शनिवार, 3 मार्च 2012

रंगीली होली और रसहीन मीडिया

वैश्वीकरण की जीवनसंगिनी उपभोक्तावादी मानसिकता भारतीय मनीषा को यह कहकर पिछडा साबित करने की कोशिश करती रहती है कि यह रसहीन है। इसमें त्याग&तपस्या पर बहुत बल दिया जाता है और मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों की संतुष्टि के लिए स्पेस नहीं है। उपभोक्तावादी मानसिकता के इस आरोप को अंग्रजीदां बुद्धिजीवी और मीडिया बडे उत्साह के साथ स्वीकार करते है। इसी तर्क के आधार पर यह तबका वैलेण्टाईन डे न्यू ईयर पार्टी जैसे आयोजनों को तर्कसंगत ठहराने की कोशिश करता है। इसके साथ ही भारतीय जीवनशैली और जीवनदर्शन को अप्रासंगिक साबित करने की भी कोशिश की जाती है। लोगों को यह भी बताया जाता है कि भारतीय जीवनशैली को अद्यतन तथा प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसमें पश्चिमी मूल्यों एवं त्योहारों का समावेश आवश्यक है। लेकिन क्या भारतीयता सचमुच रसहीन है या बुद्धिजीवियों एवं मीडिया की आंखों पर चढा पश्चिमी चश्मा उनको भारतीय रस परम्परा का दर्शन ही नहीं करने देता। होली का त्योहार इस आरोप का उत्तर देने में सक्षम है। यह त्योहार भारतीय रस परम्परा से हमारा परिचय भी कराता है।

भारतीय मनीषियों ने ईश्वर की अनुभूति रसो वै सः के रुप में की है। चरम अनुभति को रसमय माना है । यही मनीषा ईश्वर को सच्चिदानंद भी कहती है। यानी भारतीय मानस के लिए ईश्वर और आनंद की अनुभूतियां अलग अलग नहीं हैं। होली भारतीय चित द्वारा इसी रस की स्वीकृति और अभिव्यक्ति है। होली आधुनिक बुद्धिजीवियों की उस संकल्पना पर करारा वार करती है जिसके अनुसार परम्परागत भारतीय समाज आनंद की अनुभूति से विमुख है। और इस समाज में आनंद की स्वीकृति और अभिव्यक्ति के लिए कोई स्पेस नहीं है। पश्चिमी नजरिए में रचे -पगे इन बुद्धिजीवियों को होली की रंगीनमिजाजी आकर्षित नहीं करती। जिस समाज में प्राचीनकाल से ही कौमुदी महोत्सव मनाए जाने की परम्परा रही है वह समाज रस और आनंद से विमुख कैसे हो सकता है। आज की विद्वतमण्डली यदि होली और कौमुदी महोत्सव को भूलकर वैलेण्टाइन डे को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए जरुरी मानती है तो यह उसकी आत्मविस्मृति और आत्महीनता की स्थित को ही दर्शाती है।

हां यह बात जरुर है कि भारत ने आनंद की अपनी अलग परिभाषा गढी और आनंद की अनुभूति के अपने तौर-तरीके भी विकसित किए। यह तरीके सामान्यबोध अथवा कामनसेंस पर आधारित है और सामाजिक चैखटों का भी इसमें ध्यान दिया जाता है। भारतीय लोकपरम्परा इस बात पर बल देती है कि चैकी का काम चैके पर और चैके का काम चैकी पर नहीं करना चाहिए। यह समाज व्यवस्था को बनाए रखने की दृष्टि से आवश्यक है। सामाजिक स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए रसास्वादन करना भारत की एक प्रमुख विशेषता है। पश्चिमी देश आज भी आनंद की अनुभूति के संदर्भ में व्यक्ति और समाज के बीच ऐसा संतुलन नहीं स्थापित कर सके हैं। इसीलिए अपनी आंख पर पश्चिमी चश्मा लगाए लोगों को यह बात असम्भव लगती है कि परिवार और समाज के दायरे में रहकर भी आनंद लिया जा सकता है।

