मंगलवार, 28 मई 2019

संचार.संस्कृति में संतुलन का यक्ष प्रश्न


जब विश्वसनीयता असंदिग्ध होती है तो मौन बोलने लगता है। गांधी के संदर्भों में देखें तो उन्होंने विश्वसनीयता का एक ऐसा स्तर अर्जित किया था कि उनका मौन होना भी उबाल पैदा कर देता था। विश्वसनीयता के साथ संदेश.सम्प्रेषण के सर्जनात्मक तरीके ईजाद करने की उनकी क्षमता उन्हें सर्वश्रेष्ठ संचारक बना देती है।

गांधी की संचारीय.सक्षमता इस कदर थी कि उनका मौनए उनका उपवासए उनका खानाए उनका कपड़ाए सब कुछ सार्वजनिक संदेशों को सम्प्रेषित करने का जरिया बन जाता है। दुर्भाग्यवशए उनका आकलन राजनेता समाज.सुधारकए आध्यात्मिक विभूतिए अर्थशास्त्री सभी रुपों में की गई लेकिन एक संचारक के रुप में उनकी सफलताओं पर कम ही ध्यान गया है। गांधी को राजनेता अथवा संत के रूप के समझने के साथ एक सफल संचारक के रूप में समझने की कोशिश उनके व्यक्तित्व के बुनावट की कई उलझनें सुलझा सकता है और उनकी सीमाओं और सामर्थ्य को भी अधिक स्पष्ट बना सकता है।

गांधी की संचारीय.सक्षमता केवल तकनीकी.कौशल एव भाषायी.प्रवाह पर निर्भर नहीं है। तत्कालीन भारत की सामाजिक.सास्कृतिक समझ उन्हे बेजोड़ सम्प्रेषक बना देती है। प्राय़ः नवाचार की स्वीकृति कम समय में नही होती लेकिन गांधी के संदर्भ में यह नही कहा जा सकता। इसका कारण यह था कि अधिकांश मामलों में उनका नवाचार परम्परा भंजक नही होता थाए बल्कि परम्परा को परिष्कृत और पोषित करने वाला होता था।

मसलन उस दौर में साम्यवाद का रुमानी विचार सबको सम्मोहित किए हुए था लेकिन गांधी इस शब्द जरिए आदर्श समाज का खाका लोगों को सामने नहीं रखते। उन्होने साम्यवाद की जगह रामराज्य शब्द स्वीकार किया और रामराज्य को आदर्श सामाजिक.राजनीतिक व्यवस्था के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। देखने में यह छोटा सा कदम था लेकिन ऐसे छोटे कदम ही गांधी की स्वीकार्यता को बढ़ा देते थे।  स्वाभाविक सी बात है कि भारतीय संदर्भों में रामराज्य की स्वीकार्यता और साम्यवाद से अधिक होनी थीए और यह हुई भी।

इस तरह सत्याग्रह को व्यक्तिगत सीमाओं से बाहर निकालकर सार्वजनिक आंदोलन बना देना गांधी के सर्जनात्मक संचारीय चिंतन से ही संभव हो सका। इसके पहले सत्याग्रह का उपयोग प्रायः व्यक्तिगत दायरे और धार्मिक संदर्भों में किया जाता था। गांधी जी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि सत्याग्रह से जुड़ी धार्मिक अपील लोगां को मोबलाइज कर सकती है। इसलिए उन्होंने एक रणनीति के तौर पर इसे सार्वजनिक स्तर पर अपनाने का फैसला किया। आगे की कहानी एक इतिहास है। सत्याग्रह अन्याय और औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सबसे बड़े प्रतीक के रूप में स्थापित हुआ।

गांधी के व्यक्तित्व में परम्परा और परिवेश को गढ़ने वाले शब्दों के साथ संतुलित प्रयोग करने की अद्भुत क्षमता थी। शब्दों के मूलभाव को बदले बगैर उन्हें नए संदर्भों में प्रयोग कर यथास्थिति को भंग कर देने में गांधी अतुलनीय है। परम्परा और परिवेश ने किस शब्द में कितनी ऊर्जा भरी है और सदियों से संचित शाब्दिक ऊर्जा का उपयोग समसामयिक परिप्रेक्ष्य में कहां हो सकता हैए इसको परखने में गांधी बेजोड़ है। वह सांस्कृतिक पारिस्थितिकी से परिचय को संचारीय सफलता की पूर्वशर्त मानते थे। शब्दों की आत्मा को संजोते हुए उनका कायांतरण करने की कारीगरी गांधी की सबसे मौलिक विशेषता है। और यही विशेषता उन्हें सहस्राब्दी का सबसे प्रभावी जनसंचारक बना देती है।

सांस्कृतिक.संदर्भों से उनका जुड़ाव केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को भी इस प्रकार सुगठित किया था कि उसमें सांस्कृतिक प्रतिबद्धताएं झलकती थीं। उनका मन में तो भारतीयता रची.बसी थी ही। मन.कम.कर्म का सांस्कृतिक सदर्भों के साथ यह समायोजन गांधी को असंदिग्ध विश्वसनीयता प्रदान करता था और साथा उनकी लोगों तक पहुंच को असाधारण रूप से बड़ा बना देता था।

वर्तमान संदर्भों में जब संचार और मीडिया प्रत्येक गतिविधि के केन्द्र में आ गई हैए तो गांधीवादी संचारीय दृष्टि की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। पश्चिमी चिंतन संचार को तकनीकी और भाषायी परिधि में ही समझने की कोशिश करता रहा है। भारतीय विशेषज्ञ में इस चिंतन की छाया में पले.बढे़ हैं। सांस्कृतिक सदर्भों में संचारीय.प्रक्रिया को समझने की शुरुआत भी ठीक ढंग से नहीं हो पाई है। सभ्यताओं में टकराव और पहचान के बढ़ते संकट के बीच इस संचारीय प्रक्रिया और सांस्कृतिक पारिस्थितिकी के बीच संतुलन की जरुरत और भी अधिक बढ़ गई है। इसके उलट संचारीय प्रक्रिया और सांस्कृतिक सदर्भों को एकदूसरे के आमने.सामने खड़ा कर दिया गया है।

टकराव की इस स्थिति से बाहर निकलना संस्कृति और संचार दोनों की बेहतरी के लिए आवश्यक है। यह काम ज्यादा कठिन भी नहीं है। प्रायोगिक और सैद्धांतिक स्तरों पर संस्कृति और संचार के बीच स्वर्णिम संतुलन साधने का गांधीवादी पाथेय हमारे सामने है ही।

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