सोमवार, 29 सितंबर 2014

स्वप्निल संसार और विकास की सरपट दौड़

स्वर्ग एक स्वप्निल संसार है। सभी सुख सुविधाओं से युक्त और रोजमर्रा की खटपट से मुक्त  जीवनयापन की एक आदर्श व्यवस्था। स्वर्ग विकास प्रक्रिया की चरम अभिव्यक्ति है। स्वर्ग से जुड़ा एक मजेदार तथ्य यह भी है कि सम्पूर्ण मानवता आजतक किसी सार्वभौमिक स्वर्ग का निर्माण नहीं कर सकी है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के आकाश में स्वर्ग के अलग-अलग माॅडल काम करते हैं। धार्मिक साहित्य में स्वर्ग की अलग अलग कल्पनाएं मिलती है। स्वर्गों का तुलनात्मक विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उनकी अंतर्वस्तु में व्यापक भिन्नता है। तिब्बतियों के स्वर्ग में कभी भी ठंड नहीं पड़ती। उनका स्वर्ग एक वातानुकूलित अंतरिक्ष स्टेशन जैसा होता है। भारतीयों के स्वर्ग में शीतल मंद बयार बहती रहती है और स्वर्गवासी जीवों के पास अप्सराओं का नृत्य देखने के अतिरिक्त और कोई काम ही नहीं होता। अरबों के स्वर्ग में विभिन्न लजीज व्यंजन वातानुकूलित परिवेश में उपलब्ध रहते है। स्वर्गांे में यह असमानता भौगोलिक परिवेश के कारण पैदा हुई हैं। सभी स्वर्गाे में भौगोलिक कठिनाइयों के लिए कोई स्थान नहीं होता।

स्वर्ग की कल्पनाएं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से विकास प्रक्रिया की भौगोलिक सीमाबद्वता की तरफ भी संकेत करती हैं। और यह एक सत्य भी है कि विकास के मानक- स्वरुप और उसकी व्यवस्थागत अभिव्यक्ति को लेकर वैश्विक स्तर पर कभी भी सर्वसम्मति नहीं बन पायी है। कालप्रवाह किसी विशेष भूखण्ड के लिए प्रासंगिक विकास माॅडल को किसी अन्य भूखण्ड के लिए व्यर्थ साबित करता रहा है। इसी कारण समाज के व्यवस्थाकारों ने भी विकास की प्रक्रिया में ‘स्थानीयता ’ को एक चरम मूल्य माना और भूखण्ड विशेष में प्रकृति और प्रज्ञा के बीच संवाद से उत्पन्न मूल्यों के आधार पर विकास के स्थानीय पैमाने गढने के प्रयास किए ।

स्थानीयता और विकास माॅडल का यह सहज संबंध बाजारु वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण टूटने के कगार पर पहुंच गया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया को सबसे बड़ी चुनौती स्थानीयता ही पेश करती है। यह चुनौती कभी स्वदेशी के रुप में, कभी भाषा और लोकसंस्कृति के सरंक्षण तथा कभी स्थानीय रोजगार मुहैया कराने के लिए चलने वाले आंदोलनों के रुप में सामने आती है। इसी कारण वैश्वीकरण की प्रक्रिया ‘स्थानीयता’ के तत्व को एकसिरे से नकारने की कोशिश करती है। तथाकथित ‘काॅस्मोपालिटन ंथिंकर’ स्थानीय विशेषताओं और जरुरतों की चर्चा करने से भी परहेज करते हैं। स्थानीयता को संकुचित मानसिकता का पर्याय बनाने की कोशिशें होती हंै। वैश्वीकरण की वर्तमान प्रकिया की यह दृढ मान्यता है कि पूंजी, उत्पाद और सूचना के साथ व्यवस्थाओं का भी आयात-निर्यात किया जा सकता है।  सबल की व्यवस्था सर्वत्र की व्यवस्था बनायी जा सकती है ।

स्थानीयता को हाशिये पर धकेलने की कोशिशें शीतयुद्ध काल से प्रारंभ होती है। पंूजीवाद और माक्र्सवाद दोनों स्थानीय अद्वितीयता के सिद्धांत पर विश्वास नहीं करते। पूंजीवाद उपभोक्तावादी जीवनशैली को रोपने के लिए तो माक्र्सवाद अपनी विचारधारा को थोपने के लिए ‘लोक व्यवस्था’ ढहाते हैं। स्थानीयता से उपजे सांस्कृतिक मूल्यों का संहार करते हैं। लेकिन शीतयुद्ध के दौरान दोनों विचारधाराओं के संघर्षरत होने के कारण स्थानीयता के उन्मूलन की गति मंद थी। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद इस प्रक्रिया ने गति पकडी। माक्र्सवाद को जमींदोज करने के बाद अमेरिका और योरोपीय देश  वैश्विक स्तर पर यह अवधारणा स्थापित करने में एक हद तक सफल रहे कि विकास का एक सार्वभौमिक माॅडल हो सकता है।

 वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के सलाहकारों ने नीतिनियंताओं को समझाया कि उपभोक्तवादी जीवनशैली तथा बाजारवादी व्यवस्था इस विकास के वैश्विक माॅडल के आधार बन सकते है। संरचनागत समायोजन जैसी नीतियों के जरिए राष्ट्रीय सम्प्रभुता का अतिक्रमण किया गया। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अमेरिकी माॅडल को पूरी दुनिया पर थोपने की कोशिश की । लगभग दो दशकों तक इस विकास माॅडल की विसंगतियों के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को बडी सफायी के साथ दबा दिया गया । और बाजारवादी तथा उपभोक्तावादी व्यवस्था का निर्यात पूरी दुनिया को अनवरत रुप से जारी रहा ।

2008 में आयी वैश्विक मंदी ने  उपभोक्तावादी -बाजारवादी विकास की उत्कृष्टता और वैश्विक स्वीकार्यता पर पहली बार गंभीर सवाल खड़े किए। आर्थिक चिंतकों को यह अहसास हुआ कि अपनी जन्मस्थली में ही असफल साबित होने वाला यह विकास माॅडल पूरी दुनिया के लिए स्वीकार्य कैसे हो सकता है? 2011 की यूरोपीय मंदी ने इस विकास माॅडल की विसंगतियों और खतरों के बारे में फिर से पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है।‘ आक्यूपायी वालस्ट्रीट’ जैसे आंदोलनों की बढ़ती स्वीकार्यता वर्तमान विकास माॅडल के प्रति बढते असंतोष की तरफ संकेत करती है। वर्तमान विकास माॅडल को अपनी जन्मस्थली में ही चुनौती मिलने लगी है। नए विकास माॅडलों की सम्भावित रुपरेखाओं पर चर्चा हो रही है।

शताब्दियों में एकाधबार ही ऐसे मौके आते हैं जब पूरी मानवता चैराहे पर खडी हुई प्रतीत होती है और नई राहों को गढने और उस पर आगे बढने के लिए चिंतन-मनन करती है। भविष्य उन्हीं का होता है जो महापरिवर्तन की ऐसी बेला में सक्रिय भूमिका निभाते हैं , नई राह पर चलने का साहस दिखाते हैं। दुर्भाग्य से वैश्विक स्तर पर नवविकास को लेकर चलने वाली बहस से जुडी कोई भी हलचल भारत में नहीं दिखायी पड रही है। नीतिनियंताओं से लेकर विमर्शों को प्रोत्साहन देने वाली मीडिया तक में कोई सरगर्मी नहीं दिखायी पडती। भारत को अब भी वैश्विक वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए विकास के ‘ फार्मूलों ’  के आधार पर दौडाया जा रहा है। इस दौड में कुछ फर्राटा धावक बहुत आगे निकल गए हैं , जबकि अधिकांश भारतीय लहुलूहान हैं, हांफते हुए किसी तरह अपने आपको इस दौड में बनाए हुए है।

विकास का वर्तमान फार्मूला माॅडल समावेशी नहीं है । यह विकास के मानकों को अपनी सुविधा तथा हितों के अनुरुप परिभाषित करता है। घर पर खाने , घर के दूध-छाछ पीने की बजाय  बाहर जाकर  पेप्सी कोक पीने और पिज्जा बर्गर खाने की बढती प्रवृत्ति का विकास बताया जाता है। स्वस्थ रहने वाली जीवनशैली के अपनाने की बजाय चिकित्सकों और अस्पतालों की उपलब्धता को विकास बताया जाता है। किसानों की आत्महत्या और व्यापक पैमाने पर पसरी गरीबी को दरकिनार कर अरबपतियों की संख्या में मामूली वृद्धि को सम्पूर्ण देश का विकास बता दिया जाता है।

हद तो तब हो जाती है जब फाॅूर्मला कार दौड को भी देश के विकास का एक पैमाना बताने की कोशिश की जाती है और मीडिया विकास के इस ‘फार्मूला ’ मानक को सहज स्वीकृति प्रदान करती है। विजय माल्या की धुन पर नृत्य करने वाले नर्तक इसे देश के विकास में मील का पत्थर बताते हैं। विजय माल्य इस कार्यक्रम को देशभक्ति से ओतप्रोत बताते हुए कहते हैं कि ‘‘यह मेरा हमेशा का सपना रहा है कि एक दिन यह महान देश ग्रां.प्रि. का आयोजन करे , इसलिए यह सप्ताहांत बहुत महत्वपूर्ण होगा और मुझे इस पर गर्व होगा ’। इसी तरह बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट के निर्माता जेपी समूह के समीर गौड ने कहा कि ‘‘ हमने यह सपना केवल अपने लिए नहीं देखा । हमें भलीभांति पता था कि इस बेहद लोकप्रिय और प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय खेल आायोजन को भारत लाकर हम अपने देश का नाम बुलंद करने में कामयाब रहेंगे। ’’ बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट बनाने में जेपी समूह ने लगभग 20 अरब रुपए खर्च किए और यह दुनिया का एकमात्र सर्किट है जिसका स्वामित्व निजी हाथों में है। व्यापारिक भविश्यवक्ता भी इस आयोजन को देशभक्ति भरा कदम बताते हैं। उद्योग मंडल एसोचैम के अनुसार अगले 10 वर्षाें में फार्मूला-1 के आयोजन से 90,000 करोड का राजस्व जुटाया जा सकता है और रोजगार के 15 लाख अवसरों का सृजन किया जा सकता है। ऐसोचैम के अनुसार पहली इण्डियन ग्रां.प्री. से लगभग 10,000 करोड रुपए का राजस्व मिलेगा । मीडिया इन बाजारु दबंगों से प्रश्न नहीं पूछती , उनके कथनों को ब्रह्मवाक्य मानकर उनका प्रसार करती है। आखिर  उस देश में जहां 80 फीसदी जनसंख्या अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए हाडतोड मेहनत करती है , विकास माॅडल किसानों को आत्महत्या करने के लिए विवश करता हो , विकल्पहीनता की स्थिति जनजातियों को अराष्ट्रीय हथियारबंद गिरोह का हिस्सा बनने के लिए विवश करती हो , वहां पर फर्राटा कार दौड विकास का पैमाना कैसे बन सकती है।

आमआदमियों की प्रति संवेदनहीनता की ऐसी मिशाल कम ही देखने को मिलती है। 1877 में महारानी विक्टोरिया को भारत की प्रथम साम्राज्ञी घोषित किए जाने पर लार्ड लिटन ने एक भव्य राजदरबार का आयोजन किया था । उस समय भारत में भयंकर अकाल पडा हुआ था। तब सम्पूर्ण भारतीय मीडिया ने लिटन के इस असंवेदनहीन रवैये की पुरजोर खिलाफत की थी। आज वैसी ही विकट स्थितियों में करोडों का तमाशा किया जाता है और मीडिया उसका विरोध करने के बजाय उसको विकास बताने में जुटा हुआ है। यह मीडिया पर पश्चिमी नजरिये का प्रभाव ही कहा जाएगा कि वह फर्राटा कार दौड को विकास का नया पडाव बताती है और दूसरी तरफ विश्व कबड्डी चैंपियनशिप की कवरेज को नगण्य कवरेज प्रदान करती है। जबकि भारतीय खेलों के लिहाज से विश्व कबड्डी चैंपियनशिप का आयोजन अधिक महत्वपूर्ण है।

पश्चिमी प्रभाव राजनीति और अर्थनीति जैसे क्षेत्रों में टूट चुका है ,लेकिन सूचना प्रवाह पर आज भी पश्चिम का नियंत्रण है। मीडिया के क्षेत्र में पश्चिमी प्रभाव का तिलिस्म टूटना अभी बाकी है। पश्चिम  मीडिया के जरिए अपने प्रभाव को बनाए रखने की अंतिम कोशिशें कर रहा है। दुनिया में विविधता , मौलिकता और सर्जनात्मकता को बनाए रखने के लिए पश्चिम के मीडियाई तिलिस्म का टूटना जरुरी है।  इस तिलिस्म की कालकोठरी में कैद अलग -अलग स्वर्गो की मुक्ति के लिए भी इसका जमींदोज होना आवश्यक है। स्वतंत्रता संग्राम का व्यापक अनुभव होने के कारण भारतीय मीडिया  पश्चिम के आखिरी तिलिस्म तोडने की चुनौती स्वीकार कर सकती है और चुनौती को स्वीकार करने का सबसे उचित समय यही है।







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