रविवार, 21 सितंबर 2014

व्यवस्थागत व्याख्या से मिलेगा कुंभ का अमृत


भारतीय मनीषा, परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है, कि अवधारणा से पूरी तरह सहमत नहीं है। वह इससे एक कदम आगे जाकर सातत्य के साथ परिवर्तन की अवधारणा में विश्वास करती है। परिवर्तन हवा में नहीं बल्कि सातत्य की आधारभूमि पर ही अवतरित होते हैं। इसके अलावा नए तत्वों के अवतरण को ही हम परिवर्तन नहीं मानते। इसमें रूपांतरण का आयाम भी शामिल है। जन्म-मरण और पुनर्जन्म के संदर्भों में तो परिवर्तन का मतलब ही रूपांतरण है। यह रूपांतरण शाश्वत तत्व का होता है,जो समय की मर्यादा के अनुरूप नया चोला धारण कर लेता है। आत्मा अमर है और शरीर बदलता रहता है। यह हमारी मान्यता है। यह मान्यता सातत्य के साथ परिवर्तन की अवधारणा को आध्यात्मिक पृष्ठभूमि उपलब्ध कराती है। लौकिक  परिप्रेक्ष्य और राष्ट्रीय सामाजिक जीवन में भी इस मान्यता के कई उदाहरण आज भी हमको देखने को मिलते हैं। इसीकारण,हम सामयिक अभिव्यक्ति के साथ शाश्वत तत्वों की पहचान पर भी जोर देते हैं। जब शाश्वत प्रज्ञा और सामयिक बुद्धि का संतुलन सधता है तो सुंदरता का आविर्भाव होता है। महाकवि माघ ने सुंदरता को परिभाषित करते हुए कहा है कि-
क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैती
तदैव रूपं रमणीयताया।
यदि स्थिरता को धारण करने वाला कोई तत्व क्षण-क्षण में रूपांतरण करे,नया रूप धारण करे तो वहां रमणीकता पैदा हो जाती है,सुं्दरता पैदा हो जाती है। शाश्वत को पहचानकर उसको सामयिक अभिव्यक्ति प्रदान करना भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता कही जा सकती है और कुंभ को इसी मान्यता की एक वृहद अभिव्यक्ति माना जा सकता है।
धर्म संसद का बारह-वर्षीय सत्र है कुंभ : पश्चिमी शिक्षा-व्यवस्था में पले-बढ़े अधिकांश बुद्धिजीवियों की मान्यता है कि लोकतंत्र में निहित विशेषताओं का विकास पश्चिमी देशों में हुआ है। यह वर्ग मानता है कि व्यवस्थागत मुद्दों में समाज की सहभागिता और सार्वजनिक चर्चा जैसी लोकतांत्रिक विशेषताओं का इतिहास दो सौ साल से अधिक पुराना नहीं है। परंतु यह अवधारणा सही नहीं है । भारत में लोकतांत्रिक परंपराएं लंबे समय से मौजूद रही हैं। यह अलग बात है कि यदि हम ब्रिटेन अथवा अमेरिका को केंद्र में रेखकर भारत का अध्ययन करेंगे तो ऐसी विशेषताओं की पहचान कर पाना मुश्किल होगा। पश्चिमी देशों में नीति-निर्माण की प्रक्रिया पूरी तरह राजसत्ता के हाथों में केंद्रित है। दूसरे,शब्दों में कहें तो वहां पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया पर राजसत्ता का एकाधिकार है। भारत की व्यवस्थागत संरचना पश्चिमी दुनिया से अलग है। यहां पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया बहुध्रवीय है। यह राज,समाज और धर्म में विकेंद्रित है। इन त्रिपुटी के सुंदर समन्वय से यह व्यवस्था  संचालित होती है। राजदंड पर धर्मदंड के नियंत्रण की बात राज और धर्म के संतुलन की तरफ संकेत करता है। इसी तरह पंचायत प्रणाली लोकसत्ता औश्र राजसत्ता के संबंधों की तरफ संकेत करती है।
