रविवार, 6 दिसंबर 2015

मुद्दे,मुहावरे,मोदी और मीडिया

 भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी की पहचान एक ऐसे राजनेता के रूप में की जाती है,जिसने मीडिया के भीषणतम् और दीर्घतम् प्रहार को सहते हुए भी अपने वजूद को न केवल बचाए रखा है,बल्कि मजबूत भी किया है। एक पार्टी के रूप में भाजपा ने भी ऐसे प्रहार को लंबे समय तक सहा। एक लंबा अरसा  गुजर जाने के बाद आज भी मीडिया में बैठे कुछ मठाधीश भाजपा को रामजन्म भूमि आंदोलन और नरेंद्र मोदी को गोधरा हत्याकांड के बाद भड़के दंगों के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करना चाहते हैं। मोदी और मीडिया के  बीचछत्तीस का आंकड़ा होना कोई स्वाभाविक परिघटना नहीं है,इसके पीछे भारतीय राजनीति की विकृतियों का हाथ और चर्च के साम्राज्य का साथ था। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनावों में यकायक एक बड़ा बदलाव देखने को मिला जो  इस बात को साबित किया है कि कुछ व्यक्तियों को सदैव के लिए मूर्ख बनाया जा सकता है लेकिन सभी व्यक्तियों को कुछ समय तक ही मूर्ख बनाया जा सकता है। 
 हाल ही में,हिमाचल प्रदेश और गुजरात में हुए चुनाव सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया तक सीमित नहीं हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में, इन चुनावों  का महत्व कुछ नए लक्षणों के कारण भी है। इस चुनाव ने राजनीतिक गलियारे को कुछ नए मुद्दे और मुहावरे दिए हैं। मोदी और मीडिया के संबंधों में बदलाव किए हैं। इन चुनावों ने इस बात का भी अहसास कराया है कि सत्ता के लिए मीडिया से अधिक मास के समर्थन जरूरी है। यदि जनता आपको सही मानती है तो मीडिया के हवाई हमले किसी के किले को नहीं तोड़ सकते।
 2012 के  चुनावों के दौरान मोदी और मीडिया के संबंधों में सकारात्मक बदलाव के चिन्ह दिखायी पड़े। इस बदलाव को लोकतंत्र की खूबी माना जा सकता है। कहते हैं कि परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ कदमताल करते हुए आगे बढऩा लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी हैै। लोकतांत्रिक शासनप्रणाली बदलावों के प्रति सजग और संवेदनशील होती है।  परिवर्तन को पहचानने और अभिव्यक्त करने में सक्षम होने के कारण यह एक सेफ्टी वाल्व की तरह भी काम करती है, जिसके जरिए लोगों का गुस्सा और गुबार समय-समय पर बाहर निकलता रहता है। इसीलिए लोकतंत्र में हिंसा का स्पेस कम होता है और सत्ता का हस्तांतरण भी शांतिपूर्ण ढंग से संभव हो पाता है। यह प्रणाली समय-समय पर समकालिक बदलावों के अनुरूप मुद्दों और मुहावरों को भी गढ़ती है।
इन चुनावों के दौरान पहली बार कांग्रेसी प्रवक्ता बड़े सहज रूप से यह कहते हुए सुने गए कि मीडिया,मोदी की सुप्रचार कर रही है। गुजराती विकास और अस्मिता का जो नारा मोदी उछाल रहे हैं,वह झूठा,खुरदुरा और बदसूरत है लेकिन उनकी मार्केटिंग और मैनेजमेंट के कारण मीडिया स्याह पक्ष को नहीं दिखा रही है। कांग्रेसी प्रवक्ताओं का यह तर्क और भी हैरतंगेज था कि मीडिया जबरदस्ती मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर तुली हुई है,जबकि भाजपा में और भी कई योग्य उम्मीदवार हैं और इस मुद्दे को लेकर भाजपा अंतर्कलह का शिकार है। यह बड़ी विरोधाभासी स्थिति थी क्योंकि  इससे पहले मोदी के संदर्भ में भाजपा के प्रवक्ता यह दलील देते रहे हैं कि  मोदी मीडिया के दुष्प्रचार के शिकार है। मोदी का आकलन मीडिया दुराग्रह और पूर्वाग्रह के साथ करती है। मीडिया इस बार के चुनावों में भी मोदी के लिए स्पष्टी करण दे रहा था और कांग्रेसी नेताओं से स्पष्टीकरण मांग रहा था।
तर्कों का 180 डिग्री घूमकर विपक्षी पाले में चले जाना मोदी और मीडिया के संबंधों में सकारात्मक बदलावों की तरफ संकेत करते हैं। हालांकि मोदी की भीतर अब भी मीडिया को लेकर टीस बाकी है। चुनाव जीतने के बाद अपने पहले संबोधन में उन्होंने अपील कि गुजराती जनता उन लोगों के चैन से सोने के लिए प्रार्थना करे जो दिनरात मेरे खिलाफ दुष्प्रचार चलाते हैं। मोदी और मीडिया के संबंधों में बदलाव केवल राजनीतिक पिच तक सीमित नहीं रही। मुहावरों एवं मुद्दों के लिहाज से भी मीडिया और मोदी के नए अंतर्संबंधों की झांकी देखने को मिली। इस बार के चुनावों में मोदी ने कुछ नए मुहावरे दिए और मीडिया ने जमकर उसका उपयोग किया।   
