले गिलानी आजकल भारत की पंथनिरपेक्षता को लेकर काफी चिंतित पाए जाते हैं। पुलिस हट जाए तो आधे घंटे में हिंदुओं का भारत से सफाया करने का दावा करने वाली पार्टी आजकल संसदीय लोकतंत्र को लेकर काफी फिक्रमंद दिखाई पडती है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए एक मराठी में एक कहावत उपयोग में लाई जाती है -रावणा तोंडी रामायण, यानी जब रावण रामायण का पाठ करने लगे तो सतर्क हो जाना चाहिए।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जो लोग बराक ओबामा के भारत आगमन के भी पक्षधर नहीं थे और यह कह कर रैली निकाल रहे थे कि ओबाम के अपवित्र कदमों से भारत की संप्रभुता गायब हो जाएगी, वही लोग ओबामा के बयान के एक सीमित अंश का दिन-रात जाप कर रहे हैं। उनके बयान को इस तरह प्रचारित कर रहे हैं मानो पिछले आठ -नौ महीने में वह जो कह रहे थे और कर रहे थे, उसको आईएसओ सर्टिफिकेट मिल गया हो। भले ही माक्र्स ने सभी धर्मों को अफीम बताया हो, लेकिन भारतीय माक्र्सवादियों ने भारत में उनके इस कथन को पूरी तरह नहीं मााना है, उनके लिए हिंदू धर्म को छोडकर सभी धर्म समानता और शांति को स्थापित करने वाले उपकरण बन गए है। इसलिए, यह जमात हिंदू धर्म को गरियाने के लिए अपनी पूरी प्रतिभा और दक्षता का, जिसमें उनको महारत हासिल होती है, उपयोग करते हैं।
अब यदि कोई वर्ग अपने गुणों से आंखमूंद ले, और दोषों को ढंूढ-ढूंठ कर न केवल स्वीकार करने लगे बल्कि आत्मलांछन में रस भी लेने लगे, तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसकी नकारात्मकता चरम पर पहुंच गई है। अपनी भूमि पर कुछ सकारात्मक सृजित करने की उसकी संभावनाएं समाप्त हो गई है। आरोपित आत्मलांछन के प्रति ऐसा अहोभाव यह बताता है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति अथवा समाज वैचारिक रुप से आत्मघाती हो गया है। ऐसी स्थिति में आगे बढने के लिए आवश्यक हो जाता है इस वर्ग के रुदन को अनसुना करके, किसी सृजनशील प्रक्रिया में सहभागिता की जाए।

भाषायी सेतुबंध ही सच्ची श्रद्धांजलि

श्रीकांत जी ने हिंदुस्थान समाचार के जरिए जिन कुछ स्वप्रों को साकार करना चाहा था, उनमें से एक भारतीय भाषाओं के बीच सेतुबंध का निर्माण करना भी था। हिंदुस्थान समाचार का मुख्य लक्ष्य सूचना-प्रवाह का भारतीयकरण करना रहा है। इस काम को खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण के जरिए तो किया ही जाना था। विविध भारतीय भाषाओं को  समाचार संप्रेषण का हिस्सा बनाना और सभी भाषाओं को  एक 'कॉमन प्लेटफार्मÓ पर लाना भी इसी काम का एक अहम हिस्सा था। सौभाग्य से धीरे-धीरे ही सही हिंदुस्थान समाचार, इन दोनों कार्यों का कर रहा है।
श्रीकांत जी इस बात को लेकर आश्वस्त हो चुके थे कि अपनी समृद्ध विरासत के कारण भारतीय परिप्रेक्ष्य में खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण का काम हिंदुस्थान समाचार कर ही लेगा। आपातकाल के पूर्व इस संस्थान ने बहुत पेशेवर ढंग से इस भूमिका को निभाया था। उस समय इसकी विश्वसनीयता मात्र तथ्यपूर्ण खबरों और तेजतर्रार सेवा के कारण ही नहीं थी, बल्कि यह  जमीनी और राष्ट्रहित को प्रभावित करने वाली खबरों और दृष्टिकोणों को सामने लाने के लिए भी थी, जो प्राय: दृष्टिदोष से पीडि़त होने  कारण अन्य माध्यमों से छूट जाती थी। उस समय हिंदुस्थान समाचार ने संचार की दुनिया में कुछ नए समाचार मूल्यों की स्थापना की थी। राष्ट्रहित को केंद्रीय तत्व बनाना और दूरदराज की खबरों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में रखने जैसे मूल्यों की स्थापना हिंदुस्थान समाचार ने ही की थी।
चूंकि खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण को लेकर हिंदुस्थान समाचार ने कई प्रयोग कर लिए थे, उन प्रयोगों के जरिए एक शब्दावली और शैली गढ़ी जा चुकी थी, नेटवर्किंग के तरीके खोजे जा चुके थेे और देश की खबरों के लिए अच्छे सोर्स कौन हो सकते है, उनकी पहचान एक बार पूर्व में हो चुकी , इसीलिए श्रीकांत जी आश्वस्त थे कि हिंदुस्थान समाचार देर-सबेर भारतीय नजरिए से खबरों के प्रस्तुतिकरण का सशक्त संस्थान बन ही जाएगा।