भारतीय व्यवस्था का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मतंत्र और राजतंत्र के बीच संवाद के अवसरों की बहुलता है। इसी तरह राजतंत्र और  समाजतंत्र के बीच संवाद के अवसर भी बन जाते हैं लेकिन धर्मतंत्र और समाजतंत्र के बीच संवाद के अवसरों की संभावना स्वाभाविक रूप से नहीं बन पाती । उनका सृजन करना पड़ता है। धर्म और समाज के बीच एक नियमित अंतराल पर संवाद का सृजन हो सके ,इसके लिए ही कुंभ जैसे आयोजन अस्तित्व में आए। कुंभ  समाज और धर्म के बीच संवाद का एक वृहद प्लेटफार्म है।
कुंभ की व्यवस्थागत व्याख्या: भारतीय चिंतन सदैव से लोक और वेद के संतुलन पर जोर देता है। कुछ लोग इसी विशेषता को ऋषि और कृषि परंपरा के संतुलन के रूप में परिभाषित करते हैं। समय के कारण हो रहे बदलावों को समाज अपने ढंग से महसूस करता है और आदर्श की मर्यादाओं में रहकर नए बदलावों के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता है। परिवर्तन की बयार मर्यादा के स्तंभों को धाराशायी न कर दे, इसके लिए समाज लगभग एकदशक में कुछ सूत्रों की तलाश कर लेता है और यह चाहता है कि व्यवस्था में उनको स्थान मिले। हालांकि ये सूत्र अभिव्यक्ति के लिहाज से अनगढ़ होते हैं और कुछ हद तक अपरिष्कृत भी। लेकिन ये व्यवहारिक दृष्टि से अधिक सक्षम भी होते हैं। इन सूत्रों और समाधानों की खूबसूरती यह है कि इनकी रचना  दैनिक जीवन के झंझावातों में स्वाभाविक रूप से सृजित होते हैं। ऐसे सूत्र एकांत में पैदा होने वाले एकांगी सूत्र नहीं होते बल्कि जीवन की धूप-छाव में ,दु:ख-सुख में,उतार-चढ़ाव में पैदा होते हैं। शायद इसीलिए इनमें व्यवस्था को ठीक रास्ते पर रखने की क्षमता अधिक होती है।
धर्मसत्ता का तो ध्येय ही है-आत्मनोमोक्षार्थ जगत् हिताय च। आत्म मुक्ति का रास्ता सामाजिक कल्याण से पृथक नहीं है। इसीलिए,धर्मसत्ता की भी सामाजिक बदलावों पर बड़ी गहरी नजर होती है। वह एक परिदृश्य में हो रहे बदलावों का विश£ेषण करने में सक्षम होते है और राजसत्ता जिस शब्दावली और मुहावरों को समझती है,उनमें ही नए बदलावों को अभिव्यक्त भी कर सकती है। धर्मसत्ता का चिंतन लोकसत्ता की अपेक्षा अधिक उदात्त और आदर्शवादी होता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक हो जाता है कि धर्मसत्ता और लोकसत्ता  एकदशकीय संगम हो। ताकि यथार्थ और आदर्श का सम्मिलन हो सके। अपरिष्कृत विचारों को सुघड़ अभिव्यक्ति मिल सके। लोकसत्ता ,धर्मसत्ता के आकाश में उड़ान भर सके और धर्मसत्ता,लोकसत्ता की खुरदुरी जमीन पर चलने के कटु अनुभव से वाकिफ हो सके । एक संतुलित और समग्र विधायन के लिए धर्मसत्ता और लोकसत्ता का संगम आवश्यक है। कुंभ को एक ऐसा ही संगम माना जा सकता है।कुंभ की इस तरह की व्यवस्थागत व्याख्या परंपरा के आग्रही और आधुनिकता के दुराग्रही,दोनों को अजीब लग सकती है। यह तर्क दिया जा सकता है कि कुंभ का सम्बंध तो समुद्र मंथन और उससे उपजे अमृतकलश से है। यह भी कहा जा सकता है कि कुंभ का आयोजन ज्योतिषीय गणनाओं पर आधारित है। आधुनिकतावादी यह तर्क दे सकते हैं कि इतनी बारीक व्यवस्थागत समझ और उसके संस्थानीकरण की क्षमता भारत के पास कभी भी नहीं रही। कुंभ तो अंधविश्वास का महामेला है। इन प्रश्रों के बीच पूरी विनम्रता से यह प्रश्र भी पूछा जाना चाहिए कि क्या सैकड़ों सालों के प्रयास के बिना इस तरह के आयोजन अस्तित्व में आ सकते है? एक ऐसा आयोजन जिसकी पहुंच निरक्षर,गरीब और दुर्गम इलाकों तक है। कुंभ जैसे जटिल और वृहद आयोजन को किसी एक खांचे में रखकर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। फिर भी,एक ऐसे दौर में जब युवा पीढ़ी अपनी पहचान को नए सिरे से खोजने का प्रयास कर रही है,कुंभ पर भी नई चर्चा शुरू होनी चाहिए। 
