रविवार, 6 दिसंबर 2015

आत्मलांछन का अहोभाव


स्वत्व की असंदिग्ध पहचान और अखंड आत्मविश्वास की स्थिति में आत्मलांछन को मूल्यांकन-प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति माना जाता है। आत्मलांछन अपने अहं को दरकिनार कर वस्तुस्थिति को स्वीकार करने का एक तरीका है, जो प्रायः व्यंग्यात्मक और चुटीला होता है। अपनी मान्यताओं और विश्वासों को हवा में उडाकर, खुद को हंसी का पात्र बनाकर, अपनी कुंठित गांठों को खोलने की यह प्रक्रिया बहुत कष्टप्रद और दुर्लभ होती है। सहज और स्वस्थ रुप मंे आत्मलांछन की प्रक्रिया वहीं प्रकट होती है जहां पर सत्यनिष्ठा और प्रयोगधर्मिता का स्तर बहुत ऊंचा होता है। सत्य के साथ सातत्य बनाए रखने के लिए अपने अहं को समय की खराद पर चढाकर लहूलुहान करने का साहस बहुत कम व्यक्तियों और समाजों में दिखाई देता है। सामान्य चलन तो तुच्छता को भी श्रेष्ठता के लबादे में प्रस्तुत करने का रहा है।
दुर्भाग्यवश, आत्मलांछन सदैव सहज नहीं होता, यह आरोपित भी होता है। यदि व्यक्ति अथवा समाज विशेष के आत्मबल को क्षीण कर रसातल में पहुंचा दिया जाए और आत्मछवि को धूमिल कर दिया जाए तो अपना मूल्यांकन खुद करने की बुद्धि और विश्वास का भी हरण हो जाता है। इस स्थिति में व्यक्ति खुद को कोसने और दूसरी द्वारा की गई नकारात्मक टिप्पणियों को भी स्वीकार करने में रस लेने लगता है। वस्तुतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति का शरीर तो उसका होता है लेकिन उसके अंतःकरण पर किसी और का कब्जा होता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरे के उलाहने को, तथ्यपूर्ण विवेचन किए बगैर, स्वीकार करने में उत्साह दिखाए तो समझ लीजिए कि उसके भीतर दासता की प्रवृत्ति गहराई तक अपनी जडें जमा चुकी है।
भारत के बुद्धिजीवी मठाधीशों के एक बडे वर्ग में आरोपित आत्मलांछन का रोग अपनी कुपित अवस्था में दिखाई पडता है। जरा सा किसी विदेशी व्यक्ति ने भारत, भारत के व्यक्तियों और भारत के समाज को कोसा नहीं और यहां पर लाउडस्पीकर लगाकर मुनादी की जाने लगती है कि सुनो! सनुो! सुनो! अमुक व्यक्ति ने हमें भला-बुरा कहा है। आप सभी को सूचित किया जाता है कि अपने आचार -व्यवहार में वक्ता के कथन के अनुसार उचित परिवर्तन करें, अन्यथा उनकी नजरों में हमें गिरने से कोई नहीं रोक पाएगा। और ऐसी दशा में अच्छाई का प्रमाण पत्र हमसे छीन लिया जाएगा।
बोल-बचन यदि पश्चिम से दिशा से आया हो तब तो लोग बिना नित्यक्रिया किए, खाना-पीना छोडकर उस पवित्र कथन के प्रचार कार्य में खुद को झोंक देते है। वैसे भी भारतीय संदर्भ में यह कहा जाता है कि पछुआ हवाएं फसलों का रस चूसकर उन्हें जल्दी ही सूखा देती हैं। शायद पछुआ बातें भी भारत का स्वत्व सोखने के लिए ही चलती हैं। इसीलिए रससिक्त पूरवइया से अपरिचित और पछुआ परिवेश में पढे लिखे बुद्धिजीवी तब तक वहां से चली बातों का निष्ठाभाव से प्रचार करते रहते हैं जब तक कि खुद को गाली देने और आत्मलांछित करने का माहौल न बन जाए। खुद को लांछित करने का जितना सुख भारत में भोगा जाता है, उतना आनंद दुनिया में कहीं और उठाने का उदाहरण नहीं मिलता।
इसी का एक उदाहरण ओबामा द्वारा हाल ही नेशनल प्रेयर बे्रकफास्ट के सालाना उर्स के दौरान भारत संबंधी दिए गया उपदेश हैं, जिसे सुनकर भारत को कोसने की ताक में बैठे रहने वाले बुद्धिजीवियों का एक वर्ग निहाल हो गया। हालांकि उनका यह बयान सभी धर्मों में निहित कुछ बुराइयों की ओर केंद्रित था। लेकिन उसके एक बहुत छोटे से अंश को भारत मंे इस तरह प्रचारित प्रसारित किया गया मानो ओबामा यह कह रहें हो कि एक पार्टी विशेष को भारत में सत्ता में आने और एक व्यक्ति विशेष को भारत का प्रधानमंत्री बनने से भारत की सहिष्णुता की परंपरा तहस -नहस होने की कगार पर पहुंच गई है। जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने अपने भाषण में ईसाइयत और इस्लाम के बारे में बहुत कटु टिप्पणियां की थी और उन टिप्पणियों के कठोरता के सामने भारतीय स्थिति का उल्लेख बहुत हल्का बहुत प्रतीत होता है।