उनकी चिंता और कार्य का क्षेत्र दूसरा था। वह भारतीय भाषाओं में समाचार संप्रेषण की गति और स्तर को बढ़ाने के लिए अधिक प्रयास कर रहे थे। अपनी पहली पारी में हिंदुस्थान समाचार ने भारतीय भाषाओं को लेकर अधिक प्रयोग नहीं किए थे। इसलिए दूसरी पारी में भी उसके लिए यह एकदम नया विषय था। सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में खबरों का तंत्र खड़ा करना, उन्हें एक प्लेटफार्म पर लाना और उनमें से महत्त्वपूर्ण खबरों का राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विवेचन  करना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था।
चुनौतियां कई स्तरों पर थी। ऐसे मानव संसाधन की खोज, जो स्थानीय खबरों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य मे समझ सके- समझा सके, की पहचान करना पहली चुनौती थी। राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय सूचना प्रवाह की समझ रखने वाले लोग स्थानीय भाषाओं से अनभिज्ञ थे, और भाषा की अच्छी जानकारी रखने वाले लोग, खबरों के ककहरे से अपरिचित थे। इसलिए यह एक बड़ी चुनौती थी। यह काम धैर्य से हो सकता था और श्रीकांत जी अपने अंतिम समय तक इस काम को धैयपूर्वक करते रहे। उनके इन प्रयासों का फल अब धीरे धीरे सामने आने लगा है। एक ही वेब प्लेटफार्म पर चौदह से अधिक भाषाओं की खबरों को स्थान देना एक बड़ी तकनीकी समस्या थी। इस समस्या का समाधान भी उनके रहते खोजा जा चुका था।
चुनौती प्रशासनिक स्तर पर भी कम नहीं थी। भाषायी पत्रकारिता को स्थानीय संसाधनों के जरिए ही खड़ा किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर की केंद्रीकृत व्यवस्था और संसाधनों के निवेश के बल पर भाषायी पत्रकारिता को न तो अपने पैरों पर खड़ा किया जा सकता है और न ही आत्मविश्वास भरा जा सकता है। जबकि दूसरी ओर केंद्रीकृत व्यवस्था के अभाव में सब कुछ बिखरेने का और स्थानीय स्तर पर मनमानी व्यवहार का खतरा रहता है।
श्रीकांत जी ने बड़े सूझ-बूझ से एक ऐसा संतुलित प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया, जो केंद्रीकृत होते हुए स्थानीय स्तर पर कई मसलों में स्वायत्तशासी थी। इस व्यवस्था में स्मारिकाओं के प्रकाशन जैसे कदम स्थानीय स्तर पर लिए जा सकते थे। इसके कारण भाषायी केंद्र पहल करने की भावना के साथ करते थे और उनमें  जुड़ाव की भावना भी बनी रहती थी। श्रीकांत जी ने ऐसी तमान चुनौतियों का समाधान करते हुए भारतीय भाषाओं को एक प्लेटफार्म पर लाया और उन्हें राष्ट्रीय स्तर की सूचना प्रवाह का हिस्सा बनाया।
यहां पर उस लक्ष्य को समझना अहुत जरूरी हो जाता है जिसकों केंद्र में रखकर उन्होंने पत्रकारिता और भारतीय भाषाओं को जोडऩे की कोशिश की थी। वह एक प्लेटफार्म पर सभी भारतीय भाषाओं को इसलिए लाना चाहते थे क्योंकि उनकी दृढ़ मान्यता था कि इससे राष्ट्रीय एकता और समाचारीय परिप्रेक्ष्य दोनों समृद्ध होंगे। अभी ओडिशा, आसोम या बंगाल की कोई घटना तभी हमारे ध्यान में आती है, जब वहां पर बहुत कुछ घट चुका होता है। दूसरी तरफ दिल्ली में होने वाली बारिश पूरे दिन की बड़ी खबर बन जाती है। कारण सिर्फ इतना है कि राष्ट्रीय मीडिया की सुदूर इलाकों तक पहुंच नहीं है। यदि कुछ की पहुंच है भी तो परंपरा और भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण वह स्थानीय घटनाओं के महत्त्व को ठीक ढंग से नहीं समझ पाता। दिल्ली से उस क्षेत्र विशेष में गया पत्रकार अपने अहं और विशिष्ट दृष्टिकोण के साथ काम करता है, इसलिए यदि वह स्थानीय भावनाओं के संवेग को ठीक ढंग से न नाप सके तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। प्राय: होता भी ऐसा है। अभिव्यक्ति की तीव्रता अनुभूति की तीव्रता पर निर्भर करती है। यदि किसी को स्थानीय तत्वों की अनुभूति ही नहीं हो पाती तो वह उसे अभिव्यक्त करने की जहमत क्यों उठाएगा? और यह एक स्थापित तथ्य है कि अनुभूति की तीव्रता भाषा पर निर्भर करती है। यदि मूल भाषा की समझ नहीं है तो अनुवाद के जरिए पैदा होने वाली समझ और संवेदना, दोनों ही दोयम दर्जे की बनकर रह जाती हैं।
