रविवार, 21 सितंबर 2014

आपदा की आहट देता विकास


          उत्तराखंड में आई आपदा और उससे हुई अपार धन-जन की हानि को विभिन्न तरीकों से व्याख्यायित किया जा रहा है। कुछ लोगों के लिए यह एक प्राकृतिक आपदा है तो कुछ लोग इसे दैवीय प्रकोप मानते हंै। जबकि कुछ लोग इसे पर्यावरणीय संतुलन को क्षत-विक्षत करने वाले आधुनिक विकास मॉडल की देन बताते हैं। ऐसी हाहाकारी तथा दर्दनाक घटनाओं को  दैवीय प्रकोप मान लेने पर मानवीय भूमिका और चिंतन के लिए स्थान सीमित हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह मान लिया जाता है कि यह तो होना ही था और और मानवीय चिंतन अथवा कर्मों का इससे कोई भी लेना देना नहीं हैं। इसके उलट पर्यावरणीय नजरिए से सोचने वाले लोगों की यह मान्यता होती है कि प्रकृति अनायास कुपित नहीं होती । जब उसके साथ होने वाली छेड़छाड़ असहनीय हो जाती है तभी वह रौद्र रूप दिखाती है।
  आधुनिक विकास मॉडल प्रकृति के शोषण पर आधारित है। यह आधुनिक विज्ञान के उस चिंतन पर आधारित है जिसकी मान्यता है कि संपूर्ण प्रकृति उपभोग्य है और एकमात्र मनुष्य ही उपभोक्ता है। मनुष्य को प्रकृति का अंश मानने की बजाय उसे प्रकृति का उपभोक्ता बना देने से इन दोनों के संबंधों में संवेदनशीलता का अभाव हो जाता है। इस संवेदनशीलता के अभाव में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का क्रूरतापूर्वक दोहन करता है और प्रकृति अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति रौद्ररूप धारण कर करती है। यदि प्रकृति और मनुष्य के संबंधों में संवेदनशीलता स्थापना कर दी जाए तो प्राकृतिक आपदाओं की दर और भयावहता दोनों घट जाती है। जाहिर है इस संवेदनशीलता की स्थापना विकास मॉडल में पर्यावरणीय पहलुओं को निवेश करके ही किया जा सकता है। इस निवेश के लिए जरूरी है कि  अंधाधुंध उपभोग को ही विकास का एकमेव पैमाना मानने वाले आधुनिक विकास मॉडल में पर्यावरण समृद्धि को भी एक महत्वपूर्ण पैमाने के रूप में प्रवेश कराया जाए।  इस काम की शुरुआत  वृहद औद्योगीकरण और बेतरतीब शहरीकरण का सीमांकन करके भी हो सकती है।
 अधिकांश लोगों ने शहरीकरण को विकास के एकमेव पैमाने के रूप में स्वीकार कर लिया है। ऐसी चर्चा औद्योगीकरण के  संदर्भों में भी देखने को मिलती है। यहां पर इस प्रश्र का उठना स्वाभाविक है कि क्या शहरीकरण और औद्योगीकरण को सभी भौगोलिक परिस्थितियों के लिए विकास का एकमात्र पैमाना माना जा सकता है? 
इन प्रश्रों के उत्तर स्थानीय स्तर पर खोजने मुश्किल हैं। वैश्विक स्तर पर भी राजनीतिक और बौद्धिक तबका विकास-मॉडल से जुड़े प्रश्रों से जूझ रहा है। 2007 में इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की चौथी रिपोर्ट ने वर्तमान विकास मॉडल के मानकों के पर गहरे प्रश्रचिन्ह खड़े किए थे। इस रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई थी कि अंधाधुंध उपभोग पर आधारित वर्तमान विकास मॉडल को लंबे समय तक जारी नहीं रखा सकता। यदि उपभोग आधारित विकास प्रारूप को नहीं बदला गया तो आने वाली पीढिय़ां प्राकृतिक संसाधनों से महरूम हो सकती हैं। इसी तरह 2008-09 की वैश्विक मंदी ने फिर इस बात को साबित किया कि जिस विकास मॉडल को हम अप्रश्रीय मानकर ,आंख मूंदकर अपनाए हुए हैं ,वह अपने ही दोषों के कारण धाराशायी होने के कगार पर पहुंच गया है। उससे अपना ही भार नहीं संभाला जा रहा है। मंदी की मार उन देशों पर सर्वाधिक पड़ी थी जिन्होंने विश्वबैंक से नीतियों को आयातित किया था। इसके विपरीत जिन देशों ने अपनी जरूरतों और विशेषताओं के अनुरूप नीतियों का निर्माण किया था उन पर मंदी की मार का असर कम हुआ। मंदी ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को भी वर्तमान विकास मॉडल के फंडामेंटल्स पर फिर से विचार करने के लिए विवश कर दिया।
आईपीसीसी की रिपोर्ट और वैश्विक मंदी ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट की मांग को नई ताकत दी तथा अप्रत्यक्ष रूप से इस तथ्य को स्थापित किया कि विकास का सार्वभौमिक पैमाना नहीं हो सकता। स्थानीय भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश से उपजे विकास के मानदंड ही कल्याणकारी साबित होते हैं। दूसरे देशों अथवा बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा गढ़े गए मानकों को ज्यों का त्यों स्वीकार करना दूरगामी लिहाज से हानिकारक साबित होता है और इसका लाभ भी आमआदमी तक नहीं पहुंच पाता। एक देश के रूप में भारत  इसका उदाहरण है। देश के बड़े वर्ग तक अब विकास की किरण नहीं पहुंच पाई है तो इसका बड़ा कारण आयातित नीतियां ही है। 
 औद्योगीकरण और शहरीकरण के महत्व को एकदम से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह निरपेक्ष रूप से प्रासंगिक है। भूगोल इसके स्वरूप को प्रभावित करता है।  शहरीकरण और औद्योगीकरण की बात करते समय सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। इसके कई रूप होते हैं, यह कोई होमोजीनस अवधारणा नहीं है।
 विकास की प्रक्रिया को भौगोलिक और जनसांख्यिकीय दबावों और विशेषताओं से मुक्त नहीं रखा जा सकता। समान परिवेश के विकास मॉडल औैर विकास नीतियों को ही अपनाया जाना ठीक होता है। साधारणतया,शहरीकरण और औद्योगीकरण की बात ब्रिटिश और अमरीकी मॉडल को ही ध्यान में रखकर की जाती है और उसी को स्वीकार करने के लिए पैरोकारी भी की जाती है। लेकिन यह मॉडल निरापद नहीं है।
ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि स्थानीय परिवेश को ध्यान में रखते हुए विकास मॉडल के नए प्रारूप रचे जाएं । स्थानीय भूगोल की  उपेक्षा करके यदि हम अमेरिका और ब्रिटेन की चीजों को ज्यों का त्यों रोपने प्रयास करेंगे तो इसके परिणाम उत्तराखंड की तरह विनाशकारी होंगे। हिमाचल और उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति लगभग समान है।   वहां की आपदा ने इस बात को सिद्ध किया है कि  प्राकृतिक आपदाओं के के समय अवैज्ञानिक तरीके से निर्मित बांधों के कारण जन-धन की  हानि बढ़ जाती है। सेस्मिक जोन-5 में हिमाचल में भी जलविद्युत परियोजनाओं का संजाल फैला हुआ है,शहरों का बेतरतीब विस्तार हो रहा है,औद्योगीकरण के नए हब उभर रहे हैं । भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय स्थिति कितनी भयावह हो सकती है,इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। यहां किसी आपदा का कहर टूटे,इससे पहले वर्तमान नीतियों की समीक्षा नीति-निर्धारकों को कर लेनी चाहिए।                             





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