रविवार, 6 दिसंबर 2015

पंथनिरपेक्षता का नया पाखंड


 भारत में पंथनिरपेक्षता की बहस 'नित नई ऊंचाइयोंÓ को छू रही है। पहले
इसकी सीमा में 'पंचतत्त्वÓ ही आते थे लेकिन पिछले कुछ महीनों में इसने
ऊंची छलांग लगाते हुए सूर्य नामक 'महातत्त्वÓ को भी अपने जद में ले लिया
है। अब सूर्य और सूर्य की किरणें भी पंथनिरपेक्षता की बहस का हिस्सा बन
गई हैं। संभवत: इसी कारण योग दिवस के दौरान कई हलकों से यह आवाज आई कि,
क्योंकि सूर्य और उसकी किरणों की पंथनिरपेक्षता संदिग्ध है, इसलिए सूर्य
नमस्कार करना भी हमारे संवैधानिक 'सेकुलरÓ ढांचे के खिलाफ है। इस
'वैज्ञानिकÓ तर्क को 'प्रगतिशीलÓ दुनिया में व्यापक स्वीकृति और सराहना
मिली और इसके आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई की योग एक
सांप्रदायिक कृत्य है।
सूर्य से थोड़ा नीचे उतरकर शब्दों की दुनिया में आएं, तो वहां
पंथनिरपेक्षता नए प्रतिमान, नए कीर्तिमान गढ़ती हुई दिखती है।
पंथनिरपेक्षता में नए आयाम जोडऩे के प्रक्रिया भारत में राजनीतिक बदलाव
की आहट  के साथ शुरू हो गई थी। भाजपा द्वारा अपना प्रधानमंत्री का
उम्मीदवार घोषित करने के साथ तरह-तरह के फतवे साहित्य जगत और विद्वत जगत
से आने लगे थे। उस समय कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने घोषणा की थी कि वह
उस भारत में रहना नहीं पसंद करेंगे, जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
होंगे। ऐसे साहित्यकारों में से एक अनंत विजय ने बाद में अपनी ही बात से
यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया था कि उन्होंने तो यह बात आवेग में आकर कह
दी थी।
उसी समय जर्मनी में तत्कालीन वित्त मंत्री ने अपने ज्ञान को बघारते हुए
कहा था कि मेरे जैसे विद्वान आदमी के बिना भारत आगे नहीं बढ़ सकता।
उन्होंने नरेंद्र मोदी की अर्थव्यवस्था संबंधी ज्ञान को तुच्छ और नगण्य
बताते हुए कहा था कि उनका ज्ञान तो  डाक टिकट के पिछले हिस्से पर लिखा जा
सकता है। इसी लाइन को आगे बढ़ाते हुए कभी-कभार बोलने वाले तत्कालीन
प्रधानमंत्री ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री
बनना देश के लिए 'विनाशकारीÓ साबित होगा।  खैर विधि को जो मंजूर था वही
हुआ। देश ने पिछले साठ वर्ष की राजनीतिक प्रक्रिया और विमर्श को सिर के
बल खड़ा कर दिया और भाजपा को अप्रत्याशित बहुमत दिया।
नई सरकार बनने के बाद कई दशकों से सत्ता की नजदीकी का सुख भोग रहे
बुद्धिजीवी और साहित्यकार बेरोजगार हो गए। उनके पास अब एक ही काम बचा था
और वह था बात-बात पर सरकार को प्रमाणपत्र देना। जाहिर है सबसे अधिक
प्रमाणपत्र पंथनिरपेक्षता के नाम पर बांटे जा सकते थे, लेकिन नई सरकार
जिस तरह 'सबके साथ और सबके विकास का बातÓ कर रही थी, उसने प्रमाणपत्र
जारी करने की संभावनाओं को बहुत क्षीण कर दिया था और पंथनिरपेक्षता की
दुहाई देने वाल खुद को बहुत दिक्कत में पा रहे थे।
सरकार के गठन के बाद जमीन पर तो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था, लेकिन कुछ
निश्चित खेमों में व्यग्रता दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी। इन खेमों के
खांचे और निष्कर्ष दोनों, पूर्वनिर्धारित थे। घटना कोई भी हो, किसी भी
कारण घटी हो, उसकी व्याख्या निर्धारित खांचे में की जानी थी  और पहले से
तय निष्कर्षों की हर बार पुष्टि करना होता था। खांचा पंथरिपेक्षता का था
और निष्कर्ष पंथनिरपेक्षता बढ़ता हुआ खतरा।  चूंकि परंपरागत खाचें में
सरकार को कोसा नहीं जा पा रहा था, इसलिए उसमे नए पैमाने और तत्त्वों का
समावेश किया गया। लक्ष्य केवल इतना था कि देखो जी! हमने जैसा कहा था,
