गुरुवार, 30 मई 2019

सरस संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया


संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इसकी घोषणा 19 दिसम्बर 2016 को ही कर दी थी। अब इससे सम्बंधित वैश्विक कार्यक्रमों की विधिवत शुरुआत भी पेरिस स्थिति यूनेस्को हाउस से हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रत्येक वर्ष को किसी चयनित मुद्दे के ’अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाता है। इस संस्था के लिए ’अंतराष्ट्रीय वर्ष’ घोषित करना अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता को बताने और उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है।

संयुक्त राष्ट्र की इस परम्परा के लिहाज से देखें तो वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने में कोई अनूठापन नहीं दिखता। सामान्य सम-हजय तो यही बनती है कि संयुक्त राष्ट्र इस वर्ष देशज भाषाओं के संरक्षण-ंउचयसंवर्द्धन के लिए विशेष प्रयास करेगा। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे भाषायी-ंउचयसम्मोहनों और दबावों के बीच संयुक्त राष्ट्र की ऐसी पहल साहसी मानी जाएगी। लेकिन बात केवल साहस की नहीं है। संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी सम-हजय के अनुसार इस वर्ष को मनाने जा रहा है, वह उसके निर्णय को अनूठा और क्रंातिकारी दोनों बना देते हैं।

संयुक्त राष्ट ने ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के लिए जो थीम निर्धारित की है, वह अब तक की भाषायी सम-हजय को सिर के बल खड़ी कर सकती है। थीम के अनुसार ’देशज भाषाएं विकास, शांति-ंउचयनिर्माण, सुलह का उपकरण हैं।’ इस थीम की जरूरत और आशय को अधिक स्पष्ट करते हुए संयुक्त राष्ट्र एक आकार लेती भाषायी सम-हजय की तरफ संकेत करता है।

इस संस्था के ही शब्दों में कहें तो ’भाषाएं लोगों के रोजमर्रा के जीवन में संचार, शिक्षा, सामाजिक एकीकरण और विकास के उपकरण के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि लोगों की विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक इतिहास, परम्परा और स्मृति का भण्डार भी हैं। इतना मूल्यवान होने के बावजूद विश्व भर में भाषाएं खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं। इस बात को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2019 को ’देशज भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है, ताकि इनके बारे में जागरूकता पैदा हो सके। इसका लक्ष्य इन भाषाओं को बोलने वाले लोगों को लाभ पहुंचाना तो है ही, उन अन्य लोगों को भी इस बात का अहसास दिलाना है कि देशज भाषी दुनिया की सांस्कृतिक विविधता में किस कदर योगदान कर रहे हैं।’

संयुक्त राष्ट्र ने देशज भाषाएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, इसके लिए 6 कारण गिनाए हैं। संस्था के अनुसार देशज भाषाएं ज्ञान और दुनिया को सम-हजयने की एक विशिष्ट प्रणाली से हमारा परिचय कराती है। देशज भाषाएं शांति का माध्यम है, यह टिकाउ विकास, निवेश, शांति-ंउचयस्थापना और सुलह का के रास्ते खोलती हैं। भाषा मूलभूत मानवाधिकार और स्वतंत्रता है। यह सामाजिक समावेशन को ब-सजय़ावा देती है। और अंतिम यह कि यह विविधता की पोषक है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा देशज भाषाओं के पक्ष में दिए गए इन तर्कों की वजह से भाषा का कद यकायक ब-सजय़ जाता है। इस बड़े फलक पर भाषा का जुड़ाव हर उदात्त आदर्श से हो जाता है, वह मानवीय मूल्यों तक पहुंचने का प्राथमिक उपकरण बन जाती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित ’मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स’ या ’सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ के संदर्भों में भाषाओं की अहमियत ब-सजय़ जाती है। ऐसा लगता है कि भाषायी सामथ्र्य का निवेश किए बगैर किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। भाषा मूलभूत अधोसंरचना के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है।

संयुक्त राष्ट्र ने भाषायी सामथ्र्य के अनछुए लेकिन प्रभावी पहुलओं की अपनी स्वीकृति दे दी है। इसी के साथ बदलाव और टकराव की भूमिका भी तैयार कर दी है। भाषा अब जिस नए कलेवर में हमारे सामने आ रही है, उसका सामथ्र्य यदि अपने सम्पूर्ण कलाओं के साथ अवतार ले रहा है, तो इससे भविष्य में व्यापक बदलाव दिख सकते हैं। लेकिन इसके साथ टकराव के नए मोर्चे भी तैयार होंगे।

अभी तक भाषा को पहनने वाले कपड़े के तरह परोसा जाता था। जब चाहे बदल लो। वह तो अभिव्यक्त का उपकरण भर है, इसे संस्कृति, पहचान से जोड़ना मूर्खता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र तो स्पष्ट कह रहा है कि भाषा पहचान को ग-सजय़ती है और यह सांस्कृतिक स्मृतियों का सामूहिक कोश है। चुनौती इस तर्क को भी मिलेगी कि परम्परा को किसी भी भाषा में आगे ब-सजय़ाया जा सकता है, इसलिए परम्परा के आग्रही व्यक्तियों को भाषा के बारे में आग्रह नहीं रखना चाहिए।

