सोमवार, 29 सितंबर 2014

मदारी से मुद्दई बनता मीडिया


कांस्टीट्यूशन क्लब में मीडिया पर आयोजित एक संगोष्ठी में उपस्थित श्रोताओं की आलोचना से खीझकर आज तक के संपादक कमर वाहिद नकवी ने खुले मंच से कहा था कि ‘मीडिया अब मदारी बन गया है।’ एक ऐसा मदारी जो तरह-तरह के तमाशे दिखाकर लोगों का मनोरंजन करता है, लेकिन व्यक्ति और समाज के अस्तित्व को चुनौती देने वाली मूल समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत उसके पास नहीं है। और न ही इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में उसकी कोई सहभागिता है। कमर वाहिद नकवी का यह कथन प्रसिद्ध मीडिया विश्लेषक नोम चोमस्की की मीडिया के बाजारु खिलौना बनने के संदर्भ में की गई टिप्पणी में मेल खाती है। चोमस्की कहते हैं कि- अपने दर्शकों को बाजार के हाथों उपभोक्ता के रुप में बेचना अब मीडिया का प्राथमिक कार्य हो गया है।

इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में भारतीय मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस दिशा में अग्रसरित होने की कोशिश कर रहा था। खबरों के चयन और प्रस्तुतीकरण के जिस तरीके को अपनाया जा रहा था, उस पर दृष्टिपात करें तो उपरोक्त दोनों टिप्पणियां एक हद तक सही प्रतीत होती हैं। श्मशान पर किए जाने वाले विभिन्न तांत्रिक प्रयोगों और कापालिक क्रियाओं का प्रसारण ‘एक्सक्लूसिव’ खबर के रुप में हमारे खबरिया चैनल कर रहे थे। कोई बकरा शराब क्यों पी रहा है ? स्वर्ग के लिए सीढि़या कहां से निकलती हैं ? जैसे ‘महत्वपूर्ण प्रश्नों’ को लेकर हमारे खबरिया चैनल कई दिनों तक माथापच्ची करते थे। राजू श्रीवास्तव के भद्दे चुटकुले और राहुल महाजन की अश्लील हरकतें मुख्य समाचार हुआ करते थे। किसी विशेष धारावाहिक के अगले एपीसोड में सास बाहू का रिश्ता किस मोड पर पहुंचेगा, इसका कयास भी खबरिया चैनल लगाते थे। समलैंगिकता जैसे गम्भीर मुद्दों पर ‘विशेषज्ञ टिप्पणी’ के लिए समाजशास्त्रियों की बजाय सेलिना जेटलियों को आमंत्रित किया जाता था। इन महत्वपूर्ण खबरों के बीच यदि कोई रामसेतु आंदोलन हो जाता, तो पूरे देश में चक्काजाम होने तक उसके कवरेज की जरुरत नहीं समझी जाती थी। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा जैसी ‘छोटी मोटी’ घटनाएं सामाजिक मुद्दों पर गहरी नजर और पैनी दृष्टि रखने का दावा करने वाले पत्रकारों की पकड में नहीं आती थीं। जबकि इस यात्रा के जरिए साढे़ आठ करोड़ भारतीय नागरिकों ने अपना हस्ताक्षर कर गोसंरक्षण और गोसंर्वद्वन लिए राष्ट्रपति से गुहार लगाई थी। गोग्राम यात्रा को मिला जनसमर्थन उस मतसंख्या के लगभग बराबर है, जिसको प्राप्त कर कोई राजनीतिक दल केन्द्र में सत्तारुढ हो सकता है। मीडिया के तृणमूल तथ्यों के प्रति अज्ञान के अध्ययन के लिए विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा को ‘केस स्टडी’ के लिए चुना जा सकता है। वास्तव में इस दौर का मीडिया मदारी नहीं मदारी का बंदर बन गया था ।

यह सबकुछ अनवरत रुप से चल रहा था । इसी बीच कालेधन के मुद्दे को लेकर योगऋषि स्वामी रामदेव और जनलोकपाल बनाने को लेकर अण्णा हजारे मीडिया मंे अवतरित होते हैं। सम्पूर्ण मीडिया में इन दोनों व्यक्तियों और इनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के प्रति दीवानगी देखने को मिलती है। प्रोटोजोआ प्रजाति के भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्डेटा प्रजाति के स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे के मैदान में उतरने की घटना न केवल भारतीय जनता को प्रेरित करती है, बल्कि जनता को सम्मोहन में रखने वाली मीडिया को भी सम्मोहित करती है। मीडिया में आम आदमी से जुडे़ इन मुद्दों और इन मुद्दों को उठाने वाली आवाजों को पर्याप्त समय और स्थान मिलता है। साथ ही, इस मुद्दे के सतत कवरेज को लेकर मीडिया में एक सर्वसम्मति भी दिखाई दी।
आम आदमी से जुडे किसी मुददे पर सर्वसम्मति बनना भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास की एक दुर्लभतम घटना है। कभी किसी मुद्दे पर बनी भी तो वह दो चार दिनों में बिखर गई। भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया का व्यवस्था विरोध भी एक दायरे में होता रहा है। मुद्दों के आधार पर व्यवस्था को खुली चुनौती देने की प्रवृति भारतीय इलेक्टा्रनिक मीडिया में अभी तक नदारद रही है। व्यवस्था द्वारा निर्धारित दायरे में ही व्यवस्था का विरोध यह माध्यम करता रहा है। दूसरों शब्दों में कहें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया में मुद्दों को लेकर की जाने वाली ‘मुद्दई पत्रकारिता’ नहीं की जाती थी। इस पड़ाव पर मुद्दई शब्द के संदर्भ में एक तथ्य स्मरण कराते चलें कि जब कोई व्यक्ति अथवा संस्था मुद्दों के आधार पर जीवनयापन की कोशिश करता है तो शोषणकारी व्यवस्था और व्यक्तियों से उसका टकराव स्वाभाविक हो जाता है। शायद इसीलिए न्यायालय में चलने वाले मुकदमों में प्रतिपक्ष को मुद्दई और समाज में अपने दुश्मन को भी मुद्दई कहा जाता है।

