शुक्रवार, 22 मई 2020

नए देश-काल का मंदिर


देश-काल का बोध किसी भी संस्कृति का प्राणतत्व होता है। इसीलिए यदि किसी संस्कृति को बदलना हो या फिर से स्थापित करना हो तो सबसे चुनौतीपूर्ण लेकिन उतना ही आवश्यक कार्य समय और स्थान की समझ में बदलाव लाना होता है। गतिविधियां और प्राथमिकताएं, चिंतन और चरित्र देश-काल बोध से ही नियंत्रित होते हैं। संभवतः इसीकारण इस बोध में होने वाला बदलाव का असर सांस्कृतिक कलेवर पर सबसे अधिक पड़ता है। किस समय क्या करना है और किस स्थान पर क्या करना है, मंदिर में क्या करना है, मंडप में क्या करना है, सुबह क्या करना है और शाम को क्या करना है, इसका निर्धारण समय और स्थान के बारे में हमारी समझ पर ही निर्भर करता है। हम किस परम्परा के उत्तराधिकारी हैं, वह कितनी प्राचीन है, उसे आगे बढ़ाया जाना क्यों जरूरी है, जैसे प्रश्नों का उत्तर हम देश-काल की अपनी परिधि के अनुसार करते हैं। भारत क्यों एक विशिष्ट देश है और इसे क्यों सनातन माना जाता है, जैसे राष्ट्रीय प्रश्न का सम्बंध भी देश-काल बोध से ही जुड़ा हुआ है।

श्रीरामभूमि का प्रश्न आस्था के साथ ही देश-काल बोध के लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इस मुद्दे के जरिए देश-काल की दो परस्पर विरोधी मानसिकताएं संघर्षरत थीं। एक के अनुसार भारत की कोई मौलिक पहचान नहीं रही है। इस देश की अपनी कोई विशिष्टता नहीं रही है। इसकी खूबियों और खामियों को तो बाहरी आक्रांताआंे ने गढ़ा है। इसी मानसिकता और देश-काल बोध को अभिव्यक्त करते हुए फिराक गोरखपुरी ने कभी कहा था कि-

सर-जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम -ए-आलम के फिराक

काफिले बसते गए, हिन्दोस्तां बसता गया।

बाद में कुछ अन्य लोगों ने मानसिकता को गंगा-जमुनी तहजीब के रूप में परिभाषित कर दिया। यह मानसिकताएक राष्ट्र के रूप में भारत के अस्तित्व को हालिया घटनाक्रम मानती है और कुछ के अनुसार तो राष्ट्र बनने की प्रक्रिया अभी चल ही रही है। दूसरी मानसिकता के अनुसार भारत की प्रारंभ से ही एक मौलिक पहचान और संस्कृति रही है। सांस्कृतिक आधार पर भारत हमेशा से ही एक राष्ट्र रहा है। इस मानसिकता का देश-काल बोध पुण्यभूमि की संकल्पना और चतुर्युगी कालगणना से निकला है। यह मानसिकता भारत की मूल और मौलिक संस्कृति को हिंदुत्व के नाम से परिभाषित करती है। और इसके अस्तित्व को सनातन मानती है।

श्रीरामजन्म भूमि के प्रश्न पर ये अलग-अलग देश-काल बोध से निकली ये दोनों विचारधाराएं पूरी तीव्रता के साथ आमन-सामने थीं। भारतीय कालबोध भगवान श्रीराम के अस्तित्व को लाखों वर्ष पूर्व का मानता है। और अयोध्या में उनके जन्मस्थान की एक असंदिग्ध पहचान भी उसकी स्मृति में रही है। दूसरी विचारधारा का इतिहास बोध मुश्किल से ही 4 हजार ईसापूर्व तक जाता है। इस छोटे ऐतिहासिक पैमान मर्यादा पुरुषोत्तम का अस्तित्व साबित करने की अपनी कठिनाइयां हैं। इसका एक आसान लेकिन षड्यंत्र भरा समाधान भगवान राम को मिथकीय चरित्र घोषित करके निकाला गया। रामसेतु प्रकरण के समय तो तत्कालीन सरकार ने भी श्रीराम को एक काल्पनिक व्यक्ति स्वीकार कर लिया था। यह काल बोध का अंतद्र्वन्द्व था। इसी तरह जन्मस्थान के बारे में अपनी सतही समझ के कारण ही इसी विचारधारा के कुछ लोग वहां पर स्कूल या विश्वविद्यालय बनाने जैसी सलाह देते है। इसे देश बोध का अंतद्र्वन्द्व माना जाना चाहिए।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने मंदिर निर्माण के पक्ष में निर्णय देकर और मंदिर निर्माण का दायित्व रामलला विराजमान को सौंपकर देश-काल के भारतीय बोध को आधुनिक संदर्भों में औपचारिक स्वीकृति प्रदान की है। यह निर्णय मंदिर निर्माण के लिहाज से महत्वपूर्ण है ही, इसे भारतीय देश-काल बोध को पुनः स्थापित करने वाले निर्णय के रूप में भी स्वीकार किया जाना चाहिए। और इसकारण मंदिर निर्माण के साथ-साथ इस देश में भारतीय देश-काल बोध की स्थापना भी निश्चित हो गई है।

इस स्थापना का सर्वाधिक असर अकादमिक-बौद्धिक जगत पर पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के कारण प्रचलित इतिहास और भूगोल की सीमाओं का ढहना तय है। मसलन रामायण-महाभारत को महाकाव्य और श्रीराम-श्रीकृष्ण को मिथक मानने के मिथक टूटेगा। एक सांस्कृतिक षड्यंत्र के तहत रामायण-महाभारत को महाकाव्य साबित करने की व्यग्रता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। इसी कारण अब इनको ’ एपिक पोयम’ लिखा जाने लगा है, पहले ’एपिक’ भर लिखकर ही संतोष कर लिया जाता है। इसी तरह अंग्रेजी में राम-कृष्ण और शिव को मिथकीय पात्र मानकर लिखे जाने उपन्यासों की बाढ़ जैसी आ गई है। हैरत की बात यह है कि ऐसे लेखकों को मीडिया भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार कर रहा है। इस निर्णय के कारण सबसे अधिक फजीहत इतिहासकारों के उस गिरोह की होनी है, जो भारत और भरातीय के बारे में निरक्षर होते हुए भी खुद को विशेषज्ञ घोषित किए हुए था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मुद्दे की सुनवाई के दौरान इन इतिहासकारों की योग्यता और तर्काें की बड़ी जगहंसाई हुई थी। उस समय लोगों के  ध्यान में यह बात आई थी कि इन इतिहासकारों का पूरा ज्ञान द्वितीयक स्रोतों और अनुवादों पर आधारित था। इन्हें तो प्राचीन भारत में प्रचलित भाषा की सामान्य जानकारी तक नहीं थी।

भारत के बारे में प्रचलित पश्चिमी बौद्धिक मिथकों के ढहते ही भारत का वह नैसर्गिक विशिष्टता लोगों के सामने अधिक समय नहीं लगेगा, जिसे पं. दीनदयाल उपाध्याय ने चिति और विराट के रूप में पहचाना था। अयोध्या में मंदिर निर्माण के पक्ष में आया निर्णय भारतीय देश-काल बोध की स्थापना और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के आंदोलन का प्रारम्भ है। यह क्रम आगे बढ़े इसके लिए प्रेरणा भी भव्य मंदिर में विराजमान रामलला ही देंगे।         -डाॅ.जयप्रकाश सिंह

