शुक्रवार, 22 मई 2020

370 के जरिए 360 डिग्री का बदलाव


अनुच्छेद 370 के हटने के साथ ही भारतीय राजनीति और वैचारिकी 360 डिग्री घूम चुकी हैं। अब भारत का सार्वजनिक विमर्श वैसा कभी नहीं हो सकता, जैसा 5 अगस्त 2019 के पहले था। यह तिथि इतनी निर्णायक और महत्वपूर्ण है कि इतिहास में कालक्रम निर्धारण का आधार बन सकती है। भविष्य में 5 अगस्त 2019 के पूर्व का भारत और 5 अगस्त 2019 के बाद का भारत, की शब्दावली के साथ यदि भारतीय इतिहास आगे बढ़े तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस तिथि को भारतीय इतिहास का एक चक्र पूरा हो गया और अब वह नए कक्ष में प्रवेश कर गया है।
यह तिथि इतनी निर्णायक क्यों है और अनुच्छेद 370, 35ए को हटाए जाने का ऐतिहासिक निर्णय क्यों माना जाना चाहिए ? इसलिए, क्योंकि इनका समापन उस खतरनाक, छद्मपूर्ण और अभारतीय ईको-सिस्टम पर अब तक किया जाने वाला सबसे निर्णायक प्रहार है, जिससे स्वतंत्रता के बाद बहुत ही परिश्रम से गढ़ा गया था। एक ऐसा ईको-सिस्टम जिसमें पंथनिरपेक्षता को समानता का नहीं वोटबैंक और विशेषाधिकार का पर्याय बना दिया गया था। एक ऐसा ईको-सिस्टम, जिसमें भारत और भारतीयता की बात करने को पिछड़ेपन और पांेगापंथी होने का प्रमाण माना जाने लगा था। राष्ट्र और राष्ट्रीयता की बात को फासिज्म के संदर्भों में परिभाषित करने की परम्परा विकसित कर दी गई थी।
वाद-विवाद-संवाद के स्तर पर इस देश-विरोधी ईकोसिस्टम पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। सार्वजनिक विमर्श में इसकी सीमाओं को रेखांकित किया जाता रहा है। लेकिन इस मानसिकता के खिलाफ जब भी निर्णय लेने या नीति-बनाने की बात आती तो सत्ता प्रतिष्ठान के कदम ठिठक जाते। तब यह आरोप लगता कि इस ईको सिस्टम के खिलाफ नारे तो लगाए जा सकते हैं, लेकिन नीति और निर्णय लेने का साहस किसी में भी नहीं है।
अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने के निर्णय के जरिए पहली बार नीतिगत स्तर पर इस अभारतीय ईको-सिस्टम पर निणार्यक प्रहार किया गया है। लगता है स्वतंत्रता के बाद पहली बार सत्ता प्रतिष्ठान ने वह स्पष्टता और साहस हासिल कर लिया है, जो किसी बड़े बदलाव के लिए, नीतिगत हस्तक्षेप के लिए आवश्यक होता है। देश-विदेश में जो बेचैनी दिख रही है, उसका कारण यही है कि अब भारत अपने हितों को स्वयं परिभाषित करने और उसके अनुसार निर्णय लेने के लिए उद्यत दिख रहा है। पुराने परिवेश को बनाए रखने वाले पैरोकारों को लगता है कि यदि भारतीयता से ओत-प्रोत ऐसी ही स्पष्टता और साहस सत्ता-प्रतिष्ठान में बनी रही, तो आने वाले समय में बड़े बदलावों की श्रृंखला खड़ी हो सकती है। इसीलिए वे अपनी पूरी ऊर्जा से, झूठ से परहेज किए बगैर, तार्किक कसौटी को किनारे रखकर विरोध में उतर आए हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में एक मजेदार तथ्य उभरकर सामने आता हैं। 370 का विरोध करने वाले लोगों को लगता है कि उन्होंने क्रांति की मसाल जलाई हुई है, लेकिन उनके कृत्यों के कारण उनका दोहरा रवैया, छद्म-तार्किकता एक आम भारतीय के सामने अधिक उभरकर सामने आ रही है। कारण बहुत स्पष्ट है। अभी तक यह ईको-सिस्टम जिन मूल्यों, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सबसे अधिक हो-हल्ला मचाता रहा है, अनुच्छेद 370 और 35ए इन दोनों के खिलाफ है। फिर भी उसको हटाए जाने का विरोध हो रहा है। नारा लगाने वाले अपने ही नारों के विरोध में खड़े हो गए हैं, और पूरा देश उनके कपटपूर्ण तमाशे का अपनी आंखों से देख रहा है।
