सोमवार, 29 सितंबर 2014

खलनायक नहीं, नायक है तू


समरथ के नही दोष गोसाईं की पंक्तियां व्यवस्था में मत्स्य न्याय जैसी स्थिति की तरफ संकेत करने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं। जब कानून व्यक्तियों का भार देखकर काम करने लगता है, व्यक्ति की प्रतिष्ठा और प्रभावित करने की क्षमता से संविधान के अनुच्छेद घुटन सी महसूस करने लगते हैं, तब गोस्वामी तुलसीदास की यह पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं। अभी तक इस पंक्ति का उपयोग राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों में होता रहा है। शायद, यह मान लिया गया था कि सामर्थ्य इन दोनों क्षेत्रों तक सीमित रहती है। व्यवस्था के पारंपरिक ढांचे का विश्लेषण एक हद तक इस मान्यता पर मुहर भी लगाता है कि रसूख का स्वरूप या तो राजनीतिक होता है अथवा आर्थिक। लेकिन हाल-फिलहाल की कुछ घटनाओं ने इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि रसूखदारी अब राजनीति और आर्थिकी की बपौती नहीं रह गई है।

सामर्थ्य में हिस्सेदारी रखने वाले कुछ नवघटक व्यवस्था में जुड़ चुके हैं। संजय दत्त की सजा के बाद जिस तरह का गुबार और अंधड़ पैदा करने की कोशिश की गई, वह इस बात की तस्दीक करते हैं। सजा के बाद व्यवस्था की विसंगतियों पर जैसे गंभीर सवाल उठाए गए और जिस तरह से दूर-दराज के अपरिचित हमदर्द मदद के लिए सामने आए, उससे तो ऐसा लगा कि मानो गलती संजय दत्त की नहीं,माननीय उच्चतम न्यायालय की है। संजय दत्त के खिलाफ हुई कथित ज्यादती को दूर करने के लिए कुछ लोगों ने व्यवस्था परिवर्तन की बात की तो कुछ अन्य ने व्यवस्था के गैर-पारंपरिक विधानों का उपयोग कर उच्चतम न्यायालय द्वारा हो गई गलती को सुधारने का अभियान चलाया। इस अभियान के मुखिया बने प्रेस परिषद् के अध्यक्ष - मार्कंडेय काटजू और इस गंभीर वैधानिक विमर्श का आगे बढ़ाया मीडिया ने।

मार्कंडेय काटजू ने बहस की शुरूआत करते हुए कहा कि क्योंकि संजय दत्त एक अच्छे आदमी हैं, उनके पास परिवार है और उनका ताल्लुक एक समाजसेवी परिवार से है, इसलिए मानवीय आधार पर उनको सजा से मुक्ति मिलनी चाहिए। इसके बाद तो संजय दत्त के पक्ष में जिरह करने वालों की भीड़ लग गई। कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने कहा अपराध के समय उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी। उन्होंने बचपने में एक गलती कर दी थी, इसलिए उनको क्षमादान मिलना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का मानना था कि संजय दत्त पहले ही काफी कुछ भुगत चुके हैं, और अधिक सजा की जरूरत नहीं है। अभिनेत्री राखी सावंत तो इतनी भावविह्वल थीं कि उन्होंने खुद को संजय की जगह जेल जाने के लिए प्रस्तुत कर दिया। आंध्र के पूर्व अभिनेता और वर्तमान में नेता चिरंजीवी ने कहा कि संजय ने काफी सजा पहले ही काट ली है अब उनको दया के आधार पर सजा से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। धर्मेंद्र ने फरमाया कि मेरा हृदय संजय के लिए रोता है। बीमार अमर सिंह यकायक सक्रिय हो गए और वह अभिनेत्री जयाप्रदा को लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल के.शंकरनारायणन के पास जा पहुंचे और दरबार में माफी की गुहार लगाई। इन सारे लोगों के पास कोई ठोस तर्क नहीं था। वह बेचारे संजय के हक की लड़ाई मानवीय मूल्यों के आधार पर लड़ रहे थे। अपने को हमेशा क्रांतिकारी मुद्रा और नई सोच की पैरोकार के रूप में प्रस्तुत करने वाली शोभा डे ने भी अपनी धारदार कलम संजय के पक्ष में चलाई।

संजय दत्त की असली पैरवी तो आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में से एक शांतिभूषण ने की। उन्होंने 26 मार्च को द हिंदू में एक लेख लिखकर कानूनी जिरह की और उच्चतम न्यायायलय से संजय दत्त को सजा देने की अपनी गलती सुधारने की अपील की। इस लेख में उन्होंने लिखा कि संजय दत्त ने सांप्रदायिक हिंसा से उपजी हुई स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पास एके-56 जैसे हथियार रखे थे। उस समय उग्र भीड़ कुछ भी कर सकती थी, इसलिए उन्होंने उग्र भीड़ से अपनी रक्षा के लिए सुरक्षा के घातक हथियार रखे थे। किसी भी व्यक्ति को अपनी सुरक्षा के लिए ऐसा करने का हक है। अब चूंकि भारतीय कानून घातक हथियारों का लाइसेंस नहीं देते, इसलिए संजय दत्त के पास डी कंपनी की शरण में जाने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा था।

पहली श्रेणी के तर्क तो इतने सतही और भोथरे हैं कि उनके खंडन की जरूरत ही नहीं पड़ती। अब यदि किसी अपराधी के लिए इस आधार पर क्षमा मांगी जाए कि उसके पास बीवी-बच्चे हैं, तब तो भारत के 99 प्रतिशत अपराधियों को छोडऩा पड़ेगा। पिछले कुछ समय में काटजू द्वारा दिए गए बयानों का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि वह मानते हैं कि सारी विद्वता उनके पास है और निर्णय सुनाने का तो वह एकाधिकार रखते हैं। शायद, इसी कारण अधिकांश पत्रकार उनको मूर्ख लगते हैं। संजय दत्त के प्रकरण में भी वह अपने से असहमति रखने वाले लोगों को खुलेआम मूर्ख और बेवकूफ बता रहे थे। उनको याद रखना चाहिए कि वह माननीय न्यायालय की परिधि से बाहर आ चुके हैं। अब उनके निर्णयों और कथनों से सैकड़ों लोग असहमत होंगे। और इस स्थिति में गुर्राने की बजाय सलीके से और तथ्यों और तर्कों के आधार पर बातचीत करना ही अधिक प्रभावी होता है। मीडियाई क्षेत्र तो वैसे भी बाल की खाल निकालने के लिए प्रसिद्ध है और जब खाल ही उधड़ी हुई तो मीडिया को खिंचाई करने से कौन रोक सकता है। अन्य लोग तो हमदर्दी दिखाने के बहाने यह सिद्ध करना चाह रहे थे कि बालीवुड की पैरोकारी का दमखम उन्हीं के पास है और जब उच्चतम न्यायालय ने अन्याय किया है तो सभी लोग,सभी दिशाएं देख लें कि वह हक की लड़ाई लडऩे में सबसे आगे हैं।

दिग्विजय सिंह तो बयान ही खंडन करने के लिए देते हैं। हेमंत करकरे के बारे मे दिग्विजय के बयान का खंडन कुछ ही मिनटों में खुद करकरे की पत्नी ने कर दिया था। अब यदि मान लिया जाए कि संजय 33 साल की उम्र में एके-56 जैसे खिलौने का महत्व नहीं जानते थे, फिर भी उनको पाक-साफ नहीं बताया जा सकता। एबीपी न्यूज ने सन् 2000 में उनके दाउद के दाहिने हाथ माने जाने वाले गुर्गे से बातचीत की टेप का प्रसारण कर चुका है। अब प्रश्र यह उठता है कि संजयदत्त से अनजाने में गलती हुई थी तो 7 सालों बाद वह क्यों पाकिस्तानी आकाओं को याद कर रहे थे और कुछ फरियादें भी कर रहे थे।

अब कानूनी पक्ष की बात करते हैं। कानून की बारीकियों में जाने से पहले यह आवश्यक हो जाता है कि हम संजय दत्त के अपराधों की पड़ताल कर लें। टाडा कोर्ट में सीबीआई ने संजय दत्त के ऊपर जो आरोप लगाए हैं उसके अनुसार 16 जनवरी 1993 को अबू सलेम ने 3 एके-56 रायफलें, 25 हैंडग्रेनेड और 7 एमएम की पिस्टल रखने के लिए दी। इनमें से एक एके-56 रायफल को अपने पास रखकर, शेष सारे हथियार उन्होंने हनीफ लाकड़ावला और समीर हिंगोरा को सौंप दिये। मॉरीशस में शूटिंग के दौरान संजय दत्त को इस बात का पता चला कि सीबीआई मुंबई बम विस्फोटों में उनकी संलिप्तता की भी जांच कर रही है। उन्होंने युसूफ नलावाला, अजय मारवा और रसी मुल्लावाला को इन हथियारों को नष्ट करने की जिम्मेदारी दी। शुरूआत में, संजय दत्त पर टाडा के तहत मुकदमा चलाया गया, बाद में पता नहीं किन कारणों से उन पर से टाडा हटा लिया गया और केवल आम्र्स एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जाने लगा। बाद में संजय ने इन तथ्यों की स्वीकारोक्ति भी की।

अब प्रश्र यह उठता है कि क्या दया का अधिकार केवल सबल को मिलना चाहिए या सबल ही दया मांगने की क्षमता रखता है ? इसी आधार पर क्या अन्य लोगों के लिए भी पैरोकारी करने के लिए लोग आएंगे ? नेशलन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के 2011 के आंकड़ों के अनुसार पूरे भारत में लगभग 2 हजार लोग आर्म्स एक्ट के तहत सजा भुगत रहे हैं जबकि 10 हजार से अधिक लोगों पर आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमे चल रहे हैं। इनमें अधिकांश बहुत ही साधारण हथियार रखने के दोषी पाए गए हैं। इसी साल के आंकड़ों के अनुसार 1लाख 28 हजार सजायाफ्ता कैदियों में से 73 प्रतिशत दसवीं फेल हैं इनमें 30 प्रतिशत तो निरक्षर है। इसी तरह 2 लाख 41 हजार विचाराधीन कैदियों में निरक्षर कैदियों की संख्या 29.5 प्रतिशत और दसवीं फेल कैदियों की संख्या 42.4 प्रतिशत है। इन निरक्षरों और गरीबों के लिए देश में कोई काटजू अपनी आवाज नहीं उठाता। दया का थोड़ा-बहुत हक तो इनका भी है।

दया, निर्बलों और असहायों के लिए मांगी जाती है। जब व्यक्ति संसाधनों के अभाव में अपनी लड़ाई नहीं लड़ पाता अथवा वह बिना किसी गुनाह के किसी को सजा दे दी जाती है, तब दया मांगी जाती है। यहां तो उल्टी गंगा बहाने की कोशिश की जा रही है। अभियुक्त अपने गुनाहों को स्वीकार कर चुका है और सार्वजनिक रूप से यह घोषणा भी कर चुका है कि वह क्षमादान नहीं मांगेगा। फिर भी, उनके  नाम पर कुछ लोग कटोरा लिए हुए घूम रहे हैं। यह अजीब स्थिति है। खलनायक और खलनायकी को वैध ठहराने के प्रयास किसी स्वस्थ व्यवस्था में तो नहीं होते। संजय दत्त का क्षमादान प्रकरण, पूंजी के  अबाध प्रवाह के कारण पैदा हुए नवधनाढ्यों की अनियंत्रित मन:स्थिति का संकेतक है। यह अनियंत्रित मनोवृत्ति व्यवस्था को अपने ठेंगे पर नचाना चाहती है और सही-गलत को अपने ढंग परिभाषित करने की कोशिश करती है। व्यवस्था में ऐस मनोवृत्ति के शिकार लोगों का प्रचार पाना किसी भी दृष्टि से शुभ नहीं कहा जा सकता।

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