सोमवार, 29 सितंबर 2014

मीडिया का ‘अघोर तंत्र’ है टीआरपी


भारतीय प्रज्ञा प्रकृति को त्रिगुणात्मक मानती है। व्यक्ति और व्यवस्था सभी में सत, रज, तम की यह त्रिगुणात्मक प्रकृति विभिन्न अनुपातों में अभिव्यक्त होती है। व्यक्ति और व्यवस्था में नई प्रवृत्तियों का उद्भव किसी नए गुण के प्रवेश के कारण नहीं बल्कि इन प्रवृत्तियों के आनुपातिक परिवर्तन से होता है। भारतीय मनीषा तो आत्म उन्नयन के लिए की जानी वाली साधनाओं को भी सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन श्रेणियों में बांटती है। तामसिक साधनाओं में अघोर साधना का प्रचलन विशेष रुप से रहा है और  जनसामान्य इससे  अधिक परिचित भी है। यह साधना शुरु तो आत्म अनुभूति के नाम पर हुई लेकिन कालांतर में यह चमत्कारी शक्तियों के अर्जन की साधना बन गई। अहंकार विसर्जन और प्रवृत्तियों के परिमार्जन की बजाय निकृृष्ट प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए जादू-टोने और सम्मोहन जैसी चमत्कारी शक्तियों के अर्जन और प्रदर्शन की साधना बन गई। जनसामान्य में भ्रम पैदा करना और यथार्थ से काटकर चमत्कारों की मायावी दुनिया रचना इस साधना की प्रमुख विशेषताएं बनकर उभरी। इस तामसिक साधना बाद में अमावनवीयता के पुट तो प्रारंभ से ही थे, लेकिन अमानवीयता की पराकाष्ठा तब हो गई जब इसमें शक्तियों के अर्जन के लिए ‘नरबलि’ जैसी प्रथा का समावेश हुआ। नर कपाल को कमण्डल मानने वाली साधना ‘नरबलि ’ तक पहंुच गई। यह साधना शक्ति उपासकों की बजाय शक्ति पीपासुओं की साधना बन गई।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में टीआरपी को मीडियाई अघोर तंत्र कहा जा सकता है। अघोर तंत्र की तरह टीआरपी भी बाजारु शक्ति पीपासुओं इच्छा से संचालित होती है। टीआरपी के जरिए व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे कुछ अभिजन अपनी शक्ति पीपासा को शांत करने के लिए संपूर्ण देश की सांस्कृतिक हत्या कर देने पर उतारु हैं। अघोर तंत्र में नर बलि दी जाती है , टीआरपी तंत्र में ‘सांस्कृतिक बलि’ दी जा रही है। अघोर तंत्र ने आध्यात्मिक विकास के कुछ भ्रामक संकेतक गढे़ थे और अपने हितों के अनुरुप सत्य की सीमाएं भी निर्धारित की थीं। टीआरपी ने मीडिया की स्थिति के आकलन के लिए भ्रामक संकेतकों को गढ़ा है और संपूर्ण सत्य को बाजारु सत्य के खांचे में फिट करने की कोशिश कर रहा है। टीआरपी के जरिए खुरदुरे सत्य को नकारने की कोशिश हो रही है। अघोर तंत्र की तरह टीआरपी भी सम्मोहन पर बहुत बल देती है। अघोर तंत्र में सम्मोहन को एक सिद्धि माना जाता है और उसके जरिए जनता को प्रभावित करने की कोशिश होती है। टीआरपी भी बाजारु मूल्यों के प्रति एक सम्मोहन रचती है। इसके जरिए भारतीयों को उपभोक्तावादी जीवनशैली और जीवनदर्शन की तरफ सम्मोहित किया जा रहा है।

टीआरपी की जरिए सम्पूर्ण देश की‘सास्कृतिक बलि’ कैसे दी जा रही है, इसके लिए कुछ आंकडों को समझना आवश्यक होगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुल 24 करोड़ घर हैं। इन घरों में लगभग 14 करोड़ टेलिविजन सेट लगे हुए हैं। इन 14 करोड़ टेलिविजन सेट में से केवल 10 हजार टेलिविजिन में ऐसे उपकरण लगे हुए हैं जो यह बताते हैं कि दर्शक किस समय, कौन सा कार्यक्रम देख रहा है अर्थात 0.00714 प्रतिशत टेलिविजन सेटों में ही टीआरपी संकेतक लगे हुए होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लगभग 14 हजार टेलिविजन में से किसी एक टेलिविजन मंे ही टीआरपी संकेतक लगे हुए होते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण और मजेदार तथ्य यह है कि अधिकांश टीआरपी संकेतक उन टेलिविजन में लगे हैं जिनकी खरीद या बिक्री शहरी क्षेत्रों में हुई है। सीधा सा मतलब यह है कि टीआरपी संकेतक  से युक्त टेलिविजन शहरी क्षेत्रों तक ही सिमटे हुए हैं।

टीआरपी संकेतकयुक्त टेलिविजन सेटों के शहरों तक सीमित होने के कारण टीआरपी शहरी दर्शकों की पसंद को ही पूरे भारत की पसंद बनाकर अपने आंकडों में परोसती है। अब यह बहुत सामान्य सी बात है कि उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के दर्शकों की कार्यक्रम पसंद  मध्य वर्ग , निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग की कार्यक्रम पसंद से बहुत अलग होगी। औपनिवेशिक शासनकाल की बदौलत घर कर चुकी आत्महीनता के कारण उच्च वर्ग , उच्च मध्यवर्ग में सांस्कृतिक संवेदनशीलता का नितांत अभाव है। मध्य वर्ग भारतीयता और पश्चिमी मूल्यों में सामंजस्य बैठाने की कोशिश में‘त्रिशंकु’की स्थिति में है जबकि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग भारतीय संस्कृति के प्रति आग्रही है। केवल शहरी दर्शकों की पसंद को पैमाना बनाकर उसे सम्पूर्ण भारतीय दर्शकों पर थोपना पश्चिम को भारत पर थोपने के समान है। टीआरपी तंत्र सम्पन्न शहरी ‘इण्डिया’को विविधतायुक्त ‘ भारत’ का प्रतिनिधि बनाकर पेश करता है और यही इसकी सबसे बडी कमी है।

टीआरपी उस वर्ग की प्राथमिकताओं और पसंदगी को दरकिनार करने की साजिश है , जो भारतीयता का प्रतिनिधित्व करता है। यह बाजारु मूल्यों को जबरदस्ती थोप रहे मीडिया को यह कहने का अवसर देती है कि पूरा भारत क्रिकेट , क्राईम और काॅमेडी ही देखता है ,सनसनी और अपराध ही देखता है। बाद में मीडिया दर्शकों की पसंद के नाम पर अधिक सनसनीखेज कार्यक्रमों के निर्माण की एक श्रृंखला प्रारम्भ होती है। बाजारवादी मूल्यों पर आधारित कार्यक्रमों की यह श्रृंखला भारतीयता पर विश्वास करने वाले लोगों पर दबाव बढाती है , उन्हें प्रेरित करती है  कि वह भी ‘मुख्यधारा’ की उस उपभोक्तावादी जीवनशैली और जीवनदर्शन को अपनाए जिसे अपनाकर शेष भारत  ‘आधुनिक’ बन चुका है। यह भारतीयों में भारतीयता के प्रति संदेह पैदा और उनकी आस्था को डिगाने का एक षडयंत्र है। टीआरपी एक सांस्कृतिक साजिश है, और  आंतरिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को संभव बना रही है। आंतरिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद ,वैश्विक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का ही एक नया आयाम है । इसके अंतर्गत किसी बाहरी रोल माॅडल को थोपने के बजाय किसी देश में उपभोक्तावाद को पूरी तरह से अपना चुके वर्ग अथवा व्यक्ति को ‘रोल माॅडल’मानकर पूरे देश पर थोपने की कोशिश की जाती है।

भारत मे टीआरपी के आकलन का काम ए.सी.नीलसन नामक एक ग्लोबल मार्केट रिसर्च एजेंसी करती है। ए.सी. नीलसन के भारतीय संस्करण को टैम (टेलिविजन आडिएंज मेजरमेंट)के नाम से जाना जाता है। यह अंतर्राष्ट्रीय पूंजी से पोषित  है और बाजारु नियमों से संचालित होता है। बाजारु हितों की पूर्ति के लिए यह तंत्र आंकडो की जादूगरी और हेराफेरी भी करता है। टैम-टीआरपी के आकंडों के प्रति संदेह के कई कारण हैं। टैम के आंकडो पर संदेह इसके कम सैंपल साईज( बहुत टेलिजिवन सेट में टीआरपी संकेतकों का लगाना) और सैंपल एरिया ( टीआरपी संकेतकों का शहरों तक सीमित होना ) को लेकर तो उठते रहे है। इसके अजीवोगरीब आंकडों को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। टैम की रेटिंग की विश्वसनीयता  अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों  जब सूचना प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने टैम के आंकडों को लेकर सवाल उठाए और दर्शकों के पसंद के आकलन के लिए एक निष्पक्ष तंत्र की आवश्यकता बतायी तो रातोंरात  दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल की टीआरपी में जबरदस्त उछाल आ गया । बाद में मामला ठंडा होने पर दूरदर्शन की टीआरपी फिर से नीचे आ गयी। यह एक उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि टैम-टीआरपी के आंकडे फर्जी होते हैं, जिसका उद्देश्य दर्शकों की पंसद का आकलन नहीं बल्कि बाजारु आकाओं की हितों की पूर्ती करना है।