                                                      

सभ्यतागत स्वप्नों का राममंदिर

                                            
राम मंदिर का निर्माण एक सभ्यतागत स्वप्न का साकार होना है। साथ ही, अनेकों सभ्यतागत स्वप्नों को देखने की शुरुआत भी।      वी.एस.नायपाॅल के शब्दांे में कहें तो यह एक ’आहत सभ्यता़’ को लम्बे अरसे बाद संभलने और घाव सहलाने के लिए मिले मौके जैसा है। राममंदिर निर्माण के जरिए भारतीयता के पर्याय एक प्रतीक को स्थापित करने का अवसर मिला है। एक ऐसा प्रतीक जो मुरझा चुके अन्य भारतीय प्रतीकों को भी जीवंत बना सकता है। उनमें नई ऊर्जा भर सकता है। इस कारण, राम-मंदिर का निर्माण सभ्यतागत आकांक्षाओं की पूर्ति भी है और उनका प्रस्थान बिंदु भी।
अनेक पीढ़ियों के सतत-संघर्षों और बेजोड़-बलिदानों के कारण आज राम-मंदिर के निर्माण की सभावना बनी है। लगभग पांच सौ सालों बाद राममंदिर के निर्माण से कई पीढ़ियों का स्वप्न आकार लेगा। एक सभ्यता जो पिछले कई सदियों से ध्वंश और विनाश का दंश झेल रही थी, वह नव-निर्माण की प्रक्रिया का पुनः हिस्सा बनेगी। मंदिर-निर्माण की प्रक्रिया का एक संदेश भारत की सांस्कृतिक-अजेयता भी है। भारत अपनी पहचान को बनाए-बचाए रखने के लिए सदियों तक सघर्ष कर सकता है और अंततः उस पहचान को प्रतिष्ठित कर ही लेता है, यह राममंदिर के लिए हुए संघर्ष से निकला एक प्रमुख निष्कर्ष है।
राममंदिर के लिए कैसे-कैसे संघर्ष किए गए, किन-किन रूपों में किए गए, यह महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मंदिर निर्माण का हमार संकल्प पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा। मंदिर निर्माण की आशा भारतीय जनमानस में कभी धूमिल नहीं हुई। इसीकारण, मंदिर निर्माण पर न्यायालय मुहर लगने के बाद जब यह खबर आई कि डेढ़ लाख सूर्यवंशी सैकड़ों साल बाद जूते पहनेंगे तो बहुतों को आश्चर्य हुआ। लेकिन अधिकांश भारतीयों के लिए यह राम-मंदिर के निर्माण के प्रति अगाध-निष्ठा का एक उदाहरण भर था।
नब्बे के दशक में चले रामजन्म भूमि आंदोलन संघर्षाें का सबसे नजदीकी उदाहरण है और कोठारी-बंधुओं का बलिदान, रामजन्मभूमि के लिए किए जाने वाले बलिदानों का सबसे नजदीकी उदाहरण। ये नजदीकी उदाहरण यह बताते हैं कि आक्रांताओं के अन्याय की लम्बी-काली रात और उनके द्वारा खड़े किए झूठ के पहाड़ों के बीच भारतीय जनमानस की मर्यादा पुरुषोत्तम में आस्था अविचल रही। इसके कारण ही भारतीय स्वत्व और सांस्कृतिक अधिष्ठान से जुड़ने की व्यग्रता भारतीयों में कभी कम नहीं हुई।
अब जब मंदिर का स्वप्न पूरा होने वाला है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मंदिर तो माध्यम है। यह माध्यम दिव्य-भव्य बने, उसकी पूरी चिंता होनी चाहिए लेकिन अंतिम लक्ष्य तो उन मूल्यों-मर्यादाओं की स्थापना है, जिनके भगवान राम विग्रह माने जाते हैं। इसलिए यहां पर उन मूलभूत मूल्यों-मर्यादाओं की चर्चा जरुरी हो जाती है।
पहली मर्यादा तो धर्म की ही है। धर्माधिष्ठित राजनीति की है। उसके लिए निरंतर और सजग होकर किए जाने वाले संघर्षो की है। मंदिर पूजा-पाठ के साथ समाज और राजनीति में धर्म स्थापना का वाहक बने, इसकी अपेक्षा प्रत्येक भारतीय को रहेगी। मंदिर को राजनीति और समाजनीति की भारतीय परिभाषा गढ़ने के काम करना है, राजनीति और समाजनीति में धर्म को स्थापित करने का कार्य करना है। भगवान राम का जीवन इन्हीं कार्यो की तो प्रेरणा देता है। और इसके कारण मंदिर का विकास वि-औपनिवेशीकरण की प्रेरणा देने वाले केन्द्र के रूप में होना चाहिए। यह एक महास्वप्न है। इसकी अपनी जटिलता है क्योंकि स्थापित मान्यताएं पूरी ताकत से इसका विरोध करेंगी। कारण स्थापित मान्यताओं और भारतीय मान्यताओं कई मसलों पर विपरीत धुरी जैसी हैं।
मसलन राजनीतिक क्षेत्र में ही देखें तो भारतीय मनीषा इस तथ्य को लेकर बहुत स्पष्ट रही है कि धर्मसत्ता से ही अन्य सत्ताएं निःसृत होती हैं और धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं है, उसका अंश अलग-अलग रुपों और भूमिकाओं में सभी में व्याप्त है। इसी कारण भारत में सत्ताओं की समानांतर रेखाएं नहीं रही हैं। धर्म ने व्यक्तियों को अलग-अलग भूमिकाएं प्रदान कीं और इसके साथ ही कुछ निश्चित सत्ताएं और सीमाएं भी। यह यूरोपीय दृष्टि के ठीक उलट है। वहां राज्यसत्ता और पुरोहित सत्ता आपस में टकराती रहीं। पुरोहित सत्ता (चर्च) लौकिक सत्ता को भी अपने अधीन बताने-जताने की कोशिश करती रही और राजसत्ता उसे स्वर्ग सम्बंधी मामलों तक ही सीमित रखने की दलील देती रही है। इसी कारण भारतीय चिंतन धर्मविहीन राजनीति को जीवंत और सृजनात्मक कार्य करने में असमर्थ मानता है और राजनीति में धर्म के निवेश को वह सबसे अधिक सृजनात्मक कार्य।
मर्यादा पुरुषोत्तम के निर्णय लेने की मुख्य कसौटी धर्म और न्याय है, शांति और समझौते नहीं । धर्म यदि शांतिपूर्ण तरीके से स्थापित होता है तो बहुत अच्छा, लेकिन यदि धर्म के मार्ग में शांति बाधा बनकर खड़ी हो जाए तो धर्म उस बाधा को ध्वस्त कर आगे बढ़े, यह परंपरा का आदेश है । रामायण की यही सीख है । इस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता कि धर्म के बजाय यदि शांति को तरजीह दी गई होती तो रामायण और महाभारत कभी नहीं घटित होते। गीता का तो संपूर्ण उपदेश ही प्राथमिकता सूची में धर्मपथ को शांतिपथ से ऊपर रखने के लिए दिया गया है । इस परंपरा के आलोक में और भारतीय मानसिकता को ऊहापोह की वर्तमान स्थिति से बाहर निकालने के लिए सबसे सशक्त प्रेरणा-पुंज राममंदिर ही बन सकता है।
यह मंदिर प्राचीन मंदिर व्यवस्था के पुनरुत्थान का प्रतीक बन सकता है। ऐसा मंदिर जो प्रार्थना-आराधना के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हो। प्राचीनकालीन मंदिरों के छः अंग माने जाते थे- गोशाला, पाठशाला, पाकशाला, वैद्यशाला, धर्मशाला और नाट्यशाला। इन छः अंगों के कारण मंदिर लोककल्याणकारी व्यवस्था और सभ्यता-संस्कृति के संरक्षण के केन्द्र भी बन जाते थे। मंदिरों की इस तरह की भूमिका का ध्यान में रखें तो यह आसानी से  समझ में आ जाता है कि आक्रांता मंदिरों को निशाना क्यों बनाते थे। राममंदिर मंे छः अंगों वाली प्राचीन भारतीय मंदिर की संकल्पना साकार होनी चाहिए।
राममंदिर भारत की सांस्कृतिक आजादी का माध्यम बनने की पूरी संभावनाएं हैं, उसका विकास और निर्माण इस लक्ष्य को लेकर ही किया जाना चाहिए। यही सदियों तक राममंदिर के लिए संघर्ष करने वाले पूर्वजों को दी जाने वाली वास्तविक श्रद्धांजलि होगी और राम-राज्य की तरफ पहला कदम भी।

मीडिया का निर्णायक मोर्चा


   संयुक्त राष्ट्र महासभा की 74 वीं बैठक में भाग लेने गए इमरान खान की अमेरिकी यात्रा ने मीडिया के मोर्चे पर भी एक नई खबर पैदा की। बैठक से इतर पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया ने संयुक्त रूप से एक अंग्रेजी इस्लामिक चैनल लाॅंच करने की घोषणा की। चैनल का उद्देश्य मुस्लिम समस्याओं को प्रमुखता से उठाना और आतंकवादी गतिविधियों के कारण बढ़ते इस्लामोफोबिया को रोकना है।
मीडिया की दृष्टि से यह इसलिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम बन जाता है क्योंकि पांथिक उद्देश्यों को लेकर चैनल चलाने का संभवतः पहला बहुराष्ट्रीय प्रयास है। तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयिप एर्दोगेन, पाक प्रधानमंत्री ईमरान खान और मलेशिया के प्रधाानमंत्री महातिर मोहम्मद के बीच इस चैनल के प्रारूप की चर्चा हुई। टुकड़ों-टुकड़ों में देशों की तरफ से चैनल के उद्देश्य और आवश्यकता के बारे में जानकारी भी दी गई।
महातिर मोहम्मद ने चैनल की जरूरत को रेखांकित करते हुए दलील दी कि इस्लाम और मुस्लिमों को लेकर बहुत सारी रिपोर्टें अनुचित होती हैं। और वे इस्लाम को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं करती। मसलन ये मुस्लिमों को आंतकी की तरह प्रस्तुत करती हैं और दुनिया इस सच को स्वीकार करती है। वहीं इमरान खान के अनुसार ’ हम बीबीसी की तर्ज पर एक चैनल संचालित करेंगे, जो मुस्लिम मुद्दों को उठाने के अतिरिक्त इस्लामोफोबिया से भी लड़ेगा।
इस कदम का सम्बंध इस्लामी दुनिया की आंतरिक राजनीति से तो है ही, भारत-पाक सम्बंध भी इसका एक आयाम है। ऐसा लगता है कि इस्लामी दुनिया के देश अग्रणी देश इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि अब उम्मा का नेतृत्व वही देश कर सकेगा, जिसके पास मीडिया की ताकत होगी। यह भी कि सभ्यतागत संघर्ष के केन्द्र में मीडिया की केन्द्रीय भूमिका होगी।
इसी कारण जब कतर में अल-जजीरा की शुरुआत हुई तो सबसे अधिक परेशानी सऊदी अरब को हुई। खुद को इस्लामी दुनिया का नेता मानने वाले सऊदी अरब ने अल-जजीरा को अपने अपने वर्चस्व को दी जाने वाली चुनौती के रूप में लिया। कुछ वर्ष पूर्व जब दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई तो सऊदी अरब की टीस खुलकर सामने आई। सऊदी अरब ने सामान्य-स्थिति बहाल करने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उसमें से एक शर्त अल-जजीरा को बंद करने की भी थी। शांति बहाली के लिए चैनल बंद करने की यह अपने किस्म की पहली मांग थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि तुर्की, मलेशिया और पाकिस्तान मिलकर इस्लामी दुनिया के अभिकेन्द्र को अरब देशों से बाहर लाना चाहते हैं। तुर्की लम्बे समय तक खिलाफत का सर्वेसर्वा रहा है, एर्दोगेन के राष्ट्रपति बनने के बाद वह फिर से अपनी पुरानी हैसियत बहाल करना चाहिता है। मलेशिया दक्षिण-पूर्व एशिया में एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान मजबूत करना चाहता है। पाकिस्तान के मन में भी इस्लामी दुनिया का सिरमौर बनने की ख्वाहिश शुरु से ही रही है, इसीलिए उसने अपने नाभिकीय हथियारों को इस्लामिक-बम के रूप को प्रचारित-प्रसारित किया। लेकिन इस बहुराष्ट्रीय चैनल में फिलहाल पाकिस्तानी सहभागिता का बड़ा कारण जम्मू-कश्मीर है।
अनुच्छेद 370 और 35 ए  के निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर भारत से बुरी तरह पिछड़ गया है। उसे कहीं भी आशा की किरण नहीं नजर नहीं आ रही है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भों में उम्मा की अवधारणा बुरी तरह से बिखर गई है। सऊदी अरब ने इसे द्विपक्षीय मसला बताते हुए शांतिपूर्ण समाधान की अपील की। संयुक्त अरब अमीरात की तरफ से यह स्पष्ट जवाब आया कि जम्मू-कश्मीर का मसला उम्मा का नहीं बल्कि एक द्विपक्षीय मसला है। ईरान ने भी पाकिस्तान के लिए कोई आशादायी बयान नहीं दिया। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि वह अमेरिका-तालिबान के बीच चल रही बातचीत में अपनी अहम भूमिका का उपयोग अमेरिका पर दबाव बनाने के लिए करेगा और भारत को दबाव में लाने में सफल होगा। लेकिन बातचीत टूट जाने के कारण अमेरिका भी पूरी तरह भारत के साथ आ गया। चीन की प्रक्रिया बहुत सधी हुई और संयत थी।
पाकिस्तान आंतरिक मोर्चे पर बुरी तरह घिरा हुआ है। अर्थव्यवस्था ढहने के कगार पर है, महंगाई चरम सीमा पर है और सरकार विरोधी आंदोलनों की तीव्रता बढती जा रही है। सैन्य मोर्चे पर भी भारत और पाकिस्तान के बीच क्षमता का अंतराल इतना बढ़ चुका है कि वह चाहकर भी प्रत्यक्ष युद्ध नहीं कर सकता।
इन तमाम विवशताओं के बावजूद कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो पाकिस्तान को भारत के खिलाफ कुछ न कुछ करने को उकसाते हैं। पाकिस्तान अपने नागरिकों को पिछले 70 सालों से ’ कश्मीर बनेगा पाकिस्तान ’ का स्वप्न बेचता रहा है। पाकिस्तान के अब तक एक जुट बने रहने का एक कारण यह स्वप्न भी थी। अब भारत ने उससे उसका स्वप्न ही छीन लिया है। इसके कारण वहां पर बिखराब की स्थिति पैदा हो सकती है, इससे बचने के लिए पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर का राग किसी न किसी रूप में अलापता रहेगा।
पाकिस्तान को यह भी लगता है कि भारत में अगले कुछ वर्षों तक ही हस्तक्षेप करने संभावनाएं उपलब्ध रहेंगी। भारत जिस तेजी से अपने आंतरिक अवरोधों को पार कर रहा है, और एक महत्वपूर्ण वैश्विक स्थिति के रूप में स्थापित हो रहा है, उसके कारण कुछ वर्षों बाद भारत में हस्तक्षेप करना उसके लिए असंभव हो जाएगा।
अन्य मोर्चो पर बुरी तरह पिछडने और कुछ न कुछ करने की बाध्यता के कारण अब पाकिस्तान की कोशिश मीडिया के जरिए भारत के साथ संघर्ष करने की है। जम्मू-कश्मीर की बदली हुई परिस्थितियों के बीच इमरान खान सार्वजनिक रूप से बयान दे चुके हैं कि वह कश्मीर के लिए दीर्घकालिक लड़ाई लड़ेगे, मीडिया के जरिए लड़ेगे। जम्मू-कश्मीर के मसले पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि वह यह मुद्दा पूरी दुनिया की मीडिया में उठाएंगे। इसके बाद अमेरिकी अखबारों में जिस तरह से उनके लेख प्रकाशित हुए, कश्मीर को लेकर विज्ञापन आए, उससे उनकी रणनीति जगजाहिर हो जाती है।
मीडिया के मोर्चे पर पाकिस्ताान को कुछ आशाएं बंधी हैं तो उसके कुछ कारण हैं। पाकिस्तान को लगता है कि वैश्विक स्तर पर और भारत के अंदर भी साम्यवाद की तरफ झुकाव रखने वाली मीडिया से उसे काफी समर्थन मिल सकता है। भारतीय मीडिया का एक धड़ा हमेशा से पाक का पक्षधर रहा है। गुलाम नबी फई के साथ कई पत्रकारों के काम करने, पाक के पूर्व राजदूत अब्दुल बासित द्वारा खुले रूप से भारतीय पत्रकारों के अपने हित के लिए उपयोग करने सम्बंधी बयान इसके उदाहरण भर हैं।
इस परिदृश्य मंे एक बहुराष्ट्रीय अंग्रेजी चैनल मीडिया के मोर्चे पर लड़ी जाने वाली लड़ाई को नए स्तर पर ले जाने जैसा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंसात्मक उद्देश्यों और सीमित क्षमता के बावजूद पाकिस्तान मीडिया की ताकत का अपने हितों के लिए उपयोग करना चाहता है। वसुधैव कुटुम्बकम की व्यापक सोच और वृहत्तर संसाधनों वाला भारत मीडिया-क्षेत्र में ग्लोबर वेंचर खडा करने की तैयारी कब करेगा, यह देखने वाली बात होगी। संचारीय सक्षमता का निर्माण समय और सभ्यता दोनों के लिए सबसे बड़ी मांग है, भारत इस मांग को लम्बे समय तक टाल नहीं सकता।