नेशनल प्रेयर फास्ट फरवरी के प्रथम सप्ताह में होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का आयोजन एक ईसाई संगठन द फेलोशिप फाउंडेशन की तरफ से किया जाता है हालांकि इसका औपचारिक औपचारिक कांग्रेस अमरीकी संसद की कांग्रेस है। इसमें 100 देशों के लगभग 3500 प्रतिनिधि भाग लेते हैं। इसका आयोजन व्यापारिक, सामाजिक और राजनीतिक अभिजनों के बीच बेहतर संबंधों के निर्माण के उद्देश्य से किया जाता है। आइजनहावर के बाद से प्रत्येक अमरीकी राष्ट्रपति इस कार्यक्रम में शिरकत करता है।
इस वर्ष कार्यक्रम में सहभागिता करते हुए ओबामा ने अपने भाषण मंे धर्म के अच्छे और बुरे पक्षों का जिक्र किया। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि -हम धर्म के महान मूल्य को विकृत और तोडने मरोडने की घटनाओं को देखते रहे हैं। कभी कभी तो इसका उपयोग एक हथियार के रुप में भी किया जाता है। हमने पाकिस्तान से लेकर पेरिस की गलियों तक हिंसा और आतंक का नंगा नाच देखा है। यह सब उन लोगों द्वारा किया गया जो अपनी आस्था यानी इस्लाम के साथ खडे होने की बात कहते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वह अपने धर्म के साथ धोखा कर रहे हैं।
धार्मिक सहिष्णुता पर आ रही कमी की तरफ संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि सीरिया में सांप्रदायिक संघर्ष, नाइजीरिया में मुसलमानों और ईसाइयों की हत्या, मध्य अफ्रीकी देशों में पांथिक युद्ध और यूरोप मंे सेमेटिज्म के खिलाफ बढती घृणा और अपराध, इस बात की तरफ संकेत करते हैं कि धर्म का एक नकारात्मक पक्ष भी है।
ओबामा के अनुसार मानवता, पंथ की अच्छाई और बुराई के प्रश्न से जूझती रही है। भाषण के इस पडाव पर उन्होंने ईसाइयत को भी आइना दिखाया और उस पर करारा प्रहार भी किया। उन्होंने कहा कि क्रूसेड( ईसाई धर्मयुद्ध ) और इन्क्विजिशन ( ईसाई धार्मिक-न्यायाधिकरण) के दौरान ईसाइयत के नाम पर जुल्मों को इंतहा की गई थी। हमारे अपने देश में दासता को भी ईसाइयत के नाम पर जायज ठहराने की कोशिश की गई।
भाषण के इस पडाव पर उन्होंने भारत का भी जिक्र किया और कहा कि मैं और मिशेल हाल ही में अद्भुत, सुंदर और शानदार विविधता से भरे देश भारत की या़त्रा करके वापस लौटे हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यहा पर रहे सभी मतावलंबियों के एकदूसरे पर हमले बढे हैं। साधारण ढंग से कहे तो अपनी विरासत और विश्वास के कारण इस बढती असहिष्णुता से गांधीजी को आघात लगता।
इस पूरे भाषण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें की गई टिप्पणियां किसी एक देश या पंथ के संदर्भ में नही कही गई हैं। यह पर एक व्यापक और जटिल प्रश्न को संबोधित किया जा रहा था, जिसमें ईसाइयत और इस्लाम पर नाम लेकर कठोर टिप्पणियां की गई। हिंदू धर्म की असहिष्णुता का तो उन्होने उल्लेख भी नहीं किया। हां, भारत में सभी धर्मों में बढ रही असहिष्णुता पर उन्होंने जरुर चिंता जताई।
अमेरिका में तो ओबामा के इन बयानों को ईसाई धर्म के विरुद्ध दिए गए बयान के रुप में देखा गया और रिपब्लिक पार्टी ने तो उनके इस बयान पर आसमां को सिर पर उठा लिया। रिपब्लिकन पार्टी ने ओबामा के इस बयान पर कडी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इस पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों जिसमें बाॅबी ंिजंदल से रुडी गुलियानी तक शामिल हैं, ने ओबामा के भाषण को ईसाई धर्म के विरुद्ध दिए गए बयान के रुप मंे लिया और प्रचारित किया। इनके अनुसार ईसाइयत ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं किया है जिसके लिए उसे माफी मांगनी पडे। यह भी कहने की कोशिश की गई कि ईसाइयत ही एक मात्र सच्चा धर्म है और पूरी दुनिया में धार्मिक हिंसा इस्लाम धर्म के कारण पैदा हो रही है। अमेरिका ही नहीं पूरी दुनिया मेें ओबामा की इसलिए निंदा की गई कि उन्होंने ईसाइयत को भला-बुरा कहा।
