गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

शोध से होगा प्रतिष्ठा का बोध

जब भी हिंदी की स्थिति का आकलन किया जाता है तो दो निर्विवाद तथ्य उभरकर हमारे सामने आते हैं। पहला यह कि हिंदी का विस्तार उसके परंपरागत क्षेत्र से बाहर हो रहा है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ प्रदेशों को छोड़कर, जहां कि त्रिभाषा फार्मूला पूरी तरह से नहीं लागू किया गया है, हिंदी का पठन-पाठन पूरे भारत में हो रहा है। जनमाध्यमों के कारण भी हिंदी का सहज विस्तार हो रहा है, हिंदी बोलने-समझने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है।
दूसरा और हैरतभरा तथ्य यह है कि हिंदी के इस विस्तार के साथ उसकी प्रतिष्ठा घट रही है। इसका उपयोग अपनी पहचान के एक गौरवशाली उपकरण के रूप में करने की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन क्षीण होती जा रही है। सामान्य जरूरतों को पूरा करने वाली बोली के रूप में तो हिंदी का विस्तार हो रहा है लेकिन चिंतन और ज्ञान-विज्ञान की समर्थ भाषा के रूप में इसका स्खलन हो रहा है। हिंदी कायिक रूप से तोला-तोला बढ़ रही है और आत्मिक रूप से माशा-माशा मर भी रही है।
इसलिए हिंदी का आत्मिक सशक्तिकरण समय की जरूरत बन जाता है। सबल बनाने की कई संभावनाएं मौजूद हैं। भाषा-विशेषज्ञ गाहे-बगाहे उनका जिक्र भी करते रहते हैं। लेकिन यदि किसी एक संभावना की पहचान करनी है,जिससे ङ्क्षहंदी को सर्वाधिक आत्मिक संबल मिल सकता है, तो वह है शोध की दुनिया से इसके जुड़ाव की पहल।
शोध शैक्षणिक गतिविधि का शीर्ष बिंदु है। भूतकाल की बिखरी कडिय़ों को जोडऩे , वर्तमान प्रवाह को पकडऩे और भविष्य के उभरते सांचे को समझने की क्षमता शोधवृत्ति से ही पैदा होती है। शोध बिखरे हुए तथ्यों और प्रवृत्तियों को एकदूसरे से जोड़कर पूरी तस्वीर बनाता है और इस तरह एक स्पष्ट समझ बनाने में हमारी सहायता करता है। यह पूरी तस्वीर और स्पष्ट समझ ही राजनीतिक, आर्थिक और संांस्कृतिक सामथ्र्य को सिरजते हैं। जाहिर है शोध जिस भाषा में होते हैं, उसके साथ गांभीर्य, सामथ्र्य और प्रतिष्ठा बोध अपने आप जुड़ जाते हैं।
दुर्भाग्य यह है कि हिंदी की उपस्थिति शोध की दुनिया में नगण्य जैसी है अथवा बना दी गई है। वाणिज्य, प्रबंधन और विज्ञान से संबंधित शोधों की दुनिया में हिंदी का प्रवेश निषेध है। कला से संबंधित विषयों में हिंदीभाषी क्षेत्र में विश्वविद्यालयों में थोड़ा बहुत शोध कार्य होता है। लेकिन यहां भी स्थिति हारे को हरिनाम जैसी रहती है।
हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं का शोध की दुनिया से जुड़ाव परिदृश्य को कैसे बदल सकता है, इस पर एक नजर डालना जरूरी है। भाषा, जो हम जानते हैं उसके अभिव्यक्ति की ही सीमा निर्धारित नहीं करती। भाषा जो हम जान सकते हैं, उसकी परिधि भी निर्धारित करती है। इसी बिंदु पर शोध और भाषा के अंतर्संबंध महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं।
भाषा समस्याओं की पहचान, जो कि किसी भी शोध का प्रस्थान बिंदु है, में अहम भूमिका निभाती है। यही बात शोध में भाषा की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बना देती हें। दो उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। पिछले दिनों नारायण मूर्ति ने बड़े खेद के साथ कहा कि भारतीय शोध जगत पिछले पचास सालों में कोई भी ऐसा आविष्कार नहीं कर सका है,जो सामान्य जनजीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया हो अथवा जिसने सामान्य आदमी के जनजीवन में बड़ा बदलाव कर दिया हो। इसी तरह की एक रोचक बात सीएसआईआर के पूर्व प्रमुख आर माशेलकर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कही थी। माशेलकर के अनुसार पिछले पचास वर्षों में भारतीयों ने छोटे-बड़े कई उपकरण बनाए हैं। नाभिकीय संयत्र तक भारतीय इंजीनियर बनाने लगे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय विज्ञान जगत मिट्टी के चूल्ले में थोड़ा सा भी सुधार नहीं कर सका है।  