रविवार, 6 दिसंबर 2015

सहिष्णुता का पाक संस्करण

पिछले दिनों महरूम खुशवंत सिंह की याद में हिमाचल प्रदेश के कसौली में एक
'लिटफेस्टÓ का आयोजन हुआ था। इसमें देेश विदेश के खाने-पीने के शौकीन कई
समृद्ध साहित्यकारों ने भाग लिया। खुशवंत के निधन के बाद यह 'लिटफेस्टÓ
पिछले कुछेक सालों से आयोजित होता रहा है और इसको थोड़ी बहुत मीडया कवरेज
भी मिलती रही है लेकिन इस बार इसकी खास कवरेज हुई। वजह थी पाकिस्तानी
पत्रकार मेहर तरार की एक टिप्पणी।
 मेहर ने साहित्यक समझ बढ़ाने वाली कोई खास बात तो नहीं बोली। हां,
स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की बात को खींचते हुए शहीदी मुद्रा में यह जरूर
कह डाला कि- 'हम लोगों को गोमांस खाने से कोई नहीं रोक सकता।Ó फिर क्या
था मीडिया का एक वर्ग तो बावला हो गया मानो सातो  इल्मों का ज्ञान रखने
वाले किसी हकीम नेे किसी बड़े रोग के लिए  कोई रहस्यमयी नुस्खा सुझा दिया
हो।
 कई समाचार पत्रों ने उनके इस कथन को पहले पन्ने की पहली खबर बनाया।
प्रस्तुत इस तरह से किया गया जैसेे  यह समझाया जा रहा हो कि देखो! गोमांस
खाने के जिस अधिकार के हनन की बात पिछले कुछ दिनों से हो रही है और जिसके
लिए 'पुरस्कार वापसीÓ जैसे त्यागपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं, अब उसकी
पीड़ा पड़ोसी देश के नागरिक भी व्यथित होने लगे हैं। इसीकारण, वहां की एक
नेक दिल महिला ने हमें आकर यह सीख देने की जहमत उठाई है कि भारत में
बढ़ती असहिष्णुता को पाक जैसा 'महानÓ देश भी बर्दाश्त करने के मूड में
नहीं है।
यह 'सहिष्णुताÓ के पैरोकारों को पड़ोस से मिला बहुत बड़ा प्रमाणपत्र था
और शायद इसीलिए  'सहिष्णुÓ मीडिया ने भी इस खबर को पहले पन्ने पर देना
अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझी। आखिर मेहर ने गोमांसभक्षियों के जिस समुदाय
के लिए 'हमÓ शब्द इस्तेमाल किया, उसके अंंतर्गत कुछ गिने-चुने लोगों को
छोड़कर सवा अरब की भारतीय आबादी तो नहीं आती। फिर वह किससे नाता जोड़
रहीं थीं और किसको उपदेश दे रही थीं? और मीडिया का एक वर्ग उनके 'हमÓ से
इतना दिली जुड़ाव कैसे महसूस कर रहा था, यह भी  कम रहस्यपूर्ण नहीं है?
मेहर की तकरीर और उसका कवरेज एक उदाहरण मात्र है। हाल के दिनों मे कुल
'कुलीन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारोंÓ ने 'सहिष्णुताÓ का पाठ पढ़ाने का
अभियान चला रखा है। कुलीन शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि
इनके विश£ेषणों में आजकल एक पीड़ा सबसे अधिक झलकती है और वह यह है कि
'आजकल अज्ञात कुलशीलÓ के लोग प्रतिष्ठान में प्रतिष्ठा पा रहे हैं।
कुलीनों  के  यह अभियान वास्तव में भारतीयता को बचाने के बहाने भारतीयता
की ही लानत-मलानत करने का अभियान है।
इस अभियान के बारे में अधिकांश लोगों का मानना है कि यह सत्ता से दूर
होने की खीझ से उपजा है। यह सही भी लगता है कि क्योंकि खीझ में ही
पाकिस्तान से आए किसी बयान अथवा पाकिस्तान जाकर अपने देश को कोसने का
असाधारण काम हो सकता है।
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर डालें तो अपने यहां  के सहिष्णु
महानुभाव, सरकार और देश को कोसने के लिए विदेशी प्रमाणपत्रों और विदेशी
जमीन का खुलकर सहारा ले रहे हैं। विरोध कितना नकारात्मक और निचले स्तर का
है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस कुनबे के लाग पाक में
जाकर वहां का गुणगान और भारत को सही रास्ते पर आने की नसीहत दे रहे हैं।
अभी पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद साहब पाकिस्तान की यात्रा पर गए
थे। वहां पर खा-पीकर ऐसे टुन्न हुए कि मुंह से अनाप-शनाप निकल गया।
जिन्ना इंस्टीच्यूट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए
उन्होंनें पाकिस्तान को बहुत शांतिपूर्ण देश बताया, पाक सेना की बहुत
