शुक्रवार, 22 मई 2020

‘उत्तम खेती , मध्यम बान ’ की भारतीय संस्कृति

‘उत्तम खेती , मध्यम बान ’ की भारतीय संस्कृति

सरदार  वल्लभ भाई पटेल से किसी ने भारतीय संस्कृति के सम्बंध में पूछा । और उन्होंने तपाक से उत्तर दिया कि ‘ माई कल्चर इज एग्रीकल्चर ’। प्रथम दृष्टतया प्रतीत होता है कि यह एक अलंकारिक उत्तर है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हैं । इस उत्तर में भारतीय संस्कृति और कृषि के अंतर्सम्बंधांे के लेकर गहरी अंतदृष्टि भी विद्यमान है । प्रायः सांस्कृतिक विमर्ष करने वाले लोग और भारतीय संस्कृति को संरक्षण लेकर प्रतिबद्व लोग में भी इस अंतर्सम्बंध पर ध्यान नहीं देते ।


भारतीय संस्कृति मूलभूत आधारों का कृषि और ग्रामीण परिवेष से गहरा जुडाव है। संस्कृति का व्यक्त स्वरुप माने जाने वाली परम्पराओ , त्योहारों , मान्यताओं  को भारतीय कृषि चक्र से अंजान व्यक्ति का समझ पाना बहुत मुष्किल कार्य है । इसी तरह भारतीय मूल्य , मान्यताओं एवं उदात्त आदर्षो को कृषि आधारित विकास माॅडल में ही बनाए रखा जा सकता है । इन मूल्य एवं मान्यताओं के संरक्षण और संवद्र्वन की बात कृषि सषक्तिकरण के प्रयास के के बिना बेमानी है ।

इस बिन्दु कृषि की भारतीय संकल्पना को भी सही ढंग से समझने की आवष्यकता है । पष्चिमी देषों में प्रायः कृषि और खेती का समानार्थी ष्षब्दों के रुप में प्रयुक्त किया जाता है ।उनके लिए एग्रीकल्चर एवं फार्मिंग में कोई विभेद नहीं है । परन्तु भारत में ऐसा नहीं है । यहां कृषि एक व्यापक संकल्पना है जिसमें खेती , पषुपालन एवं बागवानी समाविष्ट हैं ।

कृषि की यह व्यापक संकल्पना ही भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता राज थी । यहां की कृषि का सम्बंध मात्र रोटी से नही था । रोटी ,कपडा और मकान सभी से था । खेती रोटी और कपडा की जरुरतों को प्रदान करती थी । बागवानी  मकान बनाने के लिए आवष्यक संसाधनों के एक बडे हिस्से को पूरा करता था । और पषुपालन खेती और बागवानी की पूरक आवष्यकताओं की पूर्ती करता था ।

जब तक भारत में कृषि की यह परम्परा विद्यमान भारतीय संस्कृति तमाम राजनीतिक और आर्थिक झंझावातों के बावजूद भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही । और स्वावलम्बन तथा आत्मविष्वास भी बना रहा । एक और प्रमुख भारतीय विषेषता यह भी रही है कि यहां औद्योगीकरण कृषि का विरोधी नहीं रहा है । इसी कारण स्थानीय स्तर पर लघु तथा कुटीर उद्योगों का भारत में एक संजाल फैला

भारतीय सांस्कृतिक रंगोली का एक बहुत बडा कारण यहां की भौगोलिक विविधता और कृषि विविधता भी रही है । इस विविधता ने विभिन्न मूल्यों एवं परम्पराओें को जन्म दिया। कई तरह की ऋतुओं के कारण भारत में फसली -विविधता विष्व में सर्वाधिक है  । इस फसली विविधता के कारण विकल्पों की विविधता भी रही ।

भारतीय संस्कृति को लेकर प्रतिबद्ध लोगों को कृषि और संस्कृति के इस बारीक परन्तु मजबूत अंतर्सम्बंध को समझना होगा । अन्यथा संस्कृति और मूल्यों के संरक्षण और संवद्र्वन के तमाम प्रयास फलदायी साबित नहीं होंगे ।