दूसरी तरफ उस समाज को रचने वाले लोग, उसमें बसने वाले लोग, राष्ट्रीय स्तर पर अपनी आवाज का न पहुंचता देख, उसको विकृत ढंग से परोसा जाते हुए देख कुंठित होते हैं और उनमें अलगाव की भावना बढ़ती है। इसके ठीक उलट यदि स्थान विशेष की खबरों को, उन्हीं की शब्दावली का सहारा लेते हुए प्रस्तुत किया जाता है लोग मुख्यधारा से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। विविधि भारतीय भाषाओं को एक प्लटफार्म पर लाने का सकारात्मक असर सूचना प्रवाह पर भी पड़ता है। इसके कारण एक ही खबर को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखने की संंभावना बढ़ जाती है और इसके कारण समाचारों को अधिक सूचना और बेहतर परिप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करने की संभावना भी बनती है।
सभी भारतीय भाषाओं को एक प्लेटफार्म पर लाना देश की सेवा करने जैसा था, सत्या की सेवा करने जैसा था और संवाद के नए और वृहद प्लेटफार्म को गढऩे जैसा था। श्रीकांत जी इस बात को बखूबी समझते थे। संभवत: इसी कारण उन्होंने हिंदुस्थाना समाचार का ध्येय वाक्य भी 'सत्य,संवाद,सेवाÓ को बनाया था।
सभी भारतीय भाषाओं को समाचार के एक प्लेटफार्म पर लाने का जो काम श्रीकांत जी ने शुरु किया था, वह अब धरातल पर अपनी उपिस्थति दर्ज कराने लगा है। भारतीय भाषाओं के जरिए समाचारों का समग्र परिप्रेक्ष्य गढऩे और राष्ट्रीय एकता के पुष्ट करने के उनके अभियान में यदि कुछ नए आयाम जोड़े जा सकें तो यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।





भारतीय क्रांति परम्परा की यात्रा

भारत में व्यवस्था परिवर्तन की विशेष वैचारिक-सांस्कृतिक परम्परा रही है। यह ऐसी परम्परा है जिसमें व्यवस्था परिवर्तन का मतलब सत्ता परिवर्तन नहीं होता अपितु शाश्वत कहे जाने वाले जीवन-मूल्यों एवं जीवन-दर्शन को प्रतिष्ठित तथा नवीन परिस्थितियों में परिभाषित करने की कोशिश की जाती है। यह क्रांति परम्परा ‘तंत्र’ के बजाय ‘तत्व’ परिवर्तन पर जोर देती है। इसमें राजनीतिक आर्थिक संरचना को बदलने से अधिक जोर समाज की सामूहिक चेतना को परिवर्तित करने पर होता है। चेतना के स्तर पर होने वाली इस क्रांति का प्रभाव सूक्ष्म और दूरगामी होता है। राज्य के बजाय समाज और संस्कृति इस कांति प्रक्रिया के क्षेत्र होते हैं। इसलिए इसमें हिंसा के लिए ‘ स्पेस’ न के बराबर होता है।
इस परम्परा को ध्यान में रखते हुए भारतीय इतिहास पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि भारत की भूमि क्रांति के लिए सबसे उर्वर रही है और यहां की आबोहवा व्यवस्था परिवर्तन के लिए किए जाने वाले संघर्षों की सबसे अधिक पोषक। भारत में शायद ही कोई ऐसा कोई कालखण्ड रहा हो जिसमें सांस्कृतिक स्तर पर पहल और प्रतिरोध का अभाव रहा हो। भारतीय संस्कृति पर अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ माने जाने वाले ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में रामधारी सिंह दिनकर ने भारत में विद्यमान सांस्कृतिक प्रतिरोध की परम्परा का उल्लेख किया है।
भारत की क्रांति परम्परा से अंजान कुछ पश्चिमी और भारतीय विद्वान भारत को एक जड देश मानते हैं, एक ऐसा जिसके मूलभूत राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक ढांचे में वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पश्चिमी नजरिए से भारत की व्याख्या करने वालों के लिए यह निष्कर्ष स्वाभाविक भी है क्योंकि पश्चिम में क्रांति का मतलब राजनीतिक सत्ता का परिवर्तन होता है और इस परिवर्तन के लिए बडे पैमाने पर होने वाली हिंसा को एक पूर्व शर्त माना जाता है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के लिए व्यापक पैमाने पर हिंसा कभी नहीं हुई। इसलिए उनको लगता है कि भारतीय समाज जड़ता से ग्रसित है।LotusFlower
