सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

महती और आवश्यक परंपरा की खोज

वैश्वीकरण के दौर में एक अजीब सा विरोधाभास बडे वेग के साथ आकार ले
रहा है। कास्मोपाॅलिटन होने के नारे के बीच पूरी दुनिया में स्वयं को
पहचानने और अपनी जडों को खोजने की व्यग्रता भी बढी जा रही है।
अधिकांश संजीदा विचारक अब इस तथ्य को बहुत स्पष्टता के साथ स्वीकार करने
लगे हैं कि पूरी दुनिया में जो संघर्ष दिख रहा है, वह कुछ नहीं बल्कि
अपनी पहचान के श्रेष्ठ अंश को खोजने और उसे पुनः साकार करने का
संघर्ष है। दाएस का खिलाफत का दुःस्वप्न हो, रूस का क्रीमिया में हस्तक्षेप
हो अथवा चर्च द्वारा सोलहवीं शताब्दी को पैपेसी को स्थापित करने का
प्रयास हो, सभी अपने अतीतकाल काल के स्वर्णयुग की ज्यांे की त्यांे वापसी
चाहते हैं।
इस स्थिति में भारत की स्थिति बहुत अनूठी और सर्जनात्मक है। यह स्थिति
भारत की परंपरा के प्रति अनूठी समझ के कारण है। यहां पर परंपरा का मतलब,
नियम-कानूनों का वाह्य ढांचा नहीं बल्कि सनातन तत्व का बोध है। सनातन
तत्व को सामयिक बनाना भी भारतीय परंपरा का एक आवश्यक अंश होता है।
इसलिए यहां पर परंपरा जड नहीं है, वह सतत प्रवाहित होती रहती है, नए-नए
कलेवरों के साथ। हां, उसका स्वत्व हमेशा एक रहता है। इसीलिए यह परंपरा
पुनरुत्थान से अधिक नवोत्थान पर विश्वास करती है। इसमें ठहराव नहीं है
बल्कि यह देश, काल, पात्र के अनुसार सत्य को परिष्कृत और प्रवाहित करती है।
यह व्यावहारिक भी है क्योंकि अतीत को जिंदा नहीं किया जा सकता। नई
परिस्थितियों के अनुसार किसी भी भावना का सर्जनात्मक पुनर्गठन जरूर किया
जा सकता है।
भारत में अपने मूलचरित्र को समझने के प्रयासों में बढोतरी हुई है।
लेकिन इन प्रयासों का स्वरूप बहुत ही सर्जनात्मक और सकारात्मक है। यहां पर
अतीत को पुनर्जीवित करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं, बल्कि इससे ज्यादा
जोर उस भावना को समझने पर है, जिसके कारण परंपराएं और व्यवस्थाएं
खडी हुईं ताकि उस भावना के अनुरुप नई परंपराए गढी जा सकें। इससे सातत्य
और परिवर्तन दोनों को साधा जा सकता है। अपनी पहचान से जुडे रहकर भी
वैश्विक हुआ जा सकता है और सबसे बडी बात यह कि कूपमंडूकता की स्थिति से
बचा सकता है।
प्रो.कौशल किशोर मिश्र की किताब महाभारत में राजधर्म, भारतीय स्वत्व
बोध की इसी दिशा में किया गया एक सार्थक प्रयास है। प्रो मिश्र ने
भारतीय चिंतन के महाकोश को आधार मानकर भारतीय राजनीतिक परंपरा के
मूल अधिष्ठानों को समझने-समझाने की कोशिश की है। इससे पहले भारतीय
राजनीतिक चिंतन को समझने की कोशिशंें अधिकांशतः आचार्य कौटिल्य तक
ही जाती है। छिटपुट प्रयास शुक्रनीति और महाभारत के शांतिपर्व पर भी
हुए हैं। प्रो.मिश्र ने संपूर्ण महाभारत को आधार मानकर भारतीय चिंतन
को समझने की कोशिश की है, इसलिए उनके कार्य का परिप्रेक्ष्य बहुत विस्तृत
है और महत्ता अधिक है।
विषय वस्तु विस्तृत होने के कारण पुस्तक दो खंडों में विभाजित हैं।
पहले खंड में भारतीय राजनीति परंपरा और महाभारत, महाभारत में धर्म
नैतिकता और राजनीति, महाभारत में राज्य एवं राजा का स्वरूप तो दूसरे
खंडमें  महाभारत में राजत्व की शक्ति एवं दायित्व तथा साामजिक व्यवहार
एवं राजधर्म पर प्रकाश डाला गया है। महाभारत केंद्रित होने के बावजूद
लेखक ने राज्य शास्त्र के प्रमुख चिंतकों को मतों को समावेश कर ग्रंथ
को अधिक समग्र बना दिया है। शुक से लेकर कामंदक तक के विचारों का पुट
देकर महाभारतीय राजधर्म के मर्म का व्याख्यायित करने की कोशिश की गई
है।
पुस्तक में भारतीय राजनतिक चिंतन से संबंधित कई भ्रांतियों को दूर
करने की कोशिश की गई है। पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में राजतंत्र की कंेद्रीय
एकाधिकारवाद को माना जाता है और इसी एकाधिकारवादी अवधारणा को भी
भारतीय राजतंत्र पर थोपकर उसकी व्याख्या करने की कोशिश की जाती है,
जिसके कारण भारतीय राजतंत्र से कई सकारात्मक पक्ष गायब हो जाते हैं। लेख
इस तथ्य को रेखांकित करता है कि भारतीय संदर्भों मे ंराजतंत्र को
एकाधिकारवाद का प्रर्याय नहीं माना जा सकता- ’प्राचीन भारत में वैदिक
राष्ट्रª का स्वरूप् मुख्यतः राजतंत्रात्मक रहा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि
राजतंत्र एकात्मक प्रणाली है। राजतंत्र आधुनिक लोकतंत्र से भी अधिक व्यापक
और जनाभिमुख है। ऋ़ग्वेद में गणों का उल्लेख है।‘(प्रथम खंड-पृष्ठ
6)
इसीतरह राजतंत्र को निरंकुश और स्वच्छंद मानने को भारतीय संदर्भों में
लेखक अप्रासंगिक मानता है। यहां पर राजदंड मे धर्मदंड का अंकुश होता
था, जो उसे नागरिक-कल्याण के प्रथम कर्तव्य के प्रति सचेत रखता था। सभी
विजिगिषु राजाओं के दैनिक व्यवहार के लिए भारतीय परंपरा एक कठोर
जीवनशैली की तरफ संकेत करती है, जिसमें स्वच्छंदता के लिए स्थान कोई
स्थान नहीं है। राजतंत्र में राजा के ऊपर ऐसे कठोर नियंत्रण के कारण ही
महाभारत के शांतिपर्व में स्पष्ट रूप से यह कह दिया गया है कि समस्त त्याग
और साधनाओं का राजधर्म में समावेश है। राजा के लिए पृथक से तपस्या
करने की आवश्यकता नहीं है। उसके कार्य की प्रकृति ऐसी है कि यदि वह ठीक
ढंग से अपने उत्तरदायित्वों को निर्वहन करता है तो उसी में उसकी तपस्या
और साधानाएं स्वतः हो जाती हैं।
 राजतंत्र के उदारपक्ष और जनाभिमुखता की तरफ संकेत करते हुए लेखक कहता
है कि -‘वैदिक राजनीति का आधार सामाजिक सेवा है। इस उद्देश्य की प्राप्ति
में राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना होती है। राजा स्वामित्व नहीं सेवा का
हेतु है। राजा का अभीष्ट है कि वह राष्ट्र का विकास करे। सामाजिक
अर्थव्यवस्था में उत्पन्न विश्रृंखलता को दूर करे। विश की रक्षा एंव सैनिक
आवश्यकता के आधार पर राष्ट्र एंव राजा की शक्ति का विकास होता है।
राष्ट्रधारक के रूप् में वह राष्ट्रस्यमूर्धाय है। पायुर्विश होने के कारण वह
प्रजापालक है। राजनीति की इसी विशेषता में लोकतंत्र के समस्त मूल्य समाहित
हैं।’ (प्रथम खंड-पृष्ठ 7)। लेखक की इस दृष्टि से सहमत-असहमत हुआ जा
सकता है, लेकिन किताब की ऐसी स्थापनाएं एक वैकल्पिक भारतीय परिप्रेक्ष्य की
रचना करने सफल होती हैं, जिसमें भारतीय राजनीतिक चिंतन और परंपराओ
को बेहतर ढंग से समझने में सहूलियत होती है।
संपूर्ण किताब में लेखक महाभारत में प्रणीत इस तथ्य पर सर्वाधिक ध्यान
आकर्षित करता हुआ प्रतीत होता है कि राजधर्म, भी वृहदतर धर्म का एक
अंश है। और दूसरा यह कि विभिन्न सापेक्षिक धर्मों में इसका स्थान उच्च
है। क्योंकि अन्य धर्मों के उचित निर्वहन से जहां स्वयं का अथवा कुछ
व्यक्तियों का कल्याण होता है वहीं राजधर्म से संपूर्ण समाज और संस्कृति
का कल्याण होता है। राजधर्म के पथभ्रष्ट होने पर अन्यधर्म अपने आप
पथभ्रष्ट हो जाते हैं क्योंकि सभी कर्तव्यों के निर्वहन का परिवेश
राजधर्म ही रचता है। संभवतः इसीलिए महाभारत में सभी धर्मों को
राजधर्म में ही प्रतिष्ठित माना गया है।
पुस्तक में राजधर्म से संबंधित अन्य विषयांे पर भी रोचक सामग्री प्रदान
की गई है। जैसे कि महाभारतकालीन अस्त्रों का विस्तृत परिचय दिया गया है।
कणक, चक्राश्म और शतघ्नी जैसे अस्त्रों की जानकारी पाठकों को विस्मृत कर
सकती है। जिस लौहयंत्र क गर्भस्थ गोलियां आग्नेय द्रव्य की शक्ति से
उल्काओं की तरह चारों ओर विकीर्ण हो जाएं, उसे कणक कहते हैं।
आग्नेय औषधि के बल से फेंके एग प्रस्तरखंडों द्वारा जो शस्त्र एक साथ
सैकडों मनुष्यों की हत्या कर सके, उसे शतघ्नी कहते हैं। ऐसे अनकों
प्रकरण ग्रंथ को रोचक बनाए रहते है।
इतने गंभीर और महत्वपूर्ण ग्रंथ में प्रूफ की त्रुटियां कई जगहों पर
खटकती हैं।पुस्तक में कई जगहों पर विषयांतर भी हुआ है। पुस्तक की
कीमत को शोध ग्रंथों की तरह रखा गया है। यह सामान्य पाठकों को
बहुत अधिक प्रतीत हो सकता है। फिर भी भारतीय राजनीतिक ंचितन के मर्म से
परिचित होने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है और भारतीय वैकल्पिक
परिप्रेक्ष्य को रचने और समझने के उत्सुक पाठकों-विद्वानों को इस ग्रंथ
को जरुर पढना चाहिए।

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