चूल्हों की डिजाइन पिछले पांच हजार वर्षों से जैसे की तैसी बनी हुई है। भारत की 70 फीसदी गृिहणियों का आमना-सामान दैनिक रूप से इस चूल्हे से होता है। दिन का एक चौथाई हिस्सा इसी चूल्हे के साथ गुजर जाता है। इसके कारण अधिकांश महिलाओं को श्वसन और तंत्रिका संबंधी गंभीर बीमारियां हो जाती हैं। हैरत की बात यह है कि भारतीय विज्ञान जगत को कभी भी यह नहीं लगा कि शोध का एक छोटा से विषय चूल्हे में सुधार भी हो सकता है और इससे करोड़ो की जिंदगी में बेहतरी आ सकती है। 
प्रबंधन और विज्ञान जगत के इन मूर्धन्य लोगों के ऐसे 'आश्चर्र्योंÓ के कई अन्य कारण हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण तो भाषा ही है। भारत में प्रबंधन, सूचना तकनीक और विज्ञान जगत से संबंधित लगभग शत-प्रतिशत शोध अंग्रेजी में होते हैं। अब अंग्रेजी के राडार पर मोबाइल,टेलीविजन और कार संबंधी छोटी से छोटी जरूरतें तो उभर आती है लेकिन चूल्हे जैसी जमीनी चीज को अंग्रेजी का हवाई राडार नहीं पकड़ पाता। अंग्रेजी जिस आर्थिकी में पलती है, उसमें मिट्टी के चूल्हें के लिए कोई स्थान नहीं होता। बहुत संभावना इस बात की है कि अंग्रेजी के परिवेश में पला बढ़ा व्यक्ति चूल्हे नामक बला के बारे में जानता ही न हो। दूसरी तरफ जिस सामान्य आदमी के जीवन में चूल्हा केंद्रीय तत्त्व है, शोध की दुनिया में उसकी भाषा का प्रवेश वर्जित है। अंग्रेजी के प्रभुत्व के कारण मूलभूत समस्याओं की पहचान ही नहीं हो पाती, समाधान तो बहुत दूर की कोैड़ी है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में शोध न होने के कारण नारायणमूर्ति और माशेलकर के 'आश्चर्यÓ पैदा होते हैं और चूल्हा हजारों साल तक वहीं का वहीं ठिठका रहता है। सबसे मजेदार बात तो यह है कि भारत में कृषि संबंधी अधिकांश शोध भी अंग्रेजी में होते हैं। ऐसे में जीएम फसलों पर शोधों की झड़ी लग जाती है लेकिन किसानों के नाक में दम कर देने वाली पार्थेेनियम घास (लोग इसे प्यार से कांग्रेस घास भी कहते हैं), से छुटकारे के लिए शोध संबंधी प्रयास नहीं होते।
शोध और परिवशे की भाषा के अलगाव के कारण दोतरफा विसंगति पैदा होती है। एक तरफ शोध के अभाव में परिवेश की भाषा को प्रतिष्ठा नहीं मिलती और दूसरी ओर परिवेश के भाषा से जुडाव न होने के कारण शोध मे मौलिकता और जमीनी सच्चाइयां नहीं झलक पातीं। शोध से न जुडऩे के कारण भारतीय भाषाओं की हैसियत प्रभावित होती है। बिना आजमाए ही भारतीय भाषाओं पर अक्षम होने का 'लेबलÓ चस्पां कर दिया जाता है। यह समझाने की कोशिश की जाती है इन देशज भाषाओं में शोध जैसा उच्चस्तरीय चिंतन कैसे हो सकता है?
 शोध से भारतीय भाषाओं का विलगाव, इन्हें अप्रतिष्ठित रखने का व्यवस्थागत षड्यंत्र है।  कला, विज्ञान, वााणज्य और प्रबंधन में न्यूनतम पचीस फीसदी शोध कार्य, भारतीय भाषाओं के लिए आरक्षित करके न केवल शोध की दुनिया को मौलिक एवं धरातल बनाय जा सकता है बल्कि भारतीय भाषाओं के बारे में प्रतिष्ठा बोध भी पैदा किया जा सकता है। यही भाषायी आत्महीनता के महारोग का प्रारंभिक उपचार होगा।

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