बुद्धिजीवियों के इस वर्ग की मानसिकता को समझने के लिए अंग्रेजी मीडिया को केस स्टडी के रुप में लिया जा सकता है। अंग्रेजी मीडिया में अंग्रेजीदां मानिसिकता के लोग ही हावी हैं। इसीलिए अंग्रेजी मीडिया में कभी भी होली के त्योहार को आनंद के त्योहार के रुप में नहीं परोसा जाता। कुछ रंग बिरंग समाचार और चित्र जरुर चिपका दिए जाते हैं। होली का त्योहार अपने में आनंद का दर्शन समाहित किए हुए है। इस दर्शन को भारतीय संदर्भों में पहचानने और व्याख्यायित करने की कोशिश अंग्रेजी मीडिया कभी नहीं करती। बसंत क्या है इस मौसम में आम जनमानस क्यों उल्लसित होता है , उसकी बसंत ऋतु को लेकर क्या अवधारणाएं और परंपराएं हैं इन बातों से अंग्रेजी मीडिया का कुछ भी लेना देना नहीं होता।

पढे लिखे लोग भी होली के उत्साह को भांप नहीं पाते। या भांपकर भी इस लोक उत्साह को पिछडे एवं गंवारु लोगों के मन की अनगढ अभिव्यक्ति मान लेते हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है। होली सुसंस्कृत मन की अनगढ अभिव्यक्त है। भारतीय लोक परम्परा के अद्वितीय अन्वेषक विद्यानिवास मिश्र ने भारतीय लोकमानस का अवधूत भगवान शिव का प्रतिबिम्ब माना है। भगवान शिव का बाहरी रुप अनगढ है। गले में सांप है। पूरे तन भस्म से लिपटा हुआ है। भूत -बैताल उनके सभासद है ।बाहर से वह बहुत भयावह हैं। लेकिन अंतःकरण विषपायी है। भगवान शिव साक्षात योगीश्वर हैं और आशुतोष हैं। जल्दी से प्रसन्न होकर किसी को कोई भी वरदान दे सकते हैं। इसी तरह भारतीय मन बाहर से देखने में तो अनगढ लगता है लेकिन अंदर से वह सभ्य है। होली इसी भारतीय मन का एक त्योहार के रुप में पूर्ण प्रकटीकारण है।

होली उसी भारतीय लोकमानस की अभिव्यक्ति है जो अब भी परम्परा को सींच रहा है और उससे रस भी ले रहा है। होली के मन को समझने के लिए गांव का मन समझना जरुरी है। होली गंवई मन की ही अभिव्यक्ति है। गांव में आज भी किसी एक व्यक्ति के बीमार पडने पर सभी ग्रामीण हाल-चाल पूछने जाते हैं। किसी झोपडी में आग लगने पर पूरे गांव के लोग अपने बर्तन लेकर आग बुझाने का चल देते हैं। यह गंवई मन दमकल विभाग को फोन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ लेता। होली उस सामूहिक मन की अभिव्यक्ति है जो आज भी बसंत के आगमन पर बसंत और विरह के गीत गाता है। होली उन होलियारों के मन की अभिव्यक्ति है जो आज भी गांव के हर घर के सामने जाकर कबीरा कहता है। गांव की भाभियों से होली खेलने के लिए मान-मनौव्वल भी करता है और घंटो धरना प्रदर्शन भी । यह टोली तभी आगे बढती है जब घर की नई -नवेली बहू के साथ होली खेलने का मौका मिल जाए।

इन होलिहारों के होली खेलने के तरीके को आप अनगढ कह सकते हैं। ये केवल आपको रंग लगाएंगे नहीं। रंगों से आपको सराबोर कर देंगे । कभी -कभी तो दस बीस होलिहारे आपको पटक कर रंग लगाएंगे। इतना सब कुछ होने के बाद आपको गोद में उठाकर हवा में भी लहराएंगे और भावातिरेक में गले भी मिलेंगे। इसके बाद दिन के दूसरे पहर यही होलिहारे आपको प्रसिद्ध लोक कवि शारदा प्रसार सिंह की पंक्तियां नियरान बसंत कंत न पठए पतिया गाते हुए मिल जाएंगे।

इस गंवई सभ्य मन के आनंद को आज का तथाकथित सभ्य समाज कैसे समझ सकता है जो शाम को किसी से काम निकालने के लिए सुबह नमस्ते करता है। इस समाज में जैरमी भी बिना कारण नहीं होती। वैसे गंवई मन के इस होली भाव को आप क्या कहेंगे। सभ्य या असभ्य। अंगेजी मीडिया तो इसे असभ्य घोषित कर चुका है। यह सभी भावनाओं और आयोजनों को वस्तुकरण को ही सभ्यता रंगीनमिजाजी का पर्याप मानती है। शायद इसीलिए उसकी नजर में सभ्यता और रसास्वादन की निशानी मात्र वैलेण्टाईन डे के दिन उपहारों के आदान-प्रदान और ईसाई नववर्ष के दिन शराब पीकर हुडदंग मचाने में ही है।

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