‘उत्तम खेती , मध्यम बान ’ की भारतीय संस्कृति

‘उत्तम खेती , मध्यम बान ’ की भारतीय संस्कृति

सरदार  वल्लभ भाई पटेल से किसी ने भारतीय संस्कृति के सम्बंध में पूछा । और उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि ‘ माई कल्चर इज एग्रीकल्चर ’। प्रथम दृष्टतया प्रतीत होता है कि यह एक अलंकारिक उत्तर है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हैं । इस उत्तर में भारतीय संस्कृति और कृषि के अंतर्सम्बंधांे के लेकर गहरी अंतदृष्टि भी विद्यमान है । प्रायः सांस्कृतिक विमर्ष करने वाले लोग और भारतीय संस्कृति को संरक्षण लेकर प्रतिबद्व लोग में भी इस अंतर्सम्बंध पर ध्यान नहीं देते ।


भारतीय संस्कृति मूलभूत आधारों का कृषि और ग्रामीण परिवेष से गहरा जुडाव है। संस्कृति का व्यक्त स्वरुप माने जाने वाली परम्पराओ , त्योहारों , मान्यताओं  को भारतीय कृषि चक्र से अंजान व्यक्ति का समझ पाना बहुत मुष्किल कार्य है । इसी तरह भारतीय मूल्य , मान्यताओं एवं उदात्त आदर्षो को कृषि आधारित विकास माॅडल में ही बनाए रखा जा सकता है । इन मूल्य एवं मान्यताओं के संरक्षण और संवद्र्वन की बात कृषि सषक्तिकरण के प्रयास के के बिना बेमानी है ।

इस बिन्दु कृषि की भारतीय संकल्पना को भी सही ढंग से समझने की आवष्यकता है । पष्चिमी देषों में प्रायः कृषि और खेती का समानार्थी ष्षब्दों के रुप में प्रयुक्त किया जाता है ।उनके लिए एग्रीकल्चर एवं फार्मिंग में कोई विभेद नहीं है । परन्तु भारत में ऐसा नहीं है । यहां कृषि एक व्यापक संकल्पना है जिसमें खेती , पषुपालन एवं बागवानी समाविष्ट हैं ।

कृषि की यह व्यापक संकल्पना ही भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता राज थी । यहां की कृषि का सम्बंध मात्र रोटी से नही था । रोटी ,कपडा और मकान सभी से था । खेती रोटी और कपडा की जरुरतों को प्रदान करती थी । बागवानी  मकान बनाने के लिए आवष्यक संसाधनों के एक बडे हिस्से को पूरा करता था । और पषुपालन खेती और बागवानी की पूरक आवष्यकताओं की पूर्ती करता था ।

जब तक भारत में कृषि की यह परम्परा विद्यमान भारतीय संस्कृति तमाम राजनीतिक और आर्थिक झंझावातों के बावजूद भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही । और स्वावलम्बन तथा आत्मविष्वास भी बना रहा । एक और प्रमुख भारतीय विषेषता यह भी रही है कि यहां औद्योगीकरण कृषि का विरोधी नहीं रहा है । इसी कारण स्थानीय स्तर पर लघु तथा कुटीर उद्योगों का भारत में एक संजाल फैला

भारतीय सांस्कृतिक रंगोली का एक बहुत बडा कारण यहां की भौगोलिक विविधता और कृषि विविधता भी रही है । इस विविधता ने विभिन्न मूल्यों एवं परम्पराओें को जन्म दिया। कई तरह की ऋतुओं के कारण भारत में फसली -विविधता विष्व में सर्वाधिक है  । इस फसली विविधता के कारण विकल्पों की विविधता भी रही ।

भारतीय संस्कृति को लेकर प्रतिबद्ध लोगों को कृषि और संस्कृति के इस बारीक परन्तु मजबूत अंतर्सम्बंध को समझना होगा । अन्यथा संस्कृति और मूल्यों के संरक्षण और संवद्र्वन के तमाम प्रयास फलदायी साबित नहीं होंगे ।