वैसा ही हो रह है। भारत की 'गंगा-जमुनी तहजीबÓ तार-तार हो रही है और
सांप्रदायिक सौहार्द हवा होता जा रहा है।
नई सरकार के बने बमुश्किल दो महीने भी नहीं हुए थे कि आउटलुक अंग्रेजी ने
अपनी कवर स्टोरी इस बात को बनायी की देश में कट्टरता बढ़ रही है। जबकि उस
समय ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था जिससे इस तरह की बहस की शुरुआत भी हो सके।
मंत्रिमंडल की संरचना और कुछ फुटकर बयानों के जरिए यह साबित करने की
कोशिश की गई की यहां पर पंथनिरपेक्षता धरातल में पहुंचने वाली है। इसी
पत्रिका ने चुनावों के समय नरेंद्र मोदी के चेहरे की मैपिंग करवाई थी और
यह साबित करने की थी कि नरेंद्र मोदी देश की पंथनिरपेक्षता के लिए घातक
साबित होंगे।
 हद तो तब हो गई भारतीय भाषाओ के प्रति सरकार द्वारा संजीदगी दिखाए जाने
के प्रकरण को बढ़ती तानाशाही के रूप में पेश किया गया और ऐशा बताया जाने
लगा कि इससे देश की एकता और विकास दोनों खतरे में पड़ जाएंगे।  गौरतलब है
कि उस समय संघ लोक सेवा आयोग में भारतीय भाषाओं के प्रति हो रहे अन्याय
को लेकर देश आंदोलित था।
इसके बाद शुरू हुआ चर्च पर हमले और नन बलात्कार का प्रकरण। यहां से लेकर
अमरीका तक हो-हल्ला मचाया गया कि नई सरकार बनने के बाद से चर्चों पर हमले
बढ़ गए है और पश्चिम बंगाल में एक नन के बलात्कार के बाद तो आसमान ही सिर
पर उठा लिया गया। बिना सबूत, बिना अदालत सरकार और संघ परिवार को पानी
पी-पीकर कोसा जाने लगा। बाद में पता चला कि जिसे चर्चों पर हिंदू
कट्टरपंथियों के हमले के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया
गया, वह चोरी की मामूली घटनाएं थी और नन के बलात्कार का आरोपी एक
बांग्लादेशी मुस्लिम निकला। लेकिन कई लोग इस प्रकरण को लेकर अमरीका से
सहायता तक मांगने पहुंच गए थे और दुनिया भर में यह ढिंढोरा पीटा की नई
सरकार भारत में गैर हिंदुओं के साथ अन्याय ढा रही है।
प्रमाणपत्र देने की इसी कड़ी और आगे बढ़ाया अमत्र्य सेन ने। नालंदा
विश्वविद्यालय में सरकार उनको दूसरा अवसर देने के पक्ष में नहीं थी। इससे
दु:खी होकर उन्होंने यह राग अलापा भारत की नई सरकार विद्वानों का सम्मान
नहीं कर रही है और बहुत ही औसत दर्जे के लोगों को आगे बढ़ा रही है। वैसे
दूसरों को बौद्धिक दृष्टि से हेय समझना वामपंथी विचारधारा की नैसर्गिक
प्रवृत्ति है। खुद कुछ करें या न करें,दूसरों को बौद्धिक दृष्टि से खोखला
जरूर बताते रहते हैं। अमत्र्य सेन अपनी इस व्यथा को प्रकट करने में भी
पंथनिरपेक्षता का फुटनोट की तरह उपयोग करते रहते थे ताकि उनकी निष्ठा और
बौद्धिकता पर संदेह न किया जा सके।
इस नवीन और पाखंडी पंथनिरपेक्षता के अभियान का सबसे ताजा संस्करण
साहित्यकारों द्वारा बढ़ती असहिष्णुता के नाम पर साहित्य अकादमी पुरस्कार
का लौटाया जाना है।
इसकी शुरुआत लेखक और कवि उदय प्रकाश द्वारा कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की
हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने से होती है। उदय
प्रकाश का कहना था कि भारत में अभिव्यक्ति का स्पेस संकुचित हो रहा है।
इस संकुचन के विरोध स्वरूप उन्होंने अपना पुरस्कार वापस कर दिया। गौरतलब
है कि पिछले कुछ सालों से उदयप्रकाश को प्रगतिशील साहित्यिक बिरादरी ने
अपनी जमात से बहिष्कृत कर रखा था। उन पर यह आरोप था कि उन्होंने योगी
आदित्यनाथ से सम्मान ग्रहण कर प्रगतिशीलता के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाई
है। भगवाधरी व्यक्ति से पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कोई प्रगतिशील कैसे
रह सकता है? संभवत: उदयप्रकाश अपनी प्रगतिशीलता के दामन पर लगे दोगों को