एक चुनावी जनसभा के बाद जब कुछ पत्रकारों ने पूछा कि आप पिछले 11 सालों से सत्ता में हैं,क्या आपको सत्ता विरोधी लहर अथवा एंटी-इंकम्बेंसी से डर नहीं लगता। मोदी ने इसका बड़ा रोचक उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि एंटी-इंकम्बेंसी अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण का यह हथियार गुजरात में काम नहीं करेगा। गुजरात में इस बार सत्ता के पक्ष में लहर अर्थात प्रो-इंकम्बेंसी है। मोदी के द्वारा दिया गया यह नया मुहावरा जल्द ही राजनीतिक विश£ेषकों की शब्दावली में शामिल हो गया। चुनाव  परिणाम आने के बाद बहुत राजनीतिक पंडित इस बात कि चर्चा करते सुने गए कि कैसे दिल्ली,ओडीशा और असम में प्रो-इंकम्बेंसी काम कर रही है।
मोदी का 3 डी प्रचार अभियान भी इस चुनाव के जरिए भारतीय राजनीति को दी गई एक नई देन है। इस तकनीक को अस्तित्व में आए ता लम्बा अरसा हो गया है लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में पहली बार इसका उपयोग गुजरात चुनावों के समय हुआ।
मोदी के नेतृत्व मेें लड़े गए चुनाव को भारतीय राजनीति का ऐसा पहला चुनाव माना जा सकता है जिस पर विकास के मुद्दे ने अन्य पारंपरिक मुद्दों को काफी पीछे छोड़ दिया था। इस चुनाव में विकास संबंधी आंकड़ेबाजी अपने चरमसीमा पर पहुंच गई थी। टेलीविजन पर होने वाली चुनावी चर्चाओं को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों की चर्चा सुन रहे हैं। कोई यह बताने में जुटा था कि गुजरात में औद्योगिक और कृषि विकास दर क्या है तो कोई गुजरात मे एनीमिक महिलाओं और कुपोषित बच्चों का आंकड़ा प्रस्तुत कर रहा था। देखने में तो यह साधारण बात लगती है लेकिन यदि हम तमिलनाडु,उत्तर प्रदेश अथवा बिहार के चुनावी मुद्दों पर नजर डालें तो इसका महत्व स्पष्ट हो जाता है। तमिलनाडु में चर्चा इस बात को लेकर थी कि कौन सी पार्टी कितने मुफ्त उपहार दे रही है। उत्तर प्रदेश  और बिहार के चुनाव में तो हर चर्चा जाति से शुरू होती है और उसी में समाहित हो जाती है। इसी कारण,तमाम क्षमताओं के बावजूद ये राज्य विकास के पैमाने पर यह राज्य अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। गुजरात के चुनाव में पटेल फैक्टर की बात जरूर की जा रही थी,कई लोग इससे भी आगे जाकर कड़वा पटेल और लेउआ पटेल की भी चर्चा कर रहे थे,लेकिन मूल मुद्दा तो गुजरात का विकास ही था। इसीलिए,इस बार कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने मोदी को विकास के मोर्चे पर घेरने की कोशिश की। गुजराती विकास को छलावा बताया। इससे पहले गुजरात चुनाव सांप्रदायिक मुद्दे के आस-पास ही घूमता था। 2007 के चुनावों में सोनिया ने विकास के छलावा होने की बात नहीं कही थी,बल्कि मौत का सौदागर होने की टिप्पणी की थी। इससे साबित होता है कि गुजरात चुनाव मोदी द्वारा गढ़े गए विकास -प्रतिमान के चहुंओर ही लड़े गए।
चुनाव जीतने के बाद मोदी ने कहा कि यह गुजरात के विकास मॉडल की जीत है तो वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने कहा कि हिमाचल और गुजरात में लोगों ने भाजपा के विकास मॉडल को नकार दिया है। यह दोनों टिप्पणियां विकास मॉडल पर केंद्रित थी और इस बात की तरफ संकेत कर रही थीं कि भारतीय राजनीति एक नई और ऊंची कक्षा में प्रवेश कर रही है। 
भारतीय राजनीति में मुद्दों और मुहावरों के हिसाब से एक नया परिदृश्य उभर रहा है। मोदी और मीडिया के संबंध सुधर रहे हैं। राजनीतिक पटल पर इस 4 एम के नए रूप में आगमन के बाद राजनीति की कक्षा में आवेदन के लिए अर्हताओं का बदलना तय है। राजनीति की इस नई और ऊंची कक्षा में परंपरागत राजनीति के खिलाड़ी अपना वजूद किस हद तक और कैसे बचाए रख पाएंगे,यह देखना रोचक होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें