गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

स्वप्नों को स्वतंत्र करने का समय



जीवन चाहे व्यक्ति को हो या राष्ट्र का, कुछ स्वप्नों के सहारे आगे बढता
है। यहां स्वप्न का मतलब यथार्थ से कटकर कल्पनालोक में विचरण करना नहीं
है बल्कि कल्पना को यथार्थ की खुरदुरी जमीन पर उतारना है। कोई एक
महास्वप्न जीवन में निहित सभी संभावनाओं को झंकृत कर देता है। कुछ नया
और अनूठा करने के लिए प्रेरित करता है। वर्तमान की कठोर दीवारों को
वेधने वाली दृृष्टि पैदा करता है और मंगलकारी भविष्य को पालने-पोषने
की क्षमता पैदा करता है।
भारत स्वतंत्र है, लेकिन स्वप्नहीन है। आजादी के बाद कुछ स्वप्न लोगों को
दिखाए गए, परंतु ये भारतीय स्वत्व से उपजे हुए प्रतीत नहीं होते। हम
आयातित और उधार लिए हुए स्वप्नों के जरिए अपना भविष्य गढना चाहते हैं
और जब हाथ में कुछ नहीं आता तो आजादी को कोसने, लगते हैं। स्तंत्रता
प्राप्त करने का स्वप्न तो पूरा हो गया लेकिन वह जिन स्वप्नों को प्राप्त
करने के लिए अर्जित की गई थी, वे अब भी दिवास्वप्न बने हुए हैं।
स्वतंत्रता के साथ विभाजन का दुःस्वप्न घटित हुआ था। उस समय अरविंद जैसे
महर्षियों ने अखंड भारत का महास्वप्न देशवासियों के सामने रखा था।
राजनीतिक दृष्टि से आज यह भले ही दूर की कौडी दिखती हो लेकिन
सांस्कृतिक दृष्टि से इसको साकार करने की संभावनाएं आज भी विद्यमान हैं।
डा. लोहिया तो तिब्बत सहित पूरे दक्षिण एशिया को एक जैविक भौगौलिक
इकाई मानते थे, जो कि एक ही सांस्कृतिक गर्भनाल जुडा हुआ है। भारतीय
विशिष्टता में विश्वास करने वाले प्रत्येक मनीषी का यही मानना रहा है कि
इसे पूरे क्षेत्र की शक्ति और समृद्धि इसके एकीकरण में निहित है।
यह दुर्भाग्य ही है कि अखंड भारत का स्वप्न, समग्र भारत का स्वप्न, इस देश
का स्वप्न नहीं बन पाया। इस कारण आज शरीर का एक अंग दूसरे अंग से लड रहा
है। एक ही भूगोल का एक हिस्सा, दूसरे हिस्से को लहुलूहान कर रहा है। इस
पवित्र भूमि का सांस्कृतिक एकता लोगों के स्मृतिपटल से गायब हो चुकी है,
जिससे नई-नई और छोटी-छोटी कई पहचानें उभर आई हैं। हम खुद को
इन्हीं छोटी खांचों में परिभाषित और व्याख्यायित करते हैं और अपने
ही कुल के लोगों को धराशायी कर अपने अहं को संतुष्ट करने में लगे
हैं।
आज की परिस्थितियों मंे महर्षि अरविंद के स्वप्न को संपूर्ण भारत का
स्वप्न बनाना आवश्यक है। यदि यह एक स्वप्न जमीन पर उतरता है तो संभावनाओं
के असंख्य द्वार अपने आप खुल जाएंगे। एक नई पहचान जो आत्म विश्वास से
लबालब होगी, स्वतः ही आकार लेने लगेगी। विश्व गुरु कहें यहां सुपर पावर,
अखंड भारत के आधार के बिना इनका आकार लेना बहुत मुश्किल है। यदि
लोहिया के स्वप्नों का भारतीय परिसंघ बनता है तो इसका क्षेत्रफल चीन के
बराबर होगा और सांस्कृतिक आत्मविश्वास एवरेस्ट की चोटी पर। शायद, तब
हमे अपनी चीजों को विदेर्शी सर्टिफिकेट के बिना स्वीकार कर पाएंगे, जो
कि वर्तमान में हमारे रग-रग में बस चुकी है।
जरूरी नहीं कि अखंड भारत की संकल्पना को राजनीतिक स्वरुप में ही साकार
किया जाए। शुरुआत सांस्कृतिक भी हो सकती है। ऐसा कोई कारण नहीं कि
हम पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज माता शक्तिपीठ, पाक अधिकृत कश्मीर में
स्थित शारदा पीठ और बांग्लादेश में स्थित ढाकेश्वरी माता शक्तिपीठ को
भारतीय के आस्था के भूगोल से नहीं जोड पाएं। कभी यह आस्था केंद्र
वैसे ही जीवंत थे जैसे आज वैष्णो माता का शक्तिपीठ या आद्यशक्ति
विन्ध्याचल का शक्तिपीठ। थोडे से प्रयासों के जरिए इन आस्था केंद्रों
को भारतीय जनजीवन से जोडा जा सकता है।
मानसरोवर की यात्रा को बहाल कर हमने इस दिशा में सफल कदम बढाया भी है।
पाकिस्तान स्थित कटासराज मंदिर के संदर्भों में भी कुछ हद तक सफलता मिली