आद्य शंकराचार्य ने तत्कालीन समय में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सांस्कृतिक एवं दार्शनिक धरातल पर ही प्रयास किए थे। रक्त की एक बूंद गिराए बिना उन्होंने भारत के सनातन सांस्कृतिक प्रवाह में नवजीवन का संचार किया। समाज की सामूहिक चेतना में विभिन्न मतांतरों के कारण पैदा हुए धुंध को उन्होंने अपने तर्कों एवं नवीन व्याख्याओं द्वारा दूर किया। भारतीयों में अपने सांस्कृतिक प्रवाह के प्रति लगाव पैदा कर उन्होंने प्रतिरोध की शक्ति खडी की।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में प्रारम्भ हुआ भक्ति आंदोलन भारत की सांस्कृतिक क्रांति की परम्परा का एक सशक्त उदाहरण है। समाज और संस्कृति पर पड रह राजनीतिक दबावों को सहने की शक्ति इस आंदोलन भारतीयों को प्रदान की। इस आंदोलन के आत्मविस्मृति के दोष को दूर कर स्वाभिमान की भावना पैदा की और भारतीय समाज को विजातीय तत्वों से लडने की प्रेरणा प्रदान की। 1857 की क्रांति की ज्वाला भडकने के कारण भी राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक थे। स्वतंत्रता संघर्ष के लिए गांधी ने जिस साधनों का अपनाया और संघर्ष की रुपरेखा तैयार की उसका शक्ति केन्द्र भी सांस्कृतिक ही था।
विजयदशमी से प्रारंभ होकर 108 दिनों तक चलने वाली विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा भारतीय सांस्कृतिक क्रांति की परम्परा में नवीनतम कडी है। गो को प्रतीक मानकर वर्तमान व्यवस्था और विकास मॉडल पर विमर्श करने तथा भारतीय विकास मॉडल को स्थापित करने का प्रयास है यह यात्रा। व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय जीवन में भारतीयता के संधान का एक प्रयास है।
भारतमाता को ग्रामवासिनी कहा जाता है। अर्थात भारत को पहचान देने वाली विशेषताओं एवं जीवनशक्ति प्रदान करने वाले कारकों का उद्भव गांव आधारित व्यवस्था से होता है। भारतीयता प्रदान करने वाली इस ग्रामीण संरचना का आधार गाय है। गाय ही वह केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों तरफ भारतीयता का ताना -बाना बुना गया है। गाय का गोमय एवं गोमूत्र भूमि का पोषण करते हैं पंचगव्य मनुष्यों का पोषण करता है। रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों और जैविक खेती की बढती मांग ने गायों की महत्ता को एक बार फिर से रेखांकित किया है। भारतीय नस्ल की गायों में अल्प मात्रा में स्वर्णमाक्षिक भस्म पाए जाने और अन्य जानवरों से अधिक सुपाच्य होने की बात पुष्ट हो चुकी है। गाय से प्राप्त होने वाले पंचगव्य औषधीय गुणों से भरपूर है। पंचगव्यों के औषधीय गुणों के कारण ही गो-चिकित्सा एक वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था के रुप में उभर रही है। गोमुत्र में कैंसररोधी तत्वों के पाए जाने की पुष्टि हो चुकी है। आयुर्वेद के अनुसार पंचगव्य का सेवन शरीर में वात, कफ और पित्त को साम्यावस्था में लाकर सभी रोगों का शमन करता है।
पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में भी गाय की महत्वपूर्ण भूमिका है। गोबर गैस प्लांटों का उपयोग खाना बनाने के लिए ईंधन के रुप में किया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी के साथ रासायनिक खादों के विकल्प के रुप में हमे जैविक खाद भी मिलेगी। गोबर से बिजली प्राप्त करके हम स्वावलम्बी उर्जा गृह का निर्माण कर सकते हैं। इससे भारत को अपनी उर्जा जरुरतों को पूरा करने के लिए किसी के सामने रिरियाना नहीं पडेगा। न ही अपनी सम्प्रभुता को गिरवी रखकर अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौता करने की नौबत आएगी। साथ ही भारत की अकूत सम्पदा बाहर जाने से बच जाएगी।
भारत और गाय का सम्बंध आार्थिक, चिकित्सकीय एवं पर्यावरणीय से अधिक सांस्कृतिक है। पक्ष से अधिक भारत जिन मूल्यों, आस्थाओं, दर्शनों का उपासक है गाय का उनसे सम्बंध है। गाय की सांस्कृतिक महत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसमें सभी तैंतीस करोड देवताओं का वास बताया गया है। एक भारतीय जीवन से लेकर मरण तक गोमाता से जुडा होता है। पैदा होने पर गाय के गोबर से ‘लीपकर’ घर में स्वागत किया जाता है और अंत समय उसका परिवार गोदान कर उसे ‘वैतरणी ‘पार कराता है। किसान नयी फसल से प्राप्त अनाज को गाय के गोबर से ‘गोंठकर’ ही तौलना प्रारम्भ करता है। घर में सभी धार्मिक कर्मकाण्डों से पहले भूमि का गोमय से शुध्दीकरण आवश्यक है। और घर में बनने वाला भोजन का पहला हिस्सा गोग्रास के रुप में गोमाता को ही समर्पित किया जाता है। हम कह सकते है कि गाय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुप से भारतीय जनजीवन में रची-बसी है। गोसंवर्ध्दन और गोसंरक्षण करके हम भारत और भारतीयता को नई शक्ति प्रदान कर सकते हैं।