आईए कुछ उदाहरणों से इसे समझने की कोषिष करते हैं । परिवार भारतीय समाज की मूल ईकाई है । परिवार का अस्तित्व औद्योगिक व्यवस्था में टिके रहना बहुत ही मुष्किल है । और परिवार के बिना भारतीय संस्कृति का अबाधित प्रवाह को अवरुद्ध होने का खतरा पैदा हो जाता है । इसलिए भारत के सांस्कृतिक पहरुओं को वास्तविक लडाई विकास माॅडल और उसमें भी कृषि की प्रतिष्ठा को पुनसर््थापना के लिए प्रयास करने होंगे । पूर्वी उत्तर प्रदेष की एक कहावत से भारतीय संस्कृति में कृषि की प्रतिष्ठा की एक झलक मिलती है । कहावत है -
उत्तम खेती , मध्यम बान ।
अधम चाकरी , भीख निदान ।
अर्थात रोजगार के रुप में कृषि का पेषा सर्वोत्तम है । व्यापार की स्थिति द्वितीयक है । किसी की नौकरी करना अधम काम माना जाता है । और कोई भी विकल्प न होने की स्थिति में भीख मांग कर भरण -पोषण करना चाहिए ।

आज स्थिति ठीक इसके विपरीत हो गयी है । कृषि को घाटे का सौदा बनना अथवा बनाना गौण बात है । मुख्य बात यह है कि कृषि को लेकर खुद किसान ही आत्महीनता और आत्मग्लानि के भाव से ग्रसित हो गया है ।

अपना गांव -घर छोड किसी षहर में जाकर अमानवीय स्थिति में रहते हुए और आत्मसम्मान को ताक पर रख कर यदि कोई युवक दो हजार का मनीआर्डर करता है तो उसकी चर्चा पूरे गांव में होती है । और बाइज्जत उसके रोजगार के बारे में बताया जाता है ।  लेकिन गांव में रहकर कृषि कार्य में संलग्न रहकर दिन रात काम करने वाले और कभी -कभी दसियों हजार का लाभ देने वाले युवक के काम के बारे में कहा जाता है कि कुछ नही कर रहा है । घर पर पडा हुआ है ।

हरित का्रंति के नाम पर 1966-67 में जिस रासायनिक कृषि पद्धति को भारत में रोपा गया वह मूल रुप से रासायनिक एक व्यापारिक थी । इस पद्धति ने भारतीय कृषि की संकल्पना को संकीर्ण कर उसे खेती तक सीमित कर दिया । साथ ही भारत की परम्परागत कृषि के प्राकृतिक घटकों के अंतर्सम्बंध को ध्वस्त कर दिया । खेती , पषुपालन और बागवानी के कारण खेती में बाहरी निवेष की जरुरत नगण्य थी । लेकिन रासायनिक कृषि के कारण रासायनिक खाद , कीटनाषक आदि ने बाहरी निवेष को आवष्यक कर दिया । सबसे बडा दुष्प्रभाव यह पडा कि इसके कारण भारतीय कृषि और भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता भी समाप्त हो गयी ।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि रासायनिक खेती ने भारत के परम्परागत फसल चक्र को भी हेय और पिछडा हुआ बताकर नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया । भारत का यह फसल चक्र जहां अधिक पैदावार और पर्यावरणीय संतुलन को अपने में समाहित किए हुए था ।

ळरित क्रांति के नाम पर पूरे देष में गेहूं और चावल जैसी कुछ खास तरह की फसलों को बढावा दिया गया । इसे मिश्रित फसल लेने की भारतीय किसान की प्रवृति को गहरा धक्का लगा । एकफसली खेती में एक फसल का तो उत्पादन अधिक हो सकता है अधिक दिख सकता है । लेकिन निष्चित रकबे में कुल उत्पादन भी अधिक हो यह आवष्यक नहीं । मान लीजिए एक खेत में किसान अलसी , सरसो और चने की संयुक्त फसल लेता है और उसे एक क्विंटल की पैदावार होती है । जबकि उसी खेत में मात्र गेहूं की फसल लेने पर उसे डेढ क्विटल पैदा होता है । पहली नजर ,ं तो लगता है कि किसान को अधिक पैदावार मिल रही है लेकिन बाजार मुल्य और किसान की आत्मनिर्भरता की दृष्टि से देखें तो यह किसान के लिए यह घाटे का सौदा है ।


भारतीय फसल चक्र में गहरी पर्यावरणीय समझ भी निहित है । कम बारिष क्षेत्रों में ज्वार दृ बाजरे जैसी मोटे अनाज की खेती की जाती थी । पंजाब , हरियाणा और पष्चिमी उत्तरी प्रदेष जैसे सामान्य बारिष वाले स्थानों पर गेहूं की फसल पर जोर दिया जाता था । पूर्वी उत्तर  सप्रदेष और बिहार में गेहूं  धान के साथ अरहर मटर चना जैसी फसलों पर भी जोर देता था । पष्चिम बंगाल ओडीसा छत्तीसगढ जैसे प्रदेषों में धान की खेती अधिक जोर दिया जाता था । लेकिन हरित क्रांति के नाम पर चलाई गई रासायनिक कृषि प,ति ने इस फसल चक्र को नकार दिया। पंजाब और हरियाणा जैसे सामान्य बारिष वाले इलाकों में भी धान की फसल को बढावा दिया गया । नतीजन कृषि में बिजली  पानी और डीजल इत्यादि के रुप में खेती की लागत बढ गयी ।

