रविवार, 21 सितंबर 2014

मूक बदलाव का मुखर बटन

बदलाव एक सनातन प्रक्रिया है। परिवर्तन रहित व्यक्ति अथवा व्यवस्था जल्द ही संड़ाध का शिकार हो जाती है। यथास्थिति की चाहत रखने वाला व्यक्ति भी स्थिर होकर खड़ा नहीं रह सकता। अपनी जगह को बनाए रखने के लिए उसे कदम आगे बढ़ाने पड़ते हैं। नियत स्थान पर कदमताल करने वाले व्यक्ति को भी पैर आगे ले जाने पड़ते हैं अन्यथा वह धीर-धीरे अपने स्थान से पीछे हट जाता है और उसे इस बात का एहसास भी नहीं होता। इसलिए व्यक्तिगत और व्यवस्थागत जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया को जन्म देना और बदलाव को स्वीकार करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
बदलाव की व्यवस्थागत प्रक्रिया के लिए लोकतंत्र को सबसे बेहतर माना जाता है क्योंकि इसमें सत्ता का हस्तांतरण बिना किसी रक्तपात और अराजकता के संपन्न हो जाता है। बदलाव के लिए किसी लाल क्रांति की जरूरत नहीं होती। पहले प्रत्येक पांच वर्षों में बैलेट के जरिए बदलाव की इबारत लिखी जाती थी और अब बटन के जरिए बदलाव की प्रक्रिया पर मुहर लगाई जाती है। बदलाव की प्रक्रिया में मतदान की अहम भूमिका होती है। मतदान केवल राजनीतिक उत्तरदायित्व ही नहीं है बल्कि यह सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्य भी है। मतदान एक संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली सामाजिक सेवा है। हम सरकार के साथ उन नीतियों का भी चयन करते हैं जो सामाजिक स्थिति को निर्धारित करती हैं।  मतदान एक धार्मिक कार्य भी है क्योंकि यह मतदान ही है जिसके कारण अच्छाई की आबोहवा बनती है अथवा बुराई का बोलबाला बढ़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इतने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कार्य को करने के लिए मतदाता को कुछ मिनट अथवा कुछ घंटे खर्च करने होते हैं। 
अधिकांश नागरिक देश के हालात और सरकारी नीतियों को लेकर क्षुब्ध रहते हैं। घर-परिवार से लेकर नुक्कड़ की दुकानों और सभा-संगोष्ठियों तक में सरकारी नीतियों और अक्षमता की चीर-फाड़ करते हैं। सामान्य जन से लेकर बुद्धिजीवी तक सरकारी नीतियों और व्यवस्थागत विसंगतियों के विश्लेषण का कार्य पूरे मनोयोग और मेहनत के साथ करते हैं। लेकिन जब स्थितियों में बदलाव करने का वक्त आता है तो हम थोड़ी सी धूप सहन करने की जहमत नहीं उठा पाते। अपने दैनिक काम को कुछ मिनटों के लिए छोड़ना पसंद नहीं करते। यदि इन बाधाओं को पार करके मतदान करते भी हैं तो जाति-बिरादरी की चारदीवारी में उलझ जाते हैं। इसके कारण उम्मीदवार की योग्यता और दल की नीतियां गौण हो जाती हैं और बदलाव की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है और देश एक चक्करघिन्नी में फंस कर रह जाता है। हैरत की बात यह है कि मतदान के प्रति आत्मघाती लापरवाही में शिक्षित बुद्धिजीवी और शहरी वर्ग आगे है। 2014 के आम चुनावों में भी मुंबई के कम मतदान प्रतिशत ने सबको हैरान कर दिया। इसी तरह नोएडा और गुड़गांव में भी पिछले कई चुनावों से मतदान प्रतिशत उल्लेखनीय नहीं रहा है। राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र माने जाने वाली दिल्ली में भी 2009 में मतदान प्रतिशत महज 51 फीसदी था। हालांकि इस बार चुनाव आयोग के कारण इसमें सुधार देखा गया और यहां 65 फीसदी से अधिक मतदान हुआ। कम मतदान के कारण देश की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार नहीं मिल पाती और राजनीतिक प्रबंधन के जरिए मतदाताओं को रिझाने वाले लोग सत्तासीन हो जाते हैं और ऐसी सरकारें देश के हितों को नहीं बल्कि अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर निर्णय लेती हैं। भारत में कम मतदान के कारण ही कुल मतदाताओं के पांचवें हिस्से का मत प्राप्त करने वाले दल भी सरकार का गठन करने में सक्षम हो जाते हैं। इस बात को 2009 के चुनावों के जरिए बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। पंद्रहवीं लोकसभा के लिए हुए चनावों में मतदाताओं की संख्या 71.4 करोड़ थी। इसमें से 59.7 प्रतिशत (लगभग 42 करोड़) मतदाताओं ने मतदान किया। इसमें से संप्रग के पक्ष में  37.22 प्रतिशत (लगभग 15 करोड़ 30 लाख)मतदाताओं ने मतदान किया था। इन चुनावों में कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत (लगभग 11 करोड़ 50 लाख) मत मिले थे। इस तरह कुल मतदाताओं में से 16 प्रतिशत का मत प्राप्त करके कांग्रेस ने सरकार बनाने की स्थिति प्राप्त कर ली थी। क्या इसे संपूर्ण देश का जनादेश कहा जा सकता है। मात्र 16 प्रतिशत वोट सरकार बनाने में यदि निर्णायक भूमिका निभाते हैं तो इसका मूल कारण यही है कि बड़ी संख्या में नागरिक मतदान करने की जहमत नहीं उठाते।
अधिकांश मतदाताओं में यह वहम होता है कि मेरे एक मत से क्या बन-बिगड़ जाएगा? इस परिप्रेक्ष्य में यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि एक मत के कारण ही 13 महीने की अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली सरकार गिर गई थी। सरकारें मतों के मामूली अंतर से बनती अथवा बिगड़ती हैं। 2004 में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन को मतों के बहुत मामूली अंतर से सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। इस चुनाव में कांग्रेस नीत संप्रग गठबंधन को 35.4 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे और भाजपा नीत राजग गठबंधन 33.3 प्रतिशत मत प्राप्त कर मामूली अंतर से पीछे रह गया था। इसलिए प्रत्येक मतदाता को यह मानकर मतदान केंद्र तक जाना चाहिए कि उसका मत अमूल्य है।
निर्णायक क्षणों में की गई गलती की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। मतदान का समय देश की दशा और दिशा को निर्धारित करने वाला होता है। ऐसे समय में हर नागरिक से यही अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी भूमिका को सजगता और सक्रियता के साथ निभाएगा। कार्य की महत्ता केवल उसकी प्रकृति पर ही निर्भर नहीं करती। यह इस बात पर निर्भर करती है कि कार्य किस क्षण में किया जा रहा है। कार्य करने के समय पर भी सफलता-असफलता निर्भर करती है। इसी कारण अपने यहां शुभ कार्य, शुभ मुहूर्त में किए जाते हैं। मतदान का दिन बदलाव की चाहत रखने वाले लोगों के लिए सबसे शुभ होता है। ज्योतिषीय भाषा में कहें तो इस दिन बदलाव का सर्वार्थसिद्ध योग होता है। इस शुभ मुहूर्त में मतदान करने का परम-पवित्र कार्य जरूर करना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव का समयचक्र पंचवर्षीय होता है। पांच सालों में हमारे पास मूक बदलाव का मौका आता है और ईवीएम की बटन दबाकर बदलाव का मुखर बनाया जा सकता है। यदि इन लम्हों में हम मतदान न करने की खता करते हैं तो हमें सदियों तक सजा मिलती रहेगी।

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