तारीफ की और जिस देश में वह रहते हैं उसकी मुखिया को नासमझ और हठी बता
दिया। उनके कहने का भाव तो यही था एक देश के रूप में भारत बहुत जालिम है,
वह पाकिस्तान की शांतिपूर्ण बातों को समझता ही नहीं। पाकिस्तान भारत के
प्रति क्या भाव रखता है, यदि विदेश मंत्री रहने के बाद सलमान खुर्शीद इस
बात को नहीं समझ पाए तो यह तो उनकी योग्यता पर सवाल खड़े करता है।
हालांकि, उन्हें अपनी योग्यता पर बहुत गर्व है। उन्होंने पाकिस्तान में
दिए गए अपने संबोधन में इसका इजहार भी किया और कहा कि हम जैसे लोगों के
हाथ में मंत्रालय होते हैं तो बात ही और होती है, मोदी बेचारे तो अभी
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का ककहरा सीख रहे हैं।
इसके पहले पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री, जिनके नाम में भी हैरतअंगेज
ढंग खुर्शीद जुड़ा हुआ है, भी किताब विमोचन के बहाने भारत आकर सहिष्णुता
के कई उपदेश दे गए थे। इसके कारण हमारे देश की साहिष्णु टोली भी काफी
गद्गद् महसूस कर रही थी, उसे खुर्शीद महमूद कसूरी के बहाने ही सही, सरकार
को कोसने का बहाना मिल गया था।
कसूरी साहब अपने पूरे भारत दौरे में स्वघोषित शांतिदूत बने हुए थे और
हमारी साहिष्णु टोली भी बिना किसी ना-नुकूर के उन्हें शांतिदूत की तरह ही
'ट्रीटÓ कर रहा था। कुछ लोग तो बिना कुछ कहे सुने ही भाव-विह्वल हुए जा
रहे थे और उनकी किताब के विमोचन के लिए हर 'जुल्मोसितमÓ सहने को तैयार हो
गए थे। ऐसे ही लोगों में से एक सुधींद्र कुलकर्णी को किसी और ने नहीं कहा
तो उन्होंने किताब विमोचन का बहाना बनाकर खुद ही स्वयं को  'शांति का
दूतÓ घोषित कर लिया।
उस समय कुलकर्णी के रुख और बातों में कुछ लोगों का उच्च नैतिक
प्रतिबद्धता नजर आई थी। असली माजरा तो कुछ दिनों बाद ही समझ में आया। हुआ
यह कि कसूरी के पुस्तक विमोचन कार्यक्रम की चर्चित मेजबानी करने के कुछ
दिनों बाद ही कुलकर्णी जी को उसी किताब को विमोचन करने के लिए पाकिस्तान
आमंत्रित किया गया। जनरल परवेज मुशर्रफ की उपस्थिति वाले उस कार्यक्रम
में उन्होंने कश्मीर की समस्या और ज्यादतियों के लिए भारत को जिम्मेदार
ठहरा दिया। जिस समय बड़े जोरदार ढंग से कश्मीर समस्या के लिए भारत को कोस
रहे थे, उस समय परवेज मुशर्रफ मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। संभवत: वह कारगिल
में अपनी भूमिका को याद करके प्रफुल्लित हो रहे होंगे।
बाद इससे भी आगे बढ़ी। आजादी के 67 सालों बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
हिंदुओं के महत्त्वपूर्ण त्योहार 'दीपावालीÓ के कार्यक्रम में शरीक हुए।
उन्होंने इच्छा जाहिर की यदि अगली होली पर उनके ऊपर रंग-गुलाल पड़े तो
उन्हें अच्छा लगेगा। यहां पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह सब पाकिस्तान
में पहली बार हो रहा था। लेकिन हैरत हुई कि पाकिस्तानी समाचार पत्रों के
साथ-साथ कई भारतीय समाचार पत्रों ने नई भारतीय सरकार को पाकिस्तान के
उदात्त मूल्यों से सीख लेने की सलाह देनेी शुरु कर दी।
पाकिस्तान जैसे परीक्षित और धुर विरोधी की जमीन और तर्कों को जिस सहजता
के साथ स्वीकार किया जा रहा है और भारतीय सरकार तथा समाज को सहिष्णुता की
घुट्टी पिलाई जा रही है, उससे तो यही साबित होता है कि इन लोगों की
प्राथमिकता सूची में 'राष्ट्रहितÓ का स्थान दूर-दूर तक कहीं नहीं है।
सारा चिंतन सत्ता भोगने तक सीमित रहा है और पूरा वितंडा सत्ता में न होने
के कारण खड़ा किया जा रहा है। इस सबसे तो यही लगता है कि घर के मसलों को
सरे बाजार प्रदर्शन करने और परिजनों का गला काटने के लिए दुश्मनों की
सहायता लेने की जयचंदी और मीरजाफरी परंपरा अब भी मरी नहीं है। ऐसे में
बौद्धिक सजगता अपरिहार्य बन जाती है।

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