आईए कुछ उदाहरणों से इसे समझने की कोषिष करते हैं । परिवार भारतीय समाज की मूल ईकाई है । परिवार का अस्तित्व औद्योगिक व्यवस्था में टिके रहना बहुत ही मुष्किल है । और परिवार के बिना भारतीय संस्कृति का अबाधित प्रवाह को अवरुद्ध होने का खतरा पैदा हो जाता है । इसलिए भारत के सांस्कृतिक पहरुओं को वास्तविक लडाई विकास माॅडल और उसमें भी कृषि की प्रतिष्ठा को पुनसर््थापना के लिए प्रयास करने होंगे । पूर्वी उत्तर प्रदेष की एक कहावत से भारतीय संस्कृति में कृषि की प्रतिष्ठा की एक झलक मिलती है । कहावत है -
उत्तम खेती , मध्यम बान ।
अधम चाकरी , भीख निदान ।
अर्थात रोजगार के रुप में कृषि का पेषा सर्वोत्तम है । व्यापार की स्थिति द्वितीयक है । किसी की नौकरी करना अधम काम माना जाता है । और कोई भी विकल्प न होने की स्थिति में भीख मांग कर भरण -पोषण करना चाहिए ।

आज स्थिति ठीक इसके विपरीत हो गयी है । कृषि को घाटे का सौदा बनना अथवा बनाना गौण बात है । मुख्य बात यह है कि कृषि को लेकर खुद किसान ही आत्महीनता और आत्मग्लानि के भाव से ग्रसित हो गया है ।

अपना गांव -घर छोड किसी षहर में जाकर अमानवीय स्थिति में रहते हुए और आत्मसम्मान को ताक पर रख कर यदि कोई युवक दो हजार का मनीआर्डर करता है तो उसकी चर्चा पूरे गांव में होती है । और बाइज्जत उसके रोजगार के बारे में बताया जाता है ।  लेकिन गांव में रहकर कृषि कार्य में संलग्न रहकर दिन रात काम करने वाले और कभी -कभी दसियों हजार का लाभ देने वाले युवक के काम के बारे में कहा जाता है कि कुछ नही कर रहा है । घर पर पडा हुआ है ।

हरित का्रंति के नाम पर 1966-67 में जिस रासायनिक कृषि पद्धति को भारत में रोपा गया वह मूल रुप से रासायनिक एक व्यापारिक थी । इस पद्धति ने भारतीय कृषि की संकल्पना को संकीर्ण कर उसे खेती तक सीमित कर दिया । साथ ही भारत की परम्परागत कृषि के प्राकृतिक घटकों के अंतर्सम्बंध को ध्वस्त कर दिया । खेती , पषुपालन और बागवानी के कारण खेती में बाहरी निवेष की जरुरत नगण्य थी । लेकिन रासायनिक कृषि के कारण रासायनिक खाद , कीटनाषक आदि ने बाहरी निवेष को आवष्यक कर दिया । सबसे बडा दुष्प्रभाव यह पडा कि इसके कारण भारतीय कृषि और भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता भी समाप्त हो गयी ।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि रासायनिक खेती ने भारत के परम्परागत फसल चक्र को भी हेय और पिछडा हुआ बताकर नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया । भारत का यह फसल चक्र जहां अधिक पैदावार और पर्यावरणीय संतुलन को अपने में समाहित किए हुए था ।

ळरित क्रांति के नाम पर पूरे देष में गेहूं और चावल जैसी कुछ खास तरह की फसलों को बढावा दिया गया । इसे मिश्रित फसल लेने की भारतीय किसान की प्रवृति को गहरा धक्का लगा । एकफसली खेती में एक फसल का तो उत्पादन अधिक हो सकता है अधिक दिख सकता है । लेकिन निष्चित रकबे में कुल उत्पादन भी अधिक हो यह आवष्यक नहीं । मान लीजिए एक खेत में किसान अलसी , सरसो और चने की संयुक्त फसल लेता है और उसे एक क्विंटल की पैदावार होती है । जबकि उसी खेत में मात्र गेहूं की फसल लेने पर उसे डेढ क्विटल पैदा होता है । पहली नजर ,ं तो लगता है कि किसान को अधिक पैदावार मिल रही है लेकिन बाजार मुल्य और किसान की आत्मनिर्भरता की दृष्टि से देखें तो यह किसान के लिए यह घाटे का सौदा है ।


भारतीय फसल चक्र में गहरी पर्यावरणीय समझ भी निहित है । कम बारिष क्षेत्रों में ज्वार दृ बाजरे जैसी मोटे अनाज की खेती की जाती थी । पंजाब , हरियाणा और पष्चिमी उत्तरी प्रदेष जैसे सामान्य बारिष वाले स्थानों पर गेहूं की फसल पर जोर दिया जाता था । पूर्वी उत्तर  सप्रदेष और बिहार में गेहूं  धान के साथ अरहर मटर चना जैसी फसलों पर भी जोर देता था । पष्चिम बंगाल ओडीसा छत्तीसगढ जैसे प्रदेषों में धान की खेती अधिक जोर दिया जाता था । लेकिन हरित क्रांति के नाम पर चलाई गई रासायनिक कृषि प,ति ने इस फसल चक्र को नकार दिया। पंजाब और हरियाणा जैसे सामान्य बारिष वाले इलाकों में भी धान की फसल को बढावा दिया गया । नतीजन कृषि में बिजली  पानी और डीजल इत्यादि के रुप में खेती की लागत बढ गयी ।

ख्यातिलब्ध पर्यावरण विद् वंदनाषिवा कहती हैं कि -खेती का मोनोकल्चर को औद्योगिक निवासन और कृषि के वैष्वीकरण के जरुरी घटक के रुप में देखा जाता रहा है । यह प,ति जैव विविधता , स्थानीय खाद्यान्न प्रणाली और खाद्यान्न संस्कृति को खत्म करके फर्जी आधिक्य और असल अभाव पैदा कर रहा है ।


भारतीय परम्पराओं और इतिहास के जानकार राजीव दीक्षित सम्बंध में कहते हैं कि -हमारे देष में हरित क्रांति के नाम पर एक बहुत बडा दुष्प्रचार किया गया है कि सिर्फ रासायनिक खादों एवं काीटनाषकों से ही अच्छा उत्पादन हो सकता है । यह भ्रामक प्रचार उन कम्पनियों की तरफ से किया गया है जो रासायनिक खादों एवं कीटनाषकों का उत्पादन करती हैं ।

ऐसी स्थिति में भारत की परम्परागत कृषि पद्वति  भारतीय कृषि समस्याओं का मूल समाधान  है। यह पद्धति पर्यावरणीय के स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर है । गोपालन , गोसंरक्षण और गोसंवद्र्वन भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है ।

मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने के लिए 17 रसायनों की आवष्यकता होती है । ये रसायन हैं नाईट्रोजन , फास्फोरस , लोहा, सल्फर , कैल्सियम , कार्बन , तांबा , जिंक , पौटषियम इत्यादि में प्रमुख है । गाय के गोबर एवं गामूत्र में 16 रासायनिक तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं यह वैज्ञानिक रुप से सि, हो चुका है । मिट्टी को उर्वरक बनाए रखने वाले जीवाणुओं एवं कीटाणुओं पर गोबर -गोमूत्र का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडता है ।

