शुक्रवार, 22 मई 2020

सभ्यतागत स्वप्नों का राममंदिर

                                            
राम मंदिर का निर्माण एक सभ्यतागत स्वप्न का साकार होना है। साथ ही, अनेकों सभ्यतागत स्वप्नों को देखने की शुरुआत भी।      वी.एस.नायपाॅल के शब्दांे में कहें तो यह एक ’आहत सभ्यता़’ को लम्बे अरसे बाद संभलने और घाव सहलाने के लिए मिले मौके जैसा है। राममंदिर निर्माण के जरिए भारतीयता के पर्याय एक प्रतीक को स्थापित करने का अवसर मिला है। एक ऐसा प्रतीक जो मुरझा चुके अन्य भारतीय प्रतीकों को भी जीवंत बना सकता है। उनमें नई ऊर्जा भर सकता है। इस कारण, राम-मंदिर का निर्माण सभ्यतागत आकांक्षाओं की पूर्ति भी है और उनका प्रस्थान बिंदु भी।
अनेक पीढ़ियों के सतत-संघर्षों और बेजोड़-बलिदानों के कारण आज राम-मंदिर के निर्माण की सभावना बनी है। लगभग पांच सौ सालों बाद राममंदिर के निर्माण से कई पीढ़ियों का स्वप्न आकार लेगा। एक सभ्यता जो पिछले कई सदियों से ध्वंश और विनाश का दंश झेल रही थी, वह नव-निर्माण की प्रक्रिया का पुनः हिस्सा बनेगी। मंदिर-निर्माण की प्रक्रिया का एक संदेश भारत की सांस्कृतिक-अजेयता भी है। भारत अपनी पहचान को बनाए-बचाए रखने के लिए सदियों तक सघर्ष कर सकता है और अंततः उस पहचान को प्रतिष्ठित कर ही लेता है, यह राममंदिर के लिए हुए संघर्ष से निकला एक प्रमुख निष्कर्ष है।
राममंदिर के लिए कैसे-कैसे संघर्ष किए गए, किन-किन रूपों में किए गए, यह महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मंदिर निर्माण का हमार संकल्प पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा। मंदिर निर्माण की आशा भारतीय जनमानस में कभी धूमिल नहीं हुई। इसीकारण, मंदिर निर्माण पर न्यायालय मुहर लगने के बाद जब यह खबर आई कि डेढ़ लाख सूर्यवंशी सैकड़ों साल बाद जूते पहनेंगे तो बहुतों को आश्चर्य हुआ। लेकिन अधिकांश भारतीयों के लिए यह राम-मंदिर के निर्माण के प्रति अगाध-निष्ठा का एक उदाहरण भर था।
नब्बे के दशक में चले रामजन्म भूमि आंदोलन संघर्षाें का सबसे नजदीकी उदाहरण है और कोठारी-बंधुओं का बलिदान, रामजन्मभूमि के लिए किए जाने वाले बलिदानों का सबसे नजदीकी उदाहरण। ये नजदीकी उदाहरण यह बताते हैं कि आक्रांताओं के अन्याय की लम्बी-काली रात और उनके द्वारा खड़े किए झूठ के पहाड़ों के बीच भारतीय जनमानस की मर्यादा पुरुषोत्तम में आस्था अविचल रही। इसके कारण ही भारतीय स्वत्व और सांस्कृतिक अधिष्ठान से जुड़ने की व्यग्रता भारतीयों में कभी कम नहीं हुई।
अब जब मंदिर का स्वप्न पूरा होने वाला है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मंदिर तो माध्यम है। यह माध्यम दिव्य-भव्य बने, उसकी पूरी चिंता होनी चाहिए लेकिन अंतिम लक्ष्य तो उन मूल्यों-मर्यादाओं की स्थापना है, जिनके भगवान राम विग्रह माने जाते हैं। इसलिए यहां पर उन मूलभूत मूल्यों-मर्यादाओं की चर्चा जरुरी हो जाती है।
