शुक्रवार, 22 मई 2020

मीडिया का निर्णायक मोर्चा


   संयुक्त राष्ट्र महासभा की 74 वीं बैठक में भाग लेने गए इमरान खान की अमेरिकी यात्रा ने मीडिया के मोर्चे पर भी एक नई खबर पैदा की। बैठक से इतर पाकिस्तान, तुर्की और मलेशिया ने संयुक्त रूप से एक अंग्रेजी इस्लामिक चैनल लाॅंच करने की घोषणा की। चैनल का उद्देश्य मुस्लिम समस्याओं को प्रमुखता से उठाना और आतंकवादी गतिविधियों के कारण बढ़ते इस्लामोफोबिया को रोकना है।
मीडिया की दृष्टि से यह इसलिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम बन जाता है क्योंकि पांथिक उद्देश्यों को लेकर चैनल चलाने का संभवतः पहला बहुराष्ट्रीय प्रयास है। तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयिप एर्दोगेन, पाक प्रधानमंत्री ईमरान खान और मलेशिया के प्रधाानमंत्री महातिर मोहम्मद के बीच इस चैनल के प्रारूप की चर्चा हुई। टुकड़ों-टुकड़ों में देशों की तरफ से चैनल के उद्देश्य और आवश्यकता के बारे में जानकारी भी दी गई।
महातिर मोहम्मद ने चैनल की जरूरत को रेखांकित करते हुए दलील दी कि इस्लाम और मुस्लिमों को लेकर बहुत सारी रिपोर्टें अनुचित होती हैं। और वे इस्लाम को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं करती। मसलन ये मुस्लिमों को आंतकी की तरह प्रस्तुत करती हैं और दुनिया इस सच को स्वीकार करती है। वहीं इमरान खान के अनुसार ’ हम बीबीसी की तर्ज पर एक चैनल संचालित करेंगे, जो मुस्लिम मुद्दों को उठाने के अतिरिक्त इस्लामोफोबिया से भी लड़ेगा।
इस कदम का सम्बंध इस्लामी दुनिया की आंतरिक राजनीति से तो है ही, भारत-पाक सम्बंध भी इसका एक आयाम है। ऐसा लगता है कि इस्लामी दुनिया के देश अग्रणी देश इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि अब उम्मा का नेतृत्व वही देश कर सकेगा, जिसके पास मीडिया की ताकत होगी। यह भी कि सभ्यतागत संघर्ष के केन्द्र में मीडिया की केन्द्रीय भूमिका होगी।
इसी कारण जब कतर में अल-जजीरा की शुरुआत हुई तो सबसे अधिक परेशानी सऊदी अरब को हुई। खुद को इस्लामी दुनिया का नेता मानने वाले सऊदी अरब ने अल-जजीरा को अपने अपने वर्चस्व को दी जाने वाली चुनौती के रूप में लिया। कुछ वर्ष पूर्व जब दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हुई तो सऊदी अरब की टीस खुलकर सामने आई। सऊदी अरब ने सामान्य-स्थिति बहाल करने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उसमें से एक शर्त अल-जजीरा को बंद करने की भी थी। शांति बहाली के लिए चैनल बंद करने की यह अपने किस्म की पहली मांग थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि तुर्की, मलेशिया और पाकिस्तान मिलकर इस्लामी दुनिया के अभिकेन्द्र को अरब देशों से बाहर लाना चाहते हैं। तुर्की लम्बे समय तक खिलाफत का सर्वेसर्वा रहा है, एर्दोगेन के राष्ट्रपति बनने के बाद वह फिर से अपनी पुरानी हैसियत बहाल करना चाहिता है। मलेशिया दक्षिण-पूर्व एशिया में एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान मजबूत करना चाहता है। पाकिस्तान के मन में भी इस्लामी दुनिया का सिरमौर बनने की ख्वाहिश शुरु से ही रही है, इसीलिए उसने अपने नाभिकीय हथियारों को इस्लामिक-बम के रूप को प्रचारित-प्रसारित किया। लेकिन इस बहुराष्ट्रीय चैनल में फिलहाल पाकिस्तानी सहभागिता का बड़ा कारण जम्मू-कश्मीर है।