राजीव दीक्षित इस सम्बंध मे कहते है कि - सामान्य रुप से अभी भी भारत के लगभग 50 फीसदी किसान गोबर का प्रयोग करते है । लेकिन वे गोबर का इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से नहीं अपनाते । सामान्य रुप से किसान गोबर को खड्डे धूरे में डालकर 5-6 महीने पडे रहने देते हैं । इससे गोबर का पानी उड जाता है और जो गोबर बचता है वह पूरी तरह से पचा हुआ खाद बनने लायक नहीं होता है । गोबर को गीले रुप में इस्तेमाल करना ही सबसे अच्छा है । क्योकि इससे जीवाणुओं की अच्छी पोषकता बनी रहती है।

भारतीय और भारतीयता को लेकर प्रतिबद्ध कोई भी व्यक्ति भारतीयों में घर की आत्महीनता की प्रवृति को ही सबसे बडी समस्या मानता है । ऐसे लोगों को यह भी समझना होगा कि रोजगार प्रतिरुप और संस्कृति के सम्बंध आपस में गहरे जुडे हुए है । रोजगार एक आर्थिक के साथ सांस्कृतिक समस्या भी है । काॅल सेन्टर में लगे युवाओं से आप उच्च आदर्षो एवं मूल्यों की अपेक्षा नहीं कर सकते और न ही करनी चाहिए । इस दृष्टि से भारतीय लोगों को उनके परिवेष में रोजगार उपलब्ध कराना आज की सबसे बडी सांस्कृतिक आवष्यकता है । इससे अपने परिवेष परिवार एवं परम्पराओं से कटाव अपने -आप रुक जाएगा । और जीवन-षैली तथा जीवन-दर्षन से जुडे बाहरी वैष्वीकरण से जुडे दबावों का सामना भी अधिक संतुलित एवं भारतीय ढंग से हो पाएगा । साथ ही देष के अदर भी एक बडे भारतीय सांस्कृतिक फ्रेमवर्क में स्थानीय सस्कृतियों को पुष्पित पल्लवित होने को मौका मिलेगा । जब किसी राजठाकरे को राजनीति करने का मौका नहीं मिलेगा । और एक राष्ट्रीय संस्कृति तथा राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण भी हो सकेगा ।

जहिर है स्थानीय परिवेष में रोजगार उपलब्ध कराने की सबसे अधिक सामथ्र्य एवं संभावनाएं कृषि से ही जुडी हुई है । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक पहरुओं को अपना मुख्य रणक्षेत्र कृषि के मोर्चे को ही बनाना चाहिए ।

370 के जरिए 360 डिग्री का बदलाव


अनुच्छेद 370 के हटने के साथ ही भारतीय राजनीति और वैचारिकी 360 डिग्री घूम चुकी हैं। अब भारत का सार्वजनिक विमर्श वैसा कभी नहीं हो सकता, जैसा 5 अगस्त 2019 के पहले था। यह तिथि इतनी निर्णायक और महत्वपूर्ण है कि इतिहास में कालक्रम निर्धारण का आधार बन सकती है। भविष्य में 5 अगस्त 2019 के पूर्व का भारत और 5 अगस्त 2019 के बाद का भारत, की शब्दावली के साथ यदि भारतीय इतिहास आगे बढ़े तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस तिथि को भारतीय इतिहास का एक चक्र पूरा हो गया और अब वह नए कक्ष में प्रवेश कर गया है।
यह तिथि इतनी निर्णायक क्यों है और अनुच्छेद 370, 35ए को हटाए जाने का ऐतिहासिक निर्णय क्यों माना जाना चाहिए ? इसलिए, क्योंकि इनका समापन उस खतरनाक, छद्मपूर्ण और अभारतीय ईको-सिस्टम पर अब तक किया जाने वाला सबसे निर्णायक प्रहार है, जिससे स्वतंत्रता के बाद बहुत ही परिश्रम से गढ़ा गया था। एक ऐसा ईको-सिस्टम जिसमें पंथनिरपेक्षता को समानता का नहीं वोटबैंक और विशेषाधिकार का पर्याय बना दिया गया था। एक ऐसा ईको-सिस्टम, जिसमें भारत और भारतीयता की बात करने को पिछड़ेपन और पांेगापंथी होने का प्रमाण माना जाने लगा था। राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बात को फासिज्म के संदर्भों में परिभाषित करने की परम्परा विकसित कर दी गई थी।
वाद-विवाद-संवाद के स्तर पर इस देश-विरोधी ईकोसिस्टम पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। सार्वजनिक विमर्श में इसकी सीमाओं को रेखांकित किया जाता रहा है। लेकिन इस मानसिकता के खिलाफ जब भी निर्णय लेने या नीति-बनाने की बात आती तो सत्ता प्रतिष्ठान के कदम ठिठक जाते। तब यह आरोप लगता कि इस ईको सिस्टम के खिलाफ नारे तो लगाए जा सकते हैं, लेकिन नीति और निर्णय लेने का साहस किसी में भी नहीं है।
अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने के निर्णय के जरिए पहली बार नीतिगत स्तर पर इस अभारतीय ईको-सिस्टम पर निणार्यक प्रहार किया गया है। लगता है स्वतंत्रता के बाद पहली बार सत्ता प्रतिष्ठान ने वह स्पष्टता और साहस हासिल कर लिया है, जो किसी बड़े बदलाव के लिए, नीतिगत हस्तक्षेप के लिए आवश्यक होता है। देश-विदेश में जो बेचैनी दिख रही है, उसका कारण यही है कि अब भारत अपने हितों को स्वयं परिभाषित करने और उसके अनुसार निर्णय लेने के लिए उद्यत दिख रहा है। पुराने परिवेश को बनाए रखने वाले पैरोकारों को लगता है कि यदि भारतीयता से ओत-प्रोत ऐसी ही स्पष्टता और साहस सत्ता-प्रतिष्ठान में बनी रही, तो आने वाले समय में बड़े बदलावों की श्रृंखला खड़ी हो सकती है। इसीलिए वे अपनी पूरी ऊर्जा से, झूठ से परहेज किए बगैर, तार्किक कसौटी को किनारे रखकर विरोध में उतर आए हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में एक मजेदार तथ्य उभरकर सामने आता हैं। 370 का विरोध करने वाले लोगों को लगता है कि उन्होंने क्रांति की मसाल जलाई हुई है, लेकिन उनके कृत्यों के कारण उनका दोहरा रवैया, छद्म-तार्किकता एक आम भारतीय के सामने अधिक उभरकर सामने आ रही है। कारण बहुत स्पष्ट है। अभी तक यह ईको-सिस्टम जिन मूल्यों, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सबसे अधिक हो-हल्ला मचाता रहा है, अनुच्छेद 370 और 35ए इन दोनों के खिलाफ है। फिर भी उसको हटाए जाने का विरोध हो रहा है। नारा लगाने वाले अपने ही नारों के विरोध में खड़े हो गए हैं, और पूरा देश उनके कपटपूर्ण तमाशे का अपनी आंखों से देख रहा है।
भारत के सार्वजनिक विमर्श का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो उसमें आरक्षण का मुद्दा, महिला सशक्तीकरण, मानवाधिकार की बहस, पंचायती राज का स्वप्न और सूचना का अधिकार महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरकर सामने आते हैं। अनुच्छेद 370 और 35ए का समकालीन भारतीय राजनीति के इन आदर्शों से क्या साम्य है? इनके कारण वहां पर आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं हो सकती थी। महिलाओं के अधिकारों को एक पीढ़ी तक सीमित कर दिया गया था। शरणार्थियों और वाल्मीकि समाज को कई पीढ़ियों तक कैसे अधिकार विहीन बनाया जा सकता है, इसको जानने के लिए इन अनुच्छेदों को अध्ययन किया जाना चाहिए। समकालीन राजनीति के आदर्शों और इन अनुच्छेदों में 36 का आंकड़ा स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। फिर भी, राजनीति में समानता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार का राग जो लोग सबसे अधिक अलापते हैं, वही इसके विरोध में उतर आए हैं। इस निर्णय ने कई शक्तियों को अपना वास्तविक चेहरा दिखाने के लिए बाध्य कर दिया है। जो जैसा है, वैसा दिखाई पड़ रहा है, यही इस निर्णय की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इस निर्णय ने एक अन्य तथ्य को भी मजबूती से स्थापित किया है कि शोध के बिना, नीतिगत निर्णयों के लिए आवश्यक स्पष्टता और साहस नहीं हासिल किया जा सकता। यदि आज पूरे देश में अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाए जाने की खुशी मनायी जा रही है तो इसका एक बड़ा कारण जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र है। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने वह तथ्यात्मक आधार उपलब्ध कराए, जिस पर इन अनुच्छेदों को हटाए जाने का निर्णय लिया जा सकता था। भारत में जम्मू-कश्मीर से पूरी बहस ही अर्द्धसत्यों का आधार मानकर खड़ी की गई थी। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने वास्तविक तथ्य सामने लाए और पिछले सत्तर सालों से चली आ रही बहस को सिर के बल खड़ कर दिया। मसलन, आज से 6-7 वर्ष अनुच्छेद 35 ए के बारे में सामान्य भारतीय जानता भी नहीं था। तब जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र का एक दल इस विषय पर उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ताओं से मिलने गया था। अधिवक्ताओं ने आश्चर्य जताया कि ऐसा भी कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है। उन्हें पता ही नहीं था।
जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात ने भी भारत सहित पूरी दुनिया में पूरी तरह स्वीकार्यता प्राप्त कर ली थी। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने इस तथ्य को स्थापित किया कि संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह के लिए पाकिस्तान को जैसी स्थिति निर्मित करने के लिए कहा था, उसने वैसा नहीं किया। इसलिए जनमत संग्रह का प्रस्ताव अपने आप अप्रासंगिक हो गया। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने सही तथ्य, सटीक परिप्रेक्ष्य में रखकर पूरे विमर्श को बदलकर रख दिया। सच्चाई सबके सामने थी। और इसके कारण सरकार को निर्णय लेने के लिए तथ्यात्मक आधार उपलब्ध हो सका।
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र का उदाहरण यह बताता है कि भारत का सार्वजनिक विमर्श अब औपनिवेशिक आख्यानों से निकलकर तथ्यान्वेषण के लिए अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है, भारतीय परिप्रेक्ष्य रच रहा है। आवश्यकता अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे शोध केंद्र स्थापित करने की है। यदि ऐसे संस्थानों की श्रृंखला आगे बढ़ती है तो अनुच्छेद 370 को हटाने जैसे निर्णयों के लिए आवश्यक आत्मविश्वास हमारी जनता और सत्ता-प्रतिष्ठान को आसानी से उपलब्ध होता रहेगा।

शुक्रवार, 31 मई 2019

युवा-आदर्शों का विस्मृत अध्याय हैंः वीर राम सिंह पठानिया



डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई किल्ला पठानियां खूब लड़ेया।

डल्ले दी धार डफले बजदे,

कोई बेटा वजीर दा खूब लड़ेया।।

सुविधाभोगी सन्नाटों के बीच सच के रास्ते को चुनने, और उस पर चलने का काम कुछ धीर-वीर ही कर पाते हैं। इसके साथ एक हकीकत यह भी है कि जो ऐसे रास्ते पर अकेले चलने की हिम्मत जुटा लेते हैं वह नायक बनकर लोकस्मृति में दर्ज हो जाते हैं। तभी तो विश्वकवि ‘तोर दक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे’ के जरिए लोगों से अकेला चलने की गुहार लगाते हैं और हिमाचली मानस ‘किल्ला पठानियां खूब लड़ेया’ के जरिए वीर राम सिंह पठानिया को याद करता है।

अंग्रेजों के दमनचक्र के खिलाफ अगर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन हुआ, तो उसकी पहली चिंगारी वजीर राम सिंह पठानिया के रूप में फूटी थी। विधर्मी अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ पहली तलवार वजीर राम सिंह पठानिया की उठी, जिन्होंने नूरपुर रियासत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवा लिया था। किशोरवय उम्र में वीर राम सिंह पठानिया ने यह दिखा दिया कि अकेले चलकर भी विरोध की ऐसी चिंगारी पैदा की जा सकती है जो अन्याय की हुकूमत को घुटने के बल पर खड़ा कर दे। उन्होंने छोटी सी उम्र में ही जिस धीरता-वीरता का परिचय दिया वह आज भी लाखों-करोडों युवाओं को देशभक्ति की भावना से भर देती है। दुर्भाग्य यह है कि हिमाचल के इस वीर सपूत की शौर्य गाथा से आज की नई पीढ़ी अपरिचित है।

राम सिंह पठानिया का जन्म नूरपुर के बासा वजीरां में वजीर शाम सिंह एवं इंदौरी देवी के घर 1824 में हुआ था। उस समय अंग्रेजों की ललचाई आंखें पंजाब समेत पूरे भारत पर थी। पिता के बाद इन्होंने 1848 में वजीर का पद संभाला। उस समय रियासत के राजा वीर सिंह का देहांत हो चुका था। उनका बेटा जसवंत सिंह केवल दस साल का था। अंग्रेजों ने जसवंत सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इनकार कर दिया तथा उसकी 20,000 रुपए वार्षिक पेंशन निर्धारित कर दी। यह शर्त भी थोप दी थी कि वह नूरपुर से बाहर जाकर रहें।

राम सिंह पठानिया और उनके पिता को अंग्रेजों की ये शर्तें मंजूर नहीं थीं। इसलिए जालंधर के कमिश्नर जॉन लारेंस और हर्सकाइन ने इस रियासत पर सख्ती बरतनी शुरू कर दी। बाद में लोभ पैदा करने के लिए जॉन लारेंस ने इतनी रियायत दे दी कि नूरपुर का राजा जहां भी रहना चाहे रह सकता है, बशर्ते वह वजीर शाम सिंह और उसके पुत्र राम सिंह को पद से हटा दें।

