रविवार, 21 सितंबर 2014

मंगलसंवाद का अमृतकलश


सत्यव्रतियों के लिए भारतीय संस्कृति का घोष वाक्य वादे वादे जायते तत्वबोध:है। संवाद से ही सत्य की उपलब्धि होती है। आप अध्यात्म के सूत्रों को पहचान करना चाहते हैं अथवा एक बेहतर व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं,इसके लिए संवाद से बढ़कर कोई मानवीय और समग्र तरीका नहीं हो सकता। संवाद की अवधारणा के आधार पर ही लोकतांत्रिक मूल्य पनपते हैं और लोकतांत्रिक लोकमानस भी बनता है। किसी भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों की पहचान और समाधान के लिए अधिकतम् सुझाव, संवाद की प्रक्रिया के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं।
 संवाद की अतिशय महत्ता को ध्यान में रखकर ही शायद इसे धार्मिक पवित्रता की परिधि में प्रस्तुत किया जाता है। किसी के मत को खत्म करने के लिए शस्त्र उठाने की परंपरा हमारे यहां कभी भी नहीं रही। संवाद के ही एक अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत  रूप-शास्त्रार्थ के जरिए हमने असत्य धारणाओं का खंडन किया,मिथ्याचारी लोगों को जमींदोज किया। अद्वैत का परचम लहराने के लिए शंकराचार्य ने किसी विरोधी का सिर उसके धड़ से अलग नहीं किया था।  सनातन परंपरा के सामने खड़ी तमाम चुनौतियों को ध्वस्त करने के लिए उन्होंने शास्त्रार्थ का सहारा लिया। शास्त्रार्थ के जरिए ही उन्होंने भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को अमृत की कुछ बंूदे पिलाईं और सभी विजातीय तत्वों से लडऩे के योग्य बनाया।
अब यहां पर एक प्रश्र का उठना बहुत स्वाभाविक है,वह यह कि क्या भारत में संवाद की प्रक्रिया को सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में स्थापित करने के लिए कुछ प्रयास किए गए अथवा नहीं। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में यह देखा गया है कि बौद्धिक जगत और आमजगत के मूल्यों में काफी भिन्नता होती है। यह भिन्नता राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों के अलावा सांस्कृतिक संदर्भों में भी देखने को मिलती है। एक ही समाज के इन दो घटकों में मूल्यों और मान्यताओं का एक स्पष्ट विभाजन सर्वत्र स्वयमेव दिखाई पड़ जाता है।
संवाद की प्रक्रिया के प्रति भारतीय आस्था की पड़ताल के लिए बौद्धिक परिवेश और आम समाज के बीच उपस्थित संवादसेतु की पहचान आवश्यक है। संवाद के विचार के संस्थानीकरण के लिए किए गए प्रयासों को चिंहित करना होगा। संवाद के ऐसे वृहदतर प्लेटफार्म के मूल स्वरूप को पहचानना होगा जहां पर व्यवस्था के सभी घटक एकत्रित होकर संवाद करते रहे हैं।
वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद व्यवस्थागत घटकों के एकत्रीकरण का प्रश्र और महत्वपूर्ण हो गया है। इस प्रक्रिया के कारण राज और समाज के बीच की खाईं अधिक चौड़ी हो गई है। समाज आज भी परंपराओं की गठरी को लादे सहज और स्वाभाविक दिशा में चलने के प्रति आस्थावान है और सांस्कृतिक दृष्टि से निरक्षर नीति-नियंता उसे स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम के तहत आयातित होने वाली नीतियों के खांचे में फिट करना चाहते हैं। दुर्भाग्य यह है कि इन दोनों पक्षों के बीच संवाद स्थापित करने के परंपरागत प्लेटफार्म समाप्त हो गए है और ऐसे नए प्लेटफार्म का सृजन नहीं हो पा रहा है जहां राज और समाज एक दूसरे से संवाद स्थापित कर सकें। किसी रामकथा, किसी धार्मिक आयोजन अथवा पारंपरिक आयोजनों में ये दोनों पक्ष सहभागी तो होते हैं लेकिन उनका समागम नहीं हो पाता। दरी और कुर्सी का फर्क साफ देखा जा सकता है। कुर्सी और दरी के भाव अलग होते हैं,भाषाएं अलग होती है और इसी कारण दोनों के बीच संवाद की संभावनाओं का सृजन नहीं हो पाता। इसके कारण व्यवस्था के घटकों के बीच एक कम्युनिकेशन गैप की स्थिति बन गई है।
संवादहीनता की इस स्थिति में कुंभ जैसे आयोजनों के मूलभाव को पुनरूज्जीवित किया जाना बहुत आवश्यक हो जाता है क्योंकि कुंभ व्यवस्थागत घटकों के बीच संवाद का एक वृहद पारंपरिक प्लेटफार्म रहा है। इस बिंदु पर कुंभ के मूलस्वरूप को लेकर प्रश्र उठना स्वाभाविक है। साथ ही इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हो जाता है कि क्या कुभ के मूलस्वरूप को आज भी ज्यों का त्यों अपनाया जा सकता है या नहीं। यदि नहीं तो कुंभ मूलभाव का अक्षत बनाए रखते हुए उसके स्वरूप को समसामयिक कैसे किया जा सकता है?पौराणिक कहानियों के अनुसार कुंभ के आयोजन का समुद्र मंथन की प्रक्रिया से उत्पन्न अमृतकलश से है। समुद्र मंथन के कारण जिन चौदह रत्नों की समुद्र से उत्पत्ति होती है,उसमें अमृतकलश भी शामिल था। अमृतकलश पर आधिपत्य जमाने के लिए जो भागदौड़ और एक दूसरे को छकाने को खेल शुरू हुआ,उसके कारण कुछ बूंदे जमीन पर छलक पड़ी थीं। जहां-जहां पर ये अमृत बूंदे छलकी थीं वहां-वहां पर कुंभ के आयोजनहोने लगे। समुद्र मंथन की प्रक्रिया में अपने परंपरागत मतभेदों को भुलाकर देव और दानवों ने सहभागिता की थी और इनसे उपजे रत्नों में हलाहल विष भी शामिल था। यदि समुद्र मंथन की प्रक्रिया को एक मिथक मानकर,संवाद और व्यवस्था के संदर्भों में हम इसकी व्याख्या करें तो इसके कई पुरातन और सनातन अर्थ निक ल सकते हैं। समुद्र मंथन की प्रक्रिया हमारे सामने दो असुविधाजन तथ्यों को उजागर करती है। पहला यह कि संवाद एकरस नहीं होता। एक ही मान्यताओं को मानने वाले लोगों के बीच संवाद से अधिक समर्थन होता है। संवाद की प्रक्रिया अधिक कष्टसाध्य होती है। यह अपने अहं और मूढ़ता को दरकिनार करते हुए दूसरे को समझने और सहने की प्रक्रिया है। दूसरा यह कि एकरसीय संवाद प्रक्रिया के परिणाम भी बहुत सीमित दायरे में रहते हैं। विरोधाभास व्यक्ति को एक व्यापक फलक पर आरूढ़ करते हैं और विरोधाभासों की उपस्थिति संवाद के जरिए सत्य के वृहत्तर आयामों को साधने की कोशिश की जाती है। इन वृहत्तर आयामों के साधने की प्रक्रिया में कई बार बहुत कुछ अशुभ भी घटित होता है। समुद्र मंथन की प्रक्रिया में देव-दानव दोनों का शामिल होना और अमृत के साथ हलाहल की उत्पत्ति संवाद के इसी मूलचरित्र की तरफ संकेत करती है।
 अमृत और अमरता का भी कुंभ से गहरा संबंध है। साधारणतया अमृत से एक ऐसे पदार्थ का आशय निकाला जाता है,जिसको ग्रहण करने के बाद हम कालवाह्य हो जाते हैं,कालातीत हो जाते हैं,काल के गुणधर्म से परे हो जाते हैं। अस्तित्व का विस्तार त्रिकाल में हो जाता है। लेकिन यह अमृत और अमरत्व की बहुत रूढ़ व्याख्या है। रूपांतरण की प्रक्रिया के जरिए अपने अस्तित्व को बनाए रखना भी एक प्रकार का अमरत्व है। भारतीय संस्कृति का अमरत्व कुछ इसी प्रकार का है। सामयिक परिवर्तनों को आत्मसात करने की प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति का कलेवर बदल जाता है,लेकिन उसके मूलाधार नहीं बदलते। वह नितनवीन होने के साथ भी चिरपुरातन भी बनी रहती है। नितनवीन और चिरपुरातन के बीच संतुलन बिंदुओं की खोज और उनको साधने की प्रक्रिया में कुंभ जैसे आयोजनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आज जब हम परिवर्तनों के अंधड़ में जी रहे हैं तब इस संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम कुंभ को व्यवस्थागत संवाद के प्लेटफार्म के मूलस्वरूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित रूप से संतुलन के नवीन सूत्रों की खोज भी कर लेंगे। ऐसा करना अपनी सांस्कृतिक धारा को अक्षय बनाए रखने के लिए जरूरी है। 

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