भारतीय धार्मिक साहित्य पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है गाय ने सदैव ही उदात्त मूल्यों के लिए संघर्ष करने के लिए भारतीयों प्रेरित किया है। राक्षसी मूल्यों के नाश का कारण गाय बनती रही है। उदात्त मूल्यों को अपने में धारण करने के कारण ही किसी भी कीमत पर गोवंश की रक्षा करने की बात कही गयी है। राजा दिलीप गो को बचाने के लिए स्वयं को सिंह के सामने अर्पित करते है। भगवान श्री राम तुलसीदास कृत रामचरित मानस में कहते हैं कि विप्र गउ सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार। भगवान श्रीकृष्ण का तो एक नाम ही गोपाल है। गाय के कारण ही नचिकेता उदात्त आदर्शो का सृजन करते है।
गांधी जी ने सौ वर्ष पूर्व भारतीय आत्मा के संधान के लिए एक अनुपम पुस्तक हिंद स्वराज लिखी थी। हिन्द स्वराज में पश्चिमी विकास मॉडल पर गहरे व्यंग्य किए गए। इस किताब के शताब्दी वर्ष में जबकि मीडिया के कंधे पर सवार वैश्वीकरण के कारण विकास की विद्रूपताएं अधिक स्पष्ट होती नजर आ रही है विश्व मंगल गो ग्राम यात्र गांधी सपनों को जमीन पर उतारने के व्यवहारिक मॉडल के साथ प्रारम्भ हुई है। नई व्यवस्था को रचना के लिए आवश्यक पहल, प्रयोग और प्रतीक तथा संभावनाएं इस यात्रा में शामिल है। हिंद स्वराज के शताब्दी वर्ष में प्रारम्भ यह यात्रा गांधी को सच्ची श्रध्दांजलि के साथ भारत के विश्व कल्याणकारी सांस्कृतिक प्रवाह को बनाए रखने और निरंतर क्षीण होती सांस्कृतिक प्रतिरोधक क्षमता को बढाने की सकारात्मक पहल है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

शोध से होगा प्रतिष्ठा का बोध

जब भी हिंदी की स्थिति का आकलन किया जाता है तो दो निर्विवाद तथ्य उभरकर हमारे सामने आते हैं। पहला यह कि हिंदी का विस्तार उसके परंपरागत क्षेत्र से बाहर हो रहा है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ प्रदेशों को छोड़कर, जहां कि त्रिभाषा फार्मूला पूरी तरह से नहीं लागू किया गया है, हिंदी का पठन-पाठन पूरे भारत में हो रहा है। जनमाध्यमों के कारण भी हिंदी का सहज विस्तार हो रहा है, हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है।
दूसरा और हैरतभरा तथ्य यह है कि हिंदी के इस विस्तार के साथ उसकी प्रतिष्ठा घट रही है। इसका उपयोग अपनी पहचान के एक गौरवशाली उपकरण के रूप में करने की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन क्षीण होती जा रही है। सामान्य जरूरतों को पूरा करने वाली बोली के रूप में तो हिंदी का विस्तार हो रहा है लेकिन चिंतन और ज्ञान-विज्ञान की समर्थ भाषा के रूप में इसका स्खलन हो रहा है। हिंदी कायिक रूप से तोला-तोला बढ़ रही है और आत्मिक रूप से माशा-माशा मर भी रही है।
इसलिए हिंदी का आत्मिक सशक्तिकरण समय की जरूरत बन जाता है। सबल बनाने की कई संभावनाएं मौजूद हैं। भाषा-विशेषज्ञ गाहे-बगाहे उनका जिक्र भी करते रहते हैं। लेकिन यदि किसी एक संभावना की पहचान करनी है,जिससे ङ्क्षहंदी को सर्वाधिक आत्मिक संबल मिल सकता है, तो वह है शोध की दुनिया से इसके जुड़ाव की पहल।
शोध शैक्षणिक गतिविधि का शीर्ष बिंदु है। भूतकाल की बिखरी कडिय़ों को जोडऩे , वर्तमान प्रवाह को पकडऩे और भविष्य के उभरते सांचे को समझने की क्षमता शोधवृत्ति से ही पैदा होती है। शोध बिखरे हुए तथ्यों और प्रवृत्तियों को एकदूसरे से जोड़कर पूरी तस्वीर बनाता है और इस तरह एक स्पष्ट समझ बनाने में हमारी सहायता करता है। यह पूरी तस्वीर और स्पष्ट समझ ही राजनीतिक, आर्थिक और संांस्कृतिक सामथ्र्य को सिरजते हैं। जाहिर है शोध जिस भाषा में होते हैं, उसके साथ गांभीर्य, सामथ्र्य और प्रतिष्ठा बोध अपने आप जुड़ जाते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि हिंदी की उपस्थिति शोध की दुनिया में नगण्य जैसी है अथवा बना दी गई है। वाणिज्य, प्रबंधन और विज्ञान से संबंधित शोधों की दुनिया में हिंदी का प्रवेश निषेध है। कला से संबंधित विषयों में हिंदीभाषी क्षेत्र में विश्वविद्यालयों में थोड़ा बहुत शोध कार्य होता है। लेकिन यहां भी स्थिति हारे को हरिनाम जैसी रहती है।
हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का शोध की दुनिया से जुड़ाव परिदृश्य को कैसे बदल सकता है, इस पर एक नजर डालना जरूरी है। भाषा, जो हम जानते हैं उसके अभिव्यक्ति की ही सीमा निर्धारित नहीं करती। भाषा जो हम जान सकते हैं, उसकी परिधि भी निर्धारित करती है। इसी बिंदु पर शोध और भाषा के अंतर्संबंध महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं।
भाषा समस्याओं की पहचान, जो कि किसी भी शोध का प्रस्थान बिंदु है, में अहम भूमिका निभाती है। यही बात शोध में भाषा की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बना देती हें। दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। पिछले दिनों नारायण मूर्ति ने बड़े खेद के साथ कहा कि भारतीय शोध जगत पिछले पचास सालों में कोई भी ऐसा आविष्कार नहीं कर सका है,जो सामान्य जनजीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया हो अथवा जिसने सामान्य आदमी के जनजीवन में बड़ा बदलाव कर दिया हो। इसी तरह की एक रोचक बात सीएसआईआर के पूर्व प्रमुख आर माशेलकर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कही थी। माशेलकर के अनुसार पिछले पचास वर्षों में भारतीयों ने छोटे-बड़े कई उपकरण बनाए हैं। नाभिकीय संयत्र तक भारतीय इंजीनियर बनाने लगे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय विज्ञान जगत मिट्टी के चूल्ले में थोड़ा सा भी सुधार नहीं कर सका है।  चूल्हों की डिजाइन पिछले पांच हजार वर्षों से जैसे की तैसी बनी हुई है। भारत की 70 फीसदी गृिहणियों का आमना-सामान दैनिक रूप से इस चूल्हे से होता है। दिन का एक चौथाई हिस्सा इसी चूल्हे के साथ गुजर जाता है। इसके कारण अधिकांश महिलाओं को श्वसन और तंत्रिका संबंधी गंभीर बीमारियां हो जाती हैं। हैरत की बात यह है कि भारतीय विज्ञान जगत को कभी भी यह नहीं लगा कि शोध का एक छोटा से विषय चूल्हे में सुधार भी हो सकता है और इससे करोड़ो की जिंदगी में बेहतरी आ सकती है। 
प्रबंधन और विज्ञान जगत के इन मूर्धन्य लोगों के ऐसे 'आश्चर्र्योंÓ के कई अन्य कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण तो भाषा ही है। भारत में प्रबंधन, सूचना तकनीक और विज्ञान जगत से संबंधित लगभग शत-प्रतिशत शोध अंग्रेजी में होते हैं। अब अंग्रेजी के राडार पर मोबाइल,टेलीविजन और कार संबंधी छोटी से छोटी जरूरतें तो उभर आती है लेकिन चूल्हे जैसी जमीनी चीज को अंग्रेजी का हवाई राडार नहीं पकड़ पाता। अंग्रेजी जिस आर्थिकी में पलती है, उसमें मिट्टी के चूल्हें के लिए कोई स्थान नहीं होता। बहुत संभावना इस बात की है कि अंग्रेजी के परिवेश में पला बढ़ा व्यक्ति चूल्हे नामक बला के बारे में जानता ही न हो। दूसरी तरफ जिस सामान्य आदमी के जीवन में चूल्हा केंद्रीय तत्त्व है, शोध की दुनिया में उसकी भाषा का प्रवेश वर्जित है। अंग्रेजी के प्रभुत्व के कारण मूलभूत समस्याओं की पहचान ही नहीं हो पाती, समाधान तो बहुत दूर की कोैड़ी है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में शोध न होने के कारण नारायणमूर्ति और माशेलकर के 'आश्चर्यÓ पैदा होते हैं और चूल्हा हजारों साल तक वहीं का वहीं ठिठका रहता है। सबसे मजेदार बात तो यह है कि भारत में कृषि संबंधी अधिकांश शोध भी अंग्रेजी में होते हैं। ऐसे में जीएम फसलों पर शोधों की झड़ी लग जाती है लेकिन किसानों के नाक में दम कर देने वाली पार्थेेनियम घास (लोग इसे प्यार से कांग्रेस घास भी कहते हैं), से छुटकारे के लिए शोध संबंधी प्रयास नहीं होते।
शोध और परिवशे की भाषा के अलगाव के कारण दोतरफा विसंगति पैदा होती है। एक तरफ शोध के अभाव में परिवेश की भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिलती और दूसरी ओर परिवेश के भाषा से जुडाव न होने के कारण शोध मे मौलिकता और जमीनी सच्चाइयां नहीं झलक पातीं। शोध से न जुडऩे के कारण भारतीय भाषाओं की हैसियत प्रभावित होती है। बिना आजमाए ही भारतीय भाषाओं पर अक्षम होने का 'लेबलÓ चस्पां कर दिया जाता है। यह समझाने की कोशिश की जाती है इन देशज भाषाओं में शोध जैसा उच्चस्तरीय चिंतन कैसे हो सकता है?
