शनिवार, 14 मई 2016

पार्टनर अब पार्टनर अब मुजाहिद हैं!


लाल सलाम की दुनिया में वैचारिक शुद्धता को परखने और निष्ठाओं को जांचने के लिए मुक्तिबोध की एक पंक्ति का काफी उपयोग किया जाता रहा है। वैचारिक संदिग्धों की कमियों को उघाडऩे के लिए साम्यवादी एक.दूसरे से पूछते रहे हैं ष्पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या हैघ्ष्

शुरुआती दौर में इस पंक्ति का उपयोग व्यक्ति और विचारधारा दोनों की दिशा को जांचने के लिए किया जाता था। अब इसका उपयोग व्यक्तिगत स्तर पर आपसी लानत.मलानत के लिए ही अधिक किया जाता है। स्वयं को वैचारिक दृष्टि से अधिक प्रतिबद्ध साबित करने के लिए अब भी इस पंक्ति का उपयोग यदा.कदा होता है।

पार्टनर की पॉलिटिक्स जानने का सबसे हालिया घटनाक्रम तब देखने को मिलाए जब वीरेंद्र यादव ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए स्वनामधन्य वामपंथी साहित्यकारों की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए। उन्होंने यह सवाल एक लेख लिख कर उठाएए जिसका शीर्षक मुक्तिबोध की यही चर्चित पंक्ति थी। प्रगतिशील होने का दावा करने वाली यह विचारधारा अपनी अमर्यादित प्रतिक्रियाओं के कारण जानी जाती है। ऐसा इस प्रकरण में भी दिखा। वीरेंद्र यादव की अवसरवादिता के उदाहरण प्रस्तुत किए गए और उनसे भी यही सवाल दाग दिया गया कि ष्पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या हैघ्

हैरत की बात यह है कि बात.बात पर पार्टनर की पॉलिटिक्स पूछने वाली इस विचारधारा की पॉलिटिक्स पर सवाल उठने बंद हो गए हैं। वैचारिक विचलन को विषय बनाकर एक.दूसरे का कपड़ा उतारने पर उतारू लोगए अपनी विचारधारा की दशा.दिशा को लेकर आत्मघाती लापरवाही से ग्रसित हैंए जबकि पूरी विचारधारा में विचलन.स्खलन स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों से साम्यवादी दलों के ऐजेंडे में किसान.मजदूरए पूंजीवाद.साम्राज्यवादए भाषा.संस्कृति  पीछे छूट गए हैं। भाषायी मुद्दे के जरिए साम्यवादियों की प्राथमिकता में आए परिवर्तन को आसानी से समझा जा सकता है। डाण् रामविलास शर्मा के बाद साम्यवादी दुनिया में हिंदी भाषा को लेकर कोई संघर्ष नहीं दिखता। हद तो तब हो जाती हैए जब पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे लोग संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षााओं में घोषित रूप से अंग्रेजी का पक्ष लेते हैं और अंग्रेजी को योग्यता का पैमाना बनाने की वकालत करते हैं। संभवतरू भारत में मजलूमों के शोषण का सबसे बड़ा माध्यम अंग्रेजी भाषा है। इसके कारण सामान्य पृष्ठभूमि के लोगोंं को अपनी पहचान बनानेए व्यवस्था में स्थान बनाने के लिए हर कदम पर बाधा खड़ी होती हैए लेकिन साम्यवादी भाषा के लिए कुछ नहीं बोलते।

देखते ही देखते साम्यवादियों की प्राथमिकता सूची में सांप्रदायिकता सबसे ऊपर आ गई है। हर तरह की सांप्रदायिकता का विरोध किया ही जाना चाहिए। लेकिन इस विचारधारा में दिवालियापन इस हद तक पहुंच गया है कि यह सांप्रदायिकता से लडऩे के नाम पर जिहादियोंं की शब्दावली में बोलने लगा है।

हालिया घटनाक्रमों से तो ऐसा लगता है कि विभ्रम का लाभ उठाकर इस विचारधारा को जिहादी तत्वों ने ष्हाईजैकष् कर लिया है। समानता के सिद्धांत पर विश्वास रखने वाली विचारधाराए सभी पंथों को अफीम मानने वाली विचारधारा एक पंथ विशेष की कट्टरता का खुला समर्थन करने की स्थिति में कैसे पहुंच जाती है और सभी तरह के शोषण एक ही पंथ में कैसे दिखाई देने लगते हैंए इसकी गंभीर पड़ताल आवश्यक है।

महिला.मुक्ति इस विचारधारा के प्रिय विषयों में एक रहा है। महिला.मुक्ति संबंधी चिंतन की पड़ताल के जरिए इस विचारधारा में आए भटकाव और जिहादी तत्वों के बढ़ते प्रभाव को रेखांकित किया जा सकता है। यहां पर इस पचड़े में नहीं पड़ा जा रहा है कि स्त्री.मुक्ति संबंधी  इस विचारधारा की मान्यताएं कितनी सही और कितनी गलत हैं। लेकिन समानता को अपना सर्वोच्च आदर्श मानने वाली विचारधारा से इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है कि वह सभी पंथों की स्त्रियों की मुक्ति की कामना करेए लेकिन व्यवहार में ऐसा दिखता नहीं।

इस विचार से जुड़े बुद्धिजीवी एक तरफ स्त्री.मुक्ति को ष्वैवाहिक.बलात्कारष् की सीमा तक घसीटते हैं। अंतरंग संबंधों को भी कानूनी पहरे में लाने की बात करते हैंं। विवाह में भी बलात्कार की संभावनाओं को तलाशते हैं और ऐसे ष्अत्याचारष् को दूर करने के लिए एड़ी.चोटी का जोर लगाए हुए दिखते हैं। दूसरी तरफ समान नागरिक संहिता के मुद्दे को सांप्रदायिक ठहराकरए एक पंथ विशेष की महिलाओं को पालन.पोषण जैसे मूलभूत अधिकार प्राप्त करने से वंचित किए हुए हैं। बिना किसी कानूनी प्रक्रिया अपनाएए जब मन में तीन बार तलाक कहकरए स्त्रियों के जीवन को मंझधार में झोडऩें वाली व्यवस्था के विरोध में उनके मुंह से आवाज नहीं निकलती। हद तो तब हो जाती हैए जब इस पंथ विशेष की महिलाओं को कानूनी कवच प्रदान करने के सरकारी प्रयासों का ये मित्र विरोध करने लगते हैं।

धर्मस्थलों के प्रवेश संबंधी विषय में भी ऐसा ही दोमुंहापन दिखता है। किसी एक शनि मंदिर में प्रवेश न दिए जाने का मसला इनके लिए स्त्री.मुक्ति का प्रश्र बनता है और इस प्रश्र को जोर.शोर से उठाकर एक समुदाय विशेष को पिछड़ा और सामंती घोषित कर दिया जाता हैए लेकिन सभी मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश निषेधए इस वर्ग के लिए कोई मुद्दा नहीं बनता और न ही इसके कारण वह पंथ हिकारती बनता है।

समानता के नारे में अमानवीय असमानताओं की एक पूरी शंृखला नजर आती है। यह दिन.ब.दिन बढ़ और मजबूत हो रही है। वामपंथी दृष्टिदोष का एक ऐसा ही रोचक उदाहरण अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भी देखने को मिलता है।

साम्यवाद अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा होने के दंभ से ग्रसित है और साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सबसे बड़े विशेषज्ञ होने के रोग से ग्रसित हैं। दुनिया में कहीं भी कुछ हो रहा हैए उसका निष्कर्ष देना साम्यवादी अपना अधिकार मानते हैं और निष्कर्ष यह होता है कि दुनिया की सारी गड़बडिय़ों का कारण साम्राज्यवादी अमेरिका है।

हाल के दशकों में यह अंतर्राष्ट्रीय समझ फिलिस्तीन.इजरायल के मामलों में काफी सजग दिखती है। इसमें भी निष्कर्ष तय होते हैं और इजरायल की दानवी भूमिका बताई जाती है और फिलिस्तीन को पीडि़त। कुछ हद तक यह सही भी हैए लेकिन हद तब हो जाती हैए जब फिलीस्तीन के पीडि़त होने की बात के जरिए अरब जगत से फैल रहे आतंकवाद को जायज ठहराने की कोशिश होने लगती है और फ्रांस पर होने वाले हमलों को स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया जाने लगता है। एक समझ का एक पहलू यह भी है कि यह सुदूर फिलीस्तीन शरणार्थियों की पीड़ा तो महसूस करती हैए लेकिन तिब्बती शरणार्थियों की पीड़ा इसे छू भी नहीं पाती। कश्मीर में पंडितों के विस्थापन को इस विचारधारा ने कभी नोटिस में ही नहीं लिया।

समानता के सिद्धांत में जिहादी नारों की घुसपैठ का सबसे नंगा प्रदर्शन तो जेएनयू प्रकरण में हुआ है। समानता के पैरोकार जिस तरह से भारत की बर्बादी के लिए जंंग का ऐलान करते और देश के टुकड़े.टुकड़े करने के लिए अल्लाह से गुहार करते हुए सामने आएए उसे देखकर पूरा देश स्तब्ध रह गया।

स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के समय नक्सल.चर्च गठजोड़ की बात सामने आई थी। अब यह नक्सल.चर्च गठजोड़ए नक्सल.चर्च.जिहादी त्रिकोण में तब्दील हो चुका है। सबसे खतरनाक बात यह है कि इस गठजोड़ में जिहादी तत्वों ने केंद्रीय भूमिका अख्तियार कर ली है। अब जिहादी तत्व साम्यवादियों के समानता के मुखौटे और उससे जुड़ी शब्दावलियों का उपयोग कर रहे हैं। दूसरी तरफ साम्यवादी केवल जिहादियों को वैधता प्रदान नहीं कर रहे हैंए बल्कि जिहादी स्वप्रों और नारों का उपयोग कर हैं। साम्यवादी विचारधारा में जिहादी घुसपैठ इतनी प्रबल है कि साम्यवाद का चोला अब जिहादी दिखने लगा है। शायद इसी कारण अब कहीं से यह आवाज नहीं उठ रही है कि पार्टनर! हमारी पॉलिटिक्स क्या हैघ् आखिरकारए पार्टनर मुजाहिद जो बन गए हैं और मुजाहिद न तो ऐसे प्रश्र करते हैं और न ही ऐसे प्रश्र सहते हैं।मुजाहिद हैं!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें