मंगलवार, 28 मई 2019

धर्मपथ और शांतिपथ के चौराहे पर गांधी


पिछली कुछ सदियों से भारत जब भी धर्म और शांति के चौराहे पर खड़ा होता है तो वह खुद को असमंजस की स्थिति में पाता है । निर्णायक क्षणों में असमंजस की स्थिति में फंसने की यह मानसिकता भारत  में गहरे तक धंसी हुई है और इसके कारण भारत और भारतीयता को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है ।

  हैरत की बात यह है कि बदलावों के दौर से गुजर रहे इस देश में अब भी यह मानसिकता यथावत बनी हुई है । अब भी यह देश धर्म और शांत के चौराहों पर खुद को असहज और असहाय महसूस करता है । पुलवामा के बाद उभरा परिदृश्य इस बात का हालिया उदाहरण है । पाकिस्तान के खिलाफ एयर स्ट्राइक करने के बाद जब दोनों देशों के बीच तनाव चरम सीमा पर पहुंच गया था तब मीडिया और नागरिक समूहों के एक धड़े ने एकाएक शांति का राग अलापना शुरू कर दिया । शांति का राग बुरा नहीं है लेकिन हर राग का एक प्रहर होता हैए एक समय होता है । बेसमय का राग बेसुरा तो होता ही है और नुकसानदायक भी । जब सत्य और धर्म का प्रश्न मुंह बाए खड़ा हो तो भारतीय परंपरा शांति दृ अशांति का कसौटी को गौण मानती रही है । शांति की परिधि में धर्म हमेशा चक्कर लगाए ए यह जरूरी नहीं है । धर्म पंथ पर शांति  . अशांति के बजाय देश दृ काल दृ पात्र का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है । इस पथ पर कुछ भी अस्पृश्य नहीं है। देेशबोध और कालबोध के हिसाब से प्राथमिकता दृ सूची में ऊपर से नीचे होता रहता है ।

भारतीय परंपरा में निर्णय लेने की मुख्य कसौटी धर्म और न्याय हैए शांति और समझौते नहीं । धर्म यदि शांतिपूर्ण तरीके से स्थापित होता है तो बहुत अच्छाए लेकिन यदि धर्म के मार्ग में शांति बाधा बनकर खड़ी हो जाए तो धर्म उस बाधा को ध्वस्त कर आगे बढ़ेए यह परंपरा का आदेश है ।

रामायण और महाभारत का यही संदेश हैए राम और कृष्ण की यही सीख है । इस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता कि धर्म के बजाय यदि शांति को तरजीह दी गई होती तो रामायण और महाभारत कभी नहीं घटित होते। गीता का तो संपूर्ण उपदेश ही प्राथमिकता सूची में धर्मपद को शांतिपथ से ऊपर रखने के लिए दिया गया है । इस परंपरा के आलोक में और ऊहापोह की वर्तमान भारतीय मानसिकता  के संदर्भो में गांधी का आकलन की यथार्थ पृष्ठभूमि तैयार होती है ।

गांधी के मानसिक स्तर पर अपने जीवन का बड़ा हिस्सा धर्मपथ और शांतिपथ के इस चौराहे पर बिताया । उनके निर्णयों और आदर्शों पर इस चौराहे की ऊहापोह की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है । वह सत्यकाम भी है और शांतिकाम भी । उनके चिंतन की मूल समस्या यह है कि वह सत्य को शांति की परिधि में ही स्वीकार करने को तैयार है । मानवीय प्रवृत्तियां और दुनियावी गतिविधियां तो यही बताती हैं कि सच को शांति के दायरे में नहीं समेटा जा सकता । गांधी जब यह कहते हैं कि ष्सत्य ही ईश्वर हैष् तो वह इस बात स्वीकार कर रहे होते हैं कि निर्णियों की अंतिम कसौटी सत्य है लेकिन जब वह यह कहते हैं कि अहिंसा एक मात्र रास्ता है तो वह सच की परिधि निर्धारित कर देते हैं । सच और शांति के अन्तर्सम्बन्धों की यह जटिलताए गांधी चिंतन को विशेषता देती है  और कुछ हद तक कमजोर भी बना देती है ।

गांधी ने भारतीय परंपरा में बदलाव करते हुए शांति को सत्य से ऊपर रखने की कोशिश की । हांलाकि वह सत्याग्रह करते दिखते हैं लेकिन केन्द्र में अहिंसाग्रह होता है ।

मूल्यों और आदर्शों को हम परंपरानुसार यथाक्रम फिर से व्यवस्थित कर सकें तो यह गांधीवादी चिंतन का परिष्कार होगा और परंपरा का पोषण भी । आज की परिस्थितियों में यह देश और समाज दोनों के लिए अधिक आवश्यक कर्म बन  गया है । हांए इस कार्य को गांधीवाद के सतही विरोध के तौर पर नहीं किया जाना चाहिए और न ही लिया जाना चाहिए । क्योंकि यह स्व.परिष्कार है और गांधी  स्व.परिष्कार  की सतत प्रक्रिया के सबसे बड़े प्रतीक ।

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