अमृतकलश के अस्तित्व की खोज तभी सार्थक होगी जब यह भारतीय परिप्रेक्ष्य में,भारतीय दृष्टि से और भारतीय शब्दावली में की जाए। पश्चिम अगर कुंभ की जड़ों को खोजने चलेगा तो परिणाम अनर्थकारी होंगे। उसके पास वह दृष्टि ही नहीं है जो इसकी व्याख्या कर सके। वह तो कुंभ को आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ही व्याख्यायित करने की कुशलता रखता है। यही उसकी सीमा भी है। कितने लोग आए,कितने लोग गए,कितने का सामान बिका,सरकार ने कितना खर्च किया,पुलिस-प्रशासन की व्यवस्था कैसी रही,इस नजरिए से कुंभ की व्याख्या पश्चिम कर सकता है और कर भी रहा है। दुर्भाग्य से मीडिया भी अपनी व्याख्याएं इसी तर्ज पर कर रहा है। कुंभ की व्याख्या व्यवस्थागत और सांस्कृतिक नजरिए से कोई कोशिश हो रही हो ,ऐसा नहीं दिखाई देता।भारतीय दृष्टि से होने वाली व्याख्या हिसाब-किताब से आगे की व्याख्या होगी। हमारी व्याख्या के केंद्र में यह होना चाहिए कि कैसे बिना-बुलावे के लाखों-करोड़ों लोग आते हैं? कैसे भारतीय समाज में गहरे तक जड़ जमा चुकी जातिवादी व्यवस्था संगमतट और अन्यकुंभों में पहुंचकर दम तोड़ देती है। वह क्या कारण है जिसके कारण लाखों लोग कंपकंपाती ढंठ में अपनी छोटी गठरी लेकर साधुओं का सान्निध्य के जरिए पुण्य कमाने पहुंच जाते हैं? क्या कुंभ भारतीय समाज को एकसूत्र में बांधे रखने में अहम भूमिका निभाता है अथवा निभा रहा है? और क्या कुंभ के जरिए उन प्रतीकों और मान्यताओं को पुनर्जीवन मिलता है,जिन्हें हम भारतीय संस्कृति का आधार कहते हैं। पिछले दो दशकों से भारतीय लोकअनुभवों के जरिए जलसंरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय राजेंद्र सिंह कुंभ के आयोजन को एक नए परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हैं। उनका मानना है कि कुंभ समाज को नदियों के प्रति संवेदनशील बनाता है,आस्थावान बनाता है। यह लोकसंवेदना नदियों को सदानीरा और स्वच्छ बनाए रखती है। कुंभ के जरिए भारतीय समाज जल संपदा के प्रति संवेदनशील बना रहता है। राजेंद्र सिंह की अवधारणा में सत्य का कितना पुट है,इसको लेकर बहस की जा सकती है। लेकिन यह हमको कुंभ की व्याख्या का एक नया और मौलिक भारतीय परिप्रेक्ष्य जरूर उपलब्ध कराता है।
भारत को भारतीय दृष्टि से समझना और समझाना समय की सबसे बड़ी मांग है। यदि एक राष्ट्र के रूप में हम अपने अस्तित्व को अपनी दृष्टि और अपनी भाषा में समझने में सफल हो जाते हैं तो सदियों की गुलामी से हमारे भीतर पनपी आत्महीनता की ग्रंथि का अपने आप उच्छेदन हो जाएगा। कुंभ जैसे वृहत्तर आयोजन के जरिए हम स्वयं को नए सिरे से समझने की प्रक्रिया की शुरूआत कर सकते हैं। यह शुरूआत राष्ट्र और समाज जीवन के अन्य  तत्वों को भी मौलिक भारतीय दृष्टि से समझने के लिए प्रेरित करेगी। इसके जरिए हमारे सनातन पुण्यप्रवाह को अमृत की कुछ नई बूंदे मिल सकेंगी।

   



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