प्रश्न उस लोकप्रिय तर्क पर भी उठेंगे, जो कहता है कि विकास की खास भाषा होती है। भाषा-ंउचयविविधता को कलह का कारण मानने वाले भी संयुक्त राष्ट्र की नई भाषायी लाइन से निराश होंगे। भाषायी मानवाधिकार और भाषायी स्वतंत्रता की संकल्पनाएं, किस कदर उठापटक पैदा कर सकती हैं, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है। अभी तक मानवाधिकार की एक खास वैश्विक भाषा है और उसी खास भाषा में दक्षता प्राप्त कर स्वतंत्र होने की घोषणा की जा सकती है।

देशज भाषाओं के बहाने ही सही, संयुक्त राष्ट्र जिस भाषायी सम-हजय को ग-सजय़ने और फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसके असर से कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। देश के भीतर भी विभिन्न मोर्चों पर इसके अलग-ंउचयअलग तीव्रता के प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। भारतीय संदर्भों में देखें तो संयुक्त राष्ट्र के नव-ंउचयभाषायी संकल्पों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में से एक मीडिया का क्षेत्र होगा। भारतीय मीडिया अब भी परम्परागत भाषायी आख्यानों से संचालित होता है। अधिकांश बिंदुओं पर उसकी दिशा संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के उलट दिखाई पड़ती है।

भाषा सम्बंधी एक आयाम का विश्लेषण भी इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा कि भारतीय मीडिया की भाषायी सम-हजय ठहर गई है। नए अध्ययनों के आलोक में वह अपनी भाषायी सम-हजय का विश्लेषण करने के लिए न तो तैयार है और न ही कहने का नया व्याकारण तैयार करने में उसकी रुचि है। मसलन, संयुक्त राष्ट्र जहां भाषा के माध्यम से शांति की संभावनाओं को तलाश रहा है। भाषा के संयमित-ंउचयसंतुलित उपयोग पर जोर दे रहा है, वहीं भारतीय मीडिया दिन-ंउचयब-ंउचयदिन कर्कश होती जा रही है। उसे लगता है कि सच चिल्लाकर-ंउचयशोर मचाकर ही सच कहा जा सकता है।

भाषायी मर्यादा का हनन भारतीय मीडिया का स्थायी चरित्र बनता जा रहा है। शोरगुल तक तो फिर भी गनीमत थी। अब तो यह घृणा के स्तर तक पहुंच गया है। इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब द क्विंट की एक पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से अमित शाह की मौत की कामना की। 16 जनवरी 2019 को अमित शाह ने ट्वीट किया कि -ंउचयमु-हजये स्वाइन फ्लू हुआ है, जिसका उपचार चल रहा है। ईश्वर की कृपा, आप सभी के प्रेम और शुभकामनाओं से शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऊंगा। इस पर द क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की मौत की इच्छा ट्वीटर पर जाहिर की।

इसी तरह द क्विंट के ही स्तंभकार विकास महरोत्रा ने 7 मार्च 2017 को ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड की तस्वीर सा-हजया करते हुए उनके मौत की कामना की थी। कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने पर जब तेजिन्दर पाल बग्गा ने सिखों की चिंताओं को आवाज दी तो एक महिला पत्रकार ने उनके मरने की कामना करते हुए उन्हें शोक संवेदना भेजी।

एनडीटीवी की राजनीतिक सम्पादक सुनेत्रा चैधरी से इससे भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। उन्होंने 3 अक्टूबर 2009 को एक ट्वीट किया था। ट्वीट नरेन्द्र मोदी को स्वाइन फ्लू होने से जुडा़ था और उसका आशय भी स्तुति मिश्रा जैसा ही था। अपने इस ट्वीट पर घिरने के बाद उनका उत्तर था कि मु-हजये ऐसा लिखने का कोई पछतावा नहीं है।

मृणाल पांडे के नाम से पत्रकारिता जगत में सब परिचित ही हैं। उन्होंने पत्रकारिता से जुड़े कई सरकारी-ंउचयगैरसरकारी पदों की शोभा ब-सजय़ाई है। एक मात्र बौद्धिक होने की आत्ममुग्धता उनमें मौक-ंउचयबेमौके दिखती रहती है। इसी कड़ी में वह प्रधानमंत्री को            ’वैशाखनंदन’ कह जाती हैं। आलोचना होने पर उन्हांेने अपनी इस गलती को भी बौद्धिकता का मायाजाल रचकर

ये उदाहरण भारतीय मीडिया की भाषायी सम-हजय पर प्रश्न जैसे हैं। संयुक्त राष्ट्र के सरस भाषायी संकल्पों के बीच कर्कश मीडिया अपनी भूमिका को नए सिरे से कैसे परिभाषित करेगी, उस पर बहुतों की नजर रहेगी। भविष्य में विमर्श और विश्वसनीयता का स्तर मीडिया की भाषायी सम-हजय पर ही निर्भर करेगा।

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