दूर करने तथा सुरक्षित 'घर वापसीÓ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को
औजार बना रहे थे और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। इस कदम के कारण उनको
'शहादती दर्जाÓ प्राप्त हो गया।
नयनतारा सहगल के साहित्यिक अवदान के बारे में लोगों को कम ही पता था।
इसीलिए उन्होंने जब पुरस्कार लौटाने की घोषणा की तो उनके पक्ष की लॉबी ने
भी उनका परिचय एक साहित्यकार से अधिक जवाहरलाल नेहरू की भांजी के रूप में
कराया। मानो जवाहरलाल नेहरू के सगे-संबंधियों द्वारा यदि पंथनिरपेक्षता
के बारे में कुछ कह दिया जाए तो वह अंतिम प्रमाण हो, उसके बाद कुछ कहने
सुनने के लिए बचता ही नहींै। वह अखलोक की हत्या से दु:खी थी, लेकिन इसके
लिए उन्होंने राज्य सरकार के बजाय मोदी सरकार को निशाने पर लिया। हो सकता
है वह भावना में बह गई होंं और इस कारण तथ्य को भूल गई हों कि कानून
व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। यहां यह याद दिलाना
प्रासंगिक होगा कि नयनतारा सहगल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार 1984 मे
दिल्ली में मचे कत्लेआम के आस-पास ही स्वीकार किया था।
अशोक वाजपेयी साहब की तो छवि ही साहित्यकार से अधिक साहित्यिक प्रबंंधक
की रही है। वह साहित्यकार की मुद्रा में व्यवस्था पर टिप्पणी देते हैं।
साहित्यिक संास्कृतिक संस्थानों में होने वाली नियुक्तियों पर उनकी पैनी
नजर रहती है। उनके स्तंभ को पढऩे पर यह पता चलता है कि समय-समय पर वह
अधिकारी भाव से यह प्रमाणपत्र देते रहते हैं कि अमुक नियुक्ति सही है
अथवा अमुक नियुक्ति गलत। जाहिर है उनके साहित्य पर उनका प्रशासक हावी
रहता है।  उनकी चिंंता भी पंथनिरपेक्षता ही है लेकिन इन्हीं साहब का दिल
भापाल गैस कांड,जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, के खिलाफ नहीं पसीजा था।
इसके बाद तो पुरस्कार लौटाने की भेड़चाल शुरू हो गई।
यहां पर यह बात याद रखनी जरूरी है कि जिस साहित्यिक   बिरादरी से संबंधित
लोग पुरस्कारों को वापस कर रहे हैं, प्रारंभ से उनका विश्वास साहित्य
सर्जना से अधिक प्रमाणपत्र देने में रहा है। वामपंथी विचारधारा साहित्य
सृजन कम किया है और आलोचना अधिक। इस आलोचना में भी विवेचन कम, बुरा -भला
साबित करने की प्रवृत्ति अधिक रहती है। सभी वामपंथी आलोचना को ही अपना
केंद्रीय विषय बनाते हैं और इसे ही अपने साहित्यिक अवदान के रूप में
परिभाषित करते हैं। इस आलोचना ने पिछले चालीस सालों में साहित्यिक
मठाधीशी को जन्म दिया है। कुछ न करके भी, किसी के खिलाफ फतवा जारी करने
की प्रवृति वामपंथी साहित्य मंडली के रग-रग में बस चुकी है। इसके कारण
हिंदी ही सरसता को ठेस तो लगी ही है, उसकी विषयवस्तु भी भारत नहीं, रूस,
फ्रांस, चीन और क्यूबा बन गए हैं। नए और स्वतंत्र चेता साहित्यकारों  के
लिए यहां पर कोई स्पेस नहीं था। अज्ञेय जैसे महान साहित्यकारों को भी
उनके अंतिम पड़ाव पर भारतीय दर्शन की तरफ झुकाव के कारण इस मंडली ने
लानत-मलानत की थी।
 खैर, पहले इन साहित्यिक फतवों का सत्ता प्रतिष्ठान पर असर होता था,
लेकिन अब इनकी कोई पूछ नहीं है। सारी छटपटाहट का कारण भी यही है। इन
साहित्यिक मठाधीशों से पूछे बगैर ही साहित्यिक रीति-नीति तय की जा रही
है।  इसलिए धर्म को राजनीति से दूर रखने की पैरोकारी करने वाली मंडली अब
साहित्य और राजनीति के घालमेल को पंथनिरपेक्षता की कसौटी बता रही है और
इस तरह पंथनिरपेक्षता को और भी अधिक पाखंडी बना रहे हैं। इनका दुर्भाग्य
यह है कि देश अब उनके चेहरों को पहचान चुका है और निर्णय मुखौटों के बजाय
वास्तविक चेहरे के आधार पर ले रहा है।

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