लेकिन भारत में एक दूसरी ही हवा चल रही थी। आत्मलांछन के रोग से पीडित लोगों को ईसाइयत और इस्लाम पर की गई टिप्पणियों से क्या मतलब। उन्हें तो भारत को लेकर की गई नकारात्मक टिप्पणी से मतलब था। हद तो तब हो गई जो “पिछले कुछ“ वर्षों को आठ महीने बताया गया, भारत में बढ रही “सभी धर्मों की असहिष्णुता“ को हिंदू धर्म की असहिष्णुता बताया जाने लगा और सबसे हैरतंगेज व्याख्या तो यह कि कट्टरपंथ के कारणों की तुरंत पहचान करते हुए इसके लिए केंद्र में वर्तमान सत्तासीन सरकार और प्रधानमंत्री को उत्तरदायी ठहराया जाने लगा।
ऐसा लगता है कि पिछले कुछ समय से भारत की जनता आत्मलांछन को स्वीकार नहीं कर रही है और आत्मलांछन का धंधा कर रहे लोगों से किनारा करने लगी है अथवा उन्हें दरकिनार करने लगी है। इसलिए यह वर्ग पिछले कुछ समय से खुद को काफी उपेक्षित और कुंठित महसूस कर रहा था। सौभाग्य से पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाएं भी नहीं घट रही थी जिसको लेकर इस देश को आत्मलांछित किया जाए।
संभवतः इसीकारण इन बुद्धिजीवियों ने अब अपनी रणनीति में थोडा से बदलाव किया है और अब वह लेंस लेकर उन प्रकरणों और घटनाओं की खोज करने में जुटे रहते है, जिससे भारत को थोडा बहुत भला-बुरा कहा जा सके। भले ही इसके लिए किसी बात को संदर्भ से काटकर रखना पडे अथवा सामान्य से बात को अतिरंजित रुप में पेश करना पडे, उसमें झूठ का तडका भी लग जाए तो कोई बात नहीं लेकिन आरोपित आत्मलांछन की रेसिपी का स्वाद चखने और चखाने का लोभ यह बिरादरी बर्दाश्त नहीं कर सकती।
यह भी एक मजे की बात है कि भारत में धार्मिक सहिष्णुता को सबसे अधिक उपदेश वह लोग दे रहे हैं जो धर्म को अफीम मानते हैं अथवा जिनकी आस्था भारत को गजवा-ए-हिंद बनाने की है। कश्मीर से पंडितों की सफाई की पैरवी करने वाले गिलानी आजकल भारत की पंथनिरपेक्षता को लेकर काफी चिंतित पाए जाते हैं। पुलिस हट जाए तो आधे घंटे में हिंदुओं का भारत से सफाया करने का दावा करने वाली पार्टी आजकल संसदीय लोकतंत्र को लेकर काफी फिक्रमंद दिखाई पडती है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए एक मराठी में एक कहावत उपयोग में लाई जाती है -रावणा तोंडी रामायण, यानी जब रावण रामायण का पाठ करने लगे तो सतर्क हो जाना चाहिए।
महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जो लोग बराक ओबामा के भारत आगमन के भी पक्षधर नहीं थे और यह कह कर रैली निकाल रहे थे कि ओबाम के अपवित्र कदमों से भारत की संप्रभुता गायब हो जाएगी, वही लोग ओबामा के बयान के एक सीमित अंश का दिन-रात जाप कर रहे हैं। उनके बयान को इस तरह प्रचारित कर रहे हैं मानो पिछले आठ -नौ महीने में वह जो कह रहे थे और कर रहे थे, उसको आईएसओ सर्टिफिकेट मिल गया हो। भले ही माक्र्स ने सभी धर्मों को अफीम बताया हो, लेकिन भारतीय माक्र्सवादियों ने भारत में उनके इस कथन को पूरी तरह नहीं मााना है, उनके लिए हिंदू धर्म को छोडकर सभी धर्म समानता और शांति को स्थापित करने वाले उपकरण बन गए है। इसलिए, यह जमात हिंदू धर्म को गरियाने के लिए अपनी पूरी प्रतिभा और दक्षता का, जिसमें उनको महारत हासिल होती है, उपयोग करते हैं।
अब यदि कोई वर्ग अपने गुणों से आंखमूंद ले, और दोषों को ढंूढ-ढूंठ कर न केवल स्वीकार करने लगे बल्कि आत्मलांछन में रस भी लेने लगे, तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसकी नकारात्मकता चरम पर पहुंच गई है। अपनी भूमि पर कुछ सकारात्मक सृजित करने की उसकी संभावनाएं समाप्त हो गई है। आरोपित आत्मलांछन के प्रति ऐसा अहोभाव यह बताता है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति अथवा समाज वैचारिक रुप से आत्मघाती हो गया है। ऐसी स्थिति में आगे बढने के लिए आवश्यक हो जाता है इस वर्ग के रुदन को अनसुना करके, किसी सृजनशील प्रक्रिया में सहभागिता की जाए।

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