 शोध से भारतीय भाषाओं का विलगाव, इन्हें अप्रतिष्ठित रखने का व्यवस्थागत षड्यंत्र है।  कला, विज्ञान, वााणज्य और प्रबंधन में न्यूनतम पचीस फीसदी शोध कार्य, भारतीय भाषाओं के लिए आरक्षित करके न केवल शोध की दुनिया को मौलिक एवं धरातल बनाय जा सकता है बल्कि भारतीय भाषाओं के बारे में प्रतिष्ठा बोध भी पैदा किया जा सकता है। यही भाषायी आत्महीनता के महारोग का प्रारंभिक उपचार होगा।

स्वप्नों को स्वतंत्र करने का समय



जीवन चाहे व्यक्ति को हो या राष्ट्र का, कुछ स्वप्नों के सहारे आगे बढता
है। यहां स्वप्न का मतलब यथार्थ से कटकर कल्पनालोक में विचरण करना नहीं
है बल्कि कल्पना को यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर उतारना है। कोई एक
महास्वप्न जीवन में निहित सभी संभावनाओं को झंकृत कर देता है। कुछ नया
और अनूठा करने के लिए प्रेरित करता है। वर्तमान की कठोर दीवारों को
वेधने वाली दृृष्टि पैदा करता है और मंगलकारी भविष्य को पालने-पोषने
की क्षमता पैदा करता है।
भारत स्वतंत्र है, लेकिन स्वप्नहीन है। आजादी के बाद कुछ स्वप्न लोगों को
दिखाए गए, परंतु ये भारतीय स्वत्व से उपजे हुए प्रतीत नहीं होते। हम
आयातित और उधार लिए हुए स्वप्नों के जरिए अपना भविष्य गढना चाहते हैं
और जब हाथ में कुछ नहीं आता तो आजादी को कोसने, लगते हैं। स्तंत्रता
प्राप्त करने का स्वप्न तो पूरा हो गया लेकिन वह जिन स्वप्नों को प्राप्त
करने के लिए अर्जित की गई थी, वे अब भी दिवास्वप्न बने हुए हैं।
स्वतंत्रता के साथ विभाजन का दुःस्वप्न घटित हुआ था। उस समय अरविंद जैसे
महर्षियों ने अखंड भारत का महास्वप्न देशवासियों के सामने रखा था।
राजनीतिक दृष्टि से आज यह भले ही दूर की कौडी दिखती हो लेकिन
सांस्कृतिक दृष्टि से इसको साकार करने की संभावनाएं आज भी विद्यमान हैं।
डा. लोहिया तो तिब्बत सहित पूरे दक्षिण एशिया को एक जैविक भौगौलिक
इकाई मानते थे, जो कि एक ही सांस्कृतिक गर्भनाल जुडा हुआ है। भारतीय
विशिष्टता में विश्वास करने वाले प्रत्येक मनीषी का यही मानना रहा है कि
इसे पूरे क्षेत्र की शक्ति और समृद्धि इसके एकीकरण में निहित है।
यह दुर्भाग्य ही है कि अखंड भारत का स्वप्न, समग्र भारत का स्वप्न, इस देश
का स्वप्न नहीं बन पाया। इस कारण आज शरीर का एक अंग दूसरे अंग से लड रहा
है। एक ही भूगोल का एक हिस्सा, दूसरे हिस्से को लहुलूहान कर रहा है। इस
पवित्र भूमि का सांस्कृतिक एकता लोगों के स्मृतिपटल से गायब हो चुकी है,
जिससे नई-नई और छोटी-छोटी कई पहचानें उभर आई हैं। हम खुद को
इन्हीं छोटी खांचों में परिभाषित और व्याख्यायित करते हैं और अपने
ही कुल के लोगों को धराशायी कर अपने अहं को संतुष्ट करने में लगे
हैं।
आज की परिस्थितियों मंे महर्षि अरविंद के स्वप्न को संपूर्ण भारत का
स्वप्न बनाना आवश्यक है। यदि यह एक स्वप्न जमीन पर उतरता है तो संभावनाओं
के असंख्य द्वार अपने आप खुल जाएंगे। एक नई पहचान जो आत्म विश्वास से
लबालब होगी, स्वतः ही आकार लेने लगेगी। विश्व गुरु कहें यहां सुपर पावर,
अखंड भारत के आधार के बिना इनका आकार लेना बहुत मुश्किल है। यदि
लोहिया के स्वप्नों का भारतीय परिसंघ बनता है तो इसका क्षेत्रफल चीन के
बराबर होगा और सांस्कृतिक आत्मविश्वास एवरेस्ट की चोटी पर। शायद, तब
हमे अपनी चीजों को विदेर्शी सर्टिफिकेट के बिना स्वीकार कर पाएंगे, जो
कि वर्तमान में हमारे रग-रग में बस चुकी है।
जरूरी नहीं कि अखंड भारत की संकल्पना को राजनीतिक स्वरुप में ही साकार
किया जाए। शुरुआत सांस्कृतिक भी हो सकती है। ऐसा कोई कारण नहीं कि
हम पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज माता शक्तिपीठ, पाक अधिकृत कश्मीर में
स्थित शारदा पीठ और बांग्लादेश में स्थित ढाकेश्वरी माता शक्तिपीठ को
भारतीय के आस्था के भूगोल से नहीं जोड पाएं। कभी यह आस्था केंद्र
वैसे ही जीवंत थे जैसे आज वैष्णो माता का शक्तिपीठ या आद्यशक्ति