भारत के सार्वजनिक विमर्श का गहराई से विश्लेषण किया जाए तो उसमें आरक्षण का मुद्दा, महिला सशक्तीकरण, मानवाधिकार की बहस, पंचायती राज का स्वप्न और सूचना का अधिकार महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरकर सामने आते हैं। अनुच्छेद 370 और 35ए का समकालीन भारतीय राजनीति के इन आदर्शों से क्या साम्य है? इनके कारण वहां पर आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं हो सकती थी। महिलाओं के अधिकारों को एक पीढ़ी तक सीमित कर दिया गया था। शरणार्थियों और वाल्मीकि समाज को कई पीढ़ियों तक कैसे अधिकार विहीन बनाया जा सकता है, इसको जानने के लिए इन अनुच्छेदों को अध्ययन किया जाना चाहिए। समकालीन राजनीति के आदर्शों और इन अनुच्छेदों में 36 का आंकड़ा स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। फिर भी, राजनीति में समानता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार का राग जो लोग सबसे अधिक अलापते हैं, वही इसके विरोध में उतर आए हैं। इस निर्णय ने कई शक्तियों को अपना वास्तविक चेहरा दिखाने के लिए बाध्य कर दिया है। जो जैसा है, वैसा दिखाई पड़ रहा है, यही इस निर्णय की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इस निर्णय ने एक अन्य तथ्य को भी मजबूती से स्थापित किया है कि शोध के बिना, नीतिगत निर्णयों के लिए आवश्यक स्पष्टता और साहस नहीं हासिल किया जा सकता। यदि आज पूरे देश में अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाए जाने की खुशी मनायी जा रही है तो इसका एक बड़ा कारण जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र है। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने वह तथ्यात्मक आधार उपलब्ध कराए, जिस पर इन अनुच्छेदों को हटाए जाने का निर्णय लिया जा सकता था। भारत में जम्मू-कश्मीर से पूरी बहस ही अर्द्धसत्यों का आधार मानकर खड़ी की गई थी। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने वास्तविक तथ्य सामने लाए और पिछले सत्तर सालों से चली आ रही बहस को सिर के बल खड़ कर दिया। मसलन, आज से 6-7 वर्ष अनुच्छेद 35 ए के बारे में सामान्य भारतीय जानता भी नहीं था। तब जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र का एक दल इस विषय पर उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ताओं से मिलने गया था। अधिवक्ताओं ने आश्चर्य जताया कि ऐसा भी कोई अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है। उन्हें पता ही नहीं था।
जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात ने भी भारत सहित पूरी दुनिया में पूरी तरह स्वीकार्यता प्राप्त कर ली थी। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने इस तथ्य को स्थापित किया कि संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह के लिए पाकिस्तान को जैसी स्थिति निर्मित करने के लिए कहा था, उसने वैसा नहीं किया। इसलिए जनमत संग्रह का प्रस्ताव अपने आप अप्रासंगिक हो गया। जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र ने सही तथ्य, सटीक परिप्रेक्ष्य में रखकर पूरे विमर्श को बदलकर रख दिया। सच्चाई सबके सामने थी। और इसके कारण सरकार को निर्णय लेने के लिए तथ्यात्मक आधार उपलब्ध हो सका।
जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र का उदाहरण यह बताता है कि भारत का सार्वजनिक विमर्श अब औपनिवेशिक आख्यानों से निकलकर तथ्यान्वेषण के लिए अपने पैरों पर खड़ा हो रहा है, भारतीय परिप्रेक्ष्य रच रहा है। आवश्यकता अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे शोध केंद्र स्थापित करने की है। यदि ऐसे संस्थानों की श्रृंखला आगे बढ़ती है तो अनुच्छेद 370 को हटाने जैसे निर्णयों के लिए आवश्यक आत्मविश्वास हमारी जनता और सत्ता-प्रतिष्ठान को आसानी से उपलब्ध होता रहेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें