सहज और मौलिक चिंतन की सर्वाधिक संभावनाएं परिवेश की भाषा में निहित होती हैं। कोई भी ऐसा समूह अथवा वर्ग जो हासिए पर हो और जिसको सशक्त बनाए जाने के प्रयास चल रहें हों, उसे मूलभूत सुविधाएं परिवेश की भाषा में, मातृभाषा में, उपलब्ध कराना व्यवस्था का मूलकर्म बन जाता है।
सशक्तीकरण के कई पहलू होते है। भाषा उन सभी पहलुओं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित होती है। यह शैक्षणिक दृष्टि से यह अधिक सस्ती, सुलभ और समावेशी शिक्षा का आधार तैयार करती है, स्वास्थ्य सम्बंधी जटिलताओं को सुबोध बनाकर सजगता को बढ़ाती है, आर्थिक परिदृश्य को अधिक विस्तृत और समावेशी बनाती है। भाषा का सबसे महत्वपूर्ण अवदान तो सांस्कृतिक होता है। मातृभाषा न केवल व्यक्तियों को सांस्कृतिक प्रवाह से जोड़े रखती है बल्कि यह आत्मबल को बनाए रखने का भी महत्वपूर्ण साधन है।
मातृभाषा महिला सशक्तीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में कैसे सहायक हो सकती है इस बात को कुछ उदारण के जरिए समझा जा सकता है। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय ने गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के लिए मोबाइल पर मैसेज भेजने शुरू किए हैं। यह संदेश एनीमिया की स्थिती खान-पान की सावधानियां और दिनचर्या को लेकर होते हैं। यह जानकारी वास्तव दूर-दराज में रहने वाली महिलाओं के बहुत उपयोगी है। लेकिन दुर्भाग्य से ये सभी मैसेज अंग्रेजी में भेजे जाते है। जो महिलाएं पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं, अंग्रेजी ज्ञान रखती हैं, उनके लिए इन संदेशों का कोई खास मतलब नहीं रह जाता क्योंकि वह इन सभी सूचनाओं को प्रायः जानती ही है। यह उन महिलाओं के लिए भी किसी काम के नही होती जिनको यह संदेश भेजे जाते है अथवा लिनके लिए यह जानकारी बहुत उपयोगी साबित हो सकती है क्योकि वह अंगे्रजी भाषा में लिखे संदेशो को ठीक ढंग से समझ नही पाती। इस तरह से दोनो स्थितियों में अंग्रेजी में लिखे स्वास्थ्य के प्रति सजगता पैदा करने वाले ये संदेश सफेद हाथी बन जाते है।
यदि यहि संदेश हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में संप्रेषित किए जाएं तो जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य को ठीक रखने और कुपोषण से छुटकारा पाने सफलता प्राप्त की जा सकती है। और यह सफलता स्त्री सशक्तीकरण का ही एक रूप और महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी मातृभाषा महिला सशक्तीकरण को ऊंचे मुकाम तक पहुंचा सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पिछले दो दशको में बालिका नामांकन दर में काफी सुधार हुआ है। लेकिन दो कारण ऐसे है जो शिक्षा क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण के लिहाज से मातृभाषा को बहुत महत्वपूर्ण बना देते है।
पहला लड़कियों की ड्राप आउट की दर का अधिक होना और उनकी दूरस्थ शिक्षा पर अनकी अधिक निभर््ारता तथा दूसरा लड़कियों की शिक्षा केा लेकर लापरवाही और कम खर्च करने की मानसिकता। आर्थिक स्थिती तथा शादी विवाह जैसे अन्य कारणांे की वजह से लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। पहले तो डाप आउट होेने के बाद लड़कियों के पास शिक्षा के विकल्प समाप्त हो जाते थे। लेकिन दूरस्थ शिक्षा प्रारम्भ होने के बाद अपनी शिक्षा केा आगे जारी रखने की नया तरीका लड़कियों को मिला। दुर्भाग्यवश भाषायी बाधाओं के कारण दूरस्थ शिक्षा में निहित संभावनाओ का संपूर्ण लाभ लड़कियों को नही मिल पा रहा है। दूरस्थ शिक्षा में व्यक्ति को स्वयं की प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ना होता है और उन्हें नाममात्र की औपचारिक सहायता से ही विषयों को समझना होता है। मातृभाषा की बजाय किसी अन्य भाषा में विषय सामग्री के होने से समझने की प्रक्रिया बाधित होती है।
अपनी भाषा में समग्री उपलब्ध होने पर सारा जोर विषय को समझने पर लगता है जबकि अन्य भाषा में सामग्री उपलब्ध होने पर विद्यार्थी की उर्जा और मेधा का बड़ा भाग भाषा को समझने में ही खर्च हो जाता है। इसके कारण विषय पर आवश्यक पकड़ नहीं बन पाती और विद्यार्थी इसके कारण कठिन प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाता है। यह हैरत की बात है कि दूरस्थ शिक्षा कि इस सीमा से परिचित होने के बावजूद इग्नू द्वारा संचालित पाठयक्रमों में से साहित्य और कुछ गिने चुने विषयों को छोड़कर अधिकांश विषयों की पाठय सामग्री अंग्रेजी में उपलब्ध कराई जाती है। और अंग्रेजी में ही परीक्षा की अनिवार्यता विद्यार्थी के सामने रख दी जाती है इनकी सबसे अधिक मार शिक्षा ग्रहण करने की इच्छुक लड़कियों पर पड़ती है।
इन दोनों विवशताओं के कारण या तो वे आगे पढ़ाई जारी रखने का विचार ही छोड़ देती हैं अथवा गलाकाट प्रतस्पर्धा में पीछे रह जाने को अभिशप्त हो जाती हैं। यदि दूरस्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम को हिंदी में मुहैया कराया जाए और अंग्रेजी में ही परीक्षा देने की अनिवार्यता को हटा लिया जाए तो इस सबसे अधिक लाभ लड़कियों को प्राप्त होगा। इन कारणों से आधी दुनिया के सामने संभावनाओं का संसार खुल सकेगा और शिक्षा जगत में उनके समक्ष आने वाली दुश्वारियां कुछ कम हो सकेंगी। यह महिला सशक्तीकरण को भी मजबूती प्रदान करेगा।
एक अन्य कारण से भी मातृभाषा में शिक्षा, महिला सशक्तीकरण के लिहाज से उपयोगी है। यह दुर्भाग्यजनक किंतु कटु सत्य है कि अब भी अभिभावकों की तरफ से लड़का-लड़की को दी जाने वाली शिक्षा में विभेद देखने को मिलता है। यह विभेद अंग्रेजी-हिंदी माध्यम के विद्यालयों के चयन के रूप में सामने आता है। लड़के को इंग्लिश मीडियम और लड़की को हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने की प्रवृत्ति समाज में दिखायी पडती है। इसके कारण उच्च -शिक्षा में जहां पर अब भी अंग्रेजी का बोलबाला है, लड़कियों को पीछे रह जाना पड़ता है। यदि उच्च शिक्षा के समस्त द्वार हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए जाएं तो इससे सबसे अधिक लाभी लड़कियों को ही मिलेगा।
भारत में लंबे समय तक इनसाइड वोमनःआउटसाइड मैन की धारणा का गहरा प्रभाव रहा है। अब यह धारणा टूट रही है। महिलाएं बाहर निकल रही हैं और घुल-मिल रही हैं। लेकिन उनकी स्वस्थ सामाजीकरण में एक प्रमुख बाधा अंग्रेजी के कारण पैदा हो रही है। सामान्य, मेहनती, प्रतिभावान महिला भी अंग्रेजी के आतंक से प्रतिदिन आतंकित होती हैं। लंबे समय तक घर से बाहर न निकलने के अभ्यस्त आधी दुनिया पर अंग्रेजी प्रतिदिन हीनता का भाव रचती है और उसे गाढ़ा करती है।
इस तरह मातृभाषा, मातृशक्ति के सशक्तीकरण का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन निहित स्वार्थ, अंग्रेजी के मोह तथा अभिजन वर्ग के दुराग्रह के कारण व्यवस्था आज तक मातृभाषा को महिला सशक्तीकरण के उपकरण के रूप में रेखांकित नहीं कर सकी है। हैरत तो यह है कि जो भारतीय परिप्रेक्ष्य से परिचित हैं वे भी मातृभाषा और मातृशक्ति के आपसी संबंधों को रेखांकित नहीं कर पा रहे हैं। इस अपरिचय के कारण महिलाओं को भाषायी मानवाधिकार प्रदान करने के लिए कोई समुचित पहल नहीं दिख रही है।
सशक्तीकरण के कई पहलू होते है। भाषा उन सभी पहलुओं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित होती है। यह शैक्षणिक दृष्टि से यह अधिक सस्ती, सुलभ और समावेशी शिक्षा का आधार तैयार करती है, स्वास्थ्य सम्बंधी जटिलताओं को सुबोध बनाकर सजगता को बढ़ाती है, आर्थिक परिदृश्य को अधिक विस्तृत और समावेशी बनाती है। भाषा का सबसे महत्वपूर्ण अवदान तो सांस्कृतिक होता है। मातृभाषा न केवल व्यक्तियों को सांस्कृतिक प्रवाह से जोड़े रखती है बल्कि यह आत्मबल को बनाए रखने का भी महत्वपूर्ण साधन है।
मातृभाषा महिला सशक्तीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में कैसे सहायक हो सकती है इस बात को कुछ उदारण के जरिए समझा जा सकता है। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय ने गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने के लिए मोबाइल पर मैसेज भेजने शुरू किए हैं। यह संदेश एनीमिया की स्थिती खान-पान की सावधानियां और दिनचर्या को लेकर होते हैं। यह जानकारी वास्तव दूर-दराज में रहने वाली महिलाओं के बहुत उपयोगी है। लेकिन दुर्भाग्य से ये सभी मैसेज अंग्रेजी में भेजे जाते है। जो महिलाएं पर्याप्त पढ़ी लिखी हैं, अंग्रेजी ज्ञान रखती हैं, उनके लिए इन संदेशों का कोई खास मतलब नहीं रह जाता क्योंकि वह इन सभी सूचनाओं को प्रायः जानती ही है। यह उन महिलाओं के लिए भी किसी काम के नही होती जिनको यह संदेश भेजे जाते है अथवा लिनके लिए यह जानकारी बहुत उपयोगी साबित हो सकती है क्योकि वह अंगे्रजी भाषा में लिखे संदेशो को ठीक ढंग से समझ नही पाती। इस तरह से दोनो स्थितियों में अंग्रेजी में लिखे स्वास्थ्य के प्रति सजगता पैदा करने वाले ये संदेश सफेद हाथी बन जाते है।
यदि यहि संदेश हिन्दी भाषा अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में संप्रेषित किए जाएं तो जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य को ठीक रखने और कुपोषण से छुटकारा पाने सफलता प्राप्त की जा सकती है। और यह सफलता स्त्री सशक्तीकरण का ही एक रूप और महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी मातृभाषा महिला सशक्तीकरण को ऊंचे मुकाम तक पहुंचा सकती है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पिछले दो दशको में बालिका नामांकन दर में काफी सुधार हुआ है। लेकिन दो कारण ऐसे है जो शिक्षा क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण के लिहाज से मातृभाषा को बहुत महत्वपूर्ण बना देते है।
पहला लड़कियों की ड्राप आउट की दर का अधिक होना और उनकी दूरस्थ शिक्षा पर अनकी अधिक निभर््ारता तथा दूसरा लड़कियों की शिक्षा केा लेकर लापरवाही और कम खर्च करने की मानसिकता। आर्थिक स्थिती तथा शादी विवाह जैसे अन्य कारणांे की वजह से लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। पहले तो डाप आउट होेने के बाद लड़कियों के पास शिक्षा के विकल्प समाप्त हो जाते थे। लेकिन दूरस्थ शिक्षा प्रारम्भ होने के बाद अपनी शिक्षा केा आगे जारी रखने की नया तरीका लड़कियों को मिला। दुर्भाग्यवश भाषायी बाधाओं के कारण दूरस्थ शिक्षा में निहित संभावनाओ का संपूर्ण लाभ लड़कियों को नही मिल पा रहा है। दूरस्थ शिक्षा में व्यक्ति को स्वयं की प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ना होता है और उन्हें नाममात्र की औपचारिक सहायता से ही विषयों को समझना होता है। मातृभाषा की बजाय किसी अन्य भाषा में विषय सामग्री के होने से समझने की प्रक्रिया बाधित होती है।
अपनी भाषा में समग्री उपलब्ध होने पर सारा जोर विषय को समझने पर लगता है जबकि अन्य भाषा में सामग्री उपलब्ध होने पर विद्यार्थी की उर्जा और मेधा का बड़ा भाग भाषा को समझने में ही खर्च हो जाता है। इसके कारण विषय पर आवश्यक पकड़ नहीं बन पाती और विद्यार्थी इसके कारण कठिन प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाता है। यह हैरत की बात है कि दूरस्थ शिक्षा कि इस सीमा से परिचित होने के बावजूद इग्नू द्वारा संचालित पाठयक्रमों में से साहित्य और कुछ गिने चुने विषयों को छोड़कर अधिकांश विषयों की पाठय सामग्री अंग्रेजी में उपलब्ध कराई जाती है। और अंग्रेजी में ही परीक्षा की अनिवार्यता विद्यार्थी के सामने रख दी जाती है इनकी सबसे अधिक मार शिक्षा ग्रहण करने की इच्छुक लड़कियों पर पड़ती है।
इन दोनों विवशताओं के कारण या तो वे आगे पढ़ाई जारी रखने का विचार ही छोड़ देती हैं अथवा गलाकाट प्रतस्पर्धा में पीछे रह जाने को अभिशप्त हो जाती हैं। यदि दूरस्थ शिक्षा के पाठ्यक्रम को हिंदी में मुहैया कराया जाए और अंग्रेजी में ही परीक्षा देने की अनिवार्यता को हटा लिया जाए तो इस सबसे अधिक लाभ लड़कियों को प्राप्त होगा। इन कारणों से आधी दुनिया के सामने संभावनाओं का संसार खुल सकेगा और शिक्षा जगत में उनके समक्ष आने वाली दुश्वारियां कुछ कम हो सकेंगी। यह महिला सशक्तीकरण को भी मजबूती प्रदान करेगा।
एक अन्य कारण से भी मातृभाषा में शिक्षा, महिला सशक्तीकरण के लिहाज से उपयोगी है। यह दुर्भाग्यजनक किंतु कटु सत्य है कि अब भी अभिभावकों की तरफ से लड़का-लड़की को दी जाने वाली शिक्षा में विभेद देखने को मिलता है। यह विभेद अंग्रेजी-हिंदी माध्यम के विद्यालयों के चयन के रूप में सामने आता है। लड़के को इंग्लिश मीडियम और लड़की को हिंदी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने की प्रवृत्ति समाज में दिखायी पडती है। इसके कारण उच्च -शिक्षा में जहां पर अब भी अंग्रेजी का बोलबाला है, लड़कियों को पीछे रह जाना पड़ता है। यदि उच्च शिक्षा के समस्त द्वार हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए जाएं तो इससे सबसे अधिक लाभी लड़कियों को ही मिलेगा।
भारत में लंबे समय तक इनसाइड वोमनःआउटसाइड मैन की धारणा का गहरा प्रभाव रहा है। अब यह धारणा टूट रही है। महिलाएं बाहर निकल रही हैं और घुल-मिल रही हैं। लेकिन उनकी स्वस्थ सामाजीकरण में एक प्रमुख बाधा अंग्रेजी के कारण पैदा हो रही है। सामान्य, मेहनती, प्रतिभावान महिला भी अंग्रेजी के आतंक से प्रतिदिन आतंकित होती हैं। लंबे समय तक घर से बाहर न निकलने के अभ्यस्त आधी दुनिया पर अंग्रेजी प्रतिदिन हीनता का भाव रचती है और उसे गाढ़ा करती है।
इस तरह मातृभाषा, मातृशक्ति के सशक्तीकरण का एक सशक्त माध्यम है। लेकिन निहित स्वार्थ, अंग्रेजी के मोह तथा अभिजन वर्ग के दुराग्रह के कारण व्यवस्था आज तक मातृभाषा को महिला सशक्तीकरण के उपकरण के रूप में रेखांकित नहीं कर सकी है। हैरत तो यह है कि जो भारतीय परिप्रेक्ष्य से परिचित हैं वे भी मातृभाषा और मातृशक्ति के आपसी संबंधों को रेखांकित नहीं कर पा रहे हैं। इस अपरिचय के कारण महिलाओं को भाषायी मानवाधिकार प्रदान करने के लिए कोई समुचित पहल नहीं दिख रही है।
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