अनुच्छेद 370 और 35 ए  के निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर भारत से बुरी तरह पिछड़ गया है। उसे कहीं भी आशा की किरण नहीं नजर नहीं आ रही है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भों में उम्मा की अवधारणा बुरी तरह से बिखर गई है। सऊदी अरब ने इसे द्विपक्षीय मसला बताते हुए शांतिपूर्ण समाधान की अपील की। संयुक्त अरब अमीरात की तरफ से यह स्पष्ट जवाब आया कि जम्मू-कश्मीर का मसला उम्मा का नहीं बल्कि एक द्विपक्षीय मसला है। ईरान ने भी पाकिस्तान के लिए कोई आशादायी बयान नहीं दिया। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि वह अमेरिका-तालिबान के बीच चल रही बातचीत में अपनी अहम भूमिका का उपयोग अमेरिका पर दबाव बनाने के लिए करेगा और भारत को दबाव में लाने में सफल होगा। लेकिन बातचीत टूट जाने के कारण अमेरिका भी पूरी तरह भारत के साथ आ गया। चीन की प्रक्रिया बहुत सधी हुई और संयत थी।
पाकिस्तान आंतरिक मोर्चे पर बुरी तरह घिरा हुआ है। अर्थव्यवस्था ढहने के कगार पर है, महंगाई चरम सीमा पर है और सरकार विरोधी आंदोलनों की तीव्रता बढती जा रही है। सैन्य मोर्चे पर भी भारत और पाकिस्तान के बीच क्षमता का अंतराल इतना बढ़ चुका है कि वह चाहकर भी प्रत्यक्ष युद्ध नहीं कर सकता।
इन तमाम विवशताओं के बावजूद कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो पाकिस्तान को भारत के खिलाफ कुछ न कुछ करने को उकसाते हैं। पाकिस्तान अपने नागरिकों को पिछले 70 सालों से ’ कश्मीर बनेगा पाकिस्तान ’ का स्वप्न बेचता रहा है। पाकिस्तान के अब तक एक जुट बने रहने का एक कारण यह स्वप्न भी थी। अब भारत ने उससे उसका स्वप्न ही छीन लिया है। इसके कारण वहां पर बिखराब की स्थिति पैदा हो सकती है, इससे बचने के लिए पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर का राग किसी न किसी रूप में अलापता रहेगा।
पाकिस्तान को यह भी लगता है कि भारत में अगले कुछ वर्षों तक ही हस्तक्षेप करने संभावनाएं उपलब्ध रहेंगी। भारत जिस तेजी से अपने आंतरिक अवरोधों को पार कर रहा है, और एक महत्वपूर्ण वैश्विक स्थिति के रूप में स्थापित हो रहा है, उसके कारण कुछ वर्षों बाद भारत में हस्तक्षेप करना उसके लिए असंभव हो जाएगा।
अन्य मोर्चो पर बुरी तरह पिछडने और कुछ न कुछ करने की बाध्यता के कारण अब पाकिस्तान की कोशिश मीडिया के जरिए भारत के साथ संघर्ष करने की है। जम्मू-कश्मीर की बदली हुई परिस्थितियों के बीच इमरान खान सार्वजनिक रूप से बयान दे चुके हैं कि वह कश्मीर के लिए दीर्घकालिक लड़ाई लड़ेगे, मीडिया के जरिए लड़ेगे। जम्मू-कश्मीर के मसले पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि वह यह मुद्दा पूरी दुनिया की मीडिया में उठाएंगे। इसके बाद अमेरिकी अखबारों में जिस तरह से उनके लेख प्रकाशित हुए, कश्मीर को लेकर विज्ञापन आए, उससे उनकी रणनीति जगजाहिर हो जाती है।
मीडिया के मोर्चे पर पाकिस्ताान को कुछ आशाएं बंधी हैं तो उसके कुछ कारण हैं। पाकिस्तान को लगता है कि वैश्विक स्तर पर और भारत के अंदर भी साम्यवाद की तरफ झुकाव रखने वाली मीडिया से उसे काफी समर्थन मिल सकता है। भारतीय मीडिया का एक धड़ा हमेशा से पाक का पक्षधर रहा है। गुलाम नबी फई के साथ कई पत्रकारों के काम करने, पाक के पूर्व राजदूत अब्दुल बासित द्वारा खुले रूप से भारतीय पत्रकारों के अपने हित के लिए उपयोग करने सम्बंधी बयान इसके उदाहरण भर हैं।
इस परिदृश्य मंे एक बहुराष्ट्रीय अंग्रेजी चैनल मीडिया के मोर्चे पर लड़ी जाने वाली लड़ाई को नए स्तर पर ले जाने जैसा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंसात्मक उद्देश्यों और सीमित क्षमता के बावजूद पाकिस्तान मीडिया की ताकत का अपने हितों के लिए उपयोग करना चाहता है। वसुधैव कुटुम्बकम की व्यापक सोच और वृहत्तर संसाधनों वाला भारत मीडिया-क्षेत्र में ग्लोबर वेंचर खडा करने की तैयारी कब करेगा, यह देखने वाली बात होगी। संचारीय सक्षमता का निर्माण समय और सभ्यता दोनों के लिए सबसे बड़ी मांग है, भारत इस मांग को लम्बे समय तक टाल नहीं सकता।

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