है। इन आस्था केंद्रों से भारतीय जनमानस को जोडकर उसके सांस्कृतिक
क्षेत्रफल को बढाया जा सकता है। ऐसा करके पूरे क्षे़त्र के प्रति भारतीयों
में एक अपनत्व बोध पैदा किया जा सकता है और यह एकत्व बोध ही अखंड
भारत के भूगोल को अस्तित्व में लाएगा।
भारतीय स्वतंत्रता से जुडा एक दूसरा महास्वप्न भारतीय भाषाओं से जुडा
है। भारतीय भाषाएं अब भी व्यवस्था में प्रतिष्ठित नहीं हो पाई हैं।
भाषाई हीनताबोध के कारण कुछ गिन-चुने लोगों को छोडकर अधिकांश
भारतीयों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी आज भी अंग्रेजी की गुलाम है क्योंकि व्यवस्था
भारतीय भाषाओं को न सुनने-समझने का सायास नाटक करती है। अपनी
भाषा में अधिकार भारतीय मांग नहीं सकता और जिस भाषा में अधिकार
मांगे जाते हैं, उसमें वह सहज नहीं है, इसके कारण वह अधिकार शून्यता की
स्थिति में पहुंच जाता है।
भाषाई परतंत्रता ने आम भारतीय को मूक-बधिर बना दिया है। व्यवस्था जिस
भाषा में बात करना चाहती है, करती है, वह दुरूह है। उस भाषा को आम
आदमी सुनता तो है लेकिन ज्यादा कुछ समझ नहीं पाता, मानो वह बधिर हो।
दूसरी तरफ वह जिस भाषा को बोलता है, समझता है, व्यवस्था उसे न समझने
का नाटक करती है। इसलिए वह बोलना भी बिना बोले जैसा हो जाता है, और
उसका चरित्र मूक अभिनेता जैसा हो जाता है।
पूरे भारत में इस समय अंग्रेजी के नाम पर हीनताबोध पैदा करने का एक
अभियान चला हुआ है। अंग्रेजी के जरिए पल-पल यह बोध कराया जाता है कि
तुम योग्य नहीं है, तुममे व्यवस्था को चलाने की क्षमता नहीं है। इस
अभियान के कारण भारत की सामूहिक चेतना एक गहरे अवसाद में चली गई है
और वह अपने स्वभाव के अनुरुप सहज व्यवहार नहीं कर पा रही है।
भारतीय भाषाओं की पैरोकारी को तुरंत अंग्रेजी विरोधी ठहराने की
रणनीति लंबे समय से काम कर रही है। यह अभी तक सफल भी होती रही है
लेकिन भारतीय स्वत्व को जगाने के लिए इस रणनीति को ध्वस्त करना आवश्यक
है। अंग्रेजी की जितनी उपयोगिता है, उसका उतना उपयोग किया ही जाना
चाहिए। विरोध अंग्रेजी की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति और उससे जुडे मिथ्या
श्रेष्ठता बोध का है। बंदर को मंकी कहकर श्रेष्ठता का रस लेने वाली मानसिकता
हीनताग्रंथि की पराकाष्ठा से ही उपज सकती है। इस हीनता ग्रंथि को बहुत
सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया है और इसका उपचार अपनी भाषाओं
को प्रतिष्ठा में ही है।
अंग्रेजी के साथ आधुनिकता और वैज्ञानिकता का जो पैकेज परोसा जाता है
वह अंदर से बहुत खाली हैै। पूरी दुनिया में हुए शोध तो यही बताते है
कि सर्वश्रेष्ठ मौलिक ज्ञान अपनी भाषा में सृजित होता है। अपनी भाषा में
बच्चे की सीखने की गति सहज और सबसे तेज होती है। लेकिन हम हैं कि बचपन
में ही अंग्रेजी का बस्ता लादकर देश के बचपन को सहज ढंग से चलने नहीं दे
रहें हैं और उसकी प्रतिभा का सहज विकास अवरुद्ध कर रहे हैं। यदि हम
अंग्रेजी भाषा के सम्मोहन से मुक्त हो सकें तो हमें भारतीय भाषाओं
में कई देशज लेकिन शक्तिशाली स्वप्न दिखाई देने शुरु हो जाएंगे।
शायद, तब हम अपने सपनों का भारत गढ सकेंगे। सनातन अपेक्षाओं को पूरा
करने वाला भारत।
आइए! इस स्वतंत्रता दिवस को एक समग्र भारत के स्वप्न को फिर से अपनी
आंखों में तैराएं। इसको साकार करने में अपनी भूमिका की पहचान करें
और इसे अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें। भारतीय भाषा के पैरों में
पडी बेडियों को तोडने की कोशिश करें। उन्हें व्यवस्था में प्रतिष्ठित
करने की कोशिश करें। भूमि और भाषा से जुडे स्वप्नों की स्वतंत्रता
में ही भारत का  सुदंर भविष्य निहित है।

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