रविवार, 6 दिसंबर 2015

भारतीय क्रांति परम्परा की यात्रा

भारत में व्यवस्था परिवर्तन की विशेष वैचारिक-सांस्कृतिक परम्परा रही है। यह ऐसी परम्परा है जिसमें व्यवस्था परिवर्तन का मतलब सत्ता परिवर्तन नहीं होता अपितु शाश्वत कहे जाने वाले जीवन-मूल्यों एवं जीवन-दर्शन को प्रतिष्ठित तथा नवीन परिस्थितियों में परिभाषित करने की कोशिश की जाती है। यह क्रांति परम्परा ‘तंत्र’ के बजाय ‘तत्व’ परिवर्तन पर जोर देती है। इसमें राजनीतिक आर्थिक संरचना को बदलने से अधिक जोर समाज की सामूहिक चेतना को परिवर्तित करने पर होता है। चेतना के स्तर पर होने वाली इस क्रांति का प्रभाव सूक्ष्म और दूरगामी होता है। राज्य के बजाय समाज और संस्कृति इस कांति प्रक्रिया के क्षेत्र होते हैं। इसलिए इसमें हिंसा के लिए ‘ स्पेस’ न के बराबर होता है।
इस परम्परा को ध्यान में रखते हुए भारतीय इतिहास पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि भारत की भूमि क्रांति के लिए सबसे उर्वर रही है और यहां की आबोहवा व्यवस्था परिवर्तन के लिए किए जाने वाले संघर्षों की सबसे अधिक पोषक। भारत में शायद ही कोई ऐसा कोई कालखण्ड रहा हो जिसमें सांस्कृतिक स्तर पर पहल और प्रतिरोध का अभाव रहा हो। भारतीय संस्कृति पर अत्यंत प्रामाणिक ग्रंथ माने जाने वाले ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में रामधारी सिंह दिनकर ने भारत में विद्यमान सांस्कृतिक प्रतिरोध की परम्परा का उल्लेख किया है।
भारत की क्रांति परम्परा से अंजान कुछ पश्चिमी और भारतीय विद्वान भारत को एक जड देश मानते हैं, एक ऐसा जिसके मूलभूत राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक ढांचे में वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पश्चिमी नजरिए से भारत की व्याख्या करने वालों के लिए यह निष्कर्ष स्वाभाविक भी है क्योंकि पश्चिम में क्रांति का मतलब राजनीतिक सत्ता का परिवर्तन होता है और इस परिवर्तन के लिए बडे पैमाने पर होने वाली हिंसा को एक पूर्व शर्त माना जाता है। भारत में व्यवस्था परिवर्तन के लिए व्यापक पैमाने पर हिंसा कभी नहीं हुई। इसलिए उनको लगता है कि भारतीय समाज जड़ता से ग्रसित है।LotusFlower
आद्य शंकराचार्य ने तत्कालीन समय में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सांस्कृतिक एवं दार्शनिक धरातल पर ही प्रयास किए थे। रक्त की एक बूंद गिराए बिना उन्होंने भारत के सनातन सांस्कृतिक प्रवाह में नवजीवन का संचार किया। समाज की सामूहिक चेतना में विभिन्न मतांतरों के कारण पैदा हुए धुंध को उन्होंने अपने तर्कों एवं नवीन व्याख्याओं द्वारा दूर किया। भारतीयों में अपने सांस्कृतिक प्रवाह के प्रति लगाव पैदा कर उन्होंने प्रतिरोध की शक्ति खडी की।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में प्रारम्भ हुआ भक्ति आंदोलन भारत की सांस्कृतिक क्रांति की परम्परा का एक सशक्त उदाहरण है। समाज और संस्कृति पर पड रह राजनीतिक दबावों को सहने की शक्ति इस आंदोलन भारतीयों को प्रदान की। इस आंदोलन के आत्मविस्मृति के दोष को दूर कर स्वाभिमान की भावना पैदा की और भारतीय समाज को विजातीय तत्वों से लडने की प्रेरणा प्रदान की। 1857 की क्रांति की ज्वाला भडकने के कारण भी राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक थे। स्वतंत्रता संघर्ष के लिए गांधी ने जिस साधनों का अपनाया और संघर्ष की रुपरेखा तैयार की उसका शक्ति केन्द्र भी सांस्कृतिक ही था।
विजयदशमी से प्रारंभ होकर 108 दिनों तक चलने वाली विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा भारतीय सांस्कृतिक क्रांति की परम्परा में नवीनतम कडी है। गो को प्रतीक मानकर वर्तमान व्यवस्था और विकास मॉडल पर विमर्श करने तथा भारतीय विकास मॉडल को स्थापित करने का प्रयास है यह यात्रा। व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय जीवन में भारतीयता के संधान का एक प्रयास है।
भारतमाता को ग्रामवासिनी कहा जाता है। अर्थात भारत को पहचान देने वाली विशेषताओं एवं जीवनशक्ति प्रदान करने वाले कारकों का उद्भव गांव आधारित व्यवस्था से होता है। भारतीयता प्रदान करने वाली इस ग्रामीण संरचना का आधार गाय है। गाय ही वह केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों तरफ भारतीयता का ताना -बाना बुना गया है। गाय का गोमय एवं गोमूत्र भूमि का पोषण करते हैं पंचगव्य मनुष्यों का पोषण करता है। रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों और जैविक खेती की बढती मांग ने गायों की महत्ता को एक बार फिर से रेखांकित किया है। भारतीय नस्ल की गायों में अल्प मात्रा में स्वर्णमाक्षिक भस्म पाए जाने और अन्य जानवरों से अधिक सुपाच्य होने की बात पुष्ट हो चुकी है। गाय से प्राप्त होने वाले पंचगव्य औषधीय गुणों से भरपूर है। पंचगव्यों के औषधीय गुणों के कारण ही गो-चिकित्सा एक वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था के रुप में उभर रही है। गोमुत्र में कैंसररोधी तत्वों के पाए जाने की पुष्टि हो चुकी है। आयुर्वेद के अनुसार पंचगव्य का सेवन शरीर में वात, कफ और पित्त को साम्यावस्था में लाकर सभी रोगों का शमन करता है।
पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में भी गाय की महत्वपूर्ण भूमिका है। गोबर गैस प्लांटों का उपयोग खाना बनाने के लिए ईंधन के रुप में किया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी के साथ रासायनिक खादों के विकल्प के रुप में हमे जैविक खाद भी मिलेगी। गोबर से बिजली प्राप्त करके हम स्वावलम्बी उर्जा गृह का निर्माण कर सकते हैं। इससे भारत को अपनी उर्जा जरुरतों को पूरा करने के लिए किसी के सामने रिरियाना नहीं पडेगा। न ही अपनी सम्प्रभुता को गिरवी रखकर अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौता करने की नौबत आएगी। साथ ही भारत की अकूत सम्पदा बाहर जाने से बच जाएगी।
भारत और गाय का सम्बंध आार्थिक, चिकित्सकीय एवं पर्यावरणीय से अधिक सांस्कृतिक है। पक्ष से अधिक भारत जिन मूल्यों, आस्थाओं, दर्शनों का उपासक है गाय का उनसे सम्बंध है। गाय की सांस्कृतिक महत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसमें सभी तैंतीस करोड देवताओं का वास बताया गया है। एक भारतीय जीवन से लेकर मरण तक गोमाता से जुडा होता है। पैदा होने पर गाय के गोबर से ‘लीपकर’ घर में स्वागत किया जाता है और अंत समय उसका परिवार गोदान कर उसे ‘वैतरणी ‘पार कराता है। किसान नयी फसल से प्राप्त अनाज को गाय के गोबर से ‘गोंठकर’ ही तौलना प्रारम्भ करता है। घर में सभी धार्मिक कर्मकाण्डों से पहले भूमि का गोमय से शुध्दीकरण आवश्यक है। और घर में बनने वाला भोजन का पहला हिस्सा गोग्रास के रुप में गोमाता को ही समर्पित किया जाता है। हम कह सकते है कि गाय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुप से भारतीय जनजीवन में रची-बसी है। गोसंवर्ध्दन और गोसंरक्षण करके हम भारत और भारतीयता को नई शक्ति प्रदान कर सकते हैं।
भारतीय धार्मिक साहित्य पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है गाय ने सदैव ही उदात्त मूल्यों के लिए संघर्ष करने के लिए भारतीयों प्रेरित किया है। राक्षसी मूल्यों के नाश का कारण गाय बनती रही है। उदात्त मूल्यों को अपने में धारण करने के कारण ही किसी भी कीमत पर गोवंश की रक्षा करने की बात कही गयी है। राजा दिलीप गो को बचाने के लिए स्वयं को सिंह के सामने अर्पित करते है। भगवान श्री राम तुलसीदास कृत रामचरित मानस में कहते हैं कि विप्र गउ सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार। भगवान श्रीकृष्ण का तो एक नाम ही गोपाल है। गाय के कारण ही नचिकेता उदात्त आदर्शो का सृजन करते है।
गांधी जी ने सौ वर्ष पूर्व भारतीय आत्मा के संधान के लिए एक अनुपम पुस्तक हिंद स्वराज लिखी थी। हिन्द स्वराज में पश्चिमी विकास मॉडल पर गहरे व्यंग्य किए गए। इस किताब के शताब्दी वर्ष में जबकि मीडिया के कंधे पर सवार वैश्वीकरण के कारण विकास की विद्रूपताएं अधिक स्पष्ट होती नजर आ रही है विश्व मंगल गो ग्राम यात्र गांधी सपनों को जमीन पर उतारने के व्यवहारिक मॉडल के साथ प्रारम्भ हुई है। नई व्यवस्था को रचना के लिए आवश्यक पहल, प्रयोग और प्रतीक तथा संभावनाएं इस यात्रा में शामिल है। हिंद स्वराज के शताब्दी वर्ष में प्रारम्भ यह यात्रा गांधी को सच्ची श्रध्दांजलि के साथ भारत के विश्व कल्याणकारी सांस्कृतिक प्रवाह को बनाए रखने और निरंतर क्षीण होती सांस्कृतिक प्रतिरोधक क्षमता को बढाने की सकारात्मक पहल है

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