सोमवार, 29 सितंबर 2014

आजादी के नए आयाम


समय का प्रवाह शब्दों में नए आयाम जोड़ता है, घटाता है और कभी-कभी शब्द का अर्थ ही बदल देता है। आजादी एक ऐसा शब्द है जिसके अर्थ में बदलाव तो नहीं हुआ है, लेकिन पिछले 7 दशकों में कई नए आयाम जुडे़ हैं। यह नए आयाम गुलामी के स्वरुप और प्रकृति में आए व्यापक बदलाव के कारण जुड़े हंै। आजादी की 68वीं वर्षगंाठ मना रहा यह देश 15 अगस्त 1947 को मिली आधी-अधूरी राजनीतिक आजादी का जयगान कर रहा है, जबकि इसी दौर में गुलामी ने राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर नए क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया है। राजनीतिक क्षेत्र से प्रारम्भ हुई गुलामी की यात्रा अब आर्थिक क्षेत्र का पड़ाव पार कर सांस्कृतिक क्षेत्र तक पहुंच चुकी है।

हमने राजनीतिक साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त की थी, लेकिन वर्तमान में आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के अधीन जीने को अभिशप्त हैं। खतरनाक बात यह है कि साम्राज्यवाद और गुलामी का चेहरा हर पडाव पर अधिक मनमोहक हो रहा है लेकिन इसका प्रभाव अधिक जनसंहारक होता जा रहा है। जब हमने आजादी प्राप्त की थी तब साम्राज्यवाद राजनीतिक क्षेत्र से आर्थिक क्षेत्र में प्रवेश कर रहा था और आज हम जिस काल में जी रहे हैं वह आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दुरभिसंधि का काल है। ऐसे में, आजादी को ठीक ढंग से परिभाषित करने के लिए गुलामी की परिर्वतन यात्रा का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मूल रुप से राजनीतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई थी। 1950 तक भारत में ही नहीं एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में राजनीतिक साम्राज्यवाद का पराभव हो चुका था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूरी दुनिया गुलामी के चंगुल से भी मुक्त हो गई। राजनीतिक साम्राज्यवाद के पराभव होने से पहले आर्थिक साम्राज्यवाद अस्तित्व में आ चुका था। आर्थिक साम्राज्यवाद की संकल्पना द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात अस्तित्व में आई। आर्थिक साम्राज्यवाद की अवधारणा का ध्येय सैद्धांतिक और व्यवहारिक रुप से राजनीतिक साम्राज्यवाद  को पदच्युत करना था। जब आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए एक-एक देश सैनिक हस्तक्षेप के जरिए किसी अन्य देश पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित कर लेता है तो उस प्रक्रिया को राजनीतिक उपनिवेशवाद अथवा राजनीतिक साम्राज्यवाद का नाम दिया जाता है।

इतिहास इस बात का गवाही देता है कि यूरोपीय देशों ने अतिरिक्त उत्पादन को बेचने तथा कच्चा माल प्राप्त करने के लिए एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देशों को अपना राजनीतिक उपनिवेश बनाया। अधिक से अधिक उपनिवेश बनाने की होड़ के कारण ही प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्व हुए। दो विश्वयुद्धों में हुई धन-जन की भयंकर हानि के कारण आर्थिक दृष्टि से संपन्न देशों को इस बात का आभास हुआ कि अन्य देशों पर प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की प्रक्रिया को भविष्य में आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। यह एक बहुत जटिल प्रक्रिया थी और इसमें स्थानीय स्तर पर प्रतिरोध की व्यापक संभावनाए भी होती हैं। विदेशी तत्वों की प्रत्यक्ष उपस्थिति स्थानीय अस्मिता को प्रतिरोध के लिए उकसाती थी। इसलिए, राजनीतिक साम्राज्यवाद की प्रक्रिया में अपने साम्राज्यवाद को टिकाए रखने के लिए विदेशी शक्तियों को धन-जन का व्यापक पैमाने पर निवेश करना पड़ता था। दूसरी तरफ सत्ता को बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले नृशंस और अमानवीय तरीकों के कारण भी वैश्विक शक्तियों के सफेद चोले पर काले धब्बे पड़ते थे।

राजनीतिक साम्राज्यवाद की राह में आने वाली इन तमाम कठिनाईयों से बचने के लिए शोषणकारी शक्तियों ने अपनी कार्यपद्धति और रणनीति में व्यापक परिवर्तन किए। उन्होंने अब प्रत्यक्ष की बजाय अप्रत्यक्ष नियंत्रण की रणनीति पर काम करना शुरु किया। अन्य देशों पर अप्रत्यक्ष रुप से नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रारम्भिक चरण आर्थिक साम्राज्यवाद के नाम से जाना जाता है। इस प्रक्रिया में किसी देश के भूभाग  अथवा सत्ता पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने के बजाय उन पर ऐसी आर्थिक नीतियां थोप दी जाती कि विपन्न देश की सम्प्रभुता विकसित देशों के नीति-नियंताओं के हाथों में स्थानांतरित हो जाती है। राजनीतिक साम्राज्यवादी की वाहक अमीर देशों की सेना होती है तो आर्थिक साम्राज्यवाद की वाहक बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं।

आर्थिक साम्राज्यवाद की शुरुआत बहुपक्षीय आर्थिक समझौते गैट से होती है और 1995 में विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने तक यह प्रक्रिया अबाध गति से आगे बढ़ती है। विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने से पहले  होने वाली युरुग्वे दौर की वार्ता में पहली बार आर्थिक साम्राज्यवाद के चेहरे से दुनिया ठीक ढंग से परिचित हुई। विश्व व्यापार संगठन के बाद प्र्रारम्भ होने वाली सिंगापुर वार्ता ने इस बात को उघाड़कर रख दिया कि बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के नामपर गरीब देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और व्यापार पर कब्जा करने की क्रूर कोशिश है। सम्भवतः इसी कारण सन 2000 के बाद बहुपक्षीय व्यापार समझौते में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकी है।

 आर्थिक साम्राज्यवाद मे सन 2000 के बाद आए ठहराव से यह आशय नहीं निकाला जाना चाहिए कि साम्राज्यवादी शक्तियां हतबल हो गई हंै। आर्थिक साम्राज्यवाद में आने वाले ठहराव और प्रतिरोध को भांपते हुए साम्राज्यवाद ने अपना चोला फिर बदल लिया है। अब देश पर कब्जा करने के बजाय देश के नागरिकों को अपने कब्जे में करने की कोशिश की जा रही है। साम्राज्यवाद के नवस्वरुप को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का नाम दिया गया है ।

सांस्कृतिक साम्राज्यवाद संचार माध्यमों के कंधे पर चढ़कर प्रत्येक व्यक्ति का दरवाजा खटखटा रहा है। इस प्रक्रिया के तहत व्यक्ति के जीवनदर्शन और जीवनशैली को प्रभावित कर उसे बाजारवादी मूल्यों को अनुरुप बनाने की कोशिश की जा रही है। यह प्रक्रिया साम्राज्यवाद के अन्यस्वरुपों की अपेक्षा अधिक मारक और घातक है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं अपने अंतःकरण की आत्महत्या कर देता है और अपने को बाजारवादी मूल्यों तथा उपभोक्तावादी जीवनशैली को सौंप देता है। यह प्रक्रिया अधिकतम उपभोग को ही जीवन के चरमलक्ष्य के रुप में प्रस्तुत करती है और उपभोक्तावादी जीवनशैली को अनिवार्य आवश्यकता के रुप में प्रस्तुत करती है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद में प्रतिरोध की संभवनाएं भी बहुत क्षीण होती है क्योंकि सूचनाओं की सतत बमबारी के जरिए व्यक्ति के मस्तिष्क को इस तरह ‘प्रोग्राम’ कर दिया जाता है कि साम्राज्यवाद द्वारा व्यक्ति के शोषण के लिए प्रस्तुत विकल्पों को ही अपने हित के लिए अपरिहार्य मान लेता है।

वर्तमान दौर में व्यक्ति आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दुरभिसंधि में जीने को विवश है। इस दुरभिसंधि के कई आयाम हैं। इसमें से कुछ की पहचान की जा चुकी है, जबकि कुछ अब भी अचिन्हित है। इस दुरभिसंधि के निर्माण में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है , इसलिए मीडियाई परिप्रेक्ष्य में आजादी शब्द अर्थ पुनर्पाठ आवश्यक बन जाता है। स्वतंत्रता पूर्व मीडिया की आजादी को व्यवस्था की आजादी की पूर्वशर्त के रुप देखा जाता था। स्वतंत्रता के बाद भी मीडिया की आजादी को एक चरम मूल्य के रुप में बनाए रखा गया। हालांकि इसी दौर में आपातकाल के दौरान मीडिया की आजादी का गला घोंटने का प्रयास किया गया, लेकिन मीडिया की आजादी में लोगों के अटूट विश्वास के कारण सत्ता इसमें सफल नहीं हो सकी।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अब तक मीडिया और आजादी के अंतर्सम्बंधों का विमर्श मीडिया की आजादी तक सीमित रहा है। लेकिन 1990 के बाद से मीडिया की आजादी के प्रति अकादमिक जगत और आमजगत में आकर्षण घटा है। कारण साफ है , मीडिया अब लोगों की आजादी को बचाए और बनाए रखने का हथियार नहीं रह गया है । कारपोरेट घरानों के इशारे पर अब मीडिया आमलोगों की आजादी को कुचलने पर आमादा है। मीडिया की आजादी का विमर्श धीरे-धीरे मीडिया से आजादी का विमर्श बनता जा रहा है। यह विमर्श विस्थापन मीडिया के परम्परागत छवि और मूलचरित्र की हत्या कर सकता है। मीडिया के पास अब भी आत्म रक्षा का एक उपाय शेष है, आजादी के नए आयामों के प्रति जागरुकता और सम्पूर्ण आजादी के प्रति ललक पैदा कर मीडिया अपने लिए एक रक्षा कवच का निर्माण कर सकता है।









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