पहली मर्यादा तो धर्म की ही है। धर्माधिष्ठित राजनीति की है। उसके लिए निरंतर और सजग होकर किए जाने वाले संघर्षो की है। मंदिर पूजा-पाठ के साथ समाज और राजनीति में धर्म स्थापना का वाहक बने, इसकी अपेक्षा प्रत्येक भारतीय को रहेगी। मंदिर को राजनीति और समाजनीति की भारतीय परिभाषा गढ़ने के काम करना है, राजनीति और समाजनीति में धर्म को स्थापित करने का कार्य करना है। भगवान राम का जीवन इन्हीं कार्यो की तो प्रेरणा देता है। और इसके कारण मंदिर का विकास वि-औपनिवेशीकरण की प्रेरणा देने वाले केन्द्र के रूप में होना चाहिए। यह एक महास्वप्न है। इसकी अपनी जटिलता है क्योंकि स्थापित मान्यताएं पूरी ताकत से इसका विरोध करेंगी। कारण स्थापित मान्यताओं और भारतीय मान्यताओं कई मसलों पर विपरीत धुरी जैसी हैं।
मसलन राजनीतिक क्षेत्र में ही देखें तो भारतीय मनीषा इस तथ्य को लेकर बहुत स्पष्ट रही है कि धर्मसत्ता से ही अन्य सत्ताएं निःसृत होती हैं और धर्म पर किसी का एकाधिकार नहीं है, उसका अंश अलग-अलग रुपों और भूमिकाओं में सभी में व्याप्त है। इसी कारण भारत में सत्ताओं की समानांतर रेखाएं नहीं रही हैं। धर्म ने व्यक्तियों को अलग-अलग भूमिकाएं प्रदान कीं और इसके साथ ही कुछ निश्चित सत्ताएं और सीमाएं भी। यह यूरोपीय दृष्टि के ठीक उलट है। वहां राज्यसत्ता और पुरोहित सत्ता आपस में टकराती रहीं। पुरोहित सत्ता (चर्च) लौकिक सत्ता को भी अपने अधीन बताने-जताने की कोशिश करती रही और राजसत्ता उसे स्वर्ग सम्बंधी मामलों तक ही सीमित रखने की दलील देती रही है। इसी कारण भारतीय चिंतन धर्मविहीन राजनीति को जीवंत और सृजनात्मक कार्य करने में असमर्थ मानता है और राजनीति में धर्म के निवेश को वह सबसे अधिक सृजनात्मक कार्य।
मर्यादा पुरुषोत्तम के निर्णय लेने की मुख्य कसौटी धर्म और न्याय है, शांति और समझौते नहीं । धर्म यदि शांतिपूर्ण तरीके से स्थापित होता है तो बहुत अच्छा, लेकिन यदि धर्म के मार्ग में शांति बाधा बनकर खड़ी हो जाए तो धर्म उस बाधा को ध्वस्त कर आगे बढ़े, यह परंपरा का आदेश है । रामायण की यही सीख है । इस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता कि धर्म के बजाय यदि शांति को तरजीह दी गई होती तो रामायण और महाभारत कभी नहीं घटित होते। गीता का तो संपूर्ण उपदेश ही प्राथमिकता सूची में धर्मपथ को शांतिपथ से ऊपर रखने के लिए दिया गया है । इस परंपरा के आलोक में और भारतीय मानसिकता को ऊहापोह की वर्तमान स्थिति से बाहर निकालने के लिए सबसे सशक्त प्रेरणा-पुंज राममंदिर ही बन सकता है।
यह मंदिर प्राचीन मंदिर व्यवस्था के पुनरुत्थान का प्रतीक बन सकता है। ऐसा मंदिर जो प्रार्थना-आराधना के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र हो। प्राचीनकालीन मंदिरों के छः अंग माने जाते थे- गोशाला, पाठशाला, पाकशाला, वैद्यशाला, धर्मशाला और नाट्यशाला। इन छः अंगों के कारण मंदिर लोककल्याणकारी व्यवस्था और सभ्यता-संस्कृति के संरक्षण के केन्द्र भी बन जाते थे। मंदिरों की इस तरह की भूमिका का ध्यान में रखें तो यह आसानी से  समझ में आ जाता है कि आक्रांता मंदिरों को निशाना क्यों बनाते थे। राममंदिर मंे छः अंगों वाली प्राचीन भारतीय मंदिर की संकल्पना साकार होनी चाहिए।
राममंदिर भारत की सांस्कृतिक आजादी का माध्यम बनने की पूरी संभावनाएं हैं, उसका विकास और निर्माण इस लक्ष्य को लेकर ही किया जाना चाहिए। यही सदियों तक राममंदिर के लिए संघर्ष करने वाले पूर्वजों को दी जाने वाली वास्तविक श्रद्धांजलि होगी और राम-राज्य की तरफ पहला कदम भी।

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