शुक्रवार, 22 मई 2020

नए देश-काल का मंदिर


देश-काल का बोध किसी भी संस्कृति का प्राणतत्व होता है। इसीलिए यदि किसी संस्कृति को बदलना हो या फिर से स्थापित करना हो तो सबसे चुनौतीपूर्ण लेकिन उतना ही आवश्यक कार्य समय और स्थान की समझ में बदलाव लाना होता है। गतिविधियां और प्राथमिकताएं, चिंतन और चरित्र देश-काल बोध से ही नियंत्रित होते हैं। संभवतः इसीकारण इस बोध में होने वाला बदलाव का असर सांस्कृतिक कलेवर पर सबसे अधिक पड़ता है। किस समय क्या करना है और किस स्थान पर क्या करना है, मंदिर में क्या करना है, मंडप में क्या करना है, सुबह क्या करना है और शाम को क्या करना है, इसका निर्धारण समय और स्थान के बारे में हमारी समझ पर ही निर्भर करता है। हम किस परम्परा के उत्तराधिकारी हैं, वह कितनी प्राचीन है, उसे आगे बढ़ाया जाना क्यों जरूरी है, जैसे प्रश्नों का उत्तर हम देश-काल की अपनी परिधि के अनुसार करते हैं। भारत क्यों एक विशिष्ट देश है और इसे क्यों सनातन माना जाता है, जैसे राष्ट्रीय प्रश्न का सम्बंध भी देश-काल बोध से ही जुड़ा हुआ है।

श्रीरामभूमि का प्रश्न आस्था के साथ ही देश-काल बोध के लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इस मुद्दे के जरिए देश-काल की दो परस्पर विरोधी मानसिकताएं संघर्षरत थीं। एक के अनुसार भारत की कोई मौलिक पहचान नहीं रही है। इस देश की अपनी कोई विशिष्टता नहीं रही है। इसकी खूबियों और खामियों को तो बाहरी आक्रांताआंे ने गढ़ा है। इसी मानसिकता और देश-काल बोध को अभिव्यक्त करते हुए फिराक गोरखपुरी ने कभी कहा था कि-

सर-जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम -ए-आलम के फिराक

काफिले बसते गए, हिन्दोस्तां बसता गया।

बाद में कुछ अन्य लोगों ने मानसिकता को गंगा-जमुनी तहजीब के रूप में परिभाषित कर दिया। यह मानसिकताएक राष्ट्र के रूप में भारत के अस्तित्व को हालिया घटनाक्रम मानती है और कुछ के अनुसार तो राष्ट्र बनने की प्रक्रिया अभी चल ही रही है। दूसरी मानसिकता के अनुसार भारत की प्रारंभ से ही एक मौलिक पहचान और संस्कृति रही है। सांस्कृतिक आधार पर भारत हमेशा से ही एक राष्ट्र रहा है। इस मानसिकता का देश-काल बोध पुण्यभूमि की संकल्पना और चतुर्युगी कालगणना से निकला है। यह मानसिकता भारत की मूल और मौलिक संस्कृति को हिंदुत्व के नाम से परिभाषित करती है। और इसके अस्तित्व को सनातन मानती है।

श्रीरामजन्म भूमि के प्रश्न पर ये अलग-अलग देश-काल बोध से निकली ये दोनों विचारधाराएं पूरी तीव्रता के साथ आमन-सामने थीं। भारतीय कालबोध भगवान श्रीराम के अस्तित्व को लाखों वर्ष पूर्व का मानता है। और अयोध्या में उनके जन्मस्थान की एक असंदिग्ध पहचान भी उसकी स्मृति में रही है। दूसरी विचारधारा का इतिहास बोध मुश्किल से ही 4 हजार ईसापूर्व तक जाता है। इस छोटे ऐतिहासिक पैमान मर्यादा पुरुषोत्तम का अस्तित्व साबित करने की अपनी कठिनाइयां हैं। इसका एक आसान लेकिन षड्यंत्र भरा समाधान भगवान राम को मिथकीय चरित्र घोषित करके निकाला गया। रामसेतु प्रकरण के समय तो तत्कालीन सरकार ने भी श्रीराम को एक काल्पनिक व्यक्ति स्वीकार कर लिया था। यह काल बोध का अंतद्र्वन्द्व था। इसी तरह जन्मस्थान के बारे में अपनी सतही समझ के कारण ही इसी विचारधारा के कुछ लोग वहां पर स्कूल या विश्वविद्यालय बनाने जैसी सलाह देते है। इसे देश बोध का अंतद्र्वन्द्व माना जाना चाहिए।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने मंदिर निर्माण के पक्ष में निर्णय देकर और मंदिर निर्माण का दायित्व रामलला विराजमान को सौंपकर देश-काल के भारतीय बोध को आधुनिक संदर्भों में औपचारिक स्वीकृति प्रदान की है। यह निर्णय मंदिर निर्माण के लिहाज से महत्वपूर्ण है ही, इसे भारतीय देश-काल बोध को पुनः स्थापित करने वाले निर्णय के रूप में भी स्वीकार किया जाना चाहिए। और इसकारण मंदिर निर्माण के साथ-साथ इस देश में भारतीय देश-काल बोध की स्थापना भी निश्चित हो गई है।

इस स्थापना का सर्वाधिक असर अकादमिक-बौद्धिक जगत पर पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के कारण प्रचलित इतिहास और भूगोल की सीमाओं का ढहना तय है। मसलन रामायण-महाभारत को महाकाव्य और श्रीराम-श्रीकृष्ण को मिथक मानने के मिथक टूटेगा। एक सांस्कृतिक षड्यंत्र के तहत रामायण-महाभारत को महाकाव्य साबित करने की व्यग्रता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। इसी कारण अब इनको ’ एपिक पोयम’ लिखा जाने लगा है, पहले ’एपिक’ भर लिखकर ही संतोष कर लिया जाता है। इसी तरह अंग्रेजी में राम-कृष्ण और शिव को मिथकीय पात्र मानकर लिखे जाने उपन्यासों की बाढ़ जैसी आ गई है। हैरत की बात यह है कि ऐसे लेखकों को मीडिया भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार कर रहा है। इस निर्णय के कारण सबसे अधिक फजीहत इतिहासकारों के उस गिरोह की होनी है, जो भारत और भरातीय के बारे में निरक्षर होते हुए भी खुद को विशेषज्ञ घोषित किए हुए था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मुद्दे की सुनवाई के दौरान इन इतिहासकारों की योग्यता और तर्काें की बड़ी जगहंसाई हुई थी। उस समय लोगों के  ध्यान में यह बात आई थी कि इन इतिहासकारों का पूरा ज्ञान द्वितीयक स्रोतों और अनुवादों पर आधारित था। इन्हें तो प्राचीन भारत में प्रचलित भाषा की सामान्य जानकारी तक नहीं थी।

भारत के बारे में प्रचलित पश्चिमी बौद्धिक मिथकों के ढहते ही भारत का वह नैसर्गिक विशिष्टता लोगों के सामने अधिक समय नहीं लगेगा, जिसे पं. दीनदयाल उपाध्याय ने चिति और विराट के रूप में पहचाना था। अयोध्या में मंदिर निर्माण के पक्ष में आया निर्णय भारतीय देश-काल बोध की स्थापना और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के आंदोलन का प्रारम्भ है। यह क्रम आगे बढ़े इसके लिए प्रेरणा भी भव्य मंदिर में विराजमान रामलला ही देंगे।         -डाॅ.जयप्रकाश सिंह

                                                      

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