विन्ध्याचल का शक्तिपीठ। थोडे से प्रयासों के जरिए इन आस्था केंद्रों
को भारतीय जनजीवन से जोडा जा सकता है।
मानसरोवर की यात्रा को बहाल कर हमने इस दिशा में सफल कदम बढाया भी है।
पाकिस्तान स्थित कटासराज मंदिर के संदर्भों में भी कुछ हद तक सफलता मिली
है। इन आस्था केंद्रों से भारतीय जनमानस को जोडकर उसके सांस्कृतिक
क्षेत्रफल को बढाया जा सकता है। ऐसा करके पूरे क्षे़त्र के प्रति भारतीयों
में एक अपनत्व बोध पैदा किया जा सकता है और यह एकत्व बोध ही अखंड
भारत के भूगोल को अस्तित्व में लाएगा।
भारतीय स्वतंत्रता से जुडा एक दूसरा महास्वप्न भारतीय भाषाओं से जुडा
है। भारतीय भाषाएं अब भी व्यवस्था में प्रतिष्ठित नहीं हो पाई हैं।
भाषाई हीनताबोध के कारण कुछ गिन-चुने लोगों को छोडकर अधिकांश
भारतीयों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी आज भी अंग्रेजी की गुलाम है क्योंकि व्यवस्था
भारतीय भाषाओं को न सुनने-समझने का सायास नाटक करती है। अपनी
भाषा में अधिकार भारतीय मांग नहीं सकता और जिस भाषा में अधिकार
मांगे जाते हैं, उसमें वह सहज नहीं है, इसके कारण वह अधिकार शून्यता की
स्थिति में पहुंच जाता है।
भाषाई परतंत्रता ने आम भारतीय को मूक-बधिर बना दिया है। व्यवस्था जिस
भाषा में बात करना चाहती है, करती है, वह दुरूह है। उस भाषा को आम
आदमी सुनता तो है लेकिन ज्यादा कुछ समझ नहीं पाता, मानो वह बधिर हो।
दूसरी तरफ वह जिस भाषा को बोलता है, समझता है, व्यवस्था उसे न समझने
का नाटक करती है। इसलिए वह बोलना भी बिना बोले जैसा हो जाता है, और
उसका चरित्र मूक अभिनेता जैसा हो जाता है।
पूरे भारत में इस समय अंग्रेजी के नाम पर हीनताबोध पैदा करने का एक
अभियान चला हुआ है। अंग्रेजी के जरिए पल-पल यह बोध कराया जाता है कि
तुम योग्य नहीं है, तुममे व्यवस्था को चलाने की क्षमता नहीं है। इस
अभियान के कारण भारत की सामूहिक चेतना एक गहरे अवसाद में चली गई है
और वह अपने स्वभाव के अनुरुप सहज व्यवहार नहीं कर पा रही है।
भारतीय भाषाओं की पैरोकारी को तुरंत अंग्रेजी विरोधी ठहराने की
रणनीति लंबे समय से काम कर रही है। यह अभी तक सफल भी होती रही है
लेकिन भारतीय स्वत्व को जगाने के लिए इस रणनीति को ध्वस्त करना आवश्यक
है। अंग्रेजी की जितनी उपयोगिता है, उसका उतना उपयोग किया ही जाना
चाहिए। विरोध अंग्रेजी की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति और उससे जुडे मिथ्या
श्रेष्ठता बोध का है। बंदर को मंकी कहकर श्रेष्ठता का रस लेने वाली मानसिकता
हीनताग्रंथि की पराकाष्ठा से ही उपज सकती है। इस हीनता ग्रंथि को बहुत
सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया है और इसका उपचार अपनी भाषाओं
को प्रतिष्ठा में ही है।
अंग्रेजी के साथ आधुनिकता और वैज्ञानिकता का जो पैकेज परोसा जाता है
वह अंदर से बहुत खाली हैै। पूरी दुनिया में हुए शोध तो यही बताते है
कि सर्वश्रेष्ठ मौलिक ज्ञान अपनी भाषा में सृजित होता है। अपनी भाषा में
बच्चे की सीखने की गति सहज और सबसे तेज होती है। लेकिन हम हैं कि बचपन
में ही अंग्रेजी का बस्ता लादकर देश के बचपन को सहज ढंग से चलने नहीं दे
रहें हैं और उसकी प्रतिभा का सहज विकास अवरुद्ध कर रहे हैं। यदि हम
अंग्रेजी भाषा के सम्मोहन से मुक्त हो सकें तो हमें भारतीय भाषाओं
में कई देशज लेकिन शक्तिशाली स्वप्न दिखाई देने शुरु हो जाएंगे।
शायद, तब हम अपने सपनों का भारत गढ सकेंगे। सनातन अपेक्षाओं को पूरा
करने वाला भारत।
आइए! इस स्वतंत्रता दिवस को एक समग्र भारत के स्वप्न को फिर से अपनी
आंखों में तैराएं। इसको साकार करने में अपनी भूमिका की पहचान करें
और इसे अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें। भारतीय भाषा के पैरों में
पडी बेडियों को तोडने की कोशिश करें। उन्हें व्यवस्था में प्रतिष्ठित
करने की कोशिश करें। भूमि और भाषा से जुडे स्वप्नों की स्वतंत्रता
में ही भारत का  सुदंर भविष्य निहित है।