अंग्रेजों की यह धूर्तता राम सिंह को पसंद नहीं आई और इसका उचित जवाब देने का मन बना लिया। उन्होंने अंग्रेजी षड्यंत्र का जवाब देते हुए जसवंत सिंह को नूरपुर का राजा और खुद को उसका वजीर घोषित कर दिया। उनके विद्रोह की खबर जब होशियारपुर पहुंची, तो अंग्रेजों ने शाहपुर किले पर हमला कर दिया। जब अंग्रेजी सेना का दबाव बढ़ा, तो मजबूरी में राम सिंह और उनके साथियों को रात के समय किला छोडऩा पड़ा। उन्होंने जम्मू से मन्हास, जसवां से जसरोटिये, अपने क्षेत्र से पठानिये और कटोच राजपूतों को एकत्र किया। 14 अगस्त, 1848 की रात में इन सभी ने शाहपुर कंडी दुर्ग पर हमला बोल दिया। वह दुर्ग उस समय अंग्रेजों के अधिकार में था। भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को राम सिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेडक़र दुर्ग पर अपना झंडा लहरा दिया। कहा जाता है कि रामसिंह पठानिया की ‘चंडी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी। पठानिया की वीरता और उनकी तलवार का खौफ  अंग्रेजों के सिर चढ़कर बोलता था।

अपने हौसले और वीरता से वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। आमने-सामने की कई लड़ाइयों में मुंह की खाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें पकडऩे के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए। उन्हीं के एक पुरोहित मित्र ने अंग्रेजों के लालच में आकर उन्हें पकडऩे का भेद बता दिया कि राम सिंह पूजा के वक्त अपने पास कोई हथियार नहीं रखते। पूजा के वक्त जब उन्हें घेर लिया, तो अपने कमंडल से ही उन्होंने नौ ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला था। एक युद्ध में कई अंग्रेजों ने मिलकर षड्यंत्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया। उन पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया। रंगून की जेल में ही 17 अगस्त, 1849 को इस वीर सपूत ने अपने प्राण त्याग दिए।

वजीर राम सिंह पठानिया की शहादत के प्रति इससे बड़ा और अन्याय क्या हो सकता है कि वर्तमान पीढ़ी उनके बारे में अनभिज्ञ हो। इसके कसूरवार वे तमाम इतिहासकार हैं, जिन्होंने अनजाने में या जानबूझ कर भारतीय इतिहास के इस पराक्रमी किरदार को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी।

आज जब देश धर्म का संघर्ष हथियारों से अधिक विचारों से लड़ा जा रहा है और युवाओं के सामने आदर्शों के अकाल की स्थिति पैदा  कर दी गई है, वीर राम सिंह पठानिया की वीरगति को याद किया जाना आवश्यक हो गया है। उनका स्मरण युवाओं में ऊर्जा के नव-स्फूरण पैदा कर सकती है।

राम सिंह पठानिया ने जब क्रान्ति का बिगुल फूंका था तो उनकी उम्र महज 23 वर्ष थी। उनकी मां चण्डी में अगाध श्रद्धा थी। अपने धर्म के प्रति वह बहुत सजग थे और देश के लिए सब कुछ समर्पित करने का संकल्प भी उनके पास था। एक ऐसे समय में युवाओं को भ्रमित करने के सायास कोशिशें चल रही हैं, नशे का दलदल गहरा होता जा रहा है, शैक्षणिक संस्थानों में विभाजनकारी प्रवृतियां पल रही हैं, वीर राम सिंह पठानिया के आदर्श को युवाओं के सामने रखना राष्ट्रीय कर्म बन जाता है।

गुरुवार, 30 मई 2019

लाल सलाम का काला कलाम

 अप्रियकर घटनाओं को एकांगी नजरिए से देखना हम भारतीयों की आदत सी बन चुकी है। हमें हमेशा इस बात को स्वीकार करने में झिझक रहती है। कि गली मोहल्लो में घट रही घटनाओं का भी एक अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्षय हो सकता है और कोई वैश्विक-कांकस देश भर में समस्याओं की श्रृंखला खडी कर सकता है।

साम्यवाद के संदर्भों में तो समझ की सीमाए हमें और भी असहज बना देती हैं। जेएनयु से लेकर एचपीयू तक अपने देश और संस्कृति को लेकर जो घृणा का भाव है, उसकी जडों को सैद्धांतिक स्तर पर टटोलने की कोशिशे कम ही हुई है।

हिंदी में तो बिलकुल नहीं। पाकिस्तान और चीन को अपने देश पर तरजीह देने की विरासत किन कारणों से पैदा हुई, सभी धर्मों को अफीम मानने वाला साम्यवाद भारत में इस्लाम और ईसाइयत का पहरेदार और हिंदुत्व के प्रति घृणा भाव से कैसे भर गया, इसकी तह तक जाने की जहमत भारतीय बुद्धिजीवियों ने कम ही उठाई है।

इस परिस्थिति में प्रसिद्ध पत्रकार संदीप देव की किताब कहानी कम्युनिस्टों की सन्नाटे को चीरने वाली भूमिका में हमारे सामने आती है। किताब भारत में घटी और घट रही घटनाओं को समझने और यथार्थ को वैश्विक नजरिए से देखने के लिए प्रेरित करती है। साम्रूवाद की विभिध रणनीतियों और रूपों से हमारा परिचय करवाती है। पुस्तक का प्रारंभ साम्यवाद के सैद्धांतिक आधारों को टटोलने से होती है और सैद्धांतिकी को खंगालने का काम भारत पहुंचता है, तो उसके केंद्र में नेहरू आ जाते हैं। यद्यपि यह किताब साम्यवाद को समर्पित है, लेकिन नेहरू की वैचारिकी और व्यक्तित्व को समझने-परखने का एक नया वैचारिक सिरा भी हमारे हाथ पकड़ा जाती है। नेहरू की वैचारिक बनावट की यात्रा पर संदर्भों के साथ जिस तरह से यह पुस्तक प्रकाश डालती है, वह आंख खेलने वाला है। मसलन फिलिट स्प्रैट का यह कथन कि मैं जितना समझता था, उससे बड़े कम्युनिस्ट थे।


कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए साम्रूवादियों ने एक रणनीति के तहत किस तरह उपयोग किया और चीन युद्ध के समय उनको किस तरह अंधेरे में रखकर धोखा दिया, वह बहुत समज और रोचक बन जाता है। कोई भी राष्ट्र-राज्य साम्यवादियों के लिए सबसे बड़ा शत्रु क्यों होता है, इसकी भी बड़ी तफतीश से व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। राष्ट्र को चुनौती देने क े लिए ही सन् 1919 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशन की स्थापना की गई थी। इसके जरिए कई देशों में लाल क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया था।


पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता नए संदर्भ ग्रंथों तक इसकी पहुंच है। हिंदी माध्यम में आई किताबों में प्रायः वैश्विक संदर्भ स्रोतो का अभाव ही दिखता है। लेकिन लेखक ने अपनी बात को प्रमाणिक बनाने के लिए विभिन्न स्रोंतो का उल्लेख कर इस किताब का ही महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बना दिया है। संदीप देव ने साम्रूवादियों के लाल और खूंखार चेहरे को देखने के लिए एक खिड़की खोली है और भविष्य के शोधों के लिए एक आधार भूमि उपलब्ध कराई है। भारत में साम्यवाद को लेकर नई पीढ़ी में जिस तरह की कसमसाहट दिखती है, लेकिन प्रायः वह खंडन का सशक्त वैचारिक आधार उपलब्ध न होने के कारण सही रास्ते का चुनाव नहीं करते। यह किताब वैश्विक पथ-प्रदर्शक के रूप् में स्थापित होने की सभी संभावनाएं खुद में समेटे हुए है।