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि दूरदर्शन प्रसारण को प्रारम्भ होने  के 50 वर्ष बाद भी अभी तक भारत  टेलिविजन से प्रसारित कार्यक्रमों की पंसदगी के आकलन के लिए कोई सार्वजनिक और निष्पक्ष तंत्र नहीं खडा कर पाया है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में जब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सूचनाएं कूटनीतिक हथियार की  शक्ल अख्तियार  कर चुकी हैं और उन्मुक्त बाजार पूरी दुनिया में उपभोक्तावादी जीवनशैली को एक सर्वमान्य और अविवादित जीवनशैली के रुप में थोपने का प्रयास कर रहा है , कार्यक्रमों के पंसदगी के आकलन के लिए निष्पक्ष और सार्वजनिक तंत्र बनाए जान का प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। बाजार से प्रेरित और पोषित वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की परिघटना को जन्म दिया है। सहज और संतुलित मूल्यों पर आधारित विश्व की अधिकांश संस्कृतियां बाजारु सांस्कृतिक आक्रमण से दम तोड रही हैं और विश्व की सांस्कृतिक विविधता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। सूचना सम्प्रेषण और मनोरंजन जगत को अपनी मिट्टी से जोडे रख कर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद पर अंकुश लगाया जा सकता है। और इसके लिए यह आवश्यक है कि सूचना और मनोरंजन के क्षेत्र मंे दर्शकों की पसंद के निर्धारण का काम बाजारु एंजेसियों के हाथों में सौपने के बजाय एक सार्वजनिक और निष्पक्ष तंत्र को सौपा जाए।

दर्शकों की पसंद के निष्पक्ष आकलन के लिए सार्वजनिक तंत्र के अलावा कुछ चीजें भी आवश्यक हैं । पहला यह कि टीआरपी रेटिंग के आंकडे साप्ताहिक नही बल्कि त्रैमासिक अथवा अर्द्धवार्षिक अंतराल पर जारी किए जाएं। साप्ताहिक आंकडे मीडिया में बदहवासी और भागमभाग की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। पूरा मीडिया कुछ सफल फार्मूलों पर चलने के लिए बाध्य होता है क्योंकि सार्थक और गम्भीर प्रयोगों के लिए उसके पास समय ही नहीं होता । त्रैमासिक अथवा अर्द्धवार्षिक आकलन व्यवस्था से आंकडों की वस्तुनिष्ठता पर भी किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पडेगा क्योंकि टेलिविजन पर प्रसारित होने वाले अधिकांश कार्यक्रम की समयावधि कम से कम 6 महीने तो होती है । खबरिया  चैनलों में समसामयिक खबरों को छोड दे तो अधिकांश कार्यक्रम सालोंसाल चलते रहते हैं , ऐसे में त्रैमासिक आकलन व्यवस्था कम से कम खबिरया चैनलों का बदहवासी से बचाएगी और कुछ गम्भीर विषयों को उठाने के लिए प्रेरित भी करेगी। समय के उपलब्धता सम्पूर्ण खबरिया संसार को मानसिक उत्पीडन से बचाएगा और गम्भीरता की तरफ अग्रसरित करेगा ।

सैम्पलिंग के आकार और क्षेत्रफल को बढाकर भी टीआरपी को अधिक प्रतिनिधित्वयुक्त बनाया जा सकता है। प्रारम्भिक दौर में कम से कम 10 प्रतिशत टेलिविजन सेटों में  टीआरपी संकेतक लगाकर दर्शकों की वास्तविक पसंद का सही अंदाजा लगाया जा सकता है। टीआरपी को सटीक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि टीआरपी संकेतक का संजाल शहरों की परिधि से निकलकर पूरे देश में फैले । भारत एक अतिविविधता वाला देश है इसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों के दर्शकों की पसंद भी अलग है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में होते हुए भी बिहार और हरियाणा के दर्शकों की पसंद में व्यापक भिन्नता देखने को मिलती है।अब यदि दिल्ली के दर्शकों की पसंद को इन दोनो प्रदेशों की दर्शकों की पसंद माना जाएगा , तो वह हास्यास्पद भी होगा और अवास्तविक भी । इसलिए , ग्रामीण क्षेत्रों में टीआरपी संकेतकों का संजाल इसके आंकडों को वास्तविकता के करीब लाएगा।

मीडिया के अधःपतन पर विशेषज्ञ से लेकर जनसामान्य तक चिंतित है। चर्चाओं का दौर गर्म है। लेकिन टीआरपी के अघोरतंत्र पर किसी का ध्यान नहीं दिया जा रहा है ,जिसकी बाहुपाश में मीडिया जकडा हुआ है , जमीन से उखड़ा हुआ है। दर्शकों की पसंद की स्वतंत्र और सार्वजनिक आकलन व्यवस्था की स्थापना कर मीडिया को टैम-टीआरपी के अघोरतंत्री सम्मोहन से मुक्ति दिलायी जा सकती है। शायद , तब मीडिया भी कर्मयोग की सात्विक साधना करे और कर्मयोगी की तरह व्यवहार करना शुरु कर दे, जिसकी हम सब अपेक्षा रखते हैं।
































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