स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे के संदर्भ मे पहली बार इलेक्ट्रानिक मीडिया में न केवल एक सर्वसम्मति बनी बल्कि यह लम्बे समय तक चली भी । विशेषकर अण्णा हजारे के 16 अगस्त से प्रारम्भ होने वाले अनशन के संदर्भ में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने जिस अभूतपूर्व एकजुटता का परिचय दिया और जिस तरह व्यवस्था विरोध की व्यवस्था द्वारा निर्धारित पारंपरिक चैखटों का धाराशायी किया , उससे इलेक्ट्रानिक मीडिया के बेहतर भविष्य से एक आस बंधी है।

 हम जानते हैं कि भारतीय पत्रकारिता अनुवांशिक रुप से व्यवस्था विरोधी रही है। स्वंत्रतता पूर्व की पत्रकारिता अपने तेवरदार और व्यवस्था विरोधी रवैये के लिए जानी जाती है। स्वतंत्रता के पश्चात भी ऐसे कई मौके आए जब प्रिंट मीडिया ने अद्भुत एकजुटता का प्रदर्शन किया और व्यवस्था के खिलाफ जाकर मुद्दों के उभारने का प्रयास किया । प्रिंट मीडिया के इस मुद्दई रवैये के कारण ही व्यवस्था को कई बार शीर्षासन करना पडा । अन्ना के अनशन को लेकर भारतीय इलेक्ट्रानिक मीडिया पहली बार उस ‘मोड’ में दिखी जिसकी उससे अपेक्षा की जाती रही है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया का यह व्यवस्था विरोधी ‘न्यू मोड’ न केवल आम जनता के लिए बल्कि खुद उसके स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। उलूल जलूल कार्यक्रमों  के प्रसारण से पैदा हुए विश्वसनीयता के संकट ने खुद मीडिया की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर दिया था। शायद इसी कारण नेता -अभिनेता भी बीच बहस में रुककर मीडिया को आईना दिखा देते थे । आज तक पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘सीधी बात ’ में एकबार अभिनेता शाहरुख खान ने प्रभु चावला को लगभग डांटते हुए कहा था कि आप लोग जिस तरह अपनी टीआरपी बढाने के लिए उलूल जलूल कार्यक्रम दिखाते हैं , ठीक उसी तरह हम भी फिल्म को सफल बनाने के लिए कई स्टंट करते हैं । हम और आप दोनो पैसा कमाने के लिए यह सब करते हैं। फिर आपको नैतिक प्रश्न पूछने का क्या अधिकार है। इसी तरह उदयन शर्मा की पुण्यतिथि पर आयोजित एक कार्यक्रम में कपिल सिब्बल मीडिया की क्षमताओं पर कई सवाल खडे कर दिए थे। यह बात 2009 के चुनावों के तुरंत बाद की है। ऐसा नहीं था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रभाव क्षीण हो गया था बल्कि वह इतना विखंडित था की अनेक सटीक मुद्दों पर भी उसका स्वर  ‘ मास मोबलाईजेशन’ की परिघटना को जन्म नहीं दे पाता था । जब सभी चैनलों ने एकस्वर में अन्ना के अनशन से जुडे मुद्दों को उठाया  और लगभगत 12 दिनों तक उसकी सतत कवरेज की, तब जाकर सत्ताधारियों को इलेक्ट्रानिक मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा । सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने चैनलों से सभी पक्षों को दिखलाने का आग्रह किया तो दूसरी तरफ कुछ सरकारी प्रवक्ताओं ने अन्ना की आंधी को ‘ मीडिया मैनेज्ड ’ कहकर मीडिया को ताकत को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया ।

इस पूरे प्रकरण से यह भी स्पष्ट हुआ है कि मीडिया की असली ताकत आमजनता ही है । आमजनता की आवाज को प्रतिध्वनित कर इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने व्यवसायिक हितों और सामाजिक प्रतिबद्धता को एक साथ साध सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है अन्ना के अनशन के समय उभरी मुद्दई प्रवृति  समय-समय पर मुखरित होती रहे । मुद्दई प्रवृत्ति को अपवाद की बजाय स्थायी भाव बनाकर ही मीडिया भारत की पहचान और अपनी भूमिका को  बेहतर ढंग से परिभाषित और पोषित कर सकती है ।


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