ख्यातिलब्ध पर्यावरण विद् वंदनाषिवा कहती हैं कि -खेती का मोनोकल्चर को औद्योगिक निवासन और कृषि के वैष्वीकरण के जरुरी घटक के रुप में देखा जाता रहा है । यह प,ति जैव विविधता , स्थानीय खाद्यान्न प्रणाली और खाद्यान्न संस्कृति को खत्म करके फर्जी आधिक्य और असल अभाव पैदा कर रहा है ।


भारतीय परम्पराओं और इतिहास के जानकार राजीव दीक्षित सम्बंध में कहते हैं कि -हमारे देष में हरित क्रांति के नाम पर एक बहुत बडा दुष्प्रचार किया गया है कि सिर्फ रासायनिक खादों एवं काीटनाषकों से ही अच्छा उत्पादन हो सकता है । यह भ्रामक प्रचार उन कम्पनियों की तरफ से किया गया है जो रासायनिक खादों एवं कीटनाषकों का उत्पादन करती हैं ।

ऐसी स्थिति में भारत की परम्परागत कृषि पद्वति  भारतीय कृषि समस्याओं का मूल समाधान  है। यह पद्धति पर्यावरणीय के स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर है । गोपालन , गोसंरक्षण और गोसंवद्र्वन भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है ।

मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने के लिए 17 रसायनों की आवष्यकता होती है । ये रसायन हैं नाईट्रोजन , फास्फोरस , लोहा, सल्फर , कैल्सियम , कार्बन , तांबा , जिंक , पौटषियम इत्यादि में प्रमुख है । गाय के गोबर एवं गामूत्र में 16 रासायनिक तत्व संतुलित मात्रा में पाए जाते हैं यह वैज्ञानिक रुप से सि, हो चुका है । मिट्टी को उर्वरक बनाए रखने वाले जीवाणुओं एवं कीटाणुओं पर गोबर -गोमूत्र का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडता है ।

राजीव दीक्षित इस सम्बंध मे कहते है कि - सामान्य रुप से अभी भी भारत के लगभग 50 फीसदी किसान गोबर का प्रयोग करते है । लेकिन वे गोबर का इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से नहीं अपनाते । सामान्य रुप से किसान गोबर को खड्डे धूरे में डालकर 5-6 महीने पडे रहने देते हैं । इससे गोबर का पानी उड जाता है और जो गोबर बचता है वह पूरी तरह से पचा हुआ खाद बनने लायक नहीं होता है । गोबर को गीले रुप में इस्तेमाल करना ही सबसे अच्छा है । क्योकि इससे जीवाणुओं की अच्छी पोषकता बनी रहती है।

भारतीय और भारतीयता को लेकर प्रतिबद्ध कोई भी व्यक्ति भारतीयों में घर की आत्महीनता की प्रवृति को ही सबसे बडी समस्या मानता है । ऐसे लोगों को यह भी समझना होगा कि रोजगार प्रतिरुप और संस्कृति के सम्बंध आपस में गहरे जुडे हुए है । रोजगार एक आर्थिक के साथ सांस्कृतिक समस्या भी है । काॅल सेन्टर में लगे युवाओं से आप उच्च आदर्षो एवं मूल्यों की अपेक्षा नहीं कर सकते और न ही करनी चाहिए । इस दृष्टि से भारतीय लोगों को उनके परिवेष में रोजगार उपलब्ध कराना आज की सबसे बडी सांस्कृतिक आवष्यकता है । इससे अपने परिवेष परिवार एवं परम्पराओं से कटाव अपने -आप रुक जाएगा । और जीवन-षैली तथा जीवन-दर्षन से जुडे बाहरी वैष्वीकरण से जुडे दबावों का सामना भी अधिक संतुलित एवं भारतीय ढंग से हो पाएगा । साथ ही देष के अदर भी एक बडे भारतीय सांस्कृतिक फ्रेमवर्क में स्थानीय सस्कृतियों को पुष्पित पल्लवित होने को मौका मिलेगा । जब किसी राजठाकरे को राजनीति करने का मौका नहीं मिलेगा । और एक राष्ट्रीय संस्कृति तथा राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण भी हो सकेगा ।

जहिर है स्थानीय परिवेष में रोजगार उपलब्ध कराने की सबसे अधिक सामथ्र्य एवं संभावनाएं कृषि से ही जुडी हुई है । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक पहरुओं को अपना मुख्य रणक्षेत्र कृषि के मोर